शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

मीडिया संस्थानों में काली भेड़ियों का एक फलता-फूलता संसार है। दिल्ली से देहरादून तक महिला देह पर गिद्व दृष्टि गड़ाये रखने वाले संपादकों की एक लम्बी फेहरिस्त है। अक्सर ऐसे मामले संस्थानों की चारदिवारी से बाहर नहीं आ पाते। ऐसे काले संपादकों की चर्चाएं तभी होती हैं जब किसी पत्रकार और संपादक में भिड़ंत हो जाए। या फिर उत्पीड़न की शिकार कोई महिला मुखर होकर सामने आ जाय। लाखों रूपये सैलरी और दूसरे घपले-घोटालों में मस्त मैनेजरनुमा संपादक-पत्रकार अपनी उर्जा को ऐसे ही औरतबाजी में खफा रहे हैं। जब पत्रकारिता बाजार की गुलाम हो गई हो और संपादकों के जन सरोकार महीने की मोटी सैलरी बटोरने तक सिमट गए हों, तब यही सबकुछ होना है। खैर खबर यह है कि देहरादून के एक प्रमुख दैनिक समाचार पत्र के संपादक इन दिनों रंडीबाजी को लेकर चर्चा का विषय बने हुए हैं। देहरादून में कदम रखते ही इनकी अयाशियां परवान चढ़ने लगीं। इस संपादक को भारी-भरकम सैलरी मिलती है। इस पैसे का दुरूपयोग वे अपनी रंगीन मिजाजी के लिए कर रहे हैं। रंगीन मिजाजी की खबरें इन दिनों चर्चा का विषय बनी हुई हैं। ये अपनी लम्बी गाड़ी में अक्सर बाजारू लड़कियों को देहरादून के आउटर में ले जाते हैं। ये अपने चापलूस दोस्तों से प्रशिक्षु महिला पत्रकारों को भर्ती कराने के लिए जब-तब कहते रहते हैं। इन महाशय ने देहराूदन में पर्दापर्ण करते ही एक महिला पत्रकार को नाकाबिल घोषित करते हुए  संस्थान से बाहर का रास्ता दिखा दिया, लेकिन दूसरी ओर एक प्रशिक्षु पत्रकार के साथ खुदकी बाइलाइन खबरें छापकर उसे स्टाफर का दर्जा तक दिलवा डाला। इस महिला पत्रकार की काबिलियत भी किसी से छुपी नहीं है। ये रंडीबाजी को लेकर पिछले दिनों तब चर्चा में आए जब इनकी अपने ही एक सहयोगी से ठन गई। हुआ कुछ यूं कि इन संपादक महोदय कि देहरादून आगमन के वक्त से ही यहां सालों से जमे-जमाये बैठे एक पत्रकार के साथ ठन गई थी। मामला यहां तक पहुंचा कि पत्रकार को उत्तराखंड से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया, नजीजन पहाड़ी बनाम मैदानी मानसिकता पर जमकर गरमागरम विमर्श होने लगा। उत्तराखंड के एक तेजस्वी पत्रकार, जो अब स्वर्गीय हो चुके, ने देहरादून में इन संपादक के खिलाफ गाजे-बाजे के साथ विरोध-प्रदर्शन तक का ऐलान कर दिया था। हालांकि यह अनोखा प्रदर्शन हो न सका। इस तनातनी के बीच पिछले दिनों संपादक को फूटी आंख न सुहाने वाले से पत्रकार अपने घर देहरादून आए हुए थे। इसी दौरान वे अपने एक साथी के दुख में शरीक होने के लिए देहरादून स्थित अपने अखबार के कार्यालय में उनसे मिलने जा पहुंचे। बताते हैं कि संपादक ने सुरक्षा गार्ड से पत्रकार को बाहर धकियाने को कहा। इसी बात को लेकर अपने गरममिजाज तेवरों को लेकर पहचाने वाले पत्रकार को खुदकी बेइज्जती सहन नहीं हो सकी और उन्होंने संपादक के खिलाफ पूरी भड़ास निकाल डाली। मामला इतना बढ़ गया कि पत्रकार ने संपादक को सरेआम रंडीबाज तक कह डाला। काफी देर तक दोनों के मध्य वाद-विवाद होने के बाद पत्रकार अखबार के कार्यालय से बाहर निकल गए। इसके बाद पत्रकार ने अखबार के नोयडा स्थित कार्यालय में मैनेजमैंट से संपादक की कारगुजारियों की शिकायत कर संस्थान से इस्तीफा दे दिया। अब उन्होंने देहरादून में ही एक नया अखबार ज्वाइन कर लिया है। संपादक की रंडीबाज के किस्से रोज मीडिया में इन दिनों चर्चा का विषय बने हुए हैं।









मीडिया संस्थानों में काली भेड़ियों का एक फलता-फूलता संसार है। दिल्ली से देहरादून तक महिला देह पर गिद्व दृष्टि गड़ाये रखने वाले संपादकों की एक लम्बी फेहरिस्त है। अक्सर ऐसे मामले संस्थानों की चारदिवारी से बाहर नहीं आ पाते। ऐसे काले संपादकों की चर्चाएं तभी होती हैं जब किसी पत्रकार और संपादक में भिड़ंत हो जाए। या फिर उत्पीड़न की शिकार कोई महिला मुखर होकर सामने आ जाय। लाखों रूपये सैलरी और दूसरे घपले-घोटालों में मस्त मैनेजरनुमा संपादक-पत्रकार अपनी उर्जा को ऐसे ही औरतबाजी में खफा रहे हैं। जब पत्रकारिता बाजार की गुलाम हो गई हो और संपादकों के जन सरोकार महीने की मोटी सैलरी बटोरने तक सिमट गए हों, तब यही सबकुछ होना है। खैर खबर यह है कि देहरादून के एक प्रमुख दैनिक समाचार पत्र के संपादक इन दिनों रंडीबाजी को लेकर चर्चा का विषय बने हुए हैं। देहरादून में कदम रखते ही इनकी अयाशियां परवान चढ़ने लगीं। इस संपादक को भारी-भरकम सैलरी मिलती है। इस पैसे का दुरूपयोग वे अपनी रंगीन मिजाजी के लिए कर रहे हैं। रंगीन मिजाजी की खबरें इन दिनों चर्चा का विषय बनी हुई हैं। ये अपनी लम्बी गाड़ी में अक्सर बाजारू लड़कियों को देहरादून के आउटर में ले जाते हैं। ये अपने चापलूस दोस्तों से प्रशिक्षु महिला पत्रकारों को भर्ती कराने के लिए जब-तब कहते रहते हैं। इन महाशय ने देहराूदन में पर्दापर्ण करते ही एक महिला पत्रकार को नाकाबिल घोषित करते हुए  संस्थान से बाहर का रास्ता दिखा दिया, लेकिन दूसरी ओर एक प्रशिक्षु पत्रकार के साथ खुदकी बाइलाइन खबरें छापकर उसे स्टाफर का दर्जा तक दिलवा डाला। इस महिला पत्रकार की काबिलियत भी किसी से छुपी नहीं है। ये रंडीबाजी को लेकर पिछले दिनों तब चर्चा में आए जब इनकी अपने ही एक सहयोगी से ठन गई। हुआ कुछ यूं कि इन संपादक महोदय कि देहरादून आगमन के वक्त से ही यहां सालों से जमे-जमाये बैठे एक पत्रकार के साथ ठन गई थी। मामला यहां तक पहुंचा कि पत्रकार को उत्तराखंड से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया, नजीजन पहाड़ी बनाम मैदानी मानसिकता पर जमकर गरमागरम विमर्श होने लगा। उत्तराखंड के एक तेजस्वी पत्रकार, जो अब स्वर्गीय हो चुके, ने देहरादून में इन संपादक के खिलाफ गाजे-बाजे के साथ विरोध-प्रदर्शन तक का ऐलान कर दिया था। हालांकि यह अनोखा प्रदर्शन हो न सका। इस तनातनी के बीच पिछले दिनों संपादक को फूटी आंख न सुहाने वाले से पत्रकार अपने घर देहरादून आए हुए थे। इसी दौरान वे अपने एक साथी के दुख में शरीक होने के लिए देहरादून स्थित अपने अखबार के कार्यालय में उनसे मिलने जा पहुंचे। बताते हैं कि संपादक ने सुरक्षा गार्ड से पत्रकार को बाहर धकियाने को कहा। इसी बात को लेकर अपने गरममिजाज तेवरों को लेकर पहचाने वाले पत्रकार को खुदकी बेइज्जती सहन नहीं हो सकी और उन्होंने संपादक के खिलाफ पूरी भड़ास निकाल डाली। मामला इतना बढ़ गया कि पत्रकार ने संपादक को सरेआम रंडीबाज तक कह डाला। काफी देर तक दोनों के मध्य वाद-विवाद होने के बाद पत्रकार अखबार के कार्यालय से बाहर निकल गए। इसके बाद पत्रकार ने अखबार के नोयडा स्थित कार्यालय में मैनेजमैंट से संपादक की कारगुजारियों की शिकायत कर संस्थान से इस्तीफा दे दिया। अब उन्होंने देहरादून में ही एक नया अखबार ज्वाइन कर लिया है। संपादक की रंडीबाज के किस्से रोज मीडिया में इन दिनों चर्चा का विषय बने हुए हैं।










वैकल्पिक मीडिया के समर्थकों-शुभचिंतकों के नाम अपील़-ॅंजबीक्वह



एक मासिक पत्रिका के तौर पर वाॅचडाॅग की शुरूआत दो साल पहले हुई। इस दौरान मैग्जीन को सरकारी विज्ञापनों पर ही पूरी तरह आश्रित रहना पड़ा। जैसे-तैसे सरकारी इमदाद के भरोसे सीमित दायरे में ही सही, मैगजीन छपती रही है, इसमें कुछ मित्रों का सहयोग भी वक्त-बेवक्त मिलता रहा। जैसे कि अक्सर होता है सत्ता-सिस्टम के खिलाफ खड़े होने की कीमत हर किसी को चुकानी पड़ती है, कम या ज्यादा। यही कीमत वाॅचडाॅग को भी चुकानी पड़ी है। अपने शुरूआती अंक से ही पत्रिका की कवर स्टोरी भ्रष्ट राजनेताओं और नौकरशाहों की कारगुजारियों  पर ही केन्द्रित रही, यह जानते-बूझते हुए भी कि जिन्दा रहने के लिए जरूरी रसद इन्हीं राजनेताओं-नौकरशाहों के रहमोकरम पर रिसता हुआ हम जैसों तक भी पहुंचती है, चाहे वह विज्ञापन के रूप में ही हो। जैसे कि मासिक पत्रिकाएं या फिर छोटे समाचार पत्र स्वभावतः सत्ता-सिस्टम को रास नहीं आते, जितना कि कार्पाेरेट मीडिया घराने। उनकी ताकत ज्यादा होती है, लिहाजा वे सत्ता-सिस्टम के नजदीक भी होते हैं और उसी अनुपात में धंधा भी करते हैं। उत्तराखंड में सरकार पूरी तरह इन्हीं कार्पाेरेट मीडिया वालों को पालने-पोसने में लगी हुई है, उसे सरकार की कार्यशैली पर आलोचनात्मक नजर रखने वाले पत्रकार और ऐसे छोटी पत्र-पत्रिकाएं फूटी आंख नहीं सुहाती। छपाई के खर्चे लगातार बढ़ने से भी वाॅचडाॅग जैसी पत्र-पत्रिकाओं के सामने संकट ज्यादा गहरा है। तमाम कोशिशों के बावजूद भी वाॅचडाॅग नियमित तौर पर प्रकाशित नहीं हो पा रही है। यह संकट इसलिए भी तब और बढ़ जाता है जब छोटे स्तर पर बिना किसी पूंजी के प्रकाशित होने वाली वाॅचडाॅग जैसी पत्रिकाएं विज्ञापन के नाम पर अनैतिक तौर-तरीकों का सहारा लेने से बचने की कोशिश करती हैं। इसका  नतीजा यह होता है कि विज्ञापन जुटाने के रास्ते बहुत ही सीमित हो जाते हैं। राज्य में विज्ञापन जारी करने वाले अधिकतर विभागों में ऐसे नौकरशाह बैठें हैं जो अपने भ्रष्ट आचरण के लिए कुख्यात हैं। वाॅचडाॅग ने जब इनकी कारगुजारियों पर कलम चलाई तो शुरूआती दिनों से ही इनके अधीन आने वाले विभागों से विज्ञापन हासिल करने के रास्तों को ही अपने लिए बंद कर दिया। नतीजन, साफ-साफ कहें तो यह पत्रिका अब अपने अल्प समय में ही बंदी की स्थिति में पहुंच गई है। इसके बावजूद कोशिश यही है कि पत्रिका को किसी तरह जिंदा रखा जाय। अब तय किया है कि वाॅचडाॅग को प्रिंट में ऐसे ही धक्का मारते रहने के साथ इंटरनेट की आभासी दुनिया में प्रवेश किया जाय, ताकि सोशल मीडिया टूल्स का उपयोग करते हुए वाॅचडाॅग की पहुंच का विस्तार किया जा सके। इसके लिए ूंजबीकवहदमूेण्ूवतकचतमेेण्बवउ नाम से वेब ठिकाना तैयार किया है। प्रिन्ट संस्करण के साथ ही एक ई-मैग्जीन के तौर पर वाॅचडाॅग की कोशिश रहेगी कि उत्तराखंड को केन्द्रित करते हुए सत्ता-सिस्टम की कमजोरियों-कारगुजारियों को प्रखरता के साथ सामने लाया जाय। वाॅचडाॅग के मुख्य फोकस के बिन्दु वे ऐसे सभी सवाल होंगे जो मुख्यधारा की मीडिया में जगह नहीं पाते हैं। वाॅचडाॅग का काम मात्र यही नहीं होगा कि जो परम्परागत तरीके से किसी भी मीडिया संस्थान या पत्रकार का होता है, बल्कि वाॅचडाॅग की भूमिका एक एक्टिविस्ट के तौर पर वे सभी मुददे जो सामने तो आते हैं, लेकिन सरकार की संवेदनहीनता की वजह से किसी अंजाम तक नहीं पहुंच पाते हैं ऐसे सवालों को अदालत की दहलीज तक ले जाना भी होगा। इसके लिए कुछ ऐसे सरोकारी मित्र जो पेशेवर तौर पर वकालत के पेशे में कार्यरत हैं, निःशुल्क अपनी सेवाएं देने को तैयार हैं, ताकि इस मुहिम को आगे बढ़ाया जा सके। यह जानते हुए भी कि एक पत्रकार की परम्परागत भूमिका से हटकर सत्ता-सिस्टम से सीधे-सीधे अदालती चैखट पर टकराव मोल लेने के भी अपने खतरे हैं, ऐसे में भ्रष्ट नेताओं और नौकरशाहों से टकराव होने की सूरत में यह भी संभव है कि आने वाले दिनों में वाॅचडाॅग की घेराबंदी के लिए साजिशों का जाल बिछता दिखे, तो हैरान मत होइये। खैर इन सब अंदेशों के बावजूद हमारी प्राथमिकता के मुददे कुछ इस तरह होंगे-

1-उत्तराखंड में जनपक्षीय पत्रकारिता को बढ़ावा देना।

2- समाचार पत्रों को जनहित से जुड़े विषयों पर समाचार व लेख उपलब्ध कराना।

3- उत्तराखंड में मैला ढोने की सामंती कुप्रथा के खिलाफ एक अभियान संचालित करना।

4- जनहित के मुददों को पीआईएल के रूप में अदालत तक पहुंचाना।
 
 अहम सवाल जो कि आर्थिकी से जुड़ा हुआ है, को हल किए हुए इस तरह की किसी भी मुहिम को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता है। इसके लिए शुरूआती योजना यह है कि वाॅचडाॅग को उन सभी मित्रों, सहयोगियों और शुभचिंतकों के सहयोग से आगे बढ़ाया जाय जो कार्पोरेट मीडिया के इस भनभनाते और दिमाग को सन्न करने वाले शोर के बीच भी वैकल्पिक रास्तों की शिददत के साथ तलाश के राही हैं। इसके लिए प्रायोगिक तौर पर कम से कम ऐसे एक हजार सहयोगियों-शुभचिंतकों की तलाश की जा रही है जो वाॅचडाॅग को पाॅच सौ रूपये से लेकर दो हजार रूपये तक की मदद करने की स्थिति में हों। ऐसे सभी शुभचिंतकों से जो वैकल्पिक मीडिया के समर्थक हैं, से उम्मीद करता हूं कि वे इस मुहिम में शामिल होकर वाॅचडाॅग की मदद को आगे आएंगे और वाॅचडाॅग की नीतियों व लक्ष्यों के निर्धारण व क्रियान्वयन में सहभागी बनेंगे।
भवदीय
दीपक आजाद
 एडिटर, वाॅचडाॅग







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