शुक्रवार, 8 मई 2015

फिर ‘डोलेगी’ धरती

भूकंप के मुहाने पर भारत की महानगरीय आबादीउनेपाल में आया 7.9 तीव्रता का भूकंप, जानमाल का भारी नुकसान, पोखरा रहा भूकंप का केंद्रउजनकपुर के जानकी मंदिर को भारी नुकसान, नेपाल का प्रसि( धरहरा टावर भी ढहा हिमालय के हिमखंड पिघलकर समुद्र का जलस्तर बढ़ा रहे है। आशंका है कि दुनिया के सबसे घनी आबादी वाले बांग्लादेश के कई भंखड समुद्र में जल-समाधि ले लेंगे। लाखों हेक्टेयर कृषि भूमि नष्ट हो जाएगी। वर्षा चक्र प्रभावित होगा। नतीजतन जनता को बाढ़ और सूखा दोनों तरह के अभिशाप झेलने होंगे। इस साल भारत के बहुत बड़े भूभाग में यही हश्र देखने में आया है। हालांकि इस बद्तर स्थिति में कुदरत का यह करिश्मा भी देखने में आ सकता है कि कनाडा और रूस की हिमशिलाओं के नीचे दबी लाखों बीघा जमीन बाहर निकल आएगी। बावजूद विनाश की आंशकाएं कहीं ज्यादा हैं,लिहाजा बेहतर यह होगा कि इंद्रिय-सुख पहुंचाने वाली भोग-विलस की संस्कृति पर लगाम लगे? इसी पर केंद्रित यह खास स्टोरी।








संतोष बेंजवाल

एशिया के हिमालयी प्रायद्वीपीय इलाकों में बीते सौ वर्षों से धरती के खोल की विभिन्न दरारों में हलचल मची है। अमेरिका की प्रसि( साइंस पत्रिका ने कुछ वर्ष पहले भविष्यवाणी की थी कि हिमालयी क्षेत्र में एक भयानक भूकंप आना शेष है। यह भूकंप आया तो 5 करोड़ से भी ज्यादा लोग प्रभावित होंगे। इस त्रासदी में करीब 2 लाख लोग मारे भी जाएंगे? हालांकि पत्रिका ने इस पुर्वानुमानित भूकंप के क्षेत्र,समय और तीव्रता सुनिश्चित नहीं किए हैं। लेकिन नेपाल के साथ भारत, चीन, बांग्लादेश, तिब्बत, भूटान, पाकिस्तान और अफगानिस्तान में एक साथ भूकंप के प्रकोप से डोली धरती ने एहसास करा दिया है कि वैज्ञानिकों की भविष्यवाणी महज अटकल नहीं है। अमेरिका की भूगर्भीय संस्था यूएसजीएस ने माना है कि यह ताजा भूकंप भारतीय और अरेबियन परतों में हुए तीव्र घर्षण की वजह है। 81 साल के भीतर नेपाल में आया यह सबसे भयंकर भूकंप था। भूकंप का केंद्र काठमांडू से 40 मील दूर पश्चिम इलाके में लामजुंग था,जो कि ज्यादा जनसंख्या वाले क्षेत्र में आता है। नतीजतन मरने वालों की तादात 10 हजार तक पहुंच सकती है।

दुनिया के नामचीन विशेषज्ञों व पर्यावरणविदों की मानें तो सभी भूकंप प्राकृतिक नहीं होते,बल्कि इन्हें विकराल बनाने में हमारा भी हाथ होता है। प्राकृतिक संसाधनों के अकूत दोहन से छोटे स्तर के भूकंपों की पृष्ठभूमि तैयार हाती है। भविष्य में इन्हीं भूकंपों की व्यापकता और विकरालता बढ़ जाती है। यही कारण है कि भूकंपों की आवृत्ति बढ़ रही है। पहले 13 साल में एक बार भूकंप आने की आशंका बनी रहती थी,लेकिन यह अब घटकर 4 साल हो गई है। अमेरिका में 1973 से 2008 के बीच प्रति वर्ष औसतन 21 भूकंप आए,वहीं 2009 से 2013 के बीच यह संख्या बढ़ कर 99 प्रति वर्ष हो गई। यही नहीं भूकंपीय विस्फोट के साथ निकलने वाली ऊर्जा भी अपेक्षाकृत ज्यादा शक्तिशाली हुई है। नेपाल में 25 अप्रैल 2015 को आए भूकंप से 20 थर्मोन्यूक्लियर हाइड्रोजन बमों के बराबर ऊर्जा निकली है। इनमें से प्रत्येक विस्फोट हिरोशिमा-नागाशाकी में गिराए गए परमाणु बम से भी कई गुना शक्तिशाली था। जाहिर है, धरती के गर्भ में अंगड़ाई ले रही भूकंपीय हलचलें महानगरीय आधुनिक विकास और आबादी के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक साबित हो सकती हैं? वैसे हमारे यहां भूकंपीय दृदृष्टि से जो भयावह संवेदनशील क्षेत्र हैं,उनमें अनियंत्रित शहरीकरण और आबादी का घनत्व सबसे ज्यादा है। भारत की यही वह धरती है,जिसका 57 प्रतिशत हिस्सा उच्च भूकंपीय क्षेत्र में आता है। इसी पूरे क्षेत्र में 25 अप्रैल शनिवार को धरा डोल चुकी है। बावजूद सौ स्मार्ट सिटी बसाने के बहाने शहरी विकास को प्रोत्साहित किया जा रहा है।
दुनियाभर के भूकंप व भूगर्भीय बदलावों की विश्वसनीय जानकारी देने वाले यूएसजीएस का कहना है कि भारतीय व अरेबियन परतों के बीच होने वाली टक्कर का सबसे ज्यादा असर हिमालय पर्वतमाला में बसे क्षेत्रों में पड़ेगा। इसे दुनिया के सबसे सक्रिय भूगर्भीय गतिविधियों के तौर पर भी देखा जाता है। इन परतों के बीच लगातार घर्षण बढ़ रहा है। परिणामस्वरूप केदारनाथ में भूस्खलन, जम्मू-कश्मीर में बाढ़, नेपाल एवं भारत में भूकंप और तिब्बत में भूकंप, हिमपात व भूस्खलन की घटनाएं एक साथ देखने में आई हैं। तिब्बत के टिंगरी काउंटी के रॉग्जर कस्बों में 95 फीसदी से ज्यादा घर जमींदोज हो गए हैं। भारतीय और अरेबियन परतों की यह खतरनाक श्रृखंला जम्मू-कश्मीर से शुरू होकर हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, तिब्बत, नेपाल, बिहार, पश्चिम बंगाल और सिक्किम व भूटान होती हुई अंडमान निकोबार द्वीप समूह तक फैली है। सक्रिय भूगर्भीय गतिविधियों के निरंतर चलते रहने के कारण ही हिमालय पर्वत श्रृखंला में कच्चे पहाड़ अस्तित्व में आए हैं।
प्राकृतिक आपदाएं अब व्यापक विनाशकारी इसलिए साबित हो रही हैं,क्योंकि धरती के बढ़ते तापमान के कारण वायुमंडल भी परिवार्तित हो रहा है। अमेरिका व ब्रिटेन समेत यूरोपीय देशों में दो शताब्दियों के भीतर बढ़ी अमीरी इसकी प्रमुख वजहों में से एक है। औद्योगिक क्रांति और शहरीकरण इसी की उपज हैं। यह कथित क्रांति कुछ और नहीं प्राकृतिक संपदा का अंधाधुंध दोहन करके पृथ्वी को खोखला करने के ऐसे उपाय हैं,जो ब्रहाण्ड में फैले अवयवों में असंतुलन बढ़ा रहे है। नतीजतन जो कार्बन गैसें बेहद न्यूनतम मात्रा में बनती थीं,वे अधिकतम मात्रा में बनने लगीं और वायुमंडल में उनका इकतरफा दबाव बढ़ गया। फलतः धरती पर पड़ने वाली सूरज की गर्मी प्रत्यावर्तित होने की बजाय,धरती में ही समाने लगी,गोया धरती का तापमान बढ़ने लगा,जो जलवायु परिवर्तन का कारण बन रहा है। चूंकि प्रकृति अमीरी-गरीबी में भेद नहीं करती है,इसलिए इसकी कीमत गरीब देश,मसलन विकासशील देशों को भी चुकानी पड़ रही है।
भारत का 57 फीसदी भू-क्षेत्र धरती की कोख में अठखेलियां कर रही उच्च भूकंपीय तरंगों से प्रभावित है। इसे भारतीय मानक ब्यूरो ने 5 खतरनाक क्षेत्रों में बांटा है। यह विभाजन अंतरराष्ट्रीय मानक 1893 के मानदंडों के अनुसार किया गया है। क्षेत्र एक में पश्चिमी मध्य-प्रदेश,पूर्वी महाराष्ट्र,आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और ओड़ीसा के भू-भाग आते हैं। इस क्षेत्र में सबसे कम भूकंप का खतरा है। दूसरे क्षेत्र में तमिलनाडू, राजस्थान, मध्यप्रदेश, पश्चिम बंगाल और हरियाणा हैं। यहां भूकंप की शंका बनी रहती है। तीसरे क्षेत्र में केरल, बिहार, पंजाब, महाराष्ट्र, पश्चिमी राजस्थान,पूर्वी गुजरात,उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश के कुछ हिस्से शामिल हैं। इसमें भूकंप के झटके के आते रहते हैं। चैथे में मुबंई,दिल्ली जैसे महानगर,जम्मू-कश्मीर,हिमाचल प्रदेश,पश्चिमी गुजरात,उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्रों के साथ बिहार-नेपाल सीमा के इलाके शामिल हैं। यहां भूकंप का खतरा निरंतर है। यहां 8 की तीव्रता वाला भूकंप आ सकता है। इससे भी खतरनाक पांचवा क्षेत्र माना गया है। इसमें गुजरात का कच्छ व भुज क्षेत्र,उत्तराखंड का हिमालयी क्षेत्र और पूर्वोत्तर के सातों राज्य आते हैं। यहां भूकंप 9 की तीव्रता का आकर तबाही का आलम रच सकता है। हैरानी की बात यह है कि खतरनाक भूकंपीय क्षेत्रों की जानकारी हमारे पास है। बावजूद हम इन संवेदनशील क्षेत्रों में नगरों का विकास भूकंप-रोधी मानदण्डों के अनुरूप नहीं कर रहे हैं। भवन निर्माण तो छोड़िए,उत्तराखंड में टिहरी जैसे बड़े बांघ का निर्माण करके हमने खुद भविष्य की तबाही को न्यौता दिया है। हमारी बढ़ी व सधन घनत्व वाली बसाहटें भी उन संवेदनशील क्षेत्रों में हैं,जहां खतरनाक भूकंपों की आशकाएं सबसे ज्यादा हैं। इन बसाहटों में दिल्ली,मुबंई,कोलकत्ता समेत 38 महानगर हैं,जो भूकंप के मुहाने पर खड़े हैं। शहरीकरण से जुड़ी संयुक्त राष्ट्र की जुलाई 2014 में आई रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली 2.5 करोड़ की आबादी के साथ 3.80 करोड़ अबादी वाले टोक्यो के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा शहर बन गया है। 2030 तक दिल्ली की आबादी 3.60 करोड़  हो जाएगी। फिलहाल मुबंई में 2.10 करोड़ और कोलकात्ता में 1.5 करोड़ जनसंख्या है। जाहिर है,आबादी के दबाव से इन नगरों का भूकंप रोधी नियोजित बुनियादी विकास असंभव है। तय है,इन नगरों में यदि कालांतर में भूकंप आया तो उसकी भयावहता का अंदाजा लगाना मुश्किल है ? क्योंकि जापान तो आए दिन आने वाले भूकंपों से अभ्यस्त हो गया है। इसलिए जब जापान के फृकिशियामा में 2011 में 8.5 तीव्रता वाला भूकंप आया था तो वहां बमुश्किल सौ लोगों की जानें गई थीं,जबकि भारत जैसी मानसिकता वाले नेपाल में 7.9 की तीव्रता का भूकंप आया तो 5000 से भी ज्यादा मौतें हो गईं। इसलिए अनियंत्रित शहरीकरण से भारत को खतरा इसलिए ज्यादा है,क्योंकि यहां किसी भी नगर की नगरीय योजना भूकंप-रोधी बुनियाद पर खड़ी ही नहीं की गई है ? जबकि दिल्ली,मुबंई और कोलकात्ता भूकंपीय ऊर्जा के मुहानों पर बसे हैं। लिहाजा समय रहते सचेत होने की जरूरत है। सरकार को सौ स्मार्ट शहर बसाने की बजाय,विकास की ऐसी नीति को क्रियान्वित करने की जरूरत है,जो गांव और छोटे कस्बों में रहते हुए लोगों को रोजगार, आवास,शिक्षा, स्वास्थ्य, विघुत संचार,और परिवहन सुविधाएं उपलब्ध कराएं। इससे एक साथ दो लक्ष्यों की पूर्ति होगी। ग्रामों से पलायन रूकेगा और शहर बेतरतीन विकास से बचेंगे और बाईदवे भूकंप का संकट आया भी तो जनहानि भी कम से कम होगी।
भूकंप समुद्री, तूफान, चक्रवती हवाएं और जलवायु परिवर्तन का भय दिखाकर अकसर यह कहा जाता है कि कार्बन का उत्सर्जन कम करके पृथ्वी को बचालो,अन्यथा पृथ्वी नष्ट हो जाएगी। यहां गौरतलब है कि पृथ्वी करीब 450 करोड़ वर्ष पहले वजूद में आई,जबकि मनुष्य की उत्त्पत्ति दो लाख साल पहले अफ्रीका में हुई मानी जाती हैं। हमें ख्याल रखने की जरूरत है कि जब-जब प्राकृतिक आपदा के रूप में प्रलय आई है, तब-तब पृथ्वी का बाल भी बांका नहीं हुआ है? महज कुछ क्षेत्रों में उसका स्वरूप परिवर्तन हुआ है। लेकिन बदलाव के इस संक्रमण काल में डाइनोसोर और मैमथ जैसे विशालकाय थलीय प्राणी जरूर हमेशा के लिए नष्ट हो गए? गोया खंड-खंड आ रही प्रलय की इन चेतावनियों से मनुष्य को सावधान होने की जरूरत है।
भूकंप की भविष्यवाणी का क्या है सच?
क्या भूकंप का पूर्वानुमान लगाना संभव है? क्या वैज्ञानिकों को ये मालूम हो सकता है कि कब और कहां भूकंप आ सकता है? विज्ञान की तमाम आधुनिकताओं के बाद भी ये संभव नहीं है। लेकिन भूकंप आने के बाद उसके असर के दायरे में, ये बताना संभव है कि भकूंप के झटके कहाँ, कुछ सेकेंड बाद आ रहे हैं। एक्सपर्ट बताते हैं कि सोशल मीडिया में भूकंप आने के बारे में लगाए जा रहे कयास और टिप्पणियां बेबुनियाद और वैज्ञानिक तौर पर अतार्किक हैं। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान के प्रोफेसर चंदन घोष बताते हैं, भूकंप के केंद्र में तो नहीं, लेकिन उसके दायरे में आने वाले इलाकों में कुछ सेकेंड पहले वैज्ञानिक तौर पर ये बताया जा सकता है कि वहां भूकंप आने वाला है। हालांकि कुछ सेकेंड का समय बेहद कम होता है। यही वजह है कि इसको लेकर पहले कोई भविष्यवाणी नहीं की जाती है। चंदन घोष कहते हैं, भारत परिपेक्ष्य में तो ये संभव भी नहीं है। लेकिन जापान में कुछ सेकेंड पहले भूकंप का पता लग जाता है। लेकिन वहां भी सार्वजनिक तौर पर इसकी मुनादी नहीं की जाती है। लेकिन इसकी मदद से बुलेट ट्रेन और परमाणु संयंत्रों को आटोमेटिक ढंग से रोक दिया जाता है। प्रोफेसर चंदन घोष बताते हैं, जब कोई भूकंप आता है तो दो तरह के वेव निकलते हैं, एक को प्राइमरी वेव कहते हैं और दूसरे को सेकेंडरी या सीयर्स वेव। प्राइमरी वेव औसतन 6 किलोमीटर प्रति सेकेंड की रफ्तार से चलती है जबकि सेकेंडरी वेव औसतन 4 किलोमीटर प्रति सेकेंड की रफ्तार से। इस अंतर के चलते प्रत्येक 100 किलोमीटर में 8 सेकेंड का अंतर हो जाता है। यानी भूकंप केंद्र से 100 किलोमीटर दूरी पर 8 सेकेंड पहले पता चल सकता है कि भूकंप आने वाला है। इस लिहाज से देखें तो मौजूदा वैज्ञानिक क्षमताओं को देखते हुए भूकंप के बारे में भविष्यवाणी करना नामुमकिन है। लेकिन सेंकेड के अंतर से जान माल के नुकसान को कुछ कम किया जा सकता है। चंदन घोष के मुताबिक जापान और ताइवान जैसे देशों में इस तकनीक के इस्तेमाल से नुकसान काफी कम हो सकता है। हालाँकि सोशल मीडिया में भकूंप के आने को लेकर कयासबाजी की जा रही है जो निर्रथक है। ये माना जाता रहा है कि भूकंप आने की जानकारी चूहे, सांप और कुत्ते को पहले हो जाती है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान के एसोसिएट प्रोफेसर आनंद कुमार कहते हैं, चूहे और सांप तो पृथ्वी के अंदर ही रहते हैं तो उन्हें निश्चित तौर पर पहले पता चल सकता है। कुत्तों में भी भांपने की क्षमता होती है। ये मानना काफी हद तक सच हो सकता है, लेकिन इस दिशा में वैज्ञानिकों ने अब तक ज्यादा शोध नहीं किया है।
इससे भी बड़ा भूकंप आ सकता है?
भूकंप के बाद नेपाल की राजधानी काठमांडू से आनेवाली तस्वीरें दिल दहला देने वाली हैं। यूनेस्को विश्व धरोहर की सूची में शामिल दरबार स्क्वायर मलबे में तब्दील हो गया। नेपाल में अक्सर भूकंप आते रहते हैं। यह दुनिया के सबसे सक्रिय भूकंप क्षेत्र में आता है। इसे समझने के लिए हिमालय की संरचना और पृथ्वी के अंदर की हलचल पर नजर दौड़ानी पड़ेगी। दरअसल भारतीय टेक्टोनिक प्लेट के यूरेशिनय टेक्टोनिक प्लेट ;मध्य एशियाईद्ध के नीचे दबते जाने के कारण हिमालय बना है। पृथ्वी की सतह की ये दो बड़ी प्लेटें कघ्रीब चार से पांच सेंटीमीटर प्रति वर्ष की गति से एक दूसरे की ओर आ रही हैं। इन प्लेटों की गति के कारण पैदा होने वाले भूकंप की वजह से ही एवरेस्ट और इसके साथ के पहाड़ ऊंचे होते गए। विज्ञान मामलों के जानकार पल्लव बागला के अनुसार, हिमालय के पहाड़ हर साल करीब पांच मिलीमीटर ऊपर उठते जा रहे हैं। इंग्लैंड में ओपन यूनीवर्सिटी में प्लेनेटरी जियोसाइंसेज के प्रोफेसर डेविड रोथरी का कहना है, भारतीय प्लेट के ऊपर हिमालय का दबाव बढ़ रहा है, मुख्यतः इस तरह के दो या तीन फॉल्ट हैं. इन्हीं में किसी प्लेट के खिसकने से यह ताजा भूकंप आया होगा। बड़े से बड़े भूकंप में भी नुकसान के शुरुआती आंकड़े बहुत कम होते हैं और बाद में ये बढ़ता जाता है। आशंका इस बात की है कि इस भूकंप के मामले में भी मरने वालों की संख्या बहुत ज्यादा होगी। यह सिर्फ इसलिए नहीं है कि भूकंप की तीव्रता बड़ी थी- रिक्टर स्केल पर 7.8 की तीव्रता। बल्कि चिंता इस बात की है कि इस भूकंप का केंद्र बहुत उथला था-लगभग 10 से 15 किलोमीटर नीचे। इसके कारण सतह पर कंपन और गंभीर महसूस होता है। विनाशकारी भूकंप के बाद कम से कम 14 हल्के झटके आए थे। इनमें से अधिकांश चार से पांच की तीव्रता के थे। इसमें एक 6.6 तीव्रता का भी झटका शामिल है। याद रहे कि रिक्टर स्केल पर तीव्रता में हरेक अंक की कमी का मतलब है, बड़े भूकंप से 30 फीसदी कम उर्जा का मुक्त होना। लेकिन जब इमारतें पहले से ही जर्जर होती हैं तो एक छोटे से छोटा झटका भी किसी ढांचे को जमीदोज करने के लिए पर्याप्त होता है। अनुमान यह है कि इस इलाके की अधिकांश आबादी ऐसे घरों में रह रही है, जो किसी भी भूकंप के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक हैं।पहले के अनुभवों को देखते हुए सबसे बड़ी चिंता होगी भूस्खलन की आशंका।हो सकता है कि इस पहाड़ी क्षेत्र में कोई गांव मुख्य आबादी से कट गया हो या ऊपर से गिरने वाले पत्थरों या कीचड़ में दफन हो गया हो।
आपातकालीन घटना से निपटने में व्यस्त प्रशासन के लिए यह एक और चुनौती होगी और इसका मतलब होगा कि सूचना धीरे-धीरे सामने आएगी और आपस में विरोधाभासी होगी। हिमालयी क्षेत्र पर नजर डालें तो पता चलता है कि, 1934 में बिहार में 8.1 तीव्रता का भूकंप आया था। वर्ष 1905 में 7.5 तीव्रता का भूकंप कांगड़ा में आया और वर्ष 2005 में 7.6 तीव्रता का भूकंप कश्मीर में आया था।

बचा रहा देवी का निवास

नेपाल में सदियों से एक बच्ची को देवी की तरह पूजने की परम्परा चली आ रही है। कुमारी के नाम से मशहूर इस बाल-देवी को काठमांडू और नेपाल की रक्षक के तौर पर पूजा जाता है और इनका संबंध शाक्य समुदाय से होता है। गौतम शाक्य का परिवार उन दर्जन भर परिवारों में से है जिनके जिम्मे देवी की सुरक्षा का काम है। उन्होंने बताया, जब भूकंप आया तब हम लोग पहली मंजिल पर थे और तुरंत उतर कर ग्राउंड फ्लोर पर आ गए। लेकिन देवी घर में ही रहीं और उन्हीं की कृपा से इस घर में सब सकुशल रहा। हालांकि यह भी हकीकत है कि कुमारी के घर के सामने काठमांडू का प्रसि( दरबार स्क्वेयर था जो अब मलबे में तब्दील हो चुका है। इसमें करीब चार सौ वर्ष पुराने मंदिर थे जिसमे काष्टमंडप नामक एक 40 मीटर ऊंची इमारत भी थी जो भूकंप में धराशाई हो गई। लेकिन हैरानी की बात है कि लगभग उसी तर्ज पर लकड़ी और ईंट से बना कुमारी निवास अब भी अपनी जगह खड़ा हुआ है। गौतम शाक्य ने बताया कि घर में थोड़ी बहुत दरार तो पड़ी है लेकिन सब सकुशल है। उन्होंने कहा, देवी की कृपा है बस कि यह ठिकाना बच गया और किसी को क्षति नहीं पहुंची। वरना सामने के मंदिरों का तो नामोनिशान मिट चुका है। इन दिनों मतीना शाक्य यानी काठमांडू की कुमारी नेपाल में हिन्दू धर्म की दुर्गा का अवतार समझी जाती हैं। इनकी पूजा पूरे नेपाल में होती है और जब वे जवान हो जाती हैं तब उनकी जगह एक दूसरी कुमारी का चयन किया जाता है। गौतम शाक्य का मानना है कि कुमारी की शक्तियों के चलते ही उनका घर भूकंप से प्रभावित नहीं हुआ और ऐसा ही 1934 के भूकंप के दौरान भी हुआ था। नेपाल में कई कुमारियों की पूजा होती है लेकिन कुमारी या देवी को सबसे पवित्र या ताकतवर समझा जाता है।

भारत के कामों पर मीडिया ने फेरा पानी

अगर सोशल मीडिया लोगों की भावनाओं का आइना है तो भारतीय मीडिया के अच्छे दिन गए या जाने वाले हैं। ट्विटर पर कुछ लोगों ने लिखा, भारतीय मीडिया को न तो पड़ोसी चाहते हैं और न ही देशवासी। एक नाराज व्यक्ति ने ट्वीट किया, जहाँ भी जाओ, लेकिन देश वापस मत आना। तो एक और ट्वीट में लिखा गया, आत्महत्या कर लो मगर देश वापस मत आना। नेपाली पत्रकारों के अनुसार भारतीय सरकार के जबरदस्त राहत कार्यों पर भारतीय मीडिया की असंवेदनशीलता ने पानी फेर दिया। वे कहते हैं कि भारतीय मीडिया ने मोदी के नाम की माला जपी जिसे वहां के लोगों ने पसंद नहीं किया। नेपाल में भारत के अलावा कई दूसरे देश भी राहत-बचाव कार्यों में लगे हैं। भारतीय मीडिया को नेपाल के भूगोल, इतिहास और यहाँ की प्राकृतिक परिस्थितियों की जानकारी नहीं है। वो नेपाल के प्रति अपने अज्ञान या बेवकूफियों को ज्ञान की तरह पेश करने लगे। नतीजा ये हुआ कि यहाँ के मध्यम वर्ग में कुछ असंतोष फैलने लगा। भारतीय मीडिया कहने लगी कि मोदी नेपाल के उ(ारक हैं जबकि सभी देशों के लोग राहत का काम कर रहे थे। भारतीय मीडिया को लगने लगा कि वो एक बहुत बड़े देश से आए हैं और वो जहाँ चाहे जा सकते हैं, उन्हें किसी की इजाजत की जरूरत नहीं। इसे नन्हा देश कहते हैं, ये 3 करोड़ का देश है, दुनिया में 40-50 बड़े देशों में नेपाल की गिनती होती है फिर भी भारतीय मीडिया इसे नन्हा देश कहती है जिसे लोग पसंद नहीं करते।  इस बार भारतीय मीडिया ने अपना संतुलन खो दिया। उन्हें अपनी सरकार के काम को कितना बढ़ावा देना चाहिए, और कितनी आजादी लेनी चाहिए इस में मीडिया संतुलन नहीं ला पाई। भारत नेपाल में अधिक लोकप्रिय नहीं है। इसका कारण भारतीय दूतावास का नेपाल के अंदरूनी मामलों में खुले तौर पर हस्तक्षेप करना है।
प्रकृति का उपहार भी
नेपाल में 25 अप्रैल को आए विनाशकारी भूकंप में जहां एक और व्यापक स्तर पर तबाही का मंजर देखने को मिला। वहीं, इससे देश को एक उपहार भी मिला है। भूकंप के बाद अचानक ही नेपाल में कई स्थानों पर भूमिगत जल स्रोत फिर से जाग्रत हो गए हैं और उनमें से पानी निकलना शुरू हो गया है। समाचार पत्र हिमालयन टाइम्स के मुताबिक, कई सालों बाद महादेवस्थान गांव और मातातीर्थ गांव में जल स्रोतों से पानी का सोता स्वतः ही शुरू हो गया है। सूत्रों के मुताबिक, इन स्रोतों से पानी निकल रहा है और अब ग्रामीणों के पास पीने के लिए, सफाई के लिए, नहाने और खाना पकाने के लिए पर्याप्त मात्रा में पानी है। अधिकतर ग्रामीणों का कहना है कि नवनिर्मित घरों की वजह से अवरु( हो चुके जमीन के नीचे मौजूद पानी के स्रोत भूकंप की वजह से फिर से खुल गए हैं और अब लोगों को पर्याप्त मात्रा में पानी की आपूर्ति हो रहा है। ठीक इसी तरह, महादेवस्थान के पास सुनधरा में भी जल स्रोत से पानी निकलने लगा है। महादेवस्थान के एक निवासी ने कहा, तीन से चार साल पहले ये परंपरागत स्रोत सूख गए थे। मुझे अभी भी याद है कि तीन साल पहले सुनधरा जलस्रोत से पानी की आपूर्ति होती थी, लेकिन यह अचानक सूख गया। इन प्राकृतिक स्रोतों से प्राप्त पानी को शु( करने के लिए ग्रामीण फिल्टर का इस्तेमाल नहीं करते। भूकंप और भूकंपीय झटकों के बाद खुले स्थानों पर रह रहे लोगों के लिए ये पानी के स्रोत एक वरदान की तरह हैं। महादेवस्थान की निवासी रबिना मिश्रा ;26द्ध कहती हैं, हमें इस संकट की घड़ी में पीने के पानी के लिए सरकारी टैंकरों पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं है। हमें हमारे शिविरों के पास इन जल स्रोतों से बह रहे ताजा और स्वच्छ पानी की प्राप्ति हो रही है।

दिल्ली में नेपाल सा भूकंप आया तो?

नेपाल में विनाशकारी भूकंप के बाद से भारत में चिंता की लकीरें गहराती जा रहीं हैं। नेपाल में आए 7.8 तीव्रता वाले भूकंप से बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में जान-माल का नुकसान हुआ जबकि राजधानी दिल्ली तक झटके महसूस किए गए थे। अब बहस इस पर छिड़ी है कि अगर सिस्मिक जोन-4 के अंतर्गत आने वाली दिल्ली में नेपाल सी तीव्रता वाला जलजला आया तब क्या होगा? जानकार सिस्मिक जोन-4 में आने वाले भारत के सभी बड़े शहरों की तुलना में दिल्ली में भूकंप की आशंका ज्यादा बताते हैं। मुंबई, कोलकाता, चेन्नई और बेंगलुरु जैसे शहर सिस्मिक जोन-3 की श्रेणी में आते हैं। भूगर्भशास्त्री कहते हैं कि दिल्ली की दुविधा यह भी है कि वह हिमालय के निकट है जो भारत और यूरेशिया जैसी टेक्टानिक प्लेटों के मिलने से बना था और इसे धरती के भीतर की प्लेटों में होने वाली हलचल का खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। इंडियन एसोसिएशन आफ स्ट्रक्चरल इंजीनियर्स के अध्यक्ष प्रोफेसर महेश टंडन को लगता है कि दिल्ली में भूकंप के साथ-साथ कमजोर इमारतों से भी खतरा है। उन्होंने कहा, हमारे अनुमान के मुताबिक, दिल्ली की 70-80 प्रतिशत इमारतें भूकंप का औसत से बड़ा झटका झेलने के लिहाज से डिजाइन ही नहीं की गई हैं। पिछले कई दशकों के दौरान यमुना नदी के पूर्वी और पश्चिमी तट पर बढ़ती गईं इमारतें खास तौर पर बहुत ज्यादा चिंता की बात है क्योंकि अधिकांश के बनने के पहले मिट्टी की पकड़ की जांच नहीं हुई है। भारत के सुप्रीम कोर्ट ने कुछ समय पहले आदेश दिया था कि ऐसी सभी इमारतें जिनमें 100 या उससे अधिक लोग रहते हैं, उनके ऊपर भूकंप रहित होने वाली किसी एक श्रेणी का साफ उल्लेख होना चाहिए। फिलहाल तो ऐसा कुछ देखने को नहीं मिलता। दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र की एक बड़ी समस्या आबादी का घनत्व भी है। लगभग डेढ़ करोड़ वाली राजधानी दिल्ली में लाखों इमारतें दशकों पुरानी हैं और तमाम मोहल्ले एक दूसरे से सटे हुए बने हैं। भूगर्भशास्त्रियों के अनुसार दिल्ली और उत्तर भारत में छोटे-मोटे झटके या आफ्टरशाक्स तो आते ही रहेंगे लेकिन जो बड़ा भूकंप होता है उसकी वापसी पांच सौ वर्ष में जरूर होती है और इसीलिए ये चिंता का विषय भी है। वैसे भी दिल्ली से थोड़ी दूर स्थित पानीपत इलाके के पास भूगर्भ में फाल्ट लाइन मौजूद है जिसके चलते भूकंप की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। सवाल यह भी है कि दिल्ली भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदा से निपटने के लिए कितनी तैयार है। सार्क डिजास्टर मैनेजमेंट सेंटर के निदेशक प्रोफेसर संतोष कुमार को लगता है कि पहले की तुलना में अब भारत ऐसी किसी आपदा से बेहतर निपट सकता है। उन्होंने बताया, देखिए आशंकाएं सिर्फ अनुमान पर आधारित होती हैं। अगर हम लातूर में आ चुके भूकंप को ध्यान में रखें तो निश्चित तौर पर दिल्ली में कई भवन असुरक्षित हैं। लेकिन बहुत सी जगह सुरक्षित भी हैं। सबसे अहम है कि हर नागरिक ऐसे खतरे को लेकर सजग रहे और सरकारें प्रयास करें कि नियमों का उल्लंघन कतई न हो। सेंटर फार साइंस एंड एनवायरनमेंट की अनुमिता रॉय चैधरी का भी मानना है कि दिल्ली में हजारों ऐसी इमारतें हैं जिनमें रेट्रोफिटिंग यानी भूकंप निरोधी मरम्मत की सख्त जरूरत है।

भयानक था तबाही का मंजर!

नेपाल में 25 अप्रैल को आए विनाशकारी भूकंप में अपने भयावह अनुभव को याद करते हुए सुधा उपाध्याय का कहना है कि उस वक्त मुझे ऐसा लगा कि दीवारें पास आ रही हैं और मैं इनके बीच दबकर मर जाऊंगी। उपाध्याय ;54द्ध ने बताया कि जब भूकंप आया, वह टेलीविजन देख रही थीं। अचानक, टीवी पर एक संदेश प्रसारित हुआ। अब मुझे लगता है कि वह संदेश एक चेतावनी थी। उन्होंने कहा कि चंद सेकंड के भीतर ही उनका घर हिलने लगा। सुधा ने 1974 में बनी हालीवुड फिल्म ‘अर्थक्वेक’ से इस भूकंप की तुलना करते हुए कहा, ‘ठीक जिस तरह से फिल्मों में दिखाया जाता है, घर हिलने लगा। मैं मुश्किल से ही दरवाजे तक पहुंच पाई और दरवाजे को मजबूती से पकड़कर मंत्र पढने लगी। मुझे लगा बस अब सब कुछ खत्म है।’ नेपाल में 25 अप्रैल को विनाशकारी भूकंप आया था, जिसकी रिक्टर पैमाने पर तीव्रता 7.9 थी। इसमें 6,500 से अधिक लोगों की मौत हो गई है और 14,000 से अधिक लोग घायल हो गए हैं। नेपाल के प्रधानमंत्री सुशील कोईराला के मुताबिक, भूकंप में मरने वालों की संख्या 10,000 तक जा सकती है। उपाध्याय अपने पति और सास के साथ ज्ञानेश्वर में रहती हैं, जो घनी आबादी वाला पॉश इलाका है। उपाध्याय की सास दमयंती (81) ने बताया, ‘मैं सो रही थी कि अचानक से बिस्तर तेजी से हिलने लगा। मैंने जैसे-तैसे कर एक कुर्सी पकड़ी और उसे पकड़कर बैठ गई।’ भूकंप के झटकों से घबराकर सुधा व उनका पूरा परिवार और उनके पड़ोसी बाहर भागे और कई घंटों तक वहीं रहे। सुधा के पति फणींद्र उपाध्याय ;60द्ध, पोखरा विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं और जिस समय भूकंप आया, वह एक कार्यशाला का संचालन कर रहे थे। उन्होंने कहा, ‘भूकंप की वजह से दीवारें हिलने की वजह से वह और उनके विद्यार्थी कक्षाओं से बाहर भागे। मैं डेढ़ घंटे बाद ही सुधा से बात कर पाया। मेरी कार जमीन से दो फुट ऊपर उछल रही थी। मैंने ऐसा कुछ पहले कभी नहीं देखा था।’ परिवार ईश्वर का शुक्रगुजार है कि वह इस भूकंप से बच गया, लेकिन उनकी संवेदना भूकंप में मारे गए लोगों के प्रति हैं। ज्यादार नेपाली लोगों की यह कहानी है। नेपाल में 1934 में इस तरह का बड़ा भूकंप आया था। नेपाल में शनिवार को आए भूकंप से भारी तबाही हुई है और इसे 1932 के बाद सबसे बड़ा भूकंप माना जा रहा है। नेपाल में भूकंप आते रहते हैं और इसीलिए उसे दुनिया से सबसे ज्यादा भूकंप संभावित इलाकों में एक माना जाता है। लेकिन वहां इतने भूकंप क्यों आते हैं, ये समझने के लिए आपको हिमालय को देखना होगा। इस क्षेत्र में पृथ्वी की इंडियन प्लेट ;भारतीय भूगर्भीय परतद्ध यूरेशियन प्लेट के नीचे दबती जा रही है और इससे हिमालय ऊपर उठता जा रहा है। हर साल लगभ पांच सेंटीमीटर ये प्लेट यूरेशियन प्लेट के नीचे जा रही है और इससे हर साल हिमालय पांच मिलीमीटर ऊपर उठता जा रहा है। इससे वहां के चट्टानों के ढांचे में एक तनाव पैदा हो जाता है। जब ये तनाव चट्टानों के बर्दाश्त के बाहर हो जाता है तो ये भूकंप आता है। अभी दुनिया में कोई भी वैज्ञानिक ये अंदाजा नहीं लगा सकता है कि दुनिया में कब कहां और कितनी तीव्रता वाला भूकंप आएगा, लेकिन वैज्ञानिक इतना जरूरत मानते हैं कि हिमालयी क्षेत्र में बड़ा भूकंप आने की आशंका है। वैज्ञानिक प्रयास कर रहे है कि कोई ऐसा तरीका तलाशा जाए जिससे भूकंप के आने की संभावना का पता लगाया जाए, लेकिन अभी इसमें कोई कामयाबी नहीं मिली है।

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