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शनिवार, 30 जून 2018
गुरुवार, 28 जून 2018
हेमकुंड साहब , लक्ष्मण मंदिर है दो धर्मों का अद्भुत और सुखद तीर्थ और युग्म !
क्रांति भटृ
शायद इन पंक्तियों का रचनाकार उत्तराखंड आया नहीं आया जब उसने कश्मीर की फिंजाओंं को देखकर लिखा था ” कि पृथ्वी अगर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है यहां है । अगर शायर के कदम और कलम उत्तराखंड की जमीन पर पडते तो शायद उसकी धारणा और कलम की हर्फ ( शब्दों ) में होता कि ” अगर पृथ्वी पर कहीं स्वर्ग है तो
सिख धर्म में दसवें गुरु , गुरु गोविंद साहब जी की पूर्व जन्म की हिमालयी तप स्थली ” हेमकुंड साहब ” के शीतकाल के बाद द्वार खुलते ही प्रतिदिन हजारों की संख्या में तीर्थ यात्री यहां पंहुच रहे हैं । सात सुन्दर पहाडियों से घिरे , पवित्र पुष्पावती नदी के तीर और शीतल शान्त और पवित्र हिम जल से परिपूर्ण कुंड ” हिमकुंड ” या ” हेमकुंड ” न सिर्फ धर्म के धर्म को ; वरन आध्यात्म की गहराई और प्रकृति में , नैसर्गिक सौंदर्य में ईश्वर पा लेने वालों को भी अपने हिस्से का भगवान के दर्शन करा लेता है ।
क्या है मान्यता सिख धर्म में?
पवित्र गुरु ग्रंथ साहब के बाद एक पुस्तक है ” विचित्र नाटक”! इसमें सिख धर्म के दसवें गुरु सच्चे बादशाह ” गुरु गोंविद साहब ” के बारे में लिखा है कि ” गुरु गोविंद सिंह साहब ने पूर्व जन्म में यहीं इस स्थान पर तप किया था ।
विचित्र नाटक की पंक्तियां “” सप्त श्रृंग
कब ढूंढा गया यह तीर्थ !
600 वर्षों तक अध्ययन और खोज होती रही कि आखिर वह पवित्र स्थान है कहां ! जिसका जिक्र स्वयं गुरु महाराज ने विचित्र नाटक पुस्तक में किया है । निरंतर खोज होती रही । आखिर में 1932 में सरदार सोहन सिंह , मोदन सिंह जी ने यह स्थान खोजा ।
पहले ग्रंथी हिन्दू थे ।
जब हेमकुंड साहब की खोज हुयी तो यहीं के पुलना गांव के श्री नन्दा सिंह जी को हेमकुंड साहब का ग्रंथी बनाया गया । वे एक लम्बे समय तक हेमकुंड साहिब के ग्रंथी रहे । यह गुरु कृपा ही रही के केवल 2 कक्षा पास नन्दा सिंह जी ने पहली बार गुरमुखी पढी और सुखमनी पाठ के सिद्ध हस्त हो गये ।
यहीं पर तो है लक्ष्मण मंदिर ।
यह है सुखद संयोग । हेमकुंड साहब के निकट ही भगवान श्री राम के भाई और शक्ति के प्रतीक भगवान लक्ष्मण जी का मंदिर भी है । मान्यता के अनुसार यहां पर लक्ष्मण जी ने तप किया था ।
क्या है मान्यता !
मान्यता है कि जब भगवान श्री राम 14 वर्षो के वनवास और रावण को मारने के बाद वापस अयोध्या लौटे और राजकाज सम्भालने लगे तो एक दिन राजा राम अपने राज मंत्रणा कक्ष में गुरु वशिष्ठ के साथ गुप्त मंत्रणा ठर रहे थे । आदेश था कि वार्ता के दौरान कोई तीसरा ब्यक्ति न आये ।
इस बीच दुर्वासा ऋषि पहुंचे । कहा अभी राजा राम से मिलना है । द्वार पर भगवान लक्ष्मण थे । एक ओर राजा की आदेश कि इस अवधि में कोई मंत्रणा में न आयें और ना ही कोई ब्यवाधान किया जाय । लक्ष्मण धर्म संकट में आ गये । विचार किया कि यदि ऋषि को कक्ष में नही जाने देता हूं तो ये क्रोधित हो शाप दे देंगे । और जाने देता हूं तो राजाज्ञा का उल्लंघन होता है । विचारने के बाद मन में आया किसी के क्रोध से उसे भी कष्ट होगा ।
दुखी होगा । अतः निर्मल से राजा को बता ही दूं कि दुर्वासा ऋषि अभी मिलना चाहते हैन । कक्ष के अंदर गये । बात बताई । पर आत्म ग्लानि हुयी कि मै ने जाने अनजाने में राजाज्ञा का उल्लंघन कर दिया । और चुपचाप इसी हिमालय में साधना में बैठ गये जिसे लक्ष्मण मंदिर नाम कहा गया । मान्यता है भगवान यहां आज भी है ।
कैसे बनी फूलों की घाटी !
जिसे आज फूलों की घाटी ” वैली आफ फ्लावर्स ” कहते हैं जिसे दुनिया के फलक पर अंग्रेज पर्यटक फ्रैंक स्माइथ ने ढूंढा । उसे शास्त्रों मेन ” नन्द कानन वन ” कहा जाता है ।
मान्यता है कि जब लक्ष्मण जी यहां पर कर रहे थे तब स्वर्ग से देवताओं ने जो फूल बिखरे वही फूल यहां फूलो की घाटी बन गये । विचित्र नाटक में भी लिखा है कि गुरु गोविंद सिंह जी के तप से प्रसन्न हो , देवताओं ने आसमान से फूल बिखरे । वही तो फूलों की घाटी है ।
तो क्या लक्ष्मण जी ही गुरु गोविंद सिंह जी है।
गुरु का एक नाम रिपुदमन भी है । लक्ष्मण जी भी दुष्टों का ( रिपु ) दमन करने के लिए पृथ्वी पर अवतार लेना बताया गया है । गुरु गोविंद सिंह जी ने भी रिपुओं का नाश किया । धारणा , कथा एक जैसी है । इसलिये लोग गुरु गोविंद सिंह जी को भगवान लक्ष्मण का अवतार मानते हैं ।
शायद इन पंक्तियों का रचनाकार उत्तराखंड आया नहीं आया जब उसने कश्मीर की फिंजाओंं को देखकर लिखा था ” कि पृथ्वी अगर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है यहां है । अगर शायर के कदम और कलम उत्तराखंड की जमीन पर पडते तो शायद उसकी धारणा और कलम की हर्फ ( शब्दों ) में होता कि ” अगर पृथ्वी पर कहीं स्वर्ग है तो
सिख धर्म में दसवें गुरु , गुरु गोविंद साहब जी की पूर्व जन्म की हिमालयी तप स्थली ” हेमकुंड साहब ” के शीतकाल के बाद द्वार खुलते ही प्रतिदिन हजारों की संख्या में तीर्थ यात्री यहां पंहुच रहे हैं । सात सुन्दर पहाडियों से घिरे , पवित्र पुष्पावती नदी के तीर और शीतल शान्त और पवित्र हिम जल से परिपूर्ण कुंड ” हिमकुंड ” या ” हेमकुंड ” न सिर्फ धर्म के धर्म को ; वरन आध्यात्म की गहराई और प्रकृति में , नैसर्गिक सौंदर्य में ईश्वर पा लेने वालों को भी अपने हिस्से का भगवान के दर्शन करा लेता है ।
क्या है मान्यता सिख धर्म में?
पवित्र गुरु ग्रंथ साहब के बाद एक पुस्तक है ” विचित्र नाटक”! इसमें सिख धर्म के दसवें गुरु सच्चे बादशाह ” गुरु गोंविद साहब ” के बारे में लिखा है कि ” गुरु गोविंद सिंह साहब ने पूर्व जन्म में यहीं इस स्थान पर तप किया था ।
विचित्र नाटक की पंक्तियां “” सप्त श्रृंग
कब ढूंढा गया यह तीर्थ !
600 वर्षों तक अध्ययन और खोज होती रही कि आखिर वह पवित्र स्थान है कहां ! जिसका जिक्र स्वयं गुरु महाराज ने विचित्र नाटक पुस्तक में किया है । निरंतर खोज होती रही । आखिर में 1932 में सरदार सोहन सिंह , मोदन सिंह जी ने यह स्थान खोजा ।
पहले ग्रंथी हिन्दू थे ।
जब हेमकुंड साहब की खोज हुयी तो यहीं के पुलना गांव के श्री नन्दा सिंह जी को हेमकुंड साहब का ग्रंथी बनाया गया । वे एक लम्बे समय तक हेमकुंड साहिब के ग्रंथी रहे । यह गुरु कृपा ही रही के केवल 2 कक्षा पास नन्दा सिंह जी ने पहली बार गुरमुखी पढी और सुखमनी पाठ के सिद्ध हस्त हो गये ।
यहीं पर तो है लक्ष्मण मंदिर ।
यह है सुखद संयोग । हेमकुंड साहब के निकट ही भगवान श्री राम के भाई और शक्ति के प्रतीक भगवान लक्ष्मण जी का मंदिर भी है । मान्यता के अनुसार यहां पर लक्ष्मण जी ने तप किया था ।
क्या है मान्यता !
मान्यता है कि जब भगवान श्री राम 14 वर्षो के वनवास और रावण को मारने के बाद वापस अयोध्या लौटे और राजकाज सम्भालने लगे तो एक दिन राजा राम अपने राज मंत्रणा कक्ष में गुरु वशिष्ठ के साथ गुप्त मंत्रणा ठर रहे थे । आदेश था कि वार्ता के दौरान कोई तीसरा ब्यक्ति न आये ।
इस बीच दुर्वासा ऋषि पहुंचे । कहा अभी राजा राम से मिलना है । द्वार पर भगवान लक्ष्मण थे । एक ओर राजा की आदेश कि इस अवधि में कोई मंत्रणा में न आयें और ना ही कोई ब्यवाधान किया जाय । लक्ष्मण धर्म संकट में आ गये । विचार किया कि यदि ऋषि को कक्ष में नही जाने देता हूं तो ये क्रोधित हो शाप दे देंगे । और जाने देता हूं तो राजाज्ञा का उल्लंघन होता है । विचारने के बाद मन में आया किसी के क्रोध से उसे भी कष्ट होगा ।
दुखी होगा । अतः निर्मल से राजा को बता ही दूं कि दुर्वासा ऋषि अभी मिलना चाहते हैन । कक्ष के अंदर गये । बात बताई । पर आत्म ग्लानि हुयी कि मै ने जाने अनजाने में राजाज्ञा का उल्लंघन कर दिया । और चुपचाप इसी हिमालय में साधना में बैठ गये जिसे लक्ष्मण मंदिर नाम कहा गया । मान्यता है भगवान यहां आज भी है ।
कैसे बनी फूलों की घाटी !
जिसे आज फूलों की घाटी ” वैली आफ फ्लावर्स ” कहते हैं जिसे दुनिया के फलक पर अंग्रेज पर्यटक फ्रैंक स्माइथ ने ढूंढा । उसे शास्त्रों मेन ” नन्द कानन वन ” कहा जाता है ।
मान्यता है कि जब लक्ष्मण जी यहां पर कर रहे थे तब स्वर्ग से देवताओं ने जो फूल बिखरे वही फूल यहां फूलो की घाटी बन गये । विचित्र नाटक में भी लिखा है कि गुरु गोविंद सिंह जी के तप से प्रसन्न हो , देवताओं ने आसमान से फूल बिखरे । वही तो फूलों की घाटी है ।
तो क्या लक्ष्मण जी ही गुरु गोविंद सिंह जी है।
गुरु का एक नाम रिपुदमन भी है । लक्ष्मण जी भी दुष्टों का ( रिपु ) दमन करने के लिए पृथ्वी पर अवतार लेना बताया गया है । गुरु गोविंद सिंह जी ने भी रिपुओं का नाश किया । धारणा , कथा एक जैसी है । इसलिये लोग गुरु गोविंद सिंह जी को भगवान लक्ष्मण का अवतार मानते हैं ।
दुनिया का अकेला मंदिर जहां होती है शिव के अंगूठे की पूजा !
उदय दिनमान डेस्कः दुनिया का अकेला मंदिर जहां होती है शिव के अंगूठे की पूजा ! भगवान शिव के भक्त पूरी दुनिया में मिल जाएंगे, लेकिन शिव के मुख की पूजा अधिकांश स्थानों पर होती है। लेकिन आज हम आपको बताने जा रहे हैं शिव का एक ऐसा अनोखा धाम जो विश्व में अकेला है और यहां शिव के अगूठे की पूजा होती है।
जैसा कि आप जानते हैं कि हिन्दू धर्म के अनुसार भगवान शिव एकलौते ऐसे भगवान है जिनके लिंग की पूजा को सर्वोपरी समझा जाता है. पर आज हम आपको भगवान शिव के एक ऐसे मंदिर के बारे में बता रहे हैं, जहां लिंग को पूजने की बजाये उनके अंगूठे को पूजा जाता है. राजस्थान का माउंट आबू कई जैन मंदिरों के अलावा भगवान शिव के कई प्राचीन मंदिरों का घर भी है.
माउंट आबू के बारे में लोगों का कहना है कि जैसे बनारस को शिव की नगरी कहा जाता है, वैसे ही माउंट आबू को शिव का उपनगर कहते हैं. इसका उल्लेख स्कंद पुराण में भी मिलता है. यही से करीब 11 किलोमीटर दूर उत्तर दिशा की तरफ अचलगढ़ की पहाड़ियों पर किले के पास स्थित है
अचलेश्वर माहदेव मंदिर, जहां पर शिव जी के पैर के अंगूठे की पूजा की जाती है. ऐसा माना जाता है दाहिने पैर के इस अंगूठे पर शिव ने माउंट आबू पहाड़ को थाम रखा है और जिस दिन ये अंगूठे का निशान गायब हो जाएगा तब माउंट आबू का ये पहाड़ भी ख़त्म हो जाएगा.
इस मंदिर के प्रवेश द्वार पर ही पंच धातु की बनी नंदी की एक विशाल प्रतिमा है, जिसका वजन लगभग चार टन हैं. मंदिर के गर्भगृह पहुंचने पर आप धरती में समाये हुए शिवलिंग को देखेंगे, जिसके ऊपर की और एक पैर के अंगूठे का निशान उभरा हुआ है. इस अंगूठे को यहां स्वयंभू शिवलिंग के रूप में पूजा जाता है. ऐसा माना जाता है कि यह देवाधिदेव शिव का दाहिना अंगूठा है.
मंदिर परिसर में मौजूद विशाल चंपा का पेड़ मंदिर की प्राचीनता को दर्शाता है. इसके बायीं ओर एक कलात्मक खंभों पर खड़ा धर्मकांटा बना हुआ है, जिसकी सुंदरता देखते ही बनती है. इसके बारे में लोगों का मानना है कि यहां के राजा राजसिंहासन पर बैठने के समय अचलेश्वर महादेव से आशीर्वाद प्राप्त करते थे और धर्मकांटे के नीचे बैठकर न्याय की शपथ लेते थे.
भगवान शिव के अलावा भगवान विष्णु के वाराह, नृसिंह, वामन, कच्छप, मत्स्य, कृष्ण, राम, परशुराम, बुद्ध व कलंगी आदि अवतारों की झलक काले पत्थर की भव्य मूर्तियों के रूप में देखने को मिलती है. इसके अलावा यहां द्वारिकाधीश मंदिर भी मौजूद है.
माउंट आबू के उत्थान को ले कर भी कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं, जिनमें से एक यह है कि जहां आज आबू पर्वत स्थित है, प्राचीन काल में वहां पर एक ब्रह्म खाई थी. इसी के किनारे वशिष्ठ मुनि रहते थे.
एक बार उनकी गाय कामधेनु घास चरते हुए ब्रह्म खाई में गिर गई. उसे बचाने के लिए मुनि ने सरस्वती और गंगा का आह्वान किया, जिससे ब्रह्म खाई पानी से भर गई और कामधेनु गाय जमीन पर आ गई.
भविष्य में यह घटना दुबारा न हो इसके लिए वशिष्ठ मुनि, हिमालय जा कर पर्वतराज से ब्रह्म खाई को भरने की विनती की. मुनि के अनुरोध पर हिमालय ने अपने प्रिय पुत्र नंदी वद्र्धन को जाने का आदेश दिया, जिसे अर्बुद नाग नंदी हिमालय से उड़ा कर ब्रह्म खाई के पास लाया.
इसके बाद वद्र्धन ने मुनि से वरदान मांगा कि उसके ऊपर सप्त ऋषियों का आश्रम होना चाहिए और यह पहाड़ सुंदर और वनस्पतियों से भरपूर होना चाहिए. जबकि इस पहाड़ को यहां तक पहुंचाने वाले अर्बुद नाग ने वर मांगा कि इस पर्वत का नामकरण उसके नाम से हो. इसके बाद से नंदी वद्र्धन आबू पर्वत के नाम से जाना जाने लगा.
वरदान प्राप्त कर के जब नंदी वद्र्धन खाई में उतरा तो अंदर धंसता चला गया. सिर्फ इसका नाक और ऊपर का हिस्सा ही जमीन से ऊपर रहा. इतना सब होने के बावजूद जब वह अचल नहीं रह पा रहा था, तब वशिष्ठ के विनम्र अनुरोध पर भगवान शिव ने अपने दाहिने पैर के अंगूठे से इसे अचल कर दिया.
इसी वजह से यह क्षेत्र अचलगढ़ के नाम से पहचाना जाता है. भगवान शिव के अंगूठे का महत्व होने की वजह से यहां महादेव के अंगूठे की पूजा की जाती है.
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