शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2015

"मिड टर्म"

 "मिड टर्म" 

हरित क्रांति के वक्त खाद्यान्न की पैदावार का संकट था इसलिए रासायनिक खाद और पेस्टिसाइड को प्रोत्साहन दिया गया। लेकिन उसके दुष्परिणामों पर वक्त रहते गौर नहीं किया गया। हरित क्रांति के अगले दस साल में ही इसका बुरा असर भी दिखने लगा था।
वैज्ञानिकों ने "मिड टर्म" करेक्शन नहीं किया। इन्होंने पैदावार का जो संकट आ रहा था, उसका समाधान ज्यादा से ज्यादा रासायनिक खाद ही बता डाला।
रासायनिक खाद जमकर इस्तेमाल होने लगे और उसका परिणाम ये हुआ है कि दुनिया में आज मानव शरीर और पर्यावरण को बहुत नुकसान हो रहा है। अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान लिया गया है कि ग्लोबल वार्मिग के लिए जिम्मेदार ग्रीन हाउस गैसों में 41 फीसदी कृषि और वन का योगदान है। कृषि में होने वाले रसायनों और पेस्टिसाइडों के कारण यह हो रहा है।
जमीन की उर्वरता खत्म हो गई है। आज रासायनिक खाद नहीं डालें तो जमीन की खुद की उर्वर क्षमता तो खत्म ही हो गई है। जितना भी रासायनिक खाद डालते हैं, उसमें से 60 फीसदी पानी के साथ नीचे जमीन में जाता है। पानी में नाइट्रोजन मिलकर नाइटे्रट बनाता है और यह हमारी किडनी, लीवर के लिए हानिकारक है। यानी पानी में प्रदूषण गहरा रहा है।
इसके साथ ही यह जमीन के माइक्रोऑर्गेनिज्म को भी खत्म करता है। मसलन केंचुआ जमीन में ही पनपता था, आजकल ये खत्म हो गए हैं। इसका कारण रहा रासायनिक खाद। ये जमीन की उर्वरता बढ़ाते थे पर खेती मेंजब 120 किलो नाइट्रोजन डाला जाएगा तो जमीन का पीएच स्तर बहुत बढ़ जाता है और केंचुए समेत माइक्रोऑर्गेनिज्म नष्ट हो जाते हैं।
यूरेनियम खा रहे हैं हम
डीएपी फर्टिलाइजर में तो यूरेनियम भी पाया गया है। कोयले में जितनी यूरेनियम की मात्रा होती है, उससे दस गुणा डीएपी में होती है। यानी मानव शरीर में यूरेनियम भी जा रहा है। साथ ही कोबाल्ट, निकल भी मानव शरीर में प्रवेश कर रहे हैं। जब हम यह दूषित खाना खा रहे हैं तो इसके नकारात्मक असर होने ही हैं। इसलिए कैंसर जैसी बीमारियां बढ़ रही हैं।
रासायनिक खाद ने पैदावार तो बढ़ा दी पर खाद्यान्नों की पोषक क्षमता कम हो गई है। यही वजह है कि बच्चे कुपोषण का शिकार हो रहे हैं। गेहूं की पुरानी किस्मों में कॉपर की मात्रा अधिक होती थी।
लेकिन पैदावार बढ़ाने के चक्कर में नई किस्मे बनाई गईं और अध्ययनों में पाया गया कि कॉपर की मात्रा 80 फीसदी तक गिर गई। देसी गेहूं के अभाव में कॉलेस्ट्रॉल की मात्रा मानव शरीर में बढ़ने लगी है। इसलिए अब क्यों न लोगों को बताया जाए कि आज हमें देसी खाद्यान्न की ओर मुड़ना होगा।
99.99त्न पेस्टिसाइड पर्यावरण में
अब कीटनाशकों की बात। एक अमरीकी वैज्ञानिक हैं, डेविड पाइमेंटल। इन्होंने 1970 के दशक में एक रिपोर्ट छापी थी। इसमें लिखा गया था कि 99.99 फीसदी पेस्टिसाइड वातावरण में जाते हैं। यानी यह मालूम होते हुए कि पेस्टिसाइड वातावरण में जाएंगे और पर्यावरण एवं मानव स्वास्थ्य पर असर डालेंगे, हमने उस वक्त कोई उपाय नहीं किया।
आज भयंकर बीमारियां हम झेल रहे हैं। सिर्फ पैदावार बढ़ाने के फेर में अंधे होकर कीटनाशकों का जहर पर्यावरण और मानव शरीर में घुलने दिया। आज जब दुुनिया ग्रीन हाउस गैसों समेत तमाम बीमारियों से जूझ रही है तो क्यों न इस जहर की खेती को बंद किया जाए। जब भी विदेश से ऎसी कोई तकनीक आती है तो वह पैकेज में आती है। हमारी सरकारें उन पर सब्सिडी देती हैं और उन्हें बढ़ावा दिया जाता है। हमारी सरकारें रासायनिक खादों पर सब्सिडी देती हैं। किसानों को लुभाया जाता है। लेकिन सरकारें ऑर्गेनिक खेती पर सब्सिडी नहीं देती। इसलिए इसके महंगे होने का जुमला छोड़ दिया गया। बाजार, बैंकिंग और सरकार की नीतियां एक ही दिशा में चलती दिखाई देती हैं। मसलन, गांवों में क्रॉस ब्रीड गाय पर ही लोन दिया जाता है।
देसी गाय पर लोन ही नहीं मिलता। यही स्थिति ऑर्गेनिक खेती के साथ है। इसे बढ़ावा देने के लिए सरकार ने कुछ किया ही नहीं। रासायनिक खेती के खिलाफ ऑर्गेनिक खेती को नीतिगत, सब्सिडी और बाजार का समर्थन मिले, किसानों और लोगों को जागरूक किया जाए कि न सिर्फ स्वास्थ्य बचेगा बल्कि वातावरण भी साफ रहेगा तो इस जहर की खेती को रोका जा सकता है।
ऑर्गेनिक खेती से पैदावार कम होने की बात तो सिर्फ बहाना है। अब वैश्विक अध्ययन सामने आ चुके हैं। आईएएएसटीडी नामक अध्ययन (जिसका खुद भारत भी सिग्नेटरी है) कहता है कि हमें गैर-रासायनिक खेती पर जाना होगा। पैदावार कम होने की बात को यह रिपोर्ट भी खारिज करती है।
गैर रासायनिक पर हो सब्सिडी
रासायनिक खेती से भूमि में असंुतलन बढ़ता जा रहा है। इसमें जरूरी तत्वों की लगातार कमी होती जा रही है। आज रासायनिक खाद की बजाय देसी गाय का गोबर के इस्तेमाल पर जोर दिया जाना चाहिए। देसी गोबर बहुत लाभप्रद है। विदेशी गाय के गोबर की तुलना में इसमें 50 फीसदी ज्यादा जरूरी तत्व होते हैं। लेकिन उद्योग और मल्टीनेशनल कम्पनियां गैर रासायनिक खेती को प्रोत्साहन में अड़ंगा लगाती रही हैं।
उसका परिणाम हम भुगत रहे हैं। अमरीका में रासायनिक खेती से गैर रासायनिक खेती की ओर जाने पर सब्सिडी दी जाती है। हमारे यहां उलटा हो रहा है। भारत में सरकार सहकारिता के माध्यम से ऑर्गेनिक खेती को बढ़ावा दे सकती है।
वहां सस्ता देसी खाद्यान्न मुहैया कराया जा सकता है। अमरीका की तर्ज पर किसानों को घरेलू खाद, बायो खाद पर सहायता दी जा सकती है। देसी बीज पर सब्सिडी दी जाए। साथ ही सरकार ऑर्गेनिक खरीद की नीति भी लाए। जिस दिन किसान को मालूम लग जाएगा कि कैमिकल फर्टिलाइजर से सब्सिडी हट गई है तो वह खुद ब खुद ऑर्गेनिक खेती का रूख कर लेगा।
बदलना होगा रवैया
चंद्रभूषण, उप महानिदेशक, सीएसई
यह समझने की जरूरत है कि अगर 100 किलो कीटनाशक डाला जाता है तो उसमें 10 किलो ही लक्षित कीटों को नष्ट करता है शेष 90 किलो तो पर्यावरण में जाता है, पानी में जाता है, मिट्टी में अवशिष्ट रह जाता है। साथ ही कीटनाशकों से सिर्फ हानिकारक कीट ही नहीं मरते हैं। इससे मिट्टी में मौजूद फायदेमंद बैक्टीरिया, अर्थ वॉर्म आदि भी मर जाते हैं और एक पर्यावरणीय असुंतलन पैदा होता है।
साथ ही लंबे समय तक कीटनाशकों के इस्तेमाल से कीटों में कीटनाशक के प्रति प्रतिरोधक क्षमता भी पैदा हो जाती है, जिसके कारण कीटनाशक की मात्रा बढ़ाना होती है। मैं यह तो नहीं कहूंगा कि कीटनाशक केा पूरी तरह से प्रतिबंधित कर देना चाहिए, पर इंटीग्रेटिड पेस्ट मैनेजमेंट निश्चित रूप से आज की जरूरत है। अभी हालत यह हो गई है कि जहां 1 बार छिड़काव की जरूरत होती है वहां 20 बार छिड़काव कर दिया जाता है। इसके विपरीत इंटीग्रेटिड पेस्ट मैनेजमेंट में कीटनाशक का प्रयोग कीट नियंत्रण के लिए अंतिम उपाय होता है।
पहले जैविक कीटनाशक का प्रयोग किया जाता है। जैविक कीट प्रबंधन उपायों में अब अनेक प्रकार के फरमोन्स भी विकसित कर लिए गए हैं। फरमोन्स एक तरह के हारमोन्स होते हैं जो कीटों को दूर रखते हैं। लेकिन आज यह हो रहा है कीट प्रबंधन के लिए हमारा पहला और अंतिम उपाय कीटनाशक बन गए हैं। हम यह भी भूल जाते हैं कि कीटनाशक अंतत: जहर ही हैं।
अगर ये कीटों को मार सकते हैं तो हमारे ऊपर भी इसका नकरात्मक असर होना तय है। यह हो भी रहा है। यह कीटनाशक पानी में घुल जाते हैं। अवशिष्ट के रूप में भोजन के माध्यम से मनुष्य और पालतू जानवरों जैसे गाय, भैंस तक पहुंच जाते हैं। जो व्यक्ति कीटनाशकों का छिड़काव करते हैं वे भी उसकी चपेट में आ जाते हैं। इसका हमारे स्वास्थ्य पर गंभीर नकारात्मक असर हो रहा है। इनके कारण कैंसर जैसी गंभीर बीमारी भारत में लगातार पैर पसारती जा रही है। कई कीटनाशकों का असर मनुष्य के न्यूरो सिस्टम पर होता है।
जिसका असर नवजात बच्चों, गर्भवती माताओं पर विशेष रूप से हो सकता है। वयस्क भी इसकी चपेट में आ रहे हैं। अनेक ह्रदय संबंधी बीमारियां भी कीटनाशकों के कारण हो रही हैं। त्वचा, श्वांस संबंधी रोग भी इसके कारण होते रहते हैं। अगर इस सबकी कीमत लगाई जाए तो कीटनाशकों के फायदे से ज्यादा उसके नुकसान नजर आएंगे।
सरकारों ने अब तक कोई अध्ययन ही नहीं किया है। विदेशों में इस तरह के अध्ययन काफी हुए हैं। भारत में तो सीधे कीटनाशक छिड़काव करने से जितने एक्यूट प्वाइजनिंग के प्रकरण होते हैं उतने शायद ही दुनिया के किसी दूसरे देश में होते हों।
विविधता में पोषण
भुवनेश्वरी गुप्ता, न्यूट्रिशन एक्सपर्ट, पेटा
पश्चिम देशों के उलट भारत में शाकाहार का ज्यादा इस्तेमाल होता है। रासायनिक खेती से खाद्यान्न उत्पादन के मामले में पश्चिमी देश इसलिए चिंतित नहीं होते क्योंकि वहां लोग मांसाहार का सहारा लेकर अपने जरूरी पोषक तत्वों की पूर्ति कर लेते हैं पर भारत में शाकाहारियों के लिए यह खेती परेशानी का सबब बन जाती है। इसलिए इसका उपाय यही है कि हम न सिर्फ रसायनरहित खेती पर जाएं बल्कि खाद्यान्न में विविधता भी लाएं।
इस प्रकार हम न सिर्फ शरीर को रसायनों से बचा सकते हैं बल्कि जरूरी पोषक तत्वों की पूर्ति भी कर सकते हैं। यह साबित हो चुका है कि 100 फीसदी शुद्ध शाकाहार लेने से, जिसमें पूरी विविधता मौजूद हो तो हम स्वस्थ और मांसाहार की तुलना में अधिक पोषक तत्व ग्रहण कर सकते हैं। आजकल जितने भी वैज्ञानिक अध्ययन हो रहे हैं, वे बताते हैं कि मांसाहार और डेयरी उत्पादों के सेवन से जीवनशैली की ज्यादा गंभीर बीमारियां आती हैं।
चिकित्सक भी शाकाहार पर जोर देते हैं। विविध शाकाहार लेने से हम मांसाहार से मिलने वाले सैचुरेटेड फैट, टॉक्सिक, रसायन और हार्माेन से भी दूर हो जाते हैं। ताजे फल, सब्जी, दाल-दलहन ही मानव शरीर के लिए बने हैं और उनमें वो सब पोषक तत्व होते हैं, जो हमारे शरीर को चाहिए। ज्यादा से ज्यादा रंगीन सब्जियां खाकर हम स्वस्थ रह सकते हैं। हरी सब्जियों में आयरन, जरूरी प्रोटीन भरपूर होता है। ध्यान सिर्फ मौसम के अनुकूल हरी सब्जियां और फल को हमारी थाली में शामिल करने पर रहना चाहिए।
हमें एक या दो सब्जियों तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। हर मौसम में जो फल-सब्जियां आते हैं, उन्हें आहार में शामिल करना चाहिए। मूंग, मसूर, राजमा, छोले ये सब प्रोटीन, कैल्शियम, जिंक से भरपूर होते हैं। नट्स, नट्स ऑयल, नारियल, सोया उत्पाद, तोफू जैसे पदार्थ आहार में शामिल करने चाहिए। जितने भी शाकाहार हैं, इनमें न सिर्फ प्रोटीन और विटामिन भरपूर हैं बल्कि इनसे शरीर को नुकसान भी नहीं हैं।
भूजल भी हुआ जहरीला
स्पॉट लाइट डेस्क
भारत में कीटनाशक भूजल को किस कदर प्रदूषित कर चुके हैं इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सेंटर फॅार साइंस एंड एनवायनमेंट के 2003 में किए गए अध्ययन मे यह पाया गया था कि बोतल बंद पानी में भी कीटनाशक के अवशेष पाए गए थे।
इन अवशेषों में लिंडेन, मालाथियोन, क्लोरपाईरिफोस, डीडीटी जैसे कीटनाशकों के अवशिष्ट थे। यह सब इसलिए हुआ था क्योंकि भूजल में कीटनाशकों के अवशेष भारी मात्रा में विद्यमान हैं। ये शुद्ध पेयजल बेचने वाली कंपनियां अपनी प्लांट की जमीन से ही भूजल निकालकर उसे कथित रूप से शुद्ध कर बेच रही थीं। इसलिए इनके पानी में भी कीटनाशकों के अवशेष विद्यमान थे।
एक ब्रांड के बोतल जल में तो इतना अधिक क्लोरपाईरिफोस जैसे घातक अवशिष्ट थे जो कि कीटनाशक के रूप में उसके प्रयोग के यूरोपियन मानक से भी 400 गुना अधिक थे। यह कीटनाशक कुछ सबसे अधिक घातक कीटनाशकों में गिना जाता है। इस कीटनाशक की यह मात्रा भू्रण में भी एक बच्चे के दिमागी विकास को नुकसान पहुंचा सकता है।
भोपाल में 1995 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार हैंड पंप और कुओं से लिया गए जल के 58 प्रतिशत नमूनों में ऑर्गनोक्लोराइन कीटनाशक के अवशेष मानकों से अधिक थे। इसी तरह के परिणाम विदर्भ क्षेत्र में किए गए एक अध्ययन से मिले थे।

देविन्दर शर्मा, कृषि विशेषज्ञ

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