गुरुवार, 26 मार्च 2015


अरविन्द भाई, हम दोनों को मजबूर होकर आपके नाम यह खुली चिठ्ठी लिखनी पड़ रही है. दस दिन पहले आपके बंगलूर से आने पर हमने आपसे मुलाक़ात का समय माँगा था, लेकिन अभी तक आप समय नहीं निकाल पाये हैं. ऐसे में बहुत अनिश्चितता का माहौल बना है. पार्टी के तमाम वॉलंटियर, समर्थक और शुभचिंतक यह आस लगाये बैठे हैं कि बातचीत चल रही है और कुछ अच्छी खबर आने वाली है. मन ही मन चिंतित भी हैं कि पार्टी की एकता बनी रहेगी या नहीं.यह आशंका भी जताई जा रही है कि बंद कमरों की इस बातचीत में पार्टी के सिद्धांतों से कोई समझौता तो नहीं किया जा रहा, इसलिए हम इस चिठ्ठी को सार्वजनिक कर रहे हैं.आपके बंगलूर से वापिस आने के बाद उसी रात को पार्टी के कई वरिष्ठ साथी योगेन्द्र के घर मिलने आये. उसके बाद बातचीत का एक सिलसिला शुरू हुआ, जिसमें हमारी ओर से प्रा. आनंद कुमार और प्रा. अजीत झा थे. हम दोनों ने इस बातचीत के लिए एक लिखित प्रस्ताव रखा. शुरू में लगा कि बातचीत ठीक दिशा में बढ़ रही है. लगा कि राष्ट्रीय संयोजक पद जैसे फ़िज़ूल के मुद्दों और आरोपों से पिंड छूटा है.जब पीएसी ने देशभर में संगठन निर्माण, दिल्ली के बाहर चुनाव पर विचार और वॉलंटियर की आवाज़ सुनने की घोषणा की तो हमें भी लगा कि आखिर अब उन सवालों पर जवाब मिल रहा है जो हमने उठाये थे, लेकिन जब पार्टी में आतंरिक लोकतंत्र के इन सवालों पर ठोस बातचीत हुई तो निराशा ही हाथ लगी. कहने को सिद्धांतों पर सहमति थी, लेकिन किसी भी ठोस सुझाव पर या तो साफ़ इंकार था या फिर टालमटोल.1. हमारा आग्रह था कि स्वराज की भावना के अनुरूप राज्य के फैसले राज्य स्तर पर हों. हमें बताया गया कि यह संगठन और कार्यक्रम के छोटे-मोटे मामले में तो चल सकता है, लेकिन देश के किसी भी कोने में पंचायत और म्युनिसिपालिटी के चुनाव लड़ने का फैसला भी दिल्ली से ही लिया जायेगा, और वो भी सिर्फ पीएसी द्वारा.
कुमार भाई को महाराष्ट्र भेजने के फैसले ने हमारे संदेह की पुष्टि की है.2. हमने मांग की थी कि हमारे आंदोलन की मूल भावना के मुताबिक पिछले कुछ दिनों में पार्टी पर लगाये गए चार बड़े आरोपों (दो करोड़ के चैक, उत्तमनगर में शराब बरामदगी, विधि मंत्री की डिग्री और दल-बदल और जोड़-तोड़ के सहारे सरकार बनाने की कोशिश) की लोकपाल से जांच करवाई जाये. जवाब मिला कि बाकी सब संभव है, लेकिन पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से जुड़े किसी भी 'संवेदनशील' मामले पर जांच की मांग भी न की जाय.3. हमने सुझाव दिया था कि लोकतान्त्रिक भागीदारी की हमारी मांग के अनुरूप पार्टी के हर बड़े फैसले में वॉलंटियरों की राय ली जाय, मांग हो तो वोट के ज़रिये. जवाब मिला कि राय तो पूछ सकते हैं, लेकिन वॉलंटियर द्वारा वोट की बात भूल जाएँ, खासतौर पर उम्मीदवार चुनते वक्त.

4. हमने कहा था कि पार्टी अपने वादे के मुताबिक़ RTI के तहत आना स्वीकार करे. हमें बताया गया कि पार्टी कुछ जानकारी सार्वजनिक कर देगी, लेकिन RTI के दायरे में आना व्यवाहारिक नहीं है.
5. आपकी तरफ से प्रस्ताव आया कि सभी पदाधिकारी चुनाव आयोग वाला एफिडेविट भर कर अपनी संपत्ति का ब्यौरा दें, आयकर का ब्यौरा पार्टी को दें और परिवार एक पद का नियम आमंत्रित सदस्यों पर भी लागू हो. हमने यह सब एकदम मान लिया.

6. आपकी तरफ से एक मुद्दा बार-बार उठाया गया. योगेन्द्र को कहा गया कि वे चाहें तो उन्हें हरियाणा में खुली छूट दी जा सकती है. जिन लोगों ने वहां योगेन्द्र के काम में रोड़े अटकाए हैं, उन्हें राज्य बाहर कर दिया जायेगा. हमने स्वीकार नहीं किया, चूंकि जब तक आतंरिक लोकतंत्र के हमारे मूल सवालों का जवाब नहीं मिलता तब तक ऐसी किसी चर्चा में भाग लेना भी सौदेबाजी होगी.
हमने इन सब सवालों पर खुले मन से बातचीत की. जब पृथ्वी रेड्डी ने इन मुद्दों पर अपना एक प्रस्ताव रखा जो हमारे प्रस्ताव से बहुत अलग था, तो हमने उसे भी स्वीकार कर लिया. लेकिन अब पृथ्वी इस न्यूनतम प्रस्ताव को लेकर मिले तो आपने इसे सिरे से ख़ारिज कर दिया.

एडमिरल रामदास को भी असफलता ही हाथ लगी.
हमें ऐसा समझ आने लगा कि बातचीत का मकसद हमारे मुद्दों को सुलझाना नहीं था, बल्कि हमारा इस्तीफ़ा हासिल करना था. आपकी ओर से बात कर रहे साथी घुमा-फिरा कर एक ही आग्रह बार-बार दोहराते थे कि हम दोनों अब राष्ट्रीय कार्यकारिणी से इस्तीफ़ा दे दें. कारण यही बताया जाता था कि यह आपका व्यक्तिगत आग्रह है, आपने कहा है कि जब तक हम दोनों राष्ट्रीय कार्यकारिणी में हैं, तब तक आप राष्ट्रीय संयोजक के पद पर काम नहीं कर सकते. यही बात आपने तब भी कही थी जब हमें पीएसी से निकलने का प्रस्ताव लाया गया था.
आपके कई नजदीकी लोग सार्वजनिक रूप से यह भी कह रहे हैं कि हमें पार्टी से ही निष्कासित किया जायेगा. कुल मिलाकर आपकी तरफ से सन्देश आ रहा है की या तो शराफत से इस्तीफ़ा दे दो, या फिर अपमानित करके निकाला जायेगा. ये सब आपके सलाहकार ही नहीं, आप खुद कहलवा रहे हैं, यह सुनकर हमें बहुत दुःख और धक्का लगा है.
हमने ऐसा क्या किया है अरविन्द भाई, जो आप हमसे इतनी व्यक्तिगत खुंदक पाले हुए हैं? आपके मित्रगण मीडिया में चाहे जो भी झूठ फैला रहे हों, लेकिन आप सच्चाई से अच्छी तरह वाकिफ़ हैं. हमने आज तक कभी भी आपसे कोई पद, ओहदा या लाभ नहीं माँगा. हमने कभी भी आपको अपदस्थ करने की कोशिश नहीं की है. यहाँ गिनाना शोभा नहीं देता, लेकिन आप जानते हैं कि हम दोनों ने हर नाजुक मोड़ पर आपकी मदद की. हाँ, हमने आपसे सवाल ज़रूर पूछे हैं. तब भी पूछे हैं, जब आप नहीं चाहते थे.
हाँ, हमने नासमझी और उतावली के खिलाफ आपको आगाह जरूर किया है, और हाँ, जब आपने सुनने से भी मना किया, तो हमने संगठन की मर्यादा के भीतर रहकर विरोध भी किया. स्वराज के सिद्धांतों पर बनी हमारी पार्टी में क्या ऐसा करना कोई अपराध है? हाँ, हमरी बातें तकलीफदेह हो सकती हैं और हमेशा रहेंगी. लेकिन क्या आप ऐसे किसी व्यक्ति को पार्टी में नहीं रखना चाहते जो आपकी आँखों में आँखें डालकर सच बोल सके?
यूं भी अरविन्द भाई, जैसा कि आप जानते हैं, हमने खुद इस बातचीत के लिए लिखित नोट में अपने इस्तीफे की पेशकश की थी, बशर्ते :
· पंचायत और म्युनिसिपेलिटी चुनाव में भागीदारी का अंतिम फैसला राज्य इकाई के हाथ में देने की घोषणा हो
· हाल में पार्टी से जुड़े चारों बड़े आरोपों की जांच एकदम राष्ट्रीय लोकपाल को सौंप दी जाय
· सभी राज्यों में लोकायुक्त को राष्ट्रीय लोकपाल की राय से तत्काल नियुक्त किया जाय
· नीति, कार्यक्रम और चुनाव के हर बड़े फैसले पर कार्यकर्ता की राय और जरूरत पड़ने पर वोट दर्ज़ करना शुरू किया जाय
· पार्टी CIC के आर्डर के मुताबिक RTI स्वीकार करने की घोषणा करे
· राष्ट्रीय कार्यकारिणी के रिक्त पदों को संविधान के अनुसार राष्ट्रीय परिषद द्वारा गुप्त मतदान से भरा जाय
हम अपने प्रस्ताव पर आज भी कायम हैं. अगर हमारे इस्तीफ़ा देने भर से पार्टी में इतने बड़े सुधार एक बार में हो सकते हैं, तो हमें बहुत खुशी होगी. हमारे लिए राष्ट्रीय कार्यकारिणी में बने रहना अहम् का मुद्दा नहीं है. असली बात यह है कि राष्ट्रीय कार्यकारिणी में कुछ स्वतंत्र आवाजों का बचे रहना संगठन और खुद आपके लिए बेहद जरूरी है.
अरविन्द भाई, आज देश में वैकल्पिक राजनीति की सम्भावना बहुत नाजुक मोड़ पर है. आम आदमी पार्टी सिर्फ दिल्ली नहीं, पूरे देश के लिए नयी राजनीति की आशा बनकर उभरी है. हमारी एक छोटी सी गलती इस आंदोलन को गहरा नुक्सान पहुँचा सकती है. आज देश और दुनिया में न जाने कितने भारतीयों ने इस पार्टी से बड़ी बड़ी उम्मीदें बाँधी हैं.
पिछले हफ़्तों में हमें हज़ारों वॉलंटियर सन्देश मिले हैं. उन्हें पार्टी में जो कुछ हो रहा है, उससे धक्का लगा है. वो सब यही चाहते हैं कि किसी तरह से पार्टी के नेता मिल—जुलकर काम करें, पार्टी के एकता बनी रहे और साथ ही साथ उसकी आत्मा भी बची रहे. किसी भी चीज़ को तोड़ना आसान है, बनाना बहुत मुश्किल है. आपके नेतृत्व में दिल्ली की ऐतिहासिक विजय के बाद आज वक्त बड़े मन से कुछ बड़े काम करने का है. सारा देश हमें देख रहा है, ख़ास तौर पर आपको. हमें उम्मीद है की आप इस ऐतिहासिक अवसर को नहीं गंवाएंगे.
राष्ट्रीय परिषद की बैठक में बस एक दिन बाकी है. उम्मीद है इस अवसर पर एक बड़ी सोच रखते हुए आप पार्टी की एकता और उसकी आत्मा बचाये रखने का कोई रास्ता निकालेंगे. ऐसे किसी भी प्रयास में आप 

केदारोऽथ जालन्धरोऽथ रूचिर काश्मीर संज्ञोऽन्तिमः

केदारोऽथ जालन्धरोऽथ रूचिर काश्मीर संज्ञोऽन्तिमः

मंगलवार, 24 मार्च 2015

केदारनाथ त्रासदी-एक सच



केदारघाटी विस्थापन एवं पुनर्वास संघर्ष समिति के अध्यक्ष डॉ. अजेंद्र अजय ने उसे सोमवार को बेस अस्पताल में दाखिल कराया, जहां मनोविज्ञानी ने उसका परीक्षण किया। बताया कि इसका लंबा इलाज चलेगा। 15-15 दिन बाद उसे दिखाना पड़ेगा। इसके बाद उसके परिजन उसे अपने साथ ले गए। चमोली के नागनाथ पोखरी के सिमतोली गांव निवासी 46 वर्षीय पुष्कर सिंह मुम्बई में नौकरी करता था। 14 जून 2013 को वह अगस्त्यमुनि स्थित अपने भाई की दुकान पर पहुंचा। जहां से वह अपने एक अन्य रिश्तेदार के यहां तिलवाड़ा गया। 15 जून 2013 को बाइक से वह तिलवाड़ा से सोनप्रयाग की ओर गया। इसके बाद वह आपदा में लापता हो गया। उसके परिजनों ने अगस्त्यमुनि पुलिस चौकी में उसकी रिपोर्ट भी लिखाई। डा. अजेंद्र अजय के अनुसार बाद में शासन ने इसे मृत भी घोषित कर दिया गया था। बीते 21 मार्च को पुष्कर सिंह के ममेरे भाई संतोष कुंवर को वह रुद्रप्रयाग के पास दीनहीन हालत में घूमता मिला। उसकी शारीरिक और मानसिक स्थिति बहुत खराब थी। चोट के कारण उसका एक पैर भी खराब हो चुका था। अजय ने बताया कि वह जून 2013 के बाद से अब तक के समय को लेकर अपने बारे में कुछ भी नहीं बता पा रहा है। मानसिक रूप से भी अस्वस्थ लग रहा है। सोमवार को उसके परिजन उसे इलाज के लिए बेस अस्पताल लाए, जहां मनोविज्ञानी ने उसका परीक्षण कर लंबे समय तक इलाज की बात कही। अजेंद्र अजय ने प्रदेश सरकार से आपदा प्रभावित पुष्कर सिंह का सरकारी खर्च पर उपचार कराने की मांग की। साथ ही लापता लोगों को भी तलाश करने की मांग उठाई ताकि अन्य लोगों को इस तरह न भटकना पड़े।जागरण संवाददाता, श्रीनगर गढ़वाल: सरकार ने भले ही आपदा को बुरे ख्वाब की तरह भुला दिया हो लेकिन अब भी लोग अपनों की तलाश में उत्तराखंड आ रहे हैं। यही नहीं, आपदा में लापता लोग भी भटकते हुए मिल जा रहे हैं। 46 वर्षीय एक आपदा प्रभावित तीन दिन पहले रुद्रप्रयाग में मिला, जबकि सरकार उसे मृत घोषित कर चुकी थी। इस युवक की हालत बेहद खराब है। केदारघाटी विस्थापन एवं पुनर्वास संघर्ष समिति के अध्यक्ष डॉ. अजेंद्र अजय ने उसे सोमवार को बेस अस्पताल में दाखिल कराया, जहां मनोविज्ञानी ने उसका परीक्षण किया। बताया कि इसका लंबा इलाज चलेगा। 15-15 दिन बाद उसे दिखाना पड़ेगा। इसके बाद उसके परिजन उसे अपने साथ ले गए। चमोली के नागनाथ पोखरी के सिमतोली गांव निवासी 46 वर्षीय पुष्कर सिंह मुम्बई में नौकरी करता था। 14 जून 2013 को वह अगस्त्यमुनि स्थित अपने भाई की दुकान पर पहुंचा। जहां से वह अपने एक अन्य रिश्तेदार के यहां तिलवाड़ा गया। 15 जून 2013 को बाइक से वह तिलवाड़ा से सोनप्रयाग की ओर गया। इसके बाद वह आपदा में लापता हो गया। उसके परिजनों ने अगस्त्यमुनि पुलिस चौकी में उसकी रिपोर्ट भी लिखाई। डा. अजेंद्र अजय के अनुसार बाद में शासन ने इसे मृत भी घोषित कर दिया गया था। बीते 21 मार्च को पुष्कर सिंह के ममेरे भाई संतोष कुंवर को वह रुद्रप्रयाग के पास दीनहीन हालत में घूमता मिला। उसकी शारीरिक और मानसिक स्थिति बहुत खराब थी। चोट के कारण उसका एक पैर भी खराब हो चुका था। अजय ने बताया कि वह जून 2013 के बाद से अब तक के समय को लेकर अपने बारे में कुछ भी नहीं बता पा रहा है। मानसिक रूप से भी अस्वस्थ लग रहा है। सोमवार को उसके परिजन उसे इलाज के लिए बेस अस्पताल लाए, जहां मनोविज्ञानी ने उसका परीक्षण कर लंबे समय तक इलाज की बात कही। अजेंद्र अजय ने प्रदेश सरकार से आपदा प्रभावित पुष्कर सिंह का सरकारी खर्च पर उपचार कराने की मांग की। साथ ही लापता लोगों को भी तलाश करने की मांग उठाई ताकि अन्य लोगों को इस तरह न भटकना पड़े।
कुछ दिन पहले भी चमोली जिले के घाट ब्लाक में विक्षिप्त हालत में मिली महिला के केदारनाथ आपदा के दौरान अपनों से बिछुडऩे की बात बताई गई। घाट बाजार में कंबल ओढ़े एक विक्षिप्त महिला को देखकर लोगों ने उससे जानकारी लेनी चाही तो वह सकपका गई। लोगों की सूचना पर पुलिस ने वहां पहुंचकर महिला से उसके घर परिवार के बारे में जानकारी जुटाई। महिला ने पुलिस को बताया कि केदारनाथ आपदा में वह अपनों से बिछुड़ गई थी। तब से वह इसी तरह भटक रही है। यह महिला बोल कुछ नहीं पा रही है, उसने पुलिस का एक कागज पर लिखकर अपने बारे में जानकारी दी।
उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों उत्तरकाशी जनपद में भी राजस्थान की एक महिला भी ऐसी हालत में मिली थी। वह भी केदारनाथ आपदा में अपनों से बिछुड़ गई थी। पता चलने पर परिजन उसे साथ ले गए थे।

सोमवार, 23 मार्च 2015

हम ठगने का ‘लाइसेंस’ देते हैं!

बीएड पाठ्यक्रम को 2 वर्षीय किया जा रहा है और शुल्क में भी बेतहाशा वृ(ि की जायेगी, किन्तु इससे सरकार और 600 संचालकों को फायदा है इसलिए इस सुनियोजित ढंग से लूट के व्यवसाय को चालू रखा जा रहा है. कल्याणकारी सरकार के नाम पर सरकारें लुटेरे संगठनों द्वारा संचालित हैं और वे लूट का लाइसेंस दे रही हैं। देश के अलग-अलग भागों में कुकुरमुत्तों की तरह खुले बीएड कालेजों पर मनीराम शर्मा का यह खास आलेख।      संपादक

विश्वविद्यालय और बोर्ड भी प्रायोगिक परीक्षा शुल्क का मद महाविद्यालयों और विद्यालयों के लिए खुला छोड़ देते हैं, ताकि वे मनमानी वसूली कर सकें और प्रायोगिक परीक्षा के वीक्षक का स्वागत सत्कार कर सकें जोकि फलदायी होती है। बोर्ड और विश्वविद्यालयों को चाहिए कि वे प्रायोगिक परीक्षा के लिए शुल्क भी नियमित परीक्षा के साथ ही वसूल कर लें और परीक्षा केंद्र को प्रतिपूर्ति अपने स्तर पर ही करें, न की महाविद्यालयों और विद्यालयों को इसके लिए खुला छोड़ें। महाविद्यालयों को यह भी निर्देश दिया जाय कि वे ड्रेस या अन्य किसी सामग्री का विक्रय नहीं करें और छात्रों से कोई वसूली सरकार से अनुमोदन के बिना नहीं करें।
नागरिकों को सामान्य और व्यावसायिक शिक्षा देना तथा रोजगार उपलब्ध करवाना कल्याणकारी सरकार का संवैधानिक धर्म है। इसलिए शैक्षणिक गतिविधियों से कोई वसूली करना स्पष्टः संविधान विरु( है, किन्तु शिक्षा जगत का क्या हाल है और सरकार इसकी किस तरह दुर्गति कर रही है इसका शायद आम नागरिक को कोई अनुमान नहीं है। उदारीकरण, जो कि संविधान की समाजवाद की मूल भावना के सर्वथा विपरीत है, का लाभ धनपतियों और कुबेरों को मुक्तहस्त दिया जा रहा है। यही कारण है कि पंचवर्षीय योजनाओं को ठेंगा दिखाती हुई गरीब और अमीर के बीच की खाई स्वतन्त्रता के बाद बढ़ती ही जा रही है। शायद इस अधोगति के रुकने के कोई आसार दिखाई भी नहीं देते।
शिक्षक भर्ती के लिए आवश्यक बीएड पाठ्यक्रम और निजी संस्थानों की भागीदारी इस दुर्भि संधि को प्रकट करती है। उदारीकरण से पूर्व इस पाठ्यक्रम का संचालन मुख्यतया राज्य क्षेत्र में ही था और वांछित शिक्षकों की पूर्ति सामान्य रूप से हो रही थी। राजस्थान में राज्य एवं निजी क्षेत्र को मिलाकर वर्षभर में सामान्यतया 20000 अतिरिक्त शिक्षकों की आवश्यकता होती है। किन्तु सरकार ने लगभग एक लाख अभ्यर्थियों के लिए बीएड पद सृजित कर दिये हैं। ऐसी स्थिति में काफी व्ययभार उठाकर यह बेरोजगारों की एक फौज प्रतिवर्ष तैयार हो रही है, जो अपना समय और धन लगाकर भी निश्चित रूप से आखिर बेरोजगार ही रहनी है। बीएड पाठ्यक्रम में आगामी वर्ष से परिवर्तन कर सरकार इस कोढ़ में खाज और करने जा रही है। बीएड के अभ्यर्थी से इस विद्यमान एकवर्षीय पाठ्यक्रम के लिए 25 हजार रुपये वार्षिक शुल्क लिया जाता है, जो की पूर्व में मात्र दस हजार रुपये था। अब बीएड पाठ्यक्रम को 2 वर्षीय किया जा रहा है और शुल्क में भी बेतहाशा वृ(ि की जायेगी, किन्तु इससे सरकार और 600 संचालकों को फायदा है इसलिए इस सुनियोजित ढंग से लूट के व्यवसाय को चालू रखा जा रहा है। पहले एक बीएड महाविद्यालय से मान्यता के नाम पर दस लाख रुपये से अधिक शुल्क सरकार और विश्वविद्यालयों द्वारा लिया जाता था और अब दो वर्षीय पाठ्यक्रम के लिए सरकार द्वारा सोलह लाख रुपये और अतिरिक्त लिए जा रहे हैं। निश्चित रूप से इतनी राशि का सरकार को भुगतान करके इस निवेश पर कोई भी व्यक्ति अच्छा मुनाफा कमाना चाहेगा। सेवा के नाम पर कोई भी इतना बड़ा निवेश नहीं करना चाहेगा। इस आकर्षक व्यवसाय के कारण कई संचालकों ने तो अपने विद्यालय बंद करके महाविद्यालय प्रारम्भ कर दिए हैं।विश्वविद्यालय और बोर्ड भी प्रायोगिक परीक्षा शुल्क का मद महाविद्यालयों और विद्यालयों के लिए खुला छोड़ देते हैं, ताकि वे मनमानी वसूली कर सकें और प्रायोगिक परीक्षा के वीक्षक का स्वागत सत्कार कर सकें जोकि फलदायी होती है। बोर्ड और विश्वविद्यालयों को चाहिए कि वे प्रायोगिक परीक्षा के लिए शुल्क भी नियमित परीक्षा के साथ ही वसूल कर लें और परीक्षा केंद्र को प्रतिपूर्ति अपने स्तर पर ही करें, न की महाविद्यालयों और विद्यालयों को इसके लिए खुला छोड़ें। महाविद्यालयों को यह भी निर्देश दिया जाना अति आवश्यक है कि वे ड्रेस या अन्य किसी सामग्री का विक्रय नहीं करें और छात्रों से कोई वसूली सरकार से अनुमोदन के बिना नहीं करें। आश्चर्य होता है कि सरकार को महाविद्यालय और विद्यालय संचालकों की तो चिंता है और उनके द्वारा वसूली जाने वाले शुल्क तय कर दिया है, किन्तु उनके द्वारा दी जाने वाली सेवाओं के मानक और सम्ब( बातों को न तो तय किया जाता, न उनकी निगरानी और न ही नियमन है। और तो और इन महाविद्यालयों व विद्यालयों में कार्यरत कार्मिकों के हितों का कोई नियमन नहीं किया जाता और वे सभी पसीना बहाने वाले शोषण का शिकार होते हैं। उन्हें नियमानुसार अवकाश, भविष्यनिधि और अन्य कोई परिलाभ तक नहीं दिया जाता है।कई मामलों में तो उन्हें दिया जाने वाला वेतन न्यूनतम मजदूरी से भी कम होता है। सरकार इस कुतर्क का सहारा ले सकती है कि जिसे करना हो वह बीएड करे या इस नौकरी के लिए वह किसी को विवश नहीं कर रही है। किन्तु जनता को इस बात का ज्ञान नहीं है कि बीएड के बाद भी रोजगार दुर्लभ है। कीट पतंगे युगोंकृयुगों और पीढ़ियों से आग में जलकर मर रहे हैं दृउन्हें आजतक ज्ञान नहीं हुआ है और यह सिलिसिला आज तक नहीं थमा है। नागरिक हितों की हरसंभव रक्षा करना और मार्गदर्शन सरकार का दायित्व है। फिर यही बात सरकार चिकित्सा महाविद्यालयों के सन्दर्भ में क्यों नहीं करती, जिससे प्रतिस्पर्द्धी वातावरण में जनता को सस्ती चिकित्सा सेवाएं उपलब्ध हो सकें।आधारभूत संरचना के नाम पर इन बीएड कालेजों के पास मात्र कागजी खानापूर्ति है और छात्रों से महाविद्यालय संचालक प्रायोगिक परीक्षा और अन्य खर्चों के नाम पर अतिरिक्त अवैध वसूली भी कर रहे हैं। छात्रों को महाविद्यालय न आने की भी सुविधा भी अतिरिक्त अवैध शुल्क से दे दी जाती है। अर्थात बीएड शिक्षण एक औपचारिक पाठ्यक्रम है। जिस तकनीक एवं विधि से बीएड में पढ़ाना सिखाया जाता है वह भी व्यावहारिक रूप से बहुत उपयोगी नहीं है। अन्य राज्यों की स्थिति भी लगभग राजस्थान के समान ही है। निष्कर्ष यही है कि कल्याणकारी सरकार के नाम पर सरकारें लुटेरे संगठनों द्वारा संचालित हैं और वे लूट का लाइसेंस दे रही हैं। अब जनता सावधान रहे। शायद आने वाले 20-30 वर्षों में आम नागरिक का पूर्ण रक्तपान हो जाएगा तथा गरीब बचेंगे ही नहीं। संपन्न तथा सत्ता के दलाल और अधिक संपन्न जरूर हो जायेंगे।

रविवार, 22 मार्च 2015

‘बेरोजगार’ उत्तराखंड



रोटी के लिए महानगरों का मुह ताकते को हम मजबूर
814 साल में साढ़े आठ लाख बेरोजगारों की फौज में 30 हजार नौकरियां मिलीं
8हर साल 2153 रोजगार का एवरेज और हर महीने 179 रोजगार
8इस साल सबसे ज्यादा रोजगार पाने वाले जिलों में पिथौरागढ़,  बागेश्वर, रुद्रप्रयाग व गोपेश्वर शामिल
अलग उत्तराखंड राज्य आंदोलन की जिन लोगों को याद है शायद ही वे यह भूले हों कि इस आंदोलन का मकसद उत्तरप्रदेश से इतर एक अलग भौगोलिक सांस्कृतिक पहचान पाना था। लेकिन आंदोलन का केन्द्र बिन्दु और चिंता पलायन ही थी। पहाड़ और पलायन पर मर्सिया पढने के शुरुआती दिनों में पलायन के जोरदार और तार्किक पोस्टमार्टम किये गये। लब्बो लुआब यह कि पहाड़ में रोजगार के संकट के चलते जबरदस्त पलायन हुआ। पलायन की यह परंपरा कमोबेस आज भी जारी है। इस परंपरा पर प्रकाश डालने से पहले यह बताना समीचीन होगा कि उत्तराखंड की आबादी का जो पलायन महानगरों की और हुआ उसमें गांवों की भूमिका 90 फीसदी से भी अधिक रही। यानि शतप्रतिशत पलायित कृकृषि, पशुपालन एवं संबंधित अवलंबनों के आधीन थे। इसी पर केंद्रित संतोष बेंजवाल और प्रियंक मोहन बशिष्ठ का यह खास आलेख।   संपादक
सदियों से पहाड़ की यही कहानी और यही सच्चाई भी है। ये कहानी है-पलायन की। अपने विकास और खूबसूरत दुनियां को देखने की चाहत के ये विभिन्न अनचाहे रूप हैं। एक मकान केवल इसलिए खंडहर में बदला क्योंकि उसे संवारने के लिए घर में पैसा नहीं था और एक मकान में ताले पर इसलिए जंङ लगा है कि वहां से अपनी प्रगति की इच्छा लिए पलायन हो चुका है। इनमें कोई इसलिए अपने पुश्तैनी घर नहीं लौटे क्योंकि वे बहुत आगे निकल चुके हैं और सब कुछ तो यहां खंडहरों में बदल चुका है। इनमें कई तालों और खंडहरों का संबंध तो राष्ट्राध्यक्ष, राजनयिकों, सेनापति, नौकरशाहों, लेखकों, राजनीतिज्ञों, वैज्ञानिकों, शिक्षकों और लोक कलाकारों का इतिहास बयान करता है जबकि अधिसंख्य खंडहर उत्तराखंड की गरीबी-भुखमरी, बेरोजगारी-लाचारी और प्राकृतिक आपदाओं की कहानी कहते हैं। पलायन और पहाड़ का संबंध कोई नया नही है। वतर्मान समय में पलायन का यह प्रवाह उल्टा हो गया है। जनसंख्या बढ़ने से प्राकृतिक संसाधनों पर बढते बोझ, कमरतोड़ मेहनत के बावजूद नाममात्र की फसल का उत्पादन और कुटीर उद्योगों की जर्जर स्थिति के कारण युवाओं को पहाड़ों से बाहर निकलने को मजबूर होना पड़ा।
उत्तराखंड राज्य निर्माण के बाद बनी किसी भी सरकार ने इस गंभीर समस्या के समाधान के लिये ईमानदार पहल नहीं की। अपितु मैदानी इलाकों को तेजी से विकिसत करने की सरकारी नीति से असन्तुलित विकास की स्थिति पैदा हो गयी है। जिससे पहाड़ से मैदान की तरफ होने वाले पलायन को बढ़ावा ही मिलेगा। क्या उत्तराखंड की सरकार पहाड़ों के पारंपरिक उद्योगों के पुनरुत्थान के लिए भी प्रयास करेगी? पयर्टन उद्योग और गैरसरकारी संस्घ्थानों के द्वारा सरकार पहाड़ों के घ्विकास के घ्लिए योजनाएं चला रही है, उससे पहाडी लोगों को कम मैदान के पूंजीपतियों को ही ज्यादा लाभ मिल रहा है।पहाड़ के गांवों से होने वाले पलायन का एक पहलू और है। वह है कम सुगम गांवों और कस्घ्बों से बड़े शहरों अथवा पहाड़ों की तलहटी पर बसे हल्द्वानी, कोटद्वार, देहरादून, रुद्रपुर और हरिद्वार जैसे शहरों को होता बेतहाशा पलायन। मैदानी इलाकों में रहकर रोजगार करने वाले लोग सेवानिवृत्ति के बाद भी अपने गांवों में दुबारा वापस जाने से ज्यादा किसी शहर में ही रहना ज्यादा पसन्द करते हैं। स्थिति जितनी गम्भीर बाहर से दिखती है असल में उससे कहीं अधिक चिंताजनक है। जो गांव शहरों से 4-5 किलोमीटर या अधिक दूरी पर हैं उनमें से अधिकांश खाली होने की कगार पर हैं। उत्तराखंड में पढे लिखों की जमात के पौ बारह होते पलायन की भी शक्ल बदलती रही । यानि 40 के दशक से 70 के दशक तक घरेलू कामगार यूनियनों के मैम्बर रहे उत्तराखंडी भाई 70 से 90 के बीच दिल्ली मुबई जैसे महानगरों में सरकारी आफिसों में चपड़ासी से क्लर्क तक प्रमोशन पा गये । 90 के बाद का दशक किसका रहा यह बताने से पहले यह जानना जरूरी होगा कि अखबारों में आये दिन छपने वाले विज्ञापनों से यह हटा दिया कि घरेलू काम के लिए पहाड़ी गढवाली कुमांउनी को प्राथमिकता दी जायेगी। यानि 90 के बाद का पलायन उत्तराखंड में थोक के भाव खोल दिये गये आम शिक्षण संस्थानों और आईटीआई पौलटैकनिक के बेरोजगारों का रहा । कांग्रेस के शासन में इनमें से अब कई प्राविधिक संस्थान बंद कर दिये गये हैं । राज्य आंदोलन के दिनों में इन्हें बेरोजगार पैदा करने की फैक्टरियां कहा जाता था।
इन बेरोजगार पैदा करने वाली फैक्ट्रियों के उत्पाद के साथ कुछ मात्रा में हाईस्कूल फेल पास ग्रामीणों की जमात भी अभी तक महानगरों की ओर भाग रही है। यह स्वीकार करना होगा कि अलग उत्तराखंड राज्य बनने के बाद पलायन की रफ्तार और संख्या में थोडा बहुत कमी जरूर दर्ज हुई है, लेकिन इस कमी को उच्च शिक्षित जमात ने पूरा कर दिया है। पलायन के तराजू पर राज्य की सार्थकता को देखा जाय तो राज्य बनने के बाद के आठ वर्ष इस बात की ताकीद नही करते कि इस ओर कोई ठोस प्रयास हुए हैं । शिक्षा के तंत्र में बेरोजगारों को अल्प रोजगार के रूप में ठूंसने के प्रयास राज्य में अब तक बनी सरकारों ने खूब किये हैं। लेकिन असंतोष बरकरार है। आये दिन उत्तराखंड आंदोलनों से गुलजार है तो राजनैतिक दल सत्ता के सूखों की बंदरबाट में इतने व्यस्त हो गये हैं कि पलायितों का मायका बत्तीधारी राजनैतिक महत्वाकांक्षियो का अडडा बन गया है। पिछले 8 सालों में जो परिदृश्य देखने को मिल रहा है उससे यह ढांढस नही बंधता कि राज्य के पास कोई ऐसा जिम्मेदार नेता अभिभावक के रूप में है जो पार्टीगत खींचतान और तुष्टिकरण से बाहर निकल कर राज्य के हित में खड़ा हो। उत्तराखंड के विकास का माडल पंतनगर, सितारगंज, उधमसिंह नगर, देहरानून और हरिद्वार में गुल खिला रहा है। लेकिन पहाड़ यहां भी नदारद हैं। उद्योग या रोजगार विहीन उत्तराखंड का पर्वतीय क्षेत्र अभी भी बियाबान ही बना हुआ है क्योंकि तराई एवं सिचाई संपन्न मैदानी इलाका जहां अब उद्योग लगाये गये है, हमेशा से लहलहाती फसलों के लिए जाना जाता रहा है। राज्य के रहनुमाओं ने कृषि क्षेत्र में तो आसानी से सेंध लगाली लेकिन दुर्गम की ओर जाने का हौसला अब भी नही जुट पा रहा । थोड़ा सा अतीत की ओर नजर डाली जाय तो उत्तराखंड राज्य आंदोलन इन्हीं पहाड़ी जिलों का आंदोलन था। जहां अब राज्य कृकृषि, उद्योग को तिरोहित कर बेरोजगारों को सुविधानुसार बगैर वेतन स्कूलों में ठूंस रहा है। उद्योग धंधें से पूरे पर्वतीय इलाके को महरूम रखा गया है। अब सिर्फ इन क्षेत्रों के विकास के नाम पर नहर गुल और पुल बनवा रहे हैं। तय है कि इस तरह के टोटकों से तात्कालिक राहत मिल सकती है। दीर्घकालिक समाधान के लिए राज्य के प्रति समपर्ण और आंतरिक ईमानदारी की दरकार होगी। पर्वतीय इलाकों में उन स्थानों और उन उद्योगों का चयन करना होगा जो सभी तरीके से ठीक हों । नगदी देने वाली फसलों ने राज्य की लघु कृकृषि बिरादरी को पिछले वर्षों में अच्छा संबल दिया है। इस क्षेत्र की घोर उपेक्षा हुई है। कृकृषि क्षेत्र में आज भी बेरोजगारी की भीषण समस्या के समाधान तलाशे जा सकते हैं। क्या राज्य में इस तरह से गंभीर माहौल तैयार हो पायेगा।? यह प्रश्न स्वयं से पूछने के साथ-साथ हुक्मरानों के चेहरों में पढा जाना चाहिए। आजीविका और रोटी के लिए महानगरों का मुह ताकते वालों को तो यह मान लेना चाहिए कि राज्य से पलायन करना उनकी मजबूरी के साथ अब नियति बन गयी है। स्टेट में साढ़े आठ लाख बेरेाजगारों एवज में मिली नौकरियों की बात की जाए तो युवाओं के लिए वर्ष 2005 बेहद मुफीद रहा। इस वर्ष अब तक के 14 सालों के इतिहास में सबसे ज्यादा 6094 युवा बेरोजगारों को नौकरी मिली। जबकि राज्य स्थापना वर्ष में सबसे कम 37जाब्स मिले। यकीनन 2000 के आखिरी दो महीनों में नौकरियों का यह आंकड़ा रहा। इसके बाद सबसे कम नौकरियों के लिए 2013 का वर्ष भी नीचले पायदान पर रहा। हालांकि यह वर्ष राज्य के  लिए आपदा वर्ष भी कहा जाता है। ऐसे ही देहरादून सेवायोजन की बात की जाए तो 2005 यहां के लिए भी सुखद वर्ष रहा, जब इस साल सबसे ज्यादा 3,164 नौकरियां बेरोजगारों के हाथ लगी। उदय दिनमान  ने पहले ही बताने की कोशिश की है कि प्रदेश के 14 साल के सफर में साढ़े आठ लाख बेरोजगार युवाओं के एवज में 31, 145 बेरोजगार को रोजगार मिले हैं। लेकिन अब हम यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि इन 14 सालों में किस वर्ष सबसे ज्यादा युवाओं को नौकरी हाथ लगी। इस लिहाज से बेरोजगार युवाओं के लिए 2005 सबसे अच्छा साबित हुआ। इस साल 6094 रोजगार मिले। दूसरा साल 2007 रहा, जब 3956 रोजगार मिले। उसके बाद 2006 में 3169 और 2002 में 2930 नौकरियां बेरोजगारों को मिली। सबसे कम नौकरियां 2000 में केवल 37 मिली। इसी प्रकार से कम नौकरियों की सीरिज में 2001, जब 836, 2013 में 602 नौकरियां मिलीं। इसी प्रकार से देहरादून क्षेत्रीय सेवायोजन कार्यालय की बात की जाए तो यहां भी 2005 सफल वर्ष रहा। जब इस साल 3165 बेरोजगार नौकरी पाने में सक्सेस रहे। 2008 में 624, 2007 मं 543 नौकरियां मिलीं। सबसे कम दून सेवायोजन के लिए वर्ष 2012 रहा। जब केवल इस लाखों बेरोजगारों की तुलना में केवल 11 नौकरियां मिल पाईं। 2013 में 20, 2014 में 22 नौकरियां ही मिल पाईं। अब आप ही अंदाजा लगा सकते हैं कि प्रदेश में जहां लाखों की तादात में बेरोजगार की फेहरिस्त है, उसके एवज में कितने रोजगार मिल पा रहे हैं। जबकि जब भी चुनाव नजदीक आते हैं पालिटिकल पार्टियां लाखों की नौकरियों की बात करते हैं। खुद वर्तमान सरकार ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में दो लाख बेरोजगारों को रोजगार देने का वादा किया था।
14 साल 8 सीएम के कार्यकाल में नौकरियांः
नित्यानंद स्वामी-37,भगत सिंह कोश्यारी-826
एनडी तिवारी-20826,बीसी खंडूडी-4245
रमेश पोखरियाल निशंक-1607,विजय बहुगुणा-2025,हरीश  रावत-669
;नौकरियों के आंकड़े वर्षवार दिए गए हैं, जो कुछ ऊपर-नीचे हो सकते हैं।द्ध
स्टेट में वर्षवार मिली नौकरियां
2000-37
2001-836
2002-2930
2003-2074
2004-2603
2005-6094
2006-3169
2007-3956
2008-2137
2009-2108
2010-632
2011-632
2012-1423
2013-602
2014-669
देहरादून सेवायोजन में वर्षवार मिली नौकरियां
2000-159
2001-102
2002-256
2003-305
2004-287
2005-3164
2006-357
2007-543
2008-624
2009-231
2010-31
2011-20
2012-11
2013-20
2014-22
नौकरी पानी किसी चुनौती से कम नहीं
यह सच है कि देश-दुनिया में आज के वक्त में रोजगार पाना किसी चुनौती से कम नहीं है। लेकिन 14 साल पहले जिस राज्य की कल्पना के साथ राज्य का गठन हुआ था, उस वक्त युवाओं के सपने बेहद उत्साह के साथ मजबूत थे। इंप्लाएमेंट के सोर्सेस खुलने के आसार थे। कई सरकारें आई, रोजगार संबंधी कई घोषणाएं हुईं, कोशिशें की भी जारी रहीं। लेकिन आंकड़े आपके सामने है। कुछ छिपा नहीं है। जिस प्रदेश की आबादी सवा करोड़ के पार हो गई हो, साढ़े आठ लाख बेरोजगार इंप्लाएमेंट की तलाश में राह ताक रहे हों, शायद उस नए प्रदेश में महज 30 हजार को रोजगार मिलना समझ में कम ही आता है। खैर, यह रोजगार पानी नए प्रदेश उत्तराखंड में भी कम से कम अब तो जंग जीतना प्रतीत होता है। सरकारें आगामी वर्षों में रोजगार के लिए क्या स्किल्स डेवलेप करती हैं, कितना रोजगार दिलाती हैं। यह तो वक्त बताएगा। लेकिन हकीकत से आप भी रूबरू हो जाएं।
270114 बेरोजगार, 37 को मिली नौकरी
जिस वक्त 9 नवंबर 2000 को उत्तराखंड राज्य का गठन हुआ था। उस साल केवल दो महीने के भीतर उत्तराखंड में 270114 बेरोजगार रजिस्टर्ड हुए थे। बदले में 37 युवाओं को रोजगार मिल पाया था। उसके अगले वर्ष 313185 बेरोजगारों की तुलना में 836 को मिला था रोजगार।
नियुक्ति के हिसाब से 2005 रहा मुफीद
बात रोजगार की हो रही है तो साल 2005 रोजगार की हिसाब से बेरोजागरों के लिए सबसे धनी वर्ष रहा है। इस साल 380217 रजिस्टर्ड बेरोजगारों की तुलना में 6094 बेरोजगारों को रोजगार मिला।
साल 2007 में 3856 युवाओं को रोजगार मिला। 2006 में 3169 और 2002 में 2930 बेरोजगारों के इंप्लाएमेंट के सपने पूरे हुए। ऐसे ही 2000 में जहां
37 को नौकरी मिली, वैसे ही 2001 में 836, 2010 में 632, 2011 में 975 2014 में 669 और 2013 में सबसे कम 602 बेरोजगारों को रोजगार मिला।
युवाओं को मिली नौकरी पर नजर
अल्मोड़ा-15,नैनीताल-80,पिथौरागढ़-229,यूएसनगर-32
बागेश्वर-146,चंपावत-21,देहरादून-22,टिहरी-15
उत्तरकाशी-02,हरिद्वार-01,पौड़ी-13,गोपेश्वर-42
रुद्रप्रयाग-51, 229 नौकरी के साथ पिथौरागढ़ रहा अव्वल पर। बीते वर्ष यानी 2014 में हरिद्वार ऐसा जिला रहा है, जहां 91 हजार से अधिक युवाओं की भीड़ में केवल एक युवा को ही रोजगार मिल पाया। सबसे अव्वल पर आपदा प्रभावित जिले पिथौरागढ़, बागेश्वर, गोपेश्वर व रुद्रप्रयाग रहे।
साल-सूची;संप्रेषणद्ध-नियुक्ति-रजिस्टेªशन
2000-1436-37-270114
2001-14276-836-313185
2002-17853-2930-345211
2003-18630-2074-33755
2004-28199-2603-314472
2005-37049-6094-380217
2006-39370-3169-473618
2007-51739-3856-481832
2008-19025-2137-489744
2009-27177-2108-488789
2010-20661-632-565559
20011-17135-975-661642
2012-9165-1423-704398
2013-5668-602-751024
2014-5305-669-867476
कुल नियुक्तियां-30,145
;डाटा सोर्स इंप्लाएमेंट डायरेक्ट्रेटद्ध
उत्तराखंड के पहाड़ पलायन के कारण खाली
उत्तराखंड की खूबसूरत वादियों में जहां मैदानी क्षेत के सैलानी पाकृतिक सौंदर्य का लुफ्त उठाने के लिए आते हैं वहीं गरीबी व सुविधाओं के अभाव से तस्त इन पहाड़ों के लोग रोजगार की तलाश में मैदानों की तरफ पलायन कर रहे हैं। पलायन के कारण उत्तराखंड के दो जिलों अल्मोड़ा और पौड़ी में जनसंख्या बढ़ने की दर नकारात्मक हो गई है। योजना आयोग ने इस पलायन को खतरनाक और लोगों का अंसतोष करार दिया है। आगामी 22 मई को योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया और उत्तराखंड के मुख्यमंती विजय बहुगुणा के बीच बैठक होनी है। इस बैठक में राज्य की वर्ष 2013-14 के लिए वार्षिक योजना का आकार तय होना है। योजना आयोग ने इस आकार को 8,500 करोड़ रुपए तय करने का पस्ताव किया है। यह राशि पिछले साल के 8,200 करोड़ से मात तीन फीसद ज्यादा है। इसकी वजह राज्य सरकार द्वारा योजनागत राशि को खर्च करने में लापरवाही बरतना है। वर्ष 2012-13 में ही योजना राशि का 95 फीसद खर्च हुआ अन्यथा इससे पहले कभी 65 फीसद तो कभी 60 फीसद ही खर्च हुआ था। आयोग ने जो अपनी रिपोर्ट तैयार की है, उसमें पहाड़ी इलाकों की आबादी का पलायन महत्वपूर्ण मुद्दा है। आयोग के मुताबिक अल्मोड़ा और पौड़ी की आबादी बढ़ने के बजाए घटी है। अल्मोड़ा की आबादी घटने की रफ्तार -1.73 फीसद और पौड़ी की -1.51 फीसद है। बाकी पहाड़ी जिलों चमोली, रुदपयाग, टिहरी, पिथोरागढ़ और बागेश्वर की आबादी 5 फीसद से भी कम की रफ्तार से बढ़ी है जबकि देश की आबादी बढ़ने की औसत रफ्तार 17 फीसद है। उत्तराखंड के ही मैदानी जिले ऊधम सिंह नगर की अबादी 33.40 फीसद, हरिद्वार की 33.16 फीसद, देहरादून की 32 फीसद और नैनीताल की आबादी 25 फीसद की रफ्तार से बढ़ी है। आयोग ने पहाड़ों से अबादी के पलायन के लिए नौकरियों को लेकर असंतोष व अवसरों की कमी को कारण माना है। इस मुद्दे पर उत्तराखंड के मुख्यमंती के साथ विचार-विमर्श होगा। पलायन का असर लिंग अनुपात पर भी पड़ा है। उत्तराखंड में लिंग अनुपात घटकर 886 हो गया है। पिथौरागढ़ में बलिकाओं की संख्या 842 पति हजार रह गई है। योजना आयोग ने इसे खतरे की घंटी बताया है। असंतोष का एक कारण यह भी है कि पहाड़ों में शिक्षा के उचित साधन और अवसर नहीं हैं। गांवों में उपयुक्त स्कूल नहीं हैं या शिक्षक नहीं हैं। आयोग की रिपोर्ट के अनुसार पहाड़ में एक बच्चे की पढ़ाई पर 16,881 रुपए का खर्च आता है, यह मैदानों से 2 से 3 गुना ज्यादा है। राज्य में 17 फीसद स्कूल एक ही टीचर से चलाए जा रहे हैं। 59 फीसद टीचर ठेके पर और अपशिक्षित हैं। राज्य में 17 हजार शिक्षकों के पद खाली पड़ी हैं। आज जहां शहरों में पढ़ाई-लिखाई के लिए एक से एक बढ़िया स्कूल चल रहे हैं वहीं पहाड़ों के स्कूलों का क्या हाल है, इसकी एक झलक एएसईआर की 2012 की रिपोर्ट से मिलती है। रिपोर्ट के अनुसार कक्षा पांचवीं के 42 फीसद और सांतवीं के 24 फीसद छात कक्षा दो की पाठयपुस्तक नहीं पढ़ पाते। पांचवीं के 70 फीसद और सांतवीं के 46 फीसद छात अंगेजी की एक साधारण लाइन नहीं पढ़ पाते, 65 फीसद पांचवीं के बच्चे और 43 फीसद आठवीं के बच्चे गणित में भाग नहीं बना पाते।। यही हाल स्वास्थ्य क्षेत का है। न अस्पताल हैं, न डाक्टर और न ही लैब हैं।

गुरुवार, 19 मार्च 2015

सदन में हो रही सरकार की किरकिरी

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केदारनाथ यात्रियों का रजिस्ट्रेशन जरूरी

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जन सरोकारों से जुड़े एक नए आन्दोलन का आगाज़

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बुधवार, 18 मार्च 2015

Gayatri Mantra

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‘मोदी मैजिक’ और कांग्रेस?

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राजनीति को विकास से रखें दूरःसीएम

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Jagrans News: समाचार, Sports:स्पोर्ट्स ,Entertainment:मनोरंजन

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मंगलवार, 17 मार्च 2015

प्रशिक्षु डाक्टरों का उत्पात

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गोद के ल‌िए इंतजार

गोद के ल‌िए इंतजार

गोद के ल‌िए इंतजार

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सरकार पर ‘पुलिस राज’ का इल्जाम

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पीएम आवास पर उपवास करेंगें कांग्रेसी

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“The work of repair of Chaar dhaam routes and improvisation should be sped up

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Jagrans News: समाचार, Sports:स्पोर्ट्स ,Entertainment:मनोरंजन

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सोमवार, 16 मार्च 2015

उत्तराखंड में चलेगी मेट्रो!


वित्त मंत्राी ने पेश किया बजट

सोमवार को उत्तराखंड विधान सभा के पटल पर बजट 2015-16 पेश किया गया। वित्त मंत्राी इंदिरा हृदयेश ने शाम चार बजे प्रश्नकाल के बाद बजट पेश किया। बजट में खास बात यह रही कि देहरादून-)षिकेश-हरिद्वार, रुद्रपुर-लालकुंआ-किच्छा-हल्द्वानी-काठगोदाम के बीच मेट्रो चलाने के अध्ययन हेतु कार्य समूह का गठन की बात रखी गई है। वहीं, मुख्यमंत्राी हरीश रावत ने वित्त मंत्री डा. ;श्रीमतीद्ध इंदिरा हृदयेेश द्वारा वर्ष 2015-16 के लिए प्रस्तुत बजट का स्वागत करते हुए कहा है कि यह बजट सभी प्रदेशवासियों के हित में है। इससे नये उत्साह का संचार होगा। जनता की सहभागिता से राज्य के समावेशी विकास का प्रयास किया गया है। हमने जहां राज्य के आर्थिक संसाध्नों को बढ़ाने पर बल दिया है, वहीं सभी वंचित व कमजोर वर्गों के कल्याण के लिए अनेक नई पहल की है। बजट में वित्तीय अनुशासन का भी ध्यान रखा गया है। मुख्यमंत्राी ने कहा कि राज्य को केन्द्र सरकार के बजट से काफी उम्मीद थी, कि वहां से कापफी बड़ी ध्नराशि का सहयोग राज्य को मिलेगा। केन्द्र में नीतिगत कारणों से असमंजस की जो स्थिति है, उसके आलोक में वित्त मंत्राी ने घाटे को नियंत्रित करते हुए वर्ष 2015-16 में सरप्लस बजट दिया है। बजट में हर क्षेत्रा का ध्यान रखा गया है। बजट के माध्यम से प्रयास किया है कि प्रदेश में पलायन की गति को नियंत्रित किया जाय। शिक्षा के क्षेत्रा में कापफी कुछ नया करने की बात कही गई है। राज्य में स्थापित विश्वविद्यालयों में स्कूल आॅपफ लोकल लैग्वेज खोला जायेगा। अल्मोड़ा में आवासीय विश्वविद्यालय स्थापित करने की बात कही गई है। प्रत्येक विकासखण्ड स्तर पर राजीव गांध्ी अभिनव विद्यालय स्थापित होंगे। दो सैनिक स्कूल स्थापित होंगे। बजट निर्माण में जनता से भी सुझाव लिए गए। वित्त मंत्राी ने बजट में अभिनव पहल करते हुए जन्म से विकलांग बच्चों को 18 वर्ष की आयु तक 500 रूपए प्रति माह पेंशन देने की योजना प्रारम्भ की है। यह बजट एक नया अध्याय शुरू करेगा। राज्य आंदोलनकारियों के कल्याण के लिए ‘‘राज्य आंदोलनकारी कल्याण कोष’’ की स्थापना की गई है। बजट में 38वें राष्ट्रीय खेलों, ‘‘मुख्यमंत्राी वृ( महिला पोषण योजना’’, ‘‘मेरा गांव-मेरी        शेष पेज चार पर
 सड़क योजना’’, ‘‘मेरे बुजुर्ग मेरे तीर्थ योजना’’ के लिए ध्नराशि का प्राविधन किया गया है। हमारी सरकार महिलाओं की सुरक्षा व कल्याण के लिए प्रतिब( है। ‘‘वीर चंद्र सिह गढ़वाली योजना’’ को और व्यापक करते हुए इसमें महिलाओं के लिए 20 प्रतिशत तक मात्राकरण किया गया है। पीआरडी व होमगार्ड्स में महिलाओं के लिए 20 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की जाएगी। महिलाओं को स्वव्यवसाय से जोड़ने के लिए इंदिरा प्रियदर्शिनी कामकाजी महिला योजना प्रारम्भ की जा रही है।
आयः
- 2015-16 में राजस्व प्राप्तियों में 25777.67 करोड़ रुपए की राजस्व आय अनुमानित है।
- 2014-15 के आय व्ययक अनुमान में कर राजस्व 12157.26 करोड़ रुपए के सापेक्ष 2015-16 में 23.30 प्रतिशत वृद्वि सहित 14989.57 करोड़ की प्राप्ति अनुमानित है।
- करेत्तर राजस्व के अंतर्गत 10788.11 करोड़ की प्राप्ति अनुमानित है।
- 2014-15 में कुल 29825.16 करोड़ रुपए प्राप्तियों के अनुमान के सापेक्ष वर्ष 2015-16 में कुल प्राप्तियां 32310.07 करोड़ रुपए अनुमानित है।
व्ययः
- 2014-15 के आय व्ययक में कुल 30353.78 करोड़ व्यय अनुमान के सापेक्ष 2015-16 में 32693.64 करोड़ रुपए का कुल व्यय अनुमानित है।
- 2015-16 में आयोजनेत्तर व्यय 21059.15 करोड़ अनुमानित है जो कुछ व्यय का 64.41 प्रतिशत है। 2014-15 के अनुमान 18676.65 करोड़ के सापेक्ष आयोजनेत्तर व्यय में 12.76 प्रतिशत की वृ(िा है।
- 2015-16 में 11634.49 करोड़ का आयोजागत व्यय अनुमानित है।
बजट के प्रमुख बिंदु
8देहरादून-)षिकेश-हरिद्वार, रुद्रपुर- लालकुंआ-किच्छा- हल्द्वानी- काठगोदाम के बीच मेट्रो समान योजना की उपयोगिता के अध्ययन हेतु कार्य समूह का गठन होगा
8राज्य में आयोजित होने वाले 38वें राष्ट्रीय खेलों के लिए ध्नराशि की व्यवस्था की
8जन्म से विकलांग बच्चों को 18 साल तक 500 रुपए प्रतिमाह की ध्नराशि मिलेगी
8मेरे बुजुर्ग मेरे तीर्थ योजना हेतु ध्नराशि की व्यवस्था की
8राज्य के वरिष्ठ नागरिकों हेतु चिकित्सालयों में बैड आरक्षित
8एसिड आक्रमण पीड़ित महिलाओं को राज्य सरकार देगी 2 लाख रुपए 

गुरुवार, 5 मार्च 2015

President Pranab Mukherjee visit on the occasion of the opening of the Kedarnath Dham

 President Pranab Mukherjee  visit on the occasion  of the opening of the Kedarnath Dham


Dehradun: The Chief Minister Harish Rawat met the President Pranab Mukherjee at New Delhi today. During the meeting, the CM Harish Rawat requested the President Pranab Mukherjee to pay a visit on the occasion  of the opening of the Kedarnath portals. The President accepted the invitation and confirmed his participation. The CM told him that Kedarnath Yatra is about to begin. The date for opening of Kedarnath's portals has also been set. Kedarnath is one of the four dhaams of Uttarakhand.THe CM Harish Rawat said that the dhaam had suffered huge losses owing to the disaster. The state has made efficient arrangements for the security of Dhaams and all arrangements have been made for the tourists. He added that the government is trying to revive tourism in the state.
The CM stated that if the President visits Uttarakhand during the Yatra, it will send a positive message to the tourists all over.
The chaar dhaam Yatra is the pride of the nation. Also present on the occasion were Kishore Upadhyaya and advisor to the CM Dr Sanjay Choudhary.