‘सियासी कीचड़’
में लापता हुआ गाड-गदेरों का बेटा
ऐसा कुछ नहीं हुआ। हरीश रावत के एक साल के कार्यकाल में जनोपयोगी कार्य कम हुए और राज्य
की जनता का हरीश रावत से विश्वास उठ गया है। कुल मिलाकर एक साल के कार्यकाल में हरीश
रावत मात्र 10 प्रतिशत सफल रहे। हरीश रावत की संवेदनहीनता की ही हद है कि वे बेझिझक मुख्यमंत्री विवेकाधीन कोष का मुंह गरीबों के लिए तो बंद करने का ऐलान कर देते हैं, लेकिन खुद अपने इर्द-गिर्द चाटुकारों की फौज भर्ती कर जनता का करोड़ों रूपया हर महीना बहा देते हैं। यही नहीं, हरीश रावत कांग्रेसियों को खुश करने के लिए जिस तरह थोक के भाव दायत्विधारियों की भर्ती करने में जुटे पड़े हैं, वह यह दिखाता है कि हरीश रावत को जनता की बजाय कांग्रेसियों की ही ज्यादा चिंता है। अगर ऐसा न होता तो वे इस तरह के विरोधाभासी फैसले न लेते। इस एक साल के कार्यकाल में अब तक जिस तरह हरीश रावत भ्रष्ट नौकरशाहों को संरक्षण देते आ रहे हैं, वह उनकी नीयत पर ही सवाल उठाता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ कानून बनने के बाद भी जिस तरह एक साल से हरीश रावत लोकायुक्त की चयन प्रक्रिया तक शुरू नहीं कर पाए हैं, वह बताता है कि सरकार के दिखाने के दांत और, खाने के दांत कुछ और हैं। सरकार की छत्रछाया में पिछले एक साल से इस राज्य में माफिया और भष्टों की ही खूब पौ बारह हो रही है। राज्य के विकास के लिहाज से उनका यह पहला साल कोरी बयानबाजी व शह-मात के खेल तक ही सीमित रहा। कुल मिलाकर हरीश रावत का अब तक का कार्यकाल निराशा ही पैदा करता है। सीएम हरीश रावत के एक साल के कार्यकाल पर केंद्रित यह खास आलेख। संपादक
रावत का पहला साल बीता भाजपाइयों को गरियाने और अपनी कुर्सी बचाने में
जमीनों के खेल भी इस पूरे एक साल में खूब खेले गए। सरकार की कृपा से हरिद्वार स्थित सिडकुल की भूमि के खरीदार बिल्डर को 266 करोड़ रुपए का फायदा हुआ और आज तक हरीश रावत यह जवाब नहीं दे पाए कि उनकी सरकार ने बिल्डर पर ऐसी कृपा क्यों बरसाई?इस सरकार के पहले साल के कार्यकाल में खनन माफियाओं, शराब माफियाओं और भू माफियाओं की मौज रही। हरीश रावत के मुख्यमंत्री बनने के पहले ही महीने में शराब माफियाओं के पक्ष में सरकार के उस बड़े निर्णय की खूब आलोचना हुई, जिसके तहत उन्होंने अपने अधिकारियों, अधीनस्थों की टिप्पणी के बावजूद पूरे प्रदेश के होलसेल शराब के कारोबार को ‘लिकर किंग’ रहे पोंटी चड्ढ़ा के बेटे मोंटी को सौंप दिया।मुख्यमंत्री बनते ही हरीश रावत ने जमीनों के हो रहे अंधाध्ुांध दोहन को रोकने के लिए एसआईटी गठन की बात की थी। हरीश रावत के मुख्यमंत्री बनने के बाद राज्य सरकार द्वारा ऐसा कोई आदेश जारी नहीं हुआ, जिसमें कहा गया हो कि अब भवनों की उंचाई सात मंजिल से अधिक की जा सकती है, किंतु भूमाफियाओं पर हरीश रावत की इतनी बड़ी कृपा रही कि अब प्रदेश में दस से लेकर चैदह मंजिला बिल्डिंगें नियम विरु( बन रही हैं। हरीश रावत के इस एक साल के कार्यकाल में हजारों नए शासनादेशों की खबरें हैं और खर्चे का औसत 25 प्रतिशत मात्रा। अर्थात सरकार के पास जो बजट है, उसका जनवरी के आखिरी सप्ताह तक सिर्फ 25 प्रतिशत ही सरकार खर्च कर पाई है, जिससे समझा जा सकता है कि शेष 75 प्रतिशत धनराशि को इस सरकार की कृपा से अधिकारियों ने मार्च फाइनल के नाम पर ठिकाने लगाने के लिए रखा हुआ है।
जब बजट खर्च की स्थिति यह है तो समझा जा सकता है कि हरीश रावत ने जो हजारों शासनादेश करवाए, उन पर किस प्रकार अमल हो रहा होगा। सरकार के आंकड़े बता रहे हैं कि विगत एक वर्ष से उत्तराखंड में पहाड़ से न सिर्फ पलायन में भारी तेजी आई है, बल्कि अब पहाड़ों में पहले की अपेक्षा अध्यापक और डाक्टर दोनों घट गए हैं, जो हरीश रावत की प्रशासनिक क्षमता पर सवालिया निशान लगाते हैं। हरीश रावत ने इस एक साल के अंतर्गत करोड़ों रुपए फूंककर रिकार्ड कैबिनेट की बैठकें देहरादून से लेकर अल्मोड़ा और गैरसैंण में आयोजित कीं। जिन कैबिनेट की बैठकों पर पांच सौ रुपए का खर्चा आना था, उन पर इतनी भारी-भरकम धनराशि लुटाने का जवाब हरीश रावत नहीं दे पाए। तीन दिन तक गैरसैंण में चलाए गए विधानसभा सत्र के बाद आज गैरसैंण में वही हालात हैं, जो उस विधानसभा सत्र से पहले थे। जिस उत्तराखंड की आज तक राजधानी तय नहीं है और उसका विधानसभा भवन देहरादून में स्थित है, उसी का गैरसैंण में एक नया विधानसभा भवन बनने जा रहा है तो देहरादून के रायपुर में भी नया विधानसभा भवन प्रस्तावित है। इसे इच्छाशक्ति का अभाव ही कहा जाएगा कि हरीश रावत पूर्ण बहुमत की सरकार का दंभ तो भरते हैं, किंतु उन्होंने राजधानी के मसले पर आज तक अपना रुख स्पष्ट नहीं किया है। इस एक साल को उत्तराखंड के लोग इसलिए भी याद नहीं करना चाहेंगे, क्योंकि इसी दौरान हरीश रावत ने अपने पूर्व मुख्यमंत्राी होने की स्थिति में देहरादून में अपने लिए सरकारी खर्चे से 40 करोड़ रुपए के एक भवन निर्माण की इजाजत दे दी। इससे समझा जा सकता है कि हरीश रावत की चिंता सिर्फ और सिर्फ अपनों के लिए ही है। हरीश रावत के परिजनों द्वारा सत्ता में सीधी दखलअंदाजी की बातें अब सामान्य लगने लगी हैं। अधिकारी परेशान हैं कि हरीश रावत की मानें या उनके परिजनों की। हरीश रावत के मुख्यमंत्री बनने के बाद उत्तराखंड की कार्यदायी संस्थाएं तो फाके में हैं, किंतु उत्तराखंड से बाहर की कार्यदायी संस्थाओं को लूट की खुली छूट दे दी गई है। 4 मार्च 2014 को बाहरी एजेंसियों पर कृपा बरसाने के लिए ऐसा शासनादेश जारी कर दिया गया, जिसमें स्पष्ट रूप से लिखा गया कि इन बाहरी एजेंसियों द्वारा कराए जा रहे निर्माण कार्यों में डीएसआर ;दिल्ली शिड्यूल्स आॅफ रेट्सद्ध के मानक लागू होंगे और ये संस्थाएं अपने नियमों के अंतर्गत कार्य करंेगी, अर्थात इन पर उत्तराखंड सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होगा। यह हरीश रावत के कौशल का ही परिणाम है कि आज पूरे प्रदेश में सारे महत्वपूर्ण और बड़े काम उत्तराखंड से बाहर की एजेंसियां अपनी मर्जी से कर रही हैं। एक ओर उत्तराखंड के आपदा पीड़ित आत्महत्या जैसे कठोर कदम उठाने को इसलिए मजबूर हैं कि सरकार उनकी नहीं सुन रही तो दूसरी ओर हरीश रावत ने अपनी कुर्सी की सलामती के लिए कैबिनेट के समकक्ष एक और ‘शैडो कैबिनेट’ बनाकर उत्तराखंड को गर्त में डालने का इंतजाम किया है। इस शैडो कैबिनेट पर उतने ही करोड़ों रुपए खर्च किए जा रहे हैं, जितने कि वास्तविक मंत्रिमंडल पर।
विधानसभा में अवैध, अनैतिक भर्तियों पर हरीश रावत की चुप्पी से साफ हो जाता है कि उनके लिए उत्तराखंड के बेरोजगारों से अधिक उनके रिश्तेदार विधानसभा अध्यक्ष गोविंद सिंह कुंजवाल हैं और उन्होंने कुंजवाल को ही मनमानी करने की खुली छूट दे रखी है। करोड़ों के घोटालों की जांच पर आज तक आंच नहीं आ सकी। पूरे साल भर शोर मचने के बावजूद स्वास्थ्य विभाग के टैक्सी बिल घोटाले में आज तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है। श्रीनगर में ध्वस्त हुआ चैरास पुल आज भी प्रदेश की जनता को इसलिए मुंह चिढ़ा रहा है, क्योंकि इसके दोषी अफसरों को हरीश रावत की शह प्राप्त है।यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि जब हरीश रावत मुख्यमंत्री बनें, तो कुमाऊं में उनके गांव मोहनरी में उनकी जयजयकार हो रही थी। किसी जमाने में ब्लाक प्रमुख रहे रावत केंद्र में कैबिनेट रैंक का मंत्री हासिल करने के बाद उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बने हैं। और ये कुर्सी हरीश रावत को 12 साल के इंतजार के बाद मिली है। जनता के बीच अपनी पकड़ के चलते शायद इन्हें यह पद मिला। 2002 में पार्टी ने एक तरह से उन्हीं की अगुवाई में उत्तराखंड का चुनाव लड़ा था और उनका मुख्यमंत्री बनना तय था लेकिन ऐन वक्त पर न जाने एनडी तिवारी कैसे कुर्सी पर बैठा दिए गए। हरीश रावत की उम्मीदों को झटका लगा उनके चाहने वालों को सदमा। हरीश को उबरने में वक्त लगा। तिवारी शासनकाल में कोई दिन ऐसा न होता था जब कयास न लगते हों कि तिवारी इस्तीफा दे रहे हैं।
by santosh banjwal
udaydinmaan
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें