नंदा राजजात के बाद मुख्यमंत्री किस सफलता का ईनाम बाॅट रहे हैं, और क्यों?
...और ईनाम पाये ‘बडे़ सरकार’
नंदा देवी राजजात पौराणिक और धार्मिक यात्रा की ऐतिहासिकता और प्राचीनता को जरा छोड़ दे, ंतो राजजात यात्रा का महत्व वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी सार पूर्ण है। इस सारी यात्रा के दौरान जो अनुभव हुए हैं, उसमें बेटियों के सरंक्षण, सामाजिक समरसता, पर्यावरण संरक्षण और पलायन से जुझ रहे पहाड़ को बचाने की सीख थी। हालांकि पूरी यात्रा के दौरान जनमानस इन भावनाओं से ओत प्रोत होता रहा,परन्तु जैसे ही यह यात्रा उच्च हिमालयी क्षेत्रों में प्रवेश करती रही वैसे-वैसे वहाॅ की दुर्लभ पादप, जड़ी-बूटियों वृक्ष-वनस्पतियों का ह्मस बडे़ पैमाने पर देखने को मिला। इस दौरान यात्रियों को बचाने की प्राथमिकताऐं सरकार कीं थीं पर हिमालय को घायल करने की कीमत पर। जो घाव हिमालय को मिले उसका क्या? जिन भक्तों को सुविधाऐं मिलनी चाहिए थी,नहीं मिली,लोग खुद सेवा में लगे रहे, धर्माथ ओर परोपकार करते रहे, फिर मुख्यमंत्री किस सफलता का ईनाम बाॅट रहे हैं, और क्यों? नंदा देवी राजजात यात्रा के बाद के हालातों पर केंद्रित यह विशेष आलेख। संपादक
देव कृष्ण थपलियाल
18 अगस्त को नौटी से शुरू होकर 03 सितंबर 2014 को हिमालय के होमकुंड नामक स्थान पर संपन्न हुई। इस पौराणिक और धार्मिक राजजात यात्रा का र्निविघ्न समापन निश्चित ही संतोष का विषय है।इसके लिए वे हजारों-लाखों श्र(ालुगण, दर्शनार्थी व देवी माॅ के अनन्य भक्तगण कोटिशः बधाई और धन्यवाद के पात्र हैं, जिन्होंनें बिना किसी सरकारी अथवा गैरसरकारी सहायता के इस धार्मिक अनुष्ठान को पूरी तन्मयता और निष्ठा के साथ पूर्ण किया, यह साधुवाद इसलिए भी, क्योकि हमारी राजसत्ता ने यात्रा के संचालन को लेकर जनसामान्य में तमाम सुविधाएं जुटाने के नाम पर इतने भ्रम फैलाये थे कि आम आदमी बिना तैयारी के ही यात्रा में चलने को बेताब था। सरकार द्वारा इसके लिए जो लम्बा-चैडा बजट तय किया गया, उस हिसाब से यात्रा मार्गों-पड़ावों का निर्माण, रख-रखाव व उस स्तर की व्यवस्था कहीं भी देखने को नहीं मिला। करोड़ों रूपयों के प्रचार-प्रसार को देखकर, इस सचल हिमालयी कुंभ की भव्यता का एहसास होता रहा, लेकिन शुरूवाती दौर में जैसे-जैसे यात्रा आवासीय पडावों से गुजरती रही, सरकारी व्यवस्थाओं की पोल भी धडा-धड खुलती रही, संकरी सडकों के चैडीकरण, विभिन्न मार्गों को दुरूस्त कर छोटी-बडी पुलियाओं के निर्माण की बात केवल हवा-हवाई साबित हुई। सरकार द्वारा मीडिया में प्रचारित की जा रहीं घोषणाएं कुछ अपवादों को छोड दें तो शेष ज्यादातर बातें धरातल पर नदारद दिखी शुक्र है लोग पहले ही सजग होते रहे, काश! इन्हीं सभी दावों-वादों पर तनिक भी विश्वास कर लिया गया होता, तो निश्चित ही परिणाम आज कुछ ओर होते? आश्चर्य तो तब हुआ जब देहरादून में बैठी काॅग्रेसनीत सरकार नें बिना देरी किये राजजात यात्रा की शानदार सफलता का सेहरा अपने ही सर बाॅध लिया। अभी लोग राजजात यात्रा से लौटे ही थे, विश्राम और चैन की सांस ले रहे थे, अपने गुजरे यात्राकाल के दौरान हुए अनुभवों पर आत्मचिंतन व विचार-विमर्श करते कि राज्य की राजधानी देहरादून में आनन-फानन में एक समारोह गुंज की सुनाई पडने लगी। राजनीति के चतुर खिलाड़ी माननीय मुख्यमंत्री हरीश रावत ने अपनी सरकारी मशीनरी को पुरस्कारों की सौगात बाॅटकर राजजात की इस भव्य सफलता का सेहरा खुद ही पहन लिया। पुरस्कारों के वितरण को लेकर इतनी व्यग्रता समझ से परे है? आमतौर पर जब भी किसी भी संस्था अथवा व्यक्ति को पुरस्कृत, उपकृत किया जाता है तो, उससे पहले आम लोगों में उसकी क्रिया-प्रतिक्रिया जानी जाती है, जनसामान्य में उस व्यक्ति या कार्य के प्रति उसके रूझान का अन्वेषण किया जाता है प्रायः इस कार्य के लिए कोई समिति, आयोग अथवा संस्था द्वारा संस्तुति पर भी पुरस्कृत किये जाने की परम्परा रही हैं, लेकिन यहाॅ तो मैच फिक्सिंग की तरह ही पहले से पुरस्कारों के विजेताओं के नाम तय किये गये लग रहे थे। राज्य सरकार से हजारों-लाखों रूपयों की मोटी पगार वसुलने और लग्जरी गाडियों व महलनुमा कोठियों का सुख भोगने वाले इन आला अधिकारी-नेताओं पर मुख्यमंत्री की इतनी मेहरबानियाॅ वाकई समझ से परे है? मुख्यमंत्री द्वारा अपने आला अधिकारियों को दिये गये इन पारतोषिकों का क्या आधार रहा, इसका भी ठीक अनुमान लगाना संभव नहीं है? एक आम और साधारण बर्कर के कार्य को भी इस श्रृंखला में शामिल कर दिया जाता, तो बहुसंख्यक राज्यवासियों में अच्छा संदेश जाता? किन्तु हो सकता है पहाड़ की इन पथरीली चट्टानों में पहली बार पाॅव रखनें वाले इन साहबों की खिदमद में ये इनाम बख्से गये हों? और राजनीतिक रूप से भी यह फायदेमंद रहेगा, इसके अलावा इन पुरस्कारों के औचित्य ढुंढे नहीं मिल रहें हैं, जिससे मुख्यमंत्री की अपनी नौकरशाही के प्रति इस दरियादिली का पता चल सके? वरना राजजात यात्रा के दौरान हुई अव्यवस्थाओं की लम्बी फेहरिस्त है। भला हो उन हजारों-लाखों देवी माॅ के भक्तों का जिन्होंने यात्रा काल के दौरान स्वयं अनुशासित रह कर दूसरों का भी सहयोग किया भले वे सरकार और मुख्यमंत्री की नजर में न आये हों पर उनका कार्य अनुकरणीय है, यात्रा के लगभग हर पड़ाव पर ऐसे नौजवानों, ग्रामीणों, महिलाओं और पुरूषों का जमवाड़ा भी मिला जो यात्रियों के लिए भोजन, आवासीय व्यवस्था, ठंडे पेय, पानी और चाय की निःशुल्क व्यवस्था में स्वेच्छा से तैयार था जहाॅ ऐसे स्वयंसेवियों ने यात्रियों खासकर असमर्थों को राहत पहुॅचाने का कार्य किया वहीं यात्रा व्यवस्थाओं को भी दूरूस्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। इस श्रृंखला में तमाम स्थानीय, प्रादेशिक और राष्ट्रीय स्तर तक की स्वयं सेवी संस्थाओं,संगठनों और व्यक्तियों, संतों, समाज सेवियों का भी उल्लेखनीय सहयोग रहा। 18 अगस्त को नौटी में हुए उदघाट्न समारोह के दिन जब प्रदेश के महामहिम राज्यपाल स्वयं पधारे थे तो नौटी से लेकर कर्णप्रयाग, सिमली गौचर अथवा समीपवर्ती छोटे-बडे नगर-कस्बों में पेट्रोल पंपों पर डीजल, पेट्रोल के लिए सुबह से ही नो इण्ट्री के बोर्ड चस्पा हो चुके थे, जिससे अधिसंख्यक लोग समारोह में ही शामिल नहीं हो पाये। नौटी में बेतरतीब खडे बाहनों से सडक जाम हो गईं, जिससे महिलाओं, बच्चों, बुर्जुगों और बीमारों को कई-कई किलोमीटर पैदल ही नापना पड़ा। जिससे इन बीमारांे और बुर्जुगों को अत्यधिक तकलीफ का सामना करना पड़ा। वहीं समारोह स्थल पर भी समय से नहीं पहुॅच पाये। वाण,चाॅदपुरगढी और कुरूड मे अव्यवस्थाएं सर चढ़ के बोल रहीं थीं इन पड़ावों पर भीषण गर्मी से बचने के लिए न तो पानी की ही समुचित व्यवस्था थी, न हीं धूप से बचनें के लिए टेंटो या टीन शेडो की। पार्किंग की अव्यवस्था से लगभग हर पड़ाव जूझता रहा। नतीजा ये हुआ कि चाॅदपुर गढी से लगभग पाॅच से सात किमी पहले से ही लोगों को पैदल ही आना पड़ रहा था। जाम में फॅसे होने का सबसे बडा खामियाजा महिलाओं के साथ-साथ बेचारे मासुम बच्चों को भी झेलना पड़ा, भूख और प्यास से तडफते बच्चों की दशा देखकर किसी का भी मन पसीज जाता था। सड़क के दोनों किनारों पर खडे वाहन किसी भी हालत में हिलने को तैयार नहीं दिखे। देर सांय जब यात्रा सेम गाॅव के लिए निकली तब जाकर गाडियाॅ आगे खिसकीं, इस दौरान दूरसंचार व्यवस्था खासकर बीएसएनएल मानों कही गायब ही गया हो। भीड में अगर कोई अपनों से बिछुड जाय तो वापस मिलना मुश्किल था। यात्रा पडाव का अंतिम गाॅव वाॅण जनसमुद्र में परिवर्तित हो गया लग रहा है, हालांकि इन परिस्थितियों में सरकार की भी अपनी सीमाएं थी, हर व्यक्ति के लिए समुचित सुविधा जुटाना संभव भी नहीं था, पर सरकार कहीं दिखी भी तो नहीं, लगभग पच्चीस प्रतिशत लोगों को खुले आसमान के नीचे ही रात बितानी पड़ी। नतीजा ये हुआ कि रात को बारिश आ जानें से लोंगो को आधी रात में हीं सामान समेटना पडा, दूरसंचार की समस्या यहाॅ भी बनीं रही, विशेषज्ञों का मानना है कि मोबाइल टावरों के क्षमता से अधिक उपभोक्ताओं के कारण ये गढबडियाॅ हुई थी, सिंग्नल तो मिले पर बातचीत हर हाल में नहीं हो पा रही थी जिससे लोगों की न व्यवस्थापकों से बातचीत हो पा रहीं थी नही अपनें परिजनों से ही। गैरोली पातल में भी भारी अव्यवस्था दिखी,बंगले में एक दुकान संचालित हो रहीं थी परन्तु देर सांय वह भी बंद हो गई,जिस कारण लोगों को चाय तक के लाले पड़ गये। खाने-पीने की व्यवस्था तो दूर की बात थी,सरकार नें निर्जन पड़ावों पर समुचित आवासीय टेंटों की बात कहीं थी, किन्तु उचित प्रबंधन व मार्गदर्शन के अभाव जरूरतमंद लोगों को उपलब्ध नहीं हो पाये। ऐसे लोग इन पडावों सर छुपाते हुए यत्र-तत्र भागते हुए दिखे। अग्रिम निर्जन पडावों के लिए दी गई जानकारियाॅ भी न केवल अपूर्ण थी, अपितु गलत जानकारियों की भरमार थी। अगला पडाव अगर दस किलोमीटर की दूरी पर स्थित है तो रास्तों पर टंगे अथवा लिखी सूचना के अनुसार महज चार या पाॅच किमी है। ऐसी गलत जानकारियों ने लोगों को न केवल भ्रम में डाला, अपितु अनावश्यक तनाव व थकान को भी झेलना पडा।
सुतोल, तातड, लाटाखोपडी,चंदनियाॅघाट पैदल मार्ग पर बदरीनाथ वन प्रभाग की कलाकारी दिखी, पुराने रास्ते पर खडंचे की जगहमिट्टी भर दी गई, हो सकता तब मौसम साफ रहा हो पर ऐन यात्राकाल में बारिश नें सच्चाई उगल दी और 14 किमी से भी लम्बे रास्ते को यात्रियों ने घुटने-घुटने तक किचडे से सने पाॅवों से जैसे-तैसे अपने को पार लगाया, इस रास्ते पर चलते वक्त कई यात्री घायल भी हुए। रास्ते पर मंेढ बनाने व उसे सर्पोट प्रदान करनें के लिए इसी वन विभाग नें इस पुनीत अवसर पर लगभग 1,000 देवदार के वृक्षों की बलि दे दी,जिस महकमें को पेडों की सुरक्षा और संवद्र्वन की, मोटी पगार और बजट दिया जा रहा है वहीं उनका दुश्मन हो बना। ऐसे धार्मिक और पवित्र कार्य पर वृक्षों को काटना न केवल धार्मिक दृष्टि से अपितु कानूनी दृष्टि से भी अनुचित है। होमकुंड में चैंिसंग्या मेढे की विदाई और छंतोलियों के विसर्जन के पश्चात यात्रियों को होमकुड से चंदनियाॅ घाट होते हुए सुतोल आना था। लेकिन वन विभाग द्वारा नौ लाख रूपये खर्च करने के बावजूद मार्ग ये दुर्दशा दिखी। हालांकि जिला अधिकारी चमोली एस.ए. मुरूगेशन ने तत्काल जाॅच व जिम्मेदार अधिकारियों पर कड़ी से कडी कार्यवाही की बात कही थी,परन्तु इतना लम्बा समय बीत जानें के बाद भी, कार्यवाही की बात तो छोड दीजिए, डी.एम. के वायदे के मुताबिक अभी तक जाॅच तक नहीं बिठाई गई। नंदा देवी राजजात पौराणिक और धार्मिक यात्रा की ऐतिहासिकता और प्राचीनता को जरा छोड़ दे, ंतो राजजात यात्रा का महत्व वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी सार पूर्ण है। इस सारी यात्रा के दौरान जो अनुभव हुए हैं, उसमें बेटियों के सरंक्षण, सामाजिक समरसता, पर्यावरण संरक्षण और पलायन से जुझ रहे पहाड़ को बचाने की सीख थी। हालांकि पूरी यात्रा के दौरान जनमानस इन भावनाओं से ओत प्रोत होता रहा,परन्तु जैसे ही यह यात्रा उच्च हिमालयी क्षेत्रों में प्रवेश करती रही वैसे-वैसे वहाॅ की दुर्लभ पादप, जड़ी-बूटियों वृक्ष-वनस्पतियों का ह्मस बडे़ पैमाने पर देखने को मिला। इस दौरान यात्रियों को बचाने की प्राथमिकताऐं सरकार कीं थीं पर हिमालय को घायल करने की कीमत पर। राजजात यात्रा के निर्जन पडावों लगभग 9500 फीट की ऊॅचाई पर स्थित गैरोली पातल, 11500 फीट की ऊॅचाई पर स्थित वेदनी बुग्याल, 3650 मी0 की ऊॅ. पर स्थित पातर नचैंणियाॅ 4210 मी0 की ऊॅचाई पर स्थित शिलासमुद्र व 2192 मीटर की ऊॅचाई पर स्थित चंदनियाॅघाट के अलावा इन आसपास स्थित आली बुग्याल, बगुवाबास ,कैलविनायक, रूपकुंड, ज्यूंरागली होमकुंड, लाटाखोपडी, तातड आदि बुग्याल से हरे भरे क्षेत्रों में यात्रियों नें जमकर अजैविक कूडा फैलाया। इन बुग्यालों मे विसलरी, शीतल पेय की बोतले,नमकीन बिस्किट,खैनी सहित प्लास्टिक के कैरी बैगों के साथ-साथ बडे कटे-फटे प्लास्टिक के तिरपाल, फाईबर की प्लैटंे-कटोरी गिलासों के अलावा कई अन्य सामग्री हरे-भरे बुग्यालों मे फैलीं हैं। यात्रा के दौरान फैले सैकड़ों क्विंटल अजैविक कूडे के साथ भारी मात्रा में प्लास्टिक फैला है। जिस पर शासन-प्रशासन की ओर से कोई ध्यान नहीं दिया गया है।
जानकारों का मानना है, कि बुग्यालों से तत्काल अजैविक कुडे का निस्तारण नहीं किया गया तो बुग्यालों पर विपरीत प्रभाव पडेगा। इस तरह के कूडे के कारण जहाॅ अतिसंवेदनशील बुग्यालों में उगनें वाले तमाम दुर्लभ जडी-बूटियों के अंकूरण व उसके विकास पर पड़ेगा, वहीं अन्य पौधों पर भी इसका विपरित प्रभाव पडना तय है। इस प्रकार यदि बुग्यालों से हजारों टन अजैविक कूडा और प्लास्टिक नहीं हटाया गया तो बुग्यालों का अस्तित्व भी संकट में पड जायेगा। जो आने वाले समय के लिए अच्छा संकेत नहीं है। राजजात यात्रा के दौरान तमाम वर्जनाओं को तोडा गया। हालांकि यह सिलसिला सन् 2000 की राजजात यात्रा से शुरू हो गया था, जहाॅ यात्रा के व्यावसायीकरण का अध्याय भी जुडा,इस बार की यात्रा पारंपरिक सांस्कृतिक मुल्यों और पंरपराओं से हटती हुई भी नजर आई, जहाॅ माॅ नंदा की अराधना उसके जीवन चरित्र को आत्मसात करते हुए लोग भाव-विभोर होते दिखे, वहीं अधिसंख्यक युवा वर्ग रोमांच और मौज-मस्ती की बयार में बहता हुआ नजर आया, यहीं कारण है। उच्च हिमालयी क्षेत्रों के निर्जन पडावों पर प्रकृति को रोदने के लिए हजारों की संख्या में लोग वहाॅ पहुॅचे, रास्ते में ब्रहृमकमल, मासी, अतिश,विश, फैंनकमल समेत तमाम दुर्लभ पादप, जड़ी-बूटियों का सत्यानाश किया गया। बहुत से लोग ब्रहृम कमल जैसे पुष्प पर टूट पडे, कुछ लोग इसी धार्मिक यात्रा की आड में रेड डाटा बुक में शामिल सालम पंजा जैसी दुर्लभतम् और प्रतिबंधित जडी-बूटियों को उखाड़ ले आये। समुद्रतल से 1600 फिट की ऊॅचाई पर स्थित रहस्यमयी झील के नाम से विख्यात रूपकुंड से मानव कंकाल और पुरातात्विक महत्व की अनमोल वस्तुओं को उठा ले जाने पर कोई रोक-टोक न होनें से उत्तराखण्ड का यह अमुल्य पुरातात्विक खजाना आज दुनिया की विभिन्न प्रयोगशालाओं में पहुॅच चुका है। कंकालों के साथ ही वहाॅ कभी आभूषण, राजस्थानी जूते,पान-सुपारी के दाग लगे दाॅत, शंख की चुडियाॅ आदि सामग्री वहाॅ यत्र-तत्र बिखरी पडी हुई थी लेकिन अब वह गायब होती नजर आतीं हैं। जिस पर्यावरण को बचाने का संदेश इस पवित्र यात्रा का उद्देश्य था। दुर्भाग्यवश उसी को नजरअंदाज किया कर दिया गया।
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