सीमाओं पर पहरे लगे तो मानो हिमालय में जमी बर्फ की तरह रिश्ते भी जम गए। आर्थिक तौर पर उबरने में इन्हें लंबा समय लगा, लेकिन भावनात्मक तौर पर आज भी दिलों में कसक मौजूद है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीन पहुंचे तो चमोली जिले की नीति और माणा घाटी के 20 से ज्यादा गांवों में भी उम्मीद की लौ रोशन होने लगी। 55 साल पहले व्यापार के सिलसिले में बेरोकटोक तिब्बत तक आवाजाही करने वाले घाटी के लोगों के लिए भारत-चीन युद्ध के बाद सबकुछ खत्म हो गया।
सरहद के अंतिम गांव नीती में 85 साल के बुजुर्ग रणजीत राणा के लिए तिब्बत भावना से जुड़ा मुद्दा है। वह याद करते हैं कि 'वर्ष 1957 से पहले पिता के साथ वह व्यापार के लिए कई बार तिब्बत गए।' वह कहते हैं तिब्बत हमारे लिए दूसरे घर जैसा ही है। राणा को उम्मीद है कि दोनों देशों के रिश्ते सुधरे तो शायद उनके भी अच्छे दिन लौट आएं।
जोशीमठ से मलारी मार्ग पर है नीती घाटी और बदरीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग पर है माणा घाटी। दोनों घाटियों के 20 से ज्यादा गांवों में भोटिया जनजाति के लोग रहते हैं। वर्ष 1959 तक घाटी के अधिकतर परिवार तिब्बत जाकर व्यापार करते थे। इसके लिए दो रास्ते थे एक माणा पास और दूसरा नीती पास। माणा पास से मूसा पानी और ग्यालढुंग होते हुए पैदल तीन दिन में तिब्बत पहुंचा जाता था, जबकि नीती पास से बाड़ाहोती और तुनजनला कस्बों को पार कर दो दिन की यात्रा थी। घाटी के लोग मिश्री, भेली (गुड़ का ही एक रूप), कपड़े, राशन, दाल और मिठाई इत्यादि ले जाते थे और वहां से नमक, ऊन, घी और सोने चांदी के आभूषण लाते थे। वर्ष 1959 में चीन ने तिब्बत पर कब्जा किया तो आना जाना कम हो गया व 62 के युद्ध के बाद आवागमन पूरी तरह से बंद हो गया।
नीती घाटी में गमशाली गांव के निवासी उत्तराखंड के पूर्व पर्यटन मंत्री केदार सिंह फोनिया के पिता स्व.माधो सिंह फोनिया भी इलाके व्यवसायियों में शामिल थे। केदार सिंह फोनिया याद करते हैं कि 'वर्ष 1948 में हाइस्कूल की परीक्षा के बाद मैं भी पिता के साथ तिब्बत की जाफा मंडी गया था।' वह बताते हैं कि यहां के व्यापारियों की तिब्बत के जाफा, गरतोक, बुंबा शहरों में दुकानें और मकान भी थे। फोनिया कहते हैं दोनों देशों के बीच अच्छे संबंध रहेंगे तो व्यापार को भी प्रोत्साहन मिलेगा।
तिब्बत की चर्चा होते ही गमशाली गांव के 98 वर्षीय बाल ंिसह चौहान के चेहरे पर आज भी चमक आ जाती है। कभी व्यापार के सिलसिले में तिब्बत जा चुके बाल सिंह कहते हैं उस दौर में हम इतने सुखी थे कि हमारे गांव के लोग सरकारी सेवा में जाना ही पसंद नहीं करते थे। नीती घाटी के बांपा गांव निवासी 95 साल के लखन ंिसह पाल को इतना सुकून है कि दोनों देशों के बीच रिश्तों की बेहतर पहल हुई है। वह कहते हैं 'मालूम नहीं पुराने दिनों की वापसी देखने के लिए मैं जीवित रहूंगा या नहीं, लेकिन इतना विश्वास है कि अच्छे दिन अवश्य लौटैंगे।'
देवेंद्र रावत
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें