सोमवार, 19 जनवरी 2015

दो वक्त की रोटी के पड़े हैं लाले

पैरों पर खड़े नहीं हो पाते माता-पिता, बच्चे मजदूरी करने को मजबूरउपचार पर लाखों रुपए खर्च के बावजूद स्थिति नहीं हुई सामान्यदो वक्त की रोटी के पड़े हैं लाले


 जिला मुख्यालय से सटे तिलणी गांव के गजेन्द्र सिंह का परिवार दुखों के पहाड़ के तले दबा हुआ है। उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि एक दिन उसका परिवार अनाज के एक-एक दाने के लिए मोहताज होगा। अस्थमा की बीमारी घर कर जाने के बाद पत्नी आशा देवी के कंधों पर परिवार की जिम्मेदारी आ गई। लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। एक दुर्घटना में पत्नी की रीढ़ की हड्डी टूट गई। हालिया स्थिति यह है कि पति-पत्नी चल-फिर नहीं सकते हैं। परिवार के खातिर बच्चों ने स्कूल छोड़कर मजदूरी शुरू कर दी है।
रुद्रप्रयाग शहर से महज तीन किमी दूर तिलणी गांव में आज से कुछ वर्ष पूर्व गजेन्द्र सिंह (48) का परिवार खुशहाल था। हंसते-खेलते परिवार चल रहा था। गजेन्द्र एक छोटी सी दुकान चलाकर अपने परिवार का भरण-पोषण करता था। अचानक गजेन्द्र की तबीयत बिगड़ गई। डाॅक्टरों ने बताया कि उसे अस्थमा हो गया है। रुद्रप्रयाग और श्रीनगर में उपचार के बावजूद उसकी स्थिति में सुधार नहीं हो पाया। आज गजेन्द्र जिंदगी और मौत से जंग लड़ रहा है। अब परिवार का पूरा भार पत्नी आशा देवी ने ऊपर आ गया। खेती-बाड़ी और दूध बेचकर वह किसी तरह परिवार को पटरी पर लाई। पति तो बीमार थे, लेकिन परिवार का गुजारा चल रहा था। लेकिन एक घटना ने इस परिवार की खुशियां पूरी तरह काफूर कर दी। पिछले वर्ष फरवरी माह में आशा देवी (44) छत से नीचे गिर गई और उनकी रीढ़ की हड्डी टूट गई।
इस घटना से पूरा परिवार स्तब्ध रह गया। ग्रामीणों ने चंदा कर आशा को उपचार के लिए देहरादून के इंद्रेश हास्पिटल में भर्ती कराया गया। जहां उनका लंबा उपचार चला। डाॅक्टरों ने आशा को हास्पिटल में बेड रेस्ट की सलाह दी। आर्थिक तंगी के कारण तीमारदार उन्हें घर ले आए। लेकिन घर में देखरेख और समय-समय पर जांच न होने के कारण उनके पिछले हिस्से में घाव (बेड शोर) हो गए। स्किन गल गई। एक बार फिर ग्रामीणों ने पैसा एकत्रित कर उसे हास्पिटल में भर्ती कराया। डाॅक्टरों ने उसकी प्लास्टिक सर्जरी की। लेकिन हालत में सुधार नहीं हुआ। अब स्थिति यह है कि उनके शरीर के निचले हिस्से में पैरालाइज हो गया है। आशा के उपचार पर परिजन ग्रामीणों की सहायता से सात लाख रुपए से अधिक खर्च कर चुके हैं। अब तो उपचार के लिए उनके पास फूटी कौड़ी भी नहीं है। दोनों पति-पत्नी अपने पैरों के बल खड़े भी नहीं हो पाते हैं।
गजेन्द्र और आशा की दो बेटी और दो बेटे हैं। अपने माता-पिता की देखभाल और परिवार चलाने के लिए दो बच्चों ने पढ़ाई छोड़ दी है। सबसे बड़ी बेटी 24 वर्षीय पिंकी की शादी हो चुकी है। दूसरी बेटी ऋचा 18 वर्ष की है। ऋचा 12वीं पास कर चुकी है। परिवार की जिम्मेदारी उसके कंधे पर आने के बाद वह ग्रेजुएशन नहीं कर पा रही है। ऐसी ही स्थिति 16 वर्षीय योगेन्द्र की है। हाईस्कूल की परीक्षा पास करने के बाद उसकी पढ़ाई छूट गई है। सबसे छोटा बेटा 13 वर्षीय योगेश अभी कक्षा नौ में पढ़ रहा है। दोनों भाई-बहिन मजदूरी और दूध बेचकर अपने भाई को पढ़ाने के साथ ही अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी की व्यवस्था कर रहे हैं। ऋचा और योगेन्द्र बताते हैं कि कई बार घर में अनाज का एक भी दाना नहीं रहता। गांव वाले मदद कर रहे हैं। मां के उपचार में भी गांव के लोगों ने काफी मदद की। गांव वाले भी कब तक मदद करेंगे। आशा देवी के चेहरे पर भविष्य की चिंता साफ देखी जा सकती है। रूंधे गले से वह कहती हैं कि उनके परिवार पर न जाने किसकी नजर लग गई। बच्चे पढ़ाई करने के बजाय मजदूरी कर रहे हैं। हम पति-पत्नी अपने बच्चों पर बोझ बन गए हैं। गजेन्द्र के भाई रघुवीर कठैत का कहना है कि ग्रामीणों और हम लोगों से जो कुछ भी संभव था, हमने किया। उन्होंने स्वयं सेवी संस्थाओं से मदद की गुहार लगाई है।
रुद्रप्रयाग शहर से महज तीन किमी दूर तिलणी गांव में आज से कुछ वर्ष पूर्व गजेन्द्र सिंह (48) का परिवार खुशहाल था। हंसते-खेलते परिवार चल रहा था। गजेन्द्र एक छोटी सी दुकान चलाकर अपने परिवार का भरण-पोषण करता था। अचानक गजेन्द्र की तबीयत बिगड़ गई। डाॅक्टरों ने बताया कि उसे अस्थमा हो गया है। रुद्रप्रयाग और श्रीनगर में उपचार के बावजूद उसकी स्थिति में सुधार नहीं हो पाया। आज गजेन्द्र जिंदगी और मौत से जंग लड़ रहा है। अब परिवार का पूरा भार पत्नी आशा देवी ने ऊपर आ गया। खेती-बाड़ी और दूध बेचकर वह किसी तरह परिवार को पटरी पर लाई। पति तो बीमार थे, लेकिन परिवार का गुजारा चल रहा था। लेकिन एक घटना ने इस परिवार की खुशियां पूरी तरह काफूर कर दी। पिछले वर्ष फरवरी माह में आशा देवी (44) छत से नीचे गिर गई और उनकी रीढ़ की हड्डी टूट गई। इस घटना से पूरा परिवार स्तब्ध रह गया। ग्रामीणों ने चंदा कर आशा को उपचार के लिए देहरादून के इंद्रेश हास्पिटल में भर्ती कराया गया। जहां उनका लंबा उपचार चला। डाॅक्टरों ने आशा को हास्पिटल में बेड रेस्ट की सलाह दी। आर्थिक तंगी के कारण तीमारदार उन्हें घर ले आए। लेकिन घर में देखरेख और समय-समय पर जांच न होने के कारण उनके पिछले हिस्से में घाव (बेड शोर) हो गए। स्किन गल गई। एक बार फिर ग्रामीणों ने पैसा एकत्रित कर उसे हास्पिटल में भर्ती कराया। डाॅक्टरों ने उसकी प्लास्टिक सर्जरी की। लेकिन हालत में सुधार नहीं हुआ। अब स्थिति यह है कि उनके शरीर के निचले हिस्से में पैरालाइज हो गया है। आशा के उपचार पर परिजन ग्रामीणों की सहायता से सात लाख रुपए से अधिक खर्च कर चुके हैं। अब तो उपचार के लिए उनके पास फूटी कौड़ी भी नहीं है। दोनों पति-पत्नी अपने पैरों के बल खड़े भी नहीं हो पाते हैं। गजेन्द्र और आशा की दो बेटी और दो बेटे हैं। अपने माता-पिता की देखभाल और परिवार चलाने के लिए दो बच्चों ने पढ़ाई छोड़ दी है। सबसे बड़ी बेटी 24 वर्षीय पिंकी की शादी हो चुकी है। दूसरी बेटी ऋचा 18 वर्ष की है। ऋचा 12वीं पास कर चुकी है। परिवार की जिम्मेदारी उसके कंधे पर आने के बाद वह ग्रेजुएशन नहीं कर पा रही है। ऐसी ही स्थिति 16 वर्षीय योगेन्द्र की है। हाईस्कूल की परीक्षा पास करने के बाद उसकी पढ़ाई छूट गई है। सबसे छोटा बेटा 13 वर्षीय योगेश अभी कक्षा नौ में पढ़ रहा है। दोनों भाई-बहिन मजदूरी और दूध बेचकर अपने भाई को पढ़ाने के साथ ही अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी की व्यवस्था कर रहे हैं। ऋचा और योगेन्द्र बताते हैं कि कई बार घर में अनाज का एक भी दाना नहीं रहता। गांव वाले मदद कर रहे हैं। मां के उपचार में भी गांव के लोगों ने काफी मदद की। गांव वाले भी कब तक मदद करेंगे। आशा देवी के चेहरे पर भविष्य की चिंता साफ देखी जा सकती है। रूंधे गले से वह कहती हैं कि उनके परिवार पर न जाने किसकी नजर लग गई। बच्चे पढ़ाई करने के बजाय मजदूरी कर रहे हैं। हम पति-पत्नी अपने बच्चों पर बोझ बन गए हैं। गजेन्द्र के भाई रघुवीर कठैत का कहना है कि ग्रामीणों और हम लोगों से जो कुछ भी संभव था, हमने किया। उन्होंने स्वयं सेवी संस्थाओं से मदद की गुहार लगाई है।

शुक्रवार, 16 जनवरी 2015

तो धरती पर प्रकट होंगे केदारघाटी के पाण्डव

तो धरती पर प्रकट होंगे केदारघाटी के पाण्डव


देवभूमि के रूप में विख्यात केदारघाटी के गावांे में पौराणिक पाण्डव नृत्य का आयोजन प्रारंभ हो गया है। और संयोगवश विश्व धरोहर दिवस का आगाज भी हो रहा है। देश और दुनिया में प्राचीन और ऐतिहासिक विरासतों को संरक्षित करने के उद्देश्य से यूनस्को प्रतिवर्ष ‘ विश्व धरोहर ’ का चयन करता है। ऐसे में विश्व विरासत सूची में केदारघाटी के पाण्डव नृत्य को शामिल किया जाए तो देश और दुनिया को उत्तराखण्ड की एक महान प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर के दर्शन होंगे साथ ही केदारघाटी के सैकड़ों गांवों के लिए भी यह संरक्षण का कार्य करेगी। केदारघाटी में यह आयोजन प्राचीन समय से लोक परम्पराओं के साथ स्थानीय जनमानस की श्रुति परम्पराओं को भी सहेज रहा है।  इसी पर केंद्रित दीपक बेजवाल का यह विस्तृत आलेख। संपादक
पौराणिक मान्यता के अनुसार स्वार्गारोहण यात्रा पर जाते समय पाण्डव केदार घाटी की सुन्दरता पर मोहित हो गये थे तब पाण्डवों द्वारा अपने बाण अर्थात शस्त्रों को केदारघाटी में फेंक दिया गया था और घोषणा की मोक्षप्राप्ति के बाद भी हम सूक्ष्म रूप में प्रतिवर्ष यहां आकर अपने भक्तों की कुशलक्षेम पूछगे, इसी मान्यता के कारण साल दर साल केदारघाटी के गांवों में पाण्डव अवतरित होते है, उनके उन सूक्ष्म अवतारों के वाहक व्यक्ति नौर या पश्वा कहलाते है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी नियत होते रहते है। मान्यता है कि ये कही भी रहें पाण्डव अपनी पूजा के अवसर पर इन्हें अपने गांवों में खींच लाते है। यही कारण है कि इन दिनों प्रवासियों के ढेरों परिवार गांवों में आकर पाण्डव नृत्य पूजा में भाग लेते है। गढ़वाल में दीपावली के ग्यारह दिन बाद मनायी जाने वाली एगास बग्वाल के दिन से पाण्डवों का दिया लगना शुरू हो जाता है, और उन्हें बुलाने की स्थानीय रस्मे प्रारम्भ हो जाती है। पाण्डवों की वीरता और उनका चरित्र इस जनपद के निवासियों का आदर्श रहा है, इन आलौकिक देवताओं की गाथाऐ ढोल दमौ के साथ गायी जाती है, जिनमें पाण्डवों का जन्म, दुर्योधन द्वारा निकाला जाना, पांचाल देश पहुंचकर द्रोपदी स्वयम्वर, नागकन्या से विवाह, महाभारत युद्व, बावन व्यूह की रचना चक्रव्यूह, राज्यभिषेक, स्वार्गारोहण आदि सभी लोककथाओं के हिसाब से गायी सुनायी जाती है, यहां प्रत्येक पाण्डव या पात्र को अवतरित करने की अलग अलग थाप अथवा ताल होती है, वास्तव में ढोली इसमें सबसे अहम भूमिका निभाती है जिसकी थापों पर ही मानवों पर पाण्डव देवताओं का अवतरण होता है। पाण्डवों के जन्म के जागर गाये जाते है, जिसमें एक एक कर कुन्ती माता, पांच भाई पंडऊ, राणी द्रोपदी को बुलाया जाता है, उनके हाथों में निशान ‘बाण’ होते है, ढोल पर बजती थापों पर ही वे सभी क्रमशः आवेशित होकर गोल घेरे में नृत्य करते है।पाण्डवों के प्रति लोक में असीम आस्थाये प्रकट की जाती है, मान्यता है कि ये अत्यन्त वीर और श्क्ति प्रदाता है और मानवमात्र के दुख कष्ट को हरने के लिए पृथ्वी पर अवतरित हुऐ है। पाडंव नृत्य का आरम्भ होने की रस्में सालभर पहले से ही शुरू कर दी जाती है इस दौरान दिये का लगाये जाने के साथ पाण्डवों के नये पात्रों को नृत्य की सीख पुराने जानकार बुजर्ग देतेे है। विशेष पूजा अर्चना के साथ गांववासी एकत्रित होकर पाण्डवों के पश्वाओं के साथ अपने पुराने पाण्डव बाणों को निकालते है। जिसके बाद पवित्र स्थानों पर देवताओं और बाणों को स्नान कराया जाता है। इसके साथ ही नृत्य लीला प्रारम्भ हो जाती है, तब से लीला के दौरान ये अपने गांवों का भम्रण कर अपने थात का स्पर्श आमजनमानस, खेत खलिहानो और पशु प्राणिमात्र को देते है। इसे मौपूज कहते है इस यात्रा के स्वागत में गांवभर में ओखलियों में भूजे हुऐ धान को कूटकर चूड़े व भूजले का प्रसाद तैयार किया जाता है जिसे पाण्डवो को भेट स्वरूप अर्पित किया जाता है, पाण्डव अपने आरक्षित चैक में सर्वप्रथम नृत्य करते हुऐ सभी ग्रामीणो को आशीर्वाद देते है, उनके निशानो को पंचगव्य से स्नान कराकर उसके जल को गांवभर में छिड़का जाता है मान्यता है कि ऐसा करने से पशुओ में खुरपका रोग नहीं होता है। इसके साथ ही छाका परम्परा भी प्रारम्भ होती है जिसमें गंावों के सयंुक्त परिवार बारी बारी से पाण्डवों को अर्घ देते है, और पाण्डवों को सामुहिक भोज का निमंत्रण देते है। इसके उपरांत महीने भर तक विभिन्न घटनाओं का वर्णन नृत्य द्वारा किया जाता है। महीने भर तक गांवों में बारी बारी से बावन व्यूहों की रचना भी की जाती है।केदारघाटी में पाण्डवाणी गीतों के जानकारों और ढोलसागर के मर्मज्ञ लोकलावंतों की जुगलबंदी गढ़वाली संस्कृति को जानने वाले के लिए एक बेहतर निमत्रंण की प्रतीक बनती जा रही है। कई विदेशी मेहमान और शोधार्थीयों को पण्डव चैकों में देर रात तक असानी से बैठा देखा जा रहा है। केदारघाटी के वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी डा0 डी आर पुरोहित, कृष्णानंद नौटियाल, राकेश भट्ट, राजीवलोचन भण्डारी,  के सफल निर्देशन में प्राचीन पाण्डवाणी पंरपराओं को जीवंत करने का सफल प्रयास भी कर चुकी है। श्री विधाधर श्रीकला, उत्सव ग्रुप एवं पंचकेदार लोककला मंच द्वारा ठेठ और पारम्परिक अंदाज में दिल्ली, मुम्बई के अनेक अन्र्तराष्ट्रीय आयोजनों में केदारघाटी की इस विरासत का प्रदर्शन किया गया है।
केदारघाटी की पण्डवाणी
पण्डवाणी मण्डाण केदारघाटी की प्राचीन परम्परा है, यही से राज्य के कोने कोने में इसका प्रसार हुआ है। पाण्डवो को अवतरित कराने और नृत्यलीला के दौरान में लोकवाद्यय ढोल की अहम भूमिका रहती है। तकरीबन 16 छोप नृत्यशैलीयाँ में पाण्डव नष्त्य पूरा होता है। इसके साथ प्रत्येक गांव में पाण्डव नृत्य के अपनी-अपनी परंपराए भी होती है।
सबसे पुराने कण्डारा गांव के पाण्डव
केदारघाटी में सबसे पुराने पाण्डव गढ़वाल के ऐतिहासिक बावनगढ़ों में सबसे प्राचीन कण्डारागढ़ के है। आज भी सम्पूर्ण गढ़वाल में पाण्डव नृत्यों के सर्वाधिक पच्चीस छोप ;नृत्यशैलीयाँद्ध कण्डारा में ही आयोजित होती है।
क्या कहते संस्कृतिकर्मीकृकृ
केदारघाटी के पाण्डव उत्तराखण्ड की समृ( सांस्कृतिक विरासत है। गोत्र हत्या से मुक्ति हेतु भगवान शिव के दर्शन के लिए पाण्डवों का केदारघाटी आगमन इस परम्परा की प्राचीनता को स्वंय प्रमाणित करता है। केदारघाटी में यह आयोजन प्राचीन समय से लोकपरम्पराओं के साथ स्थानीय जनमानस की श्रुति परम्पराओं को भी सहेज रहा है। विश्व विरासत सूची में केदारघाटी के पाण्डव नष्त्य को शामिल होने से देश और दुनिया को एक महान प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर के दर्शन होंगे साथ ही केदारघाटी के सैकड़ों गांवों के लिए भी यह संरक्षण का कार्य करेगी।
देवानंद गैरोला, कण्डारा गांव
केदारघाटी में पाण्डव नृत्य और चक्रव्यूह मंचन का अनुष्ठानिक महत्व है, सदियों से यहां इसका भावपूर्ण आयोजन किया जाता रहा है। लोकधुन और लोकभाषा के साथ पाण्डवाणी की वार्ता शैली केदारघाटी की पहचान है। यदि विश्व विरासत सूची में ‘केदारघाटी का पाण्डव नृत्य’ चयन होता है तो यह विश्व की एक महान सांस्कृतिक विरासत को सम्मान देने जैसा सराहनीय कार्य होगा।
राकेश भट्ट
पाण्डव नृत्य के आयोजक

गुरुवार, 15 जनवरी 2015

मोहित ने किया उत्तराखंड का नाम रोशन

युवा सम्मानः मोहित ने किया उत्तराखंड का नाम रोशन

राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता में बेस्ट फोटोग्राफर चुने गए मोहित
गुवाहाटी में आयोजित यूथ फेस्टिवल में लिया हिस्सा
एनवाईकेएस की पत्रिका में भी छपी मोहित की फोटो

युवा कार्यक्रम एवं खेल मंत्रालय भारत सरकार और खेल एवं युवा कल्याण विभाग असम सरकार की ओर से गुवाहाटी (असम) में आयोजित 19वें यूथ फेस्टिवल में रुद्रप्रयाग जिले के युवा फोटोग्राफर मोहित डिमरी ने उत्तराखंड का नाम रोशन किया है। फोटोग्राफी में बेस्ट आॅफ थ्री प्रतियोगिता में उनका चयन होने पर उन्हें पुरस्कृत किया गया। यूथ फेस्टिवल में पूरे देशभर के अलग-अलग राज्यों से 21 फोटोग्राफर पहुंचे हुए थे। मोहित को पुरस्कार मिलने पर विभिन्न संगठनों ने इसे युवाओं के प्रेरणास्रोत बताते हुए उन्हें बधाई दी है।
दरअसल, नेहरू युवा केन्द्र संगठन की ओर से प्रत्येक वर्ष नेशनल यूथ फेस्टिवल का आयोजन किया जाता है। इस बार गुवाहाटी में यह फेस्टिवल आयोजित हुआ। जिसमें देश भर के अलग-अलग राज्यों से युवाओं ने प्रतिभाग किया। फोटोग्राफी में उत्तराखंड से मोहित डिमरी का चयन हुआ था। फोटोग्राफी प्रतियोगिता के लिए देश भर से कुल 21 युवा फोटोग्राफरों ने हिस्सा लिया। प्रतियोगिता के तहत फोटोग्राॅफरों को अनेकता में एकता की थीम दी गई। नियमानुसार प्रत्येक फोटोग्राॅफरों ने अपनी तीन बेस्ट फोटो निर्णायक मंडल को उपलब्ध कराई। मोहित की फोटो बेस्ट फोटो के रूप में चयनित की गई। इस फोटो की आयोजक मंडल ने भी प्रशंसा की और इसे अपनी पत्रिका में प्रकाशित किया। गुवाहाटी से वापस लौटने के बाद मोहित ने बताया कि यूथ फेस्टिवल में प्रतिभाग करना उनके जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा। फेस्टिवल के दौरान काफी कुछ सीखने को मिला। अन्य राज्यों के युवा फोटोग्राॅफरों ने उनका पूरा सहयोग किया। उन्होंने बताया कि फोटोग्राफी के फील्ड में युवा अपना करियर बना सकते हैं। जल्द ही राष्ट्रीय स्तर पर एक फोटोग्राफी ग्रुप तैयार कर दिया जाएगा। इसमें नए-नए फोटोग्राफरों को जोड़कर उन्हें फोटोग्राफी की विधाएं सिखाई जाएंगी।
नेहरू युवा केन्द्र के जिला समन्वयक डाॅ मुकेश डिमरी ने बताया कि मोहित ने राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता में अपना बेस्ट देकर उत्तराखंड को पहचान दिलाई है। अन्य युवाआंे को भी उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए। उन्होंने कहा कि अच्छा वातावरण और दिशा-निर्देशन से ही जीवन में सफलता मिलती है। उत्तराखंड में प्रतिभाओं की कमी नहीं है। जरूरत है उनको तलाशने की। 

बुधवार, 14 जनवरी 2015

नेगी को सौंपी गई कांग्रेस प्रदेश प्रवक्ता की कमान

नेगी को सौंपी गई कांग्रेस प्रदेश प्रवक्ता की कमान 


कांग्रेस वरिष्ठ नेता सूरज नेगी को मीडिया में संगठन की बात मजबूती से रखने के लिए कांग्रेस प्रदेश प्रवक्ता की कमान सौंपी गई है। इससे पूर्व श्री नेगी युवा कांग्रेस प्रवक्ता की बागडोर संभाल चुके हैं। उनके कार्यकाल से खुश होकर प्रदेश हाईकमान ने उन्हें ये जिम्मेदारी सौंपी है।
प्रदेश कांग्रेस कमेटी के कार्यक्रम प्रभारी राजेन्द्र शाह ने बताया कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष किशोर उपाध्याय ने मीडिया में पार्टी का पक्ष रखने के लिए प्रवक्ताओं के पैनल की नियुक्ति की है, जिसका विस्तार करते हुए वरिष्ठ कांग्रेस नेता सूरज नेगी के नाम को सम्मिलित किया गया है। उन्होंने अपेक्षा की कि श्री नेगी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के दिशा-निर्देशों के अनुरूप मीडिया में पार्टी का पक्ष मजबूती से रखने का कार्य करेंगे। श्री नेगी पार्टी में छात्र जीवन से लेकर युवा कांग्रेस एवं जिला स्तर पर भी पार्टी में विभिन्न पदों पर रहकर पार्टी की नितियों को जन-जन तक पहुंचाते रहें हैं। जिसके उपरान्त प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष किशोर उपाध्याय द्वारा सूरज नेगी को प्रदेश प्रवक्ताओं के पैनल में नियुक्ति किया गया है। श्री नेगी को प्रदेश प्रवक्ता की कमान सौंपे जाने पर पार्टी कार्यकर्ताओं में खासा उत्साह बना हुआ है। कांग्रेस प्रदेश प्रवक्ता सूरज नेगी ने कहा कि जो जिम्मेदारी संगठन ने उन्हें सौंपी है, उसका वह ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा व सहजता से निर्वहन करेंगे। पार्टी की रीति-नीतियों को जन-जन तक पहुंचाने के साथ ही मीडिया में पार्टी का पक्ष भी मजबूती के साथ रखा जायेगा। उनके प्रदेश प्रवक्ता बनने पर जिले के कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने खुशी व्यक्त कर प्रदेश हाईकमान का आभार जताया है।
प्रदेश कांग्रेस कमेटी के कार्यक्रम प्रभारी राजेन्द्र शाह ने बताया कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष किशोर उपाध्याय ने मीडिया में पार्टी का पक्ष रखने के लिए प्रवक्ताओं के पैनल की नियुक्ति की है, जिसका विस्तार करते हुए वरिष्ठ कांग्रेस नेता सूरज नेगी के नाम को सम्मिलित किया गया है। उन्होंने अपेक्षा की कि श्री नेगी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के दिशा-निर्देशों के अनुरूप मीडिया में पार्टी का पक्ष मजबूती से रखने का कार्य करेंगे। श्री नेगी पार्टी में छात्र जीवन से लेकर युवा कांग्रेस एवं जिला स्तर पर भी पार्टी में विभिन्न पदों पर रहकर पार्टी की नितियों को जन-जन तक पहुंचाते रहें हैं। जिसके उपरान्त प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष किशोर उपाध्याय द्वारा सूरज नेगी को प्रदेश प्रवक्ताओं के पैनल में नियुक्ति किया गया है। श्री नेगी को प्रदेश प्रवक्ता की कमान सौंपे जाने पर पार्टी कार्यकर्ताओं में खासा उत्साह बना हुआ है। कांग्रेस प्रदेश प्रवक्ता सूरज नेगी ने कहा कि जो जिम्मेदारी संगठन ने उन्हें सौंपी है, उसका वह ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा व सहजता से निर्वहन करेंगे। पार्टी की रीति-नीतियों को जन-जन तक पहुंचाने के साथ ही मीडिया में पार्टी का पक्ष भी मजबूती के साथ रखा जायेगा। उनके प्रदेश प्रवक्ता बनने पर जिले के कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने खुशी व्यक्त कर प्रदेश हाईकमान का आभार जताया है।

शुक्रवार, 9 जनवरी 2015

एक किरण’

‘रोशनी की एक किरण’
विस्थापन व पुनर्वास के लिए बने ठोस नीतिः अजेंद्र


लगातार प्राकृतिक आपदाओं के संकट से जूझने वाले उत्तराखंड के आपदा पीड़ितों के विस्थापन व पुनर्वास की लड़ाई आखिरकार हाई कोर्ट तक पहुंच गयी है। आपदा पीड़ितों के विस्थापन व पुनर्वास के लिए लम्बे समय से संघर्घरत केदारघाटी विस्थापन व पुनर्वास संघर्ष समिति के अध्यक्ष अजेन्द्र अजय ने प्रदेश सरकार पर आपदा पीड़ितों के प्रति संवेदनहीन रुख अपनाने का आरोप लगाते हुए प्रभावितों के विस्थापन व पुनर्वास के लिए ठोस नीति बनाये जाने की मांग की है। हाईकोर्ट के कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश वीके बिष्ट व न्यायमूर्ति यूसी ध्यानी की संयुक्त खंडपीठ ने याचिका को स्वीकारते हुए प्रदेश सरकार को इस मसले पर चार हफ्ते में अपना जबाब दाखिल करने के निर्देश दिए हैं। उल्लेखनीय है की उत्तराखंड में प्रतिवर्ष दैवीय आपदा में बड़ी भारी संख्या में जनहानि होती है। सैकड़ों लोग बेघर होते हैं और तमाम लोगों का रोजगार नष्ट हो जाता है। प्रदेश सरकार नाममात्र का मुआवजा वितरित कर पीड़ितों की तरफ से मुंह मोड़ देती है। लिहाजा, आपदा पीड़ित दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हो जाते हैं और उन्हें शरणार्थियों सा जीवन जीने को मजबूर होना पड़ता है। वर्ष 2013 के जून माह में उत्तराखंड की केदारघाटी समेत अन्य हिस्सों में आई हिमालयी सुनामी ने यहाँ के जनमानस को हिला कर रख दिया। आपदा के बाद प्रदेश सरकार के साथ ही तमाम संस्थाओं आदि ने पीड़ितों के विस्थापन व पुनर्वास को लेकर कई बड़ी-बड़ी बातें और दावे किये। पीड़ितों को कई हवाई सपने दिखाए गए। मगर वास्तविक धरातल पर विस्थापन व पुनर्वास का मसला सपना ही बन कर रह गया। आपदा पीड़ितों के संगठन केदारघाटी विस्थापन व पुनर्वास संघर्ष समिति द्वारा इस मसले को लेकर लगातार आंदोलन आदि भी किये जाते रहे। पर, सरकार के स्तर से हर बार पीड़ितों को आश्वासन की घुट्टी ही पिलाई जाती रही। आखिरकार केदारघाटी विस्थापन व पुनर्वास संघर्ष समिति के अध्यक्ष अजेन्द्र अजय ने पिछले दिनों इस मामले में नैनीताल हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर कर प्रदेश में आपदा पीड़ितों के विस्थापन व पुनर्वास के लिए एक ठोस नीति बनाये जाने की गुहार लगायी है। अपनी याचिका में अजेन्द्र ने उत्तराखंड में प्रतिवर्ष हो रही भीषण प्राकृतिक आपदाओं का हवाला देते हुए सरकार पर पीड़ितों की अनदेखी करने का आरोप लगाया है। याचिका में कहा गया है की आपदा के पश्चात सरकार खानापूर्ति के अंदाज में पीड़ितों को नाममात्र की राहत राशि वितरित करती है और फिर उन्हें उनके भाग्य भरोसे छोड़ दिया जाता है। प्रदेश सरकार द्वारा जारी शासनादेशों का हवाला देते हुए याचिका में राहत के मानकों पर भी सवाल उठाया गया है। सरकार द्वारा राहत के मानक हर साल मनमाफिक तरीके से बदल दिए जाते हैं। आरोप लगाया गया है की सरकार के मुआवजा वितरण के मानक भेदभावपूर्ण हैं, जो की पीड़ितों के साथ घोर अन्याय है।  याचिका में अजेन्द्र ने सूचना के अधिकार के तहत ली गयी जानकारी का हवाला देते हुए कहा है की वर्तमान में प्रदेश में तीन सौ से भी अधिक गावं विस्थापन की कगार पर खड़े हैं, किन्तु सरकार अभी तक इन गावों का ठीक से सर्वेक्षण तक नहीं करा सकी है। कई गांव वर्षों से पुनर्वास की बाट जोह रहे हैं। याचिका में विस्थापन व पुनर्वास के मुद्दे पर प्रदेष सरकार की मंशा पर सवाल उठाते हुए कहा गया है की लगातार आपदाओं के बावजूद सरकार पीड़ितों के विस्थापन के लिए ना ही खुद कोई योजना बना सकी है और ना ही प्रदेश सरकार ने इस मामले में केंद्र सरकार को कोई तकनीकी प्रस्ताव भेजा है। विस्थापन व पुनर्वास के नाम पर वर्श 2012 में तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने एक पत्र तत्कालीन प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह को भेजा था। इसी प्रकार एक पत्र जून 2014 में वर्तमान मुख्यमंत्री हरीश रावत ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रेषित किया है। तकनीकी प्रस्ताव भेजने के बजाय केवल पत्र लिख कर प्रदेश सरकार ने आपदा पीड़ितों के प्रति अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली। याचिकाकर्ता ने न्यायालय से टीएचडीसी, हरियाणा सरकार व केंद्र सरकार की विस्थापन व पुनर्वास नीति का हवाला देते हुए उत्तराखंड सरकार को इसी तर्ज पर विस्थापन व पुनर्वास नीति बनाने के निर्देश देने की मांग की है। इसके साथ वर्ष 2013 में आयी आपदा में बेघर हुए लोगों के लिए विश्व बैंक सहायतित आवास नीति को भी चुनौती दी है। याचिका में कहा गया है की 2013 के पीड़ितों के लिए प्रदेश सरकार ने चार किश्तों में पांच लाख रूपये देने की योजना बनायीं है। पहली किश्त के रूप में पीड़ितों को डेढ़ लाख रूपये की किश्त जारी कर दी गयी है। बाकी किश्त जारी करने से पहले पीड़ितों को प्रस्तावित आवास निर्माण की भूमि की रजिस्ट्री आदि जैसी शर्तें रखी गयी हैं। ऐसे में उन पीड़ितों के सामने समस्या खड़ी हो गयी है, जिनके पास आपदा के बाद एक इंच भूमि भी नहीं बची है। पीड़ितों को अब प्रशासन द्वारा नोटिस जारी किये जा रहे हैं और उनसे सहायता राशि की वसूली की धमकी दी जा रही है। अपनी याचिका में अजेन्द्र ने केदारघाटी में जल विद्युत परियोजना का निर्माण कर रही एलएनटी कम्पनी से पीड़ितों को मुआवजा दिलाये जाने की मांग भी उठाई है। याचिका में कहा गया है की प्रदेश सरकार कम्पनी द्वारा आपदा पीड़ितों की मदद के लिए स्वीकृत धनराशि को पीड़ितों के बीच बाँटने के बजाय सड़क व पुलों के निर्माण में खर्च करने के लिए जोर दे रही है। बहरहाल, इस याचिका के दाखिल होने से लगातार आपदा की मार झेल रहे  आपदा पीड़ितों में रोशनी की एक किरण जली है।

गुरुवार, 8 जनवरी 2015

गाँव, खेत, खलिहान के बदले एक-एक नौकरी!

उत्तराखंड की कैबिनेट बैठक में लिये गये सूक्ष्म एवं अति लघु विधुत परियोजनाओं तथा ईको सेंसिटिव जोन संबंधी निर्णय से तो यही होगा
गाँव, खेत, खलिहान के बदले एक-एक नौकरी!


राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों में, जहाँ लगभग 7 प्रतिशत भूमि ही खेती के लिए बची है। उसमें भी जंगल की जमीन के साथ खेती की बेशकीमती जमीन आपात्कालीन धारायें लगा कर इन परियोजनाओं के लिये अधिग्रहीत की जा रही है। टिहरी बाँध के बाद तमाम दूसरे छोटे-बड़े बाँधों से विस्थापित होने वालों को जमीन के बदले जमीन देने का प्रश्न ही सरकारों ने नकार दिया है। दूसरी तरफ विशेष आर्थिक क्षेत्र ;सेजद्ध के लिए 100-100 हैक्टेयर जमीनें विशेष छूट दरों पर उपलब्ध करायी जा रही हैं। खेती की जमीन व सिकुड़ते जंगलों पर दबाव बढ़ रहा है। औद्योगिक शिक्षा संस्थानों की कमी के चलते आम उत्तराखण्डी के पास इन क्षेत्रों में रोजगार के अवसर वैसे ही बहुत कम है, परिणामस्वरूप अकुशल मजदूरी या पलायन ही परियोजना प्रभावितों के हिस्से में आता है। हाल ही में उत्तराखंड सरकार की कैबिनेट में लिये गए निर्णय और राज्य में बाधों से होने वाले नुकसान पर केंद्रित संतोष बेंजवाल की यह खास रिपोर्ट।
जल-विद्युत परियोजनाओं से बाढ़ें, भूस्खलन, बंद रास्ते, सूखते जल स्रोत, कांपती धरती, कम होती खेती की जमीन, ट्रांस्मीशन लाइनों के खतरे, कम होता खेती उत्पादन और अपने ही क्षेत्र में खोती राजनैतिक शक्ति और लाखों का विस्थापन यानी ये उपहार हमें उत्तराखण्ड में बनी अब तक की जल-विद्युत परियोजनाओं से मिले हैं और मिलेंगे। इन सबके बावजूद बिना कोई सबक सीखे बाँध पर बाँध बनाने की बदहवास दौड़ जारी है। 28 दिसंबर 2014 को उत्तराखंड की कैबिनेट बैठक में लिये गये सूक्ष्म एवं अति लघु विधुत परियोजनाओं तथा ईको सेंसिटिव जोन संबंधी निर्णय हैं। निर्णय के अनुसार उत्तराखण्ड के अधिकांश गाड़-गधेरों पर छोटे-बड़े बाँध बनाने की तैयारी है। देशी-विदेशी कम्पनियों को परियोजनायें लगाने का न्यौता दिया जा रहा है। निजी कम्पनियों के आने से लोगों का सरकार पर दबाव कम हो जाता है, लेकिन कम्पनी का लोगों पर दबाव बढ़ जाता है। दूसरी तरफ कम्पनी के पक्ष में स्थानीय प्रशासन व सत्ता भी खड़े हो जाते हैं। साम, दाम, दंड, भेद, झूठे आँकड़े व अधूरी, भ्रामक जानकारी वाली पर्यावरण प्रभाव आँकलन रिपोर्ट, जनता को उसकी जानकारी भी नहीं मिलना। ऐसी परियोजनाओं में ऐसा ही होता है। फिर से वही कहानी कि  परियोजना वाले कहेंगे कि वह लोगों को नौकरियाँ देंगे। गाँव, खेत, खलिहान के बदले एक-एक नौकरी! कितनी नौकरियाँ मिलीं अभी तक और कितनी मिलेंगी? यह तो राम ही जाने।
यहां सबसे पहले सूबे के सीएम हरीश रावत की बात करते हैं। 28 दिसंबर 2014 को कैबिनटे बठैक के बाद मुख्यमंत्री हरीश रावत अब पूरी तरह बनेकाब हो गये हैं। वैसे भी एक साल से अधिक किसी मंत्री या मुख्यमंत्री को अपनी क्षमता दिखाने के लिए नहीं दिए जा सकते। हरीश रावत को लेकर सब को मुगालता था कि ग्रामीण पृष्ठभूमि, तूणमूल स्तर से राजनीति करने, अपनी पार्टी के भीतर विभिन्न पदों पर रहने और केंद्र सरकार में एकाधिक मंत्रालयों में काम करने का अनुभव के कारण वे उत्तराखंड के सबसे सफल मुख्यमंत्री साबित होंगे। इससे पहले किसी मुख्यमंत्री में ये सभी योग्यायें  थी तो वे नारायण दत्त तिवाडी थे। मगर शुरू में ही पृथक राज्य के धुर विरोधी रहे तिवारी नये राज्य का निर्माण करने अथवा शासन करने नहीं , रिटायमंट के दिन काटने उत्तराखंड में आए थे।
रावत सरकार के पहले  चार-पांच महीनों के कामकाज पर किसी ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया, क्योकि उन्हें विजय बहुगुणा का छोड़ा हुआ मलबा साफ करना था और उसी बीच लोकसभा या उसके बाद पंचायत चुनावों की आचार संहिता लग गईथी। अपनी सरकार के असंतुष्ट मंत्रियों से भी उन्हें बार-बार दो -चार होना पड़ रहा था। जब तक वे इनसे निपटते उन्हें गंभीर चोट लग गई। आज भी अपनी गर्दन का पट्टा उनके व्यक्त्वि का अभिन्न हिस्सा बना हुआ है। मगर अब उन्हें लेकर मोहभंग की स्थितियां पूरी तरह साफ हो गई हैं। कोई भी व्यक्त उनसे मिल कर बहुत संतुष्ट हो कर लौटता है क्योंकि वे उत्तराखंड की सारी समस्याओं को समझे भी है और उनके सामाधान में रूचि लेते भी दिखाई देते हैं। मगर अन्ततः फैसले वे वही लेते हैं, जो उनकी पार्टी के महिषसुरों अर्थात ठेकेदारों दलालो और माफियाओं के हित में होते है। इसका ताजा उदाहरण 28 दिसंबर की कैबिनेट बैठक में लिये गये सूक्ष्म एवं अति लघु विधुत परियोजनाओं तथा ईको सेंसिटिव जोन संबंधी निर्णय हैं। जल परियोजनओं को लेकर सूक्ष्म स्तर और ग्राम सभाओं तक जाने की बात हर समझदार व्यक्ति करता है। मगर जब इस सि(ांत को जमीन पर उतारने की बात आई तो रात फिर एक बार बड़ी पूजी वालों और ठेकेदारों के पक्ष में झूके। ग्रामीणों और स्थानीय समुदाय के नहीं। कैबिनेट का यह फैसला लागू हुआ तो ग्रामीण एक बार अपना अंगूठा लगा देने के बाद फिर परियोजनाओं से बाहर हो जायेंगे, शायद अपने गांवों से भी बाहर हो जायें। पानी से प्राप्त उर्जा का सारा मजा कंपनियों वाले लेगे। इससे पहाड़ी गांवों में गरीबी और पलायन का तांडव और तेज होगा। चूकि उत्तराखंड की बड़ी जल विद्युत परियोजनाओं पर दुनिया भर में विवाद उठे थे, विशेषकर जून 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद। इसीलिये रावत सरकार ने गांव वालों की आड में बड़ी कंपनियों और ठेकेदारों को उपकृत करने का यह शातिर तरीका निकाला है।
कैबिनेट का दूसरा फैसला ईको सेंसिटिव जोन को वापस लेने के लिए केंद्र सरकार से आग्रह करने के बारे में है। ईको संेसिटिव जाने को लेकर विरोध दो तरह से हो रहा है। पहला अब तक प्रदेश में अभयारण्यों आदि के रूप में जिस तरह स्थानीय मुदाय को वंचित किया गया है, उस अनुभव को देखते हुए वामपंथी सोच के लोग इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि ईको सेंसिटिव जोन को शायद स्थानीय ग्रामीण समुदाय एक बार फिर से विपरीत रूप से प्रभावित होगा । मगर ईको सेंसिटिव जोन को लेकर पूर बातचीत हुई है और न स्थितियों पूरी तरह साफ है।। ईको सेंसिटिव जोन के विरोध को लेकर जो दूसरी लाबी मुखर है, वह कांग्रेस,भाजपा और उत्तराखंड क्रांति दल आदि के भीतर बैठी ठेकेदार लाबी है, जो चाहती है कि निर्माण कार्यों को लेकर चल रही उसकी ठेकेदारी में कोई रोट-टोक न हो। वे धड़ल्ले से तथाकथित विकास कार्य करें, चाहे उसके बाद केदारनाथ जैसे एक नहीं दर्जनों हादसे हो जाये और यह पूरा पर्वतीय प्रदेश मरूभूमि बन जाये। यह ठेकेदार लाबी उत्तराखंड की राजनीति में इतनी मजबूत है कि इस नवजात प्रदेश को मजाक में ठेकेदारखंड भी कहा जाने लगा है। हरीश रावत सरकार ने इस ठेकेदार लाबी के दबाव में ही ईको संसिटिव जोन का मामला इतना अािक चढाया है। स्थानीय और ग्रामीण हितों की पैरोकार वाम ताकतों के पक्ष में नहीं । क्योंकि यदि हरीश रावत ईको संसिटिव जोन को नहीं मानते तो उन्हें यह भी तो बतलाना चाहिये कि फिर ठेकेदार लाबी को उपकृत करने के अतिरिक्त उत्तराखंड के विकास का कौन सा माडल उनके पास है।उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड राज्य में पर्यटन के नाम पर पर्यावरण की दृदृष्टि से संवेदनशील बुग्यालों को स्कीइंग क्षेत्र में तब्दील किया जा रहा है। विकास के नाम पर उपजाऊ जमीन को सीमेंट-कंक्रीट के जंगलों में तब्दील किया सड़कों का चैड़ीकरण का मामला सीधे बाँध परियोजनाओं और पर्यटन से जुड़ा है। इससे भी जंगलों एवं कृकृषि भूमि का विनाश हुआ है। हजारों-लाखों पेड़ों का कटना पर्यावरण की अपूरणीय क्षति है। पचास-साठ मीटर ऊँचे बाँधों को भी छोटे बाँधों की श्रेणी में रखकर सभी नदी-नालों को सुरंगों में डाला जा रहा है। ‘बडे़ बाँधों के अन्तर्राष्ट्रीय आयोग’ व ‘विश्व बाँध आयोग’ की परिभाषा के अनुसार 15 मीटर से ऊँचे बाँध बडे बाँधों में आते हैं। टिहरी बाँध से उपजी समस्याओं पर माननीय मुख्यमंत्री का कथन था कि टिहरी बाँध के विस्थापन को देखते हुए अब उत्तराखण्ड में बडेघ् बाँध नहीं बनेंगे। किन्तु हाल ही में राज्य सरकार द्वारा टिहरी जल-विद्युत निगम से टौंस नदी पर 236 मीटर ऊँचा बाँध बनाने का समझौता किया गया है। यह किस श्रेणी में आता है ? 280 मीटर का पंचे वर बाँध किस श्रेणी में आयेगा ?
देहरादून-दिल्ली जैसे बड़े शहरों में हो रहे पानी व बिजली के दुरुपयोग के लिए इन बाँधों का बनना कितना आवश्यक है ? देश में नई आर्थिक नीति के तहत् 8 प्रतिशत विकास दर रखने के लिए हजारों मेगावाट बिजली की भ्रमपूर्ण माँग की आपूर्ति के लिए इन सौ से अधिक परियोजनाओं का होना कितना आवश्यक है? याद रहे कि भारत का प्रत्येक निवासी लगभग 25 हजार रुपये से ज्यादा के कर्ज से दबा हुआ है। ऐसे में विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक, जापान बैंक आफ इण्टरनेशनल कारपोरेशन, अन्र्तराष्ट्रीय वित्त संस्थान व एक्सपोर्ट क्रेडिट एजेन्सी जैसे भयानक वित्तीय संस्थाओं के कर्ज में दबता जा रहा है। उत्तराखण्डी भी उनसे अलग नहीं हैं।
पहले अंग्रेजों और बाद में आजाद भारत के शासकों ने उत्तराखंड की इस विकसित होती आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था को पूरी तरह ध्वस्त करने का षड़यंत्र किया। अंग्रेजों ने उत्तराखंड के इस पर्वतीय क्षेत्र को वन आधारित कच्चे माल व सस्ते श्रम के लिए इस्तेमाल किया। तब न सिर्फ फैलते रेल लाइनों के जाल के लिए पहाड़ के जंगलों को बड़े पैमाने पर काटा गया, बल्कि सर्दियों में आग सेंकने के लिये पहाड़ के परम्परागत पेड़ों को काट कर उसका कोयला बनाया गया। साथ ही विकसित होते शहरी केन्द्रों व फौज के लिए यहाँ के युवाओं की सस्ते श्रम के रूप में सप्लाई होती रही। यह क्रम आजादी के पच्चीस साल बाद तक जारी रहा।
आज सरकारें और लोग ऊर्जा की जरूरतों का हवाला देकर पहाड़ की नदी-घाटियों को जे.पी., रेड्डी, एल.एनटी., एनटीपीसी आदि के हवाले करने, बिजली उत्पादन के नाम पर पहाड़ों व नदियों से उन्हें मनमानी करने की छूट देने की वकालत करते हैं उन्हें यह याद रखना चाहिए कि जब बिजली का आविष्कार ही नहीं हुआ था, तब पहाड़ के लोगों ने आज से एक हजार साल पहले घट ;पनचक्कीद्ध का आविष्कार कर पानी से ऊर्जा उत्पन्न करने की विधि खोज ली थी। यह विधि नदी और पहाड़ों को छेड़े बिना ही ‘रन आफ रिवर’ प(ति से ज्यादा सफल हुई थीं। पहाड़ के लोगों को यह विधि सिखाने के लिए किसी जेपी, रेड्डी, एलएनटी, एनटीपीसी को लाने की जरूरत नहीं पड़ी थी। यह इको सिस्टम को क्षति पहुँचाए बिना विकास करने का पहाड़ के लोगों का सिंचित परंपरागत ज्ञान था। आज सुरंग आधारित जिन बड़ी-बड़ी विनाशकारी परियोजनाओं को ये कम्पनियाँ बना रही हैं वो रन आफ रिवर प(ति नहीं कहलाती हैं। लोगों के इस संचित ज्ञान के आधार पर यहाँ की कृषि, पशुपालन और ग्रामीण दस्तकारी के साथ ही पनचक्की के लिए विकसित की गई रन आफ रिवर प(ति को ऊर्जा की अन्य जरूरतों के लिए विकसित कर यहाँ की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत किया जा सकता था।
राज्य बनने के बाद जल- जंगल- जमीन पर स्थानीय निवासियों के परम्परागत आधिकार बहाल करने और पारिस्थितिकीय तंत्र से ज्यादा छेड-छाड़ किये बिना विकास का वैकल्पिक ढाँचा खड़ा करने की जो जिम्मेदारी राज्य के नए नेतृत्व के जिम्मे थी, वह अपनी वर्गीय प्रतिब(ता के चलते भाजपा-कांग्रेस की सरकारें उसके विपरीत रास्ता चुनती गई। राज्य की आर्थिकी को मजबूत आधार देने के नाम पर ऊर्जा प्रदेश और पर्यटन प्रदेश के नारे गूँजने लगे। विद्युत कंपनियों की बड़ी-बड़ी मशीनों के निर्वाध आवागमन के लिए सड़कों को चैड़ा कर इन सड़कों और सुरंगों का सारा मलवा पेड़ों सहित नदियों में डाल दिया गया। राज्य में राजस्व वसूली के बड़े लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए शराब के व्यवसाय को मुख्य व्यवसाय का दर्जा दे दिया गया। राज्य के सकल घरेलू उत्पाद और प्रति व्यक्ति औसत आय को बढ़ाने के नाम पर जमीनों की लूट का कारोबार पनपाया गया। नतीजे के तौर पर नदी-घाटियों पर विद्युत कंपनियों का कब्जा और मनमानी बढ़ती गई। पर्यटन व्यवसाय और ‘इको टूरिज्म’ को बढ़ावा देने के नाम पर सड़कों, नदी घाटों और जंगलों पर सत्ता के संरक्षण में कब्जा करने की होड़ में कांग्रेस, भाजपा, बसपा, यूकेडी और सपा जैसी कोई भी पार्टी पीछे नहीं रही। अब तक राज्य में विद्युत कम्पनियाँ 1700 वर्ग किलोमीटर जंगल साफ कर चुकी हैं। विभिन्न योजनाओं के लिये राज्य सरकार 17 हजार वर्ग किलोमीटर वनभूमि को हस्तांतरित कर चुकी है। मगर इसके बदले दोगुने क्षेत्र में वृक्षारोपण की अनिवार्य शर्त की खानापूर्ति के लिए दूसरे राज्यों में दर्शाकर आबंटित धन की जमकर लूट की गई। गंगा नदी के सौ मीटर बाहर तक कोई निर्माण न करने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद हरिद्वार से लेकर गंगोत्री-केदारनाथ तक गंगा व अन्य नदियों के जल को छूते हुए होटल व्यवसायियों, धार्मिक संस्थाओं और सरकारी विभागों द्वारा भवन निर्माण 15 जून 2013 तक बेरोकटोक जारी था। राज्य सरकार को हेलीपैडों के इस्तेमाल का कोई भी शुल्क दिए बिना यात्रा सीजन में निजी कंपनियों के हेलीकॉप्टर रोजाना चार चक्कर उच्च हिमालयी क्षेत्रों का लगा रहे थे, जिन पर रोक लगाने के आदेश 10 मई 2013 को माननीय हाईकोर्ट ने दे दिए थे।
सत्ता द्वारा सत्ता के संरक्षण में इको सिस्टम के साथ किये जा रहे इस विनाशकारी व्यवहार ने ही इको सिस्टम को भारी नुकसान पहुँचाया है। इसी का खामियाजा 16-17 जून की विनाशकारी आपदा के रूप में हमें भुगतने को मजबूर होना पड़ा। पहाड़ के जीवन में अति मुनाफे के लिए जब तक यह बाहरी हस्तक्षेप नहीं था, यहाँ के इको सिस्टम को कोई नुकसान नहीं पहुँचा था। मगर अब अति मुनाफे पर खड़ी प्रकृति के लिए विनाशकारी यह राजनीति ‘इको सैंसिटिव जोन’ के माध्यम से उन पर्वतवासियों को विस्थापन की सजा दे रही है जो हजारों वर्षों से इस इको सिस्टम के मजबूत पहरेदार रहे हैं। ‘इको सैंसिटिव जोन’ इनकी परम्परागत आजीविका पर एक बड़ा हमला है जो इन दुर्गम क्षेत्रों के नौजवानों को भी पलायन के लिए मजबूर कर देगा। इको सिस्टम को बचाए रखने और जैव-विविधता की रक्षा के नाम पर उत्तराखंड के एक बड़े भू-भाग को ‘इको सैंसिटिव जोन’ में तब्दील करने का षडयंत्र चल रहा है। इसके पहले चरण में 18 दिसंबर 2012 से गंगोत्री से उत्तरकाशी तक के एक सौ किमी क्षेत्र को ‘इको सेंसिटिव जोन’ घोषित किया जा चुका है। केंद्र सरकार ने सभी राष्ट्रीय पार्कों और सेंचुरीज के दस किलोमीटर बाहरी क्षेत्र को इको सेंसिटिव जोन घोषित करने का निर्णय लिया है।
उत्तराखंड में पहले से चैदह राष्ट्रीय पार्क और सेंचुरीज मौजूद थे। बावजूद इसके राज्य सरकार ने इनकी संख्या बढ़ाने का प्रस्ताव भेज कर इस साल तीन नए सेंचुरीज क्षेत्रों को स्वीकृति दिला दी है। पहले ही इन राष्ट्रीय पार्कों व सेंचुरीज की सीमा में आये राज्य के हजारों गाँवों पर विस्थापन का खतरा मँडरा रहा है। ऐसे में अगर इनके दस किमी बाहरी क्षेत्र को ‘इको सेंसिटिव जोन’ घोषित कर दिया गया तो उत्तराखंड की आबादी के एक बड़े हिस्से को विस्थापन के लिए मजबूर कर दिया जाएगा। राज्य में ‘इको सेंसिटिव जोन’ का भारी विरोध देख सत्ताधारी कांग्रेस और भाजपा ने भी इसका विरोध किया है। इन दोनों पार्टियों का विरोध सिर्फ दिखावा है। सच तो यह है कि इको सेंसिटिव जोन’ के गठन का निर्णय एनडीए सरकार ने 2002 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल विहारी वाजपेई की अध्यक्षता में हुई बैठक में लिया था। इसी तरह 18 दिसंबर 12 को उत्तरकाशी में इको सेंसिटिव जोन के गठन का निर्णय हो जाने के बाद भी न तो राज्य की कांग्रेस सरकार ने इसके खिलाफ कोई कदम उठाया और न ही पूर्व में भेजे गए नए सेंचुरीज के प्रस्तावों को ही वापस लेने की कोई पहल की। अगर राज्य में निर्धारित सभी क्षेत्रों को इको संसिटिव जोन बना दिया गया तो वहाँ के निवासियों का जीना मुश्किल हो जाएगा। वनों पर निर्भर पशुपालन और खेती छोड़ने के लिए उन्हें मजबूर कर दिया जाएगा, लघु वन उत्पाद जो उनका परम्परागत वनाधिकार है से वे वंचित हो जायेंगे। वे अपनी आबादी का विस्तार नहीं कर पायेंगे और पुराने घरों का पुनर्निर्माण करने के लिए वन एवं पर्यावरण मंत्रालय से इजाजत लेनी होगी। जबकि पूँजीपतियों को होटल व कॉटेज बनाकर अपना व्यवसाय करने की इजाजत होगी। बात साफ है कि सरकार इको सेंसिटिव जोन के नाम पर इको सिस्टम को नुकसान पहुँचाने वाली ताकतों के व्यावसायिक हितों की रक्षा के लिए स्थानीय जनता को उनकी जमीनों व परम्परागत आजीविका से बेदखल करना चाहती है।
राज्य बनने के बाद सत्ताधारी कांग्रेस-भाजपा के नेताओं ने योजनाब( तरीके से उत्तराखंड में बचे इको सिस्टम के बदले राज्य को ग्रीन बोनस देने की मांग शुरू कर दी थी। भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ ने तो आगे बढकर हिमालयी राज्यों की बैठक कराने और राज्य को प्रतिवर्ष चालीस हजार करोड़ रुपये ग्रीन बोनस के रूप में देने की मांग कर डाली। तब यह राशि राज्य के कुल सालाना बजट का दोगुना से भी ज्यादा थी। इस अभियान में वर्तमान मुख्यमंत्री से लेकर कई पर्यावरणविद तथा एनजीओ भी लगे हैं। एनजीओ ने हिमालयी राज्यों का अपना एक नेटवर्क भी स्थापित कर दिया है। दरअसल ग्रीन बोनस के नाम पर यह पूरा अभियान जो पिछले बारह वर्षों से उत्तराखंड में चलाया जा रहा है वह इको सेंसिटिव जोन’ के निर्माण के लिए वातावरण तैयार करने के अभियान का ही हिस्सा था जो साम्र्राज्यवादियों और उनकी हितपोषक फंडिंग एजेंसियों द्वारा वित्त पोषित था। हिमालय और उसके इको सिस्टम को हजारों वर्षों से संरक्षित रखने वाले लोगों को उनकी जमीनों और परम्परागत आजीविका से बेदखल कर आखिर यह ग्रीन बोनस किसके लिए माँगा जा रहा है?
जीवन को समझना जरूरी
ज्ञात हो कि 16-17 जून को उत्तराखंड में आई विनाशकारी आपदा ने पहाड़ पर विकास के माडल और इको सिस्टम ;पारिस्थितिकीय तंत्रद्ध से छेड़छाड़ पर बहस को तेज कर दिया है। इस सवाल पर सारी बहसों को अंततः उत्तराखंड में ‘इको संसिटिव जोन’ बनाने के समर्थन में ले जाया जा रहा है। पर्यावरणविदों के अलावा जल-जंगल-जमीन पर जनता के परंपरागत अधिकारों की वकालत करने वाले कई संगठन व लोग भी इसके समर्थन में खड़े दिखाई दे रहे हैं। पहाड़ में वर्तमान विद्युत परियोजनाओं के समर्थक भी इस तबाही को रोकने के लिए और भी बड़े पैमाने पर बाँधों व सुरंगों के जरिये नदियों के वेग को रोकने की खुलकर वकालत कर रहे हैं। मगर इन सारी बहसों के बीच पहाड़ का वो मानव समाज और उसकी चिंताएं नजर नहीं आ रही हैं जो हजारों वर्षों से पहाड़ को, यहाँ के इको सिस्टम को और यहाँ की आत्मनिर्भर स्थानीय अर्थव्यवस्था को बचाता आया है। पहले पहाड़ पर मानव जीवन को समझना जरूरी है। हजारों वर्षों से कृकृषि-पशुपालन और ग्रामीण दस्तकारी पर आधारित पहाड़ की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार वन रहे हैं। इसलिए पहाड़ के लोगों ने हजारों वर्षों से न सिर्फ वनों को लगाया और उनकी रक्षा की बल्कि इको सिस्टम को समझते हुए अपने रहन-सहन और आजीविका के साधनों का विकास किया। पहाड़ के गाँवों की बनावट देखें तो हर गाँव में ऊपर जंगल, जंगल के नीचे आबादी, आबादी के नीचे खेती, खेती के नीचे नदी। यानी किसी भी गाँव की आबादी नदी से सटी नहीं है। अपने अनुभव से हमारे पुरखों ने नदी तट को आबादी के लिए सुरक्षित नहीं माना था। पहाड़ में कहावत है कि नदी और खेत की मैड़ बारह वर्ष में अपनी पुरानी जगह पर आ जाती है। नदी को लेकर यहाँ के ग्रामीणों के इस परम्परागत ज्ञान को वर्तमान आपदा ने पूरी तरह सही साबित कर दिखाया है। पहाड़ के लोगों ने अपने पानी के स्रोतों को बचाए रखने और चोटियों पर अपने पालतू व जंगली जानवरों को पीने का पानी उपलब्ध कराने के लिए चाल-खाल ;छोटे-छोटे तालाबद्ध बनाने की एक प(ति विकसित की जिसमें बरसात का पानी जमा होता था और वह भूगर्भीय जल को बढ़ाने का काम करता था। आज भी हल-बैल के साथ पहाड़ की खेती व पशुपालन से लेकर कृषि यंत्रों तक वनों पर निर्भरता है। चूँकि वन पहाड़ के लोगों के जीवन का अभिन्न अंग हैं इसीलिए एकमात्र उत्तराखंड के पहाड़ ही हैं जहाँ सरकारी वनों से परम्परागत अधिकार छिन जाने के बाद लगभग 16 हजार राजस्व गाँवों वाले राज्य की जनता ने 12 हजार से ज्यादा गाँवों में वन पंचायतें गठित कर सरकारी वनों से इतर अपने खुद के वनों का निर्माण किया है।

शनिवार, 3 जनवरी 2015

हिंदी मासिक उदय दिनमान का जनवरी 2015 अंक का कबर पेज
इस अंक मे है
‘‘आंदोलन’’  गाँव, खेत, खलिहान के बदले एक-एक नौकरी!     यहां के बुग्यालयों में ऐडी-आछरियों का वास      पीडीएफ पर पलटी कांग्रेस     राजनीतिक उथल-पुथल का साल उत्तर प्रदेश के पंचायत राज
अधिनियम पर निर्भर उत्तराखंड      नौकरशाहों की बादशाहत और
उदासीन जनता       ‘रोशनी की एक किरण’    तो धरती पर प्रकट होंगे केदारघाटी
के पाण्डव             ...पहले एक मुकम्मल इंसान तो बनूं !     भक्त और भगवान का रिश्ता      वरदान साबित होती स्थाई लोक अदालत          नस की यह बंदी ,किसकी बांदी!                   ...तो शुरू हो गया मिशन 2017                  
उत्तराखंड में पाॅव पसार रही है आतंकी संस्कृति      ...दुनिया से धर्म गायब हो जाएगा?       पर्यटन उत्थान योजना से गांवों की बदलेगी तस्वीर          
नीतिगत खामियां बनी हैं शिक्षा की बेहतरी में बाधा        ये वादियां ये फिजाएं बुला रही हैं तुम्हें