‘मूल स्वरूप’ से भटका ‘गौचर मेला’न हुआ उद्योगों का विकास न स्थानीय को मिला विकास योजनाओं का फायदासंस्कृति को छोड़ आधुनिकता की चकाचैंध के रंग में रंगा पौराणिक मेलाहिमालयी क्षेत्र का सबसे पुराना मेला आज हो गया है उपेक्षित
हिमालयी क्षेत्र का सबसे पुराना मेला आज अपने स्वरूप को खोने के साथ आधुनिकता के रंग में रंग गया है। इससे जहां हमारी संस्कृति पर विलुप्ति का साया पड़ा है, वहीं आधुनिकता की चकाचैंध ने इसे अब मात्र खानापूर्ति और सरकारी धन के दुरूपयोग के लिए एक संसाधन बनाकर रख दिया है। राज्य बनने के बाद से लेकर अब तक की सरकारों ने इस दिशा में सकारात्मक सोचने के वजाय राज्य के धन को ठिकाने लगाने के लिए मात्र इस मेले के प्रति अपनी भूमिका दिखाकर इतिश्री करने में लगे हुए हैं।
उल्लेखनीय है कि पर्वतीय ग्रामीण जीवन में मेलों का विशेष महत्व है। वैसे तो मेलों के पीछे कोई न कोई धार्मिक कारण निहित रहा हैै किन्तु उत्तराखंड का प्रस़ि गौचर मेला सबसे हटकर पर्वतीय क्षेत्र की आर्थिक सामाजिक व सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र रहा है।
प्रतिवर्ष 14 नवंबर से 20 नवंबर तक जनपद चमोली के गौचर कस्बे में आयोजित होने वाला यह मेला वर्ष 1943 में शुरू हुआ था। वर्ष 1952 में चीन द्वारा तिब्बत का अधिग्रहण किये जाने के पहले तक भारत व तिब्बत के बीच व्यापार चलता था। भारत को तिब्बत से जोडने वाले प्रमुख दर्रा क्षेत्रों में कुमाऊ में जुहार दारमा व्यास चैदास तथा गढ़वाल में नीति माणा स्थित है। बुजुर्ग भोटिया व्यापारियों से पता चलता है कि इन दर्रा क्षेत्रों से तिब्बत की दांपा दोंफूू ज्ञानिम थोलिग मठ नाबरा व गारतोक आदि व्यापारिक मंडियों में पहुंचाया जाता था। तिब्बती मंडियों में भारतीय सामान के बदले ऊन ऊनी वस्त नमक कीमती पत्थर आभूषण शिलाजीत जडी बूटिया आदि यहां आती थ्ज्ञभ्। कुमायूं क्षेत्र के भोटिया व्यापारियों द्वारा अपने माल को बेचने के लिये कुमायूं के विभिन्न स्थानों पर मेलों का आयोजन किया जाता था। इसी बात को मद्देनजर रखते हुये गढवाल के भोटिया व्यापारियों के मन में भी इसी प्रकार का एक मेला आयोजित करने का विचार आया। भोटिया समाज के जागरूक नागरिक बाला सिंह पाल व पान सिंह बंपाल ने पत्रकार गोविन्द प्रसाद नौैटियाल के सहयोग से तत्कालीन गढवाल जिले के डिप्टी कमीश्नर आर0वी0वर्नीड से भेंटकर गौचर के विस्तृत मैदान में शुरू करने की अुनमति प्राप्त की।
द्वितीय विश्व यु़द्व के दौैरान मेला आयोजित करने की अनुमति देने के पीछे डिप्टी कमीश्नर आर0वी0वर्नीड की यह रणनीति भी थी कि इसी बहाने गढवाल युवकों को सेना में शामिल करने के लिये उन्हें एक उपयुक्त स्थान मिल जायेगा। तभी से गौचर मेले में भर्ती का आयोजन भी किया जाता है। शुरू में गौचर मेला भोटिया व्यापारियों द्वाराआयोजित किया जाता रहा है। उनके द्वारा तिब्बत से लाये गये माल से ही दुकानें सजी रहती थी। बाद में अंतराष्र्टीय घटनाक्रमों में परिवर्तन के फलस्वरूप मेले के स्वरूप में भी अंतर आया है। चीन द्वारा तिब्बत का अधिग्रहण किये जाने से तिब्बती व्यापार बंद हो गया। इससे भोटिया व्यापारी गौचर मेले में हटाये गये और उनका स्थान बाहरी व्यापारियों ने ले लिया। मूलतः व्यावसायिक उद्देश्यों के लिये शुरू हुये मेले कोे प्रारंभ में भोटिया मेला हा जाता था। स्वतंत्रता के पश्चात इसके नाम में परिवर्तन कर इससे आद्वोगिक एवं विकास मेला कहा गया। यह अलग बात है कि आोगिक दृष्टि से चमोली जिला आज भी शून्य है और रिंगाल ऊन शिल्प व अन्य हस्त शिल्प भी इस मेले में नहीं दिखाई पडती है। जिससे यह कहा जा सके कि मेले के आयोजन से आोगिकता को किसी प्रकार का बढावा मिल रहा है।
हालांकि उत्तराखंड राज्य गठन के बाद मेले को वृहद स्वरूप देेने के लिये शासन-प्रशासन के स्तर पर प्रयास तो किये गये, लेकिन हैरानी वाली बात यह है कि जिन उद्देश्यों को देखते हुये इस मेले का आयोजन किया जाता है उसकी तनिक पूर्ति भी दूर- दूर तक नजर नहीं आ रही है। हालांकि आज मेले में रंगत देखने को मिलती है, लेकिन वह सब कुछ कहीं भी नजर नहीं आता है जिसके लिए इस मेले का आयोजन प्राचीनकाल से किया जाता था। आज मेले में आधुनिकता की चकाचैंध के सिवाय और कुछ दिखता ही नहीं है।
by-udaydinmaan
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