शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2014

आखिर कबार तलक लुट्येला पहाड़

मानव जनित आपदाओं का गढ़ बना रूद्रप्रयाग जिला 

पिछले साल आई आपदा से हमें बहुत कुछ सीखना होगा। विज्ञान पर गर्व करते हम कब तक अपने प्राकृतिक वैदिक ज्ञान की अवहेलना करते रहेंगे। प्रकृति को पूजने वाले मनखी ने प्रकृति पर ही अपने अधिकतर प्रयोग किये है। इनकी सफलता तो पिछले साल की आपदा बता चुकी है जो मातृ एक झलक थी। अतिसंवेदनशील रूद्रप्रयाग केदारघाटी जो कि भूकम्पीय दृष्टि से अतिसंवेदनशील जोन पाॅच में आती है आज मानव जनित आपदाओं का गढ़ बनती जा रही है।
कितनी बिस्मयकारी बात है कि वाडिया जैसे संस्थान हमारी देवभूमि के ही हिस्से में है, जिसका संदर्भ भूगर्भीय क्षमता में हो रही जाॅच पडताल के अलावा भारत की संस्कृतिक सामाजिक संपदा के संरक्षण से है। पर क्यों इस घाटी की माटी के लिए सूबे की स्थानीय सरकारें संवेदनशील नहीं दिख रही है। केदारघाटी की संपदा जल जंगल जमीन को व्यवसाय मानने और बनाने की बजाय तीर्थ स्थल, रिच बायोडइवर्सिटी, गौ गंगा भूमि, सास्कृतिक भूमि, साहित्यिक भूमि, डाडी काठी दर्शन भूमि के रुप में ही विकसित किया जाना चाहिए। ये मानक हमें बार बार बताता है कि ये बेल्ट अत्यधिक संवेदनशील है, बसके साथ प्राकृतिक छेड़छाड़ तो दूर सड़कों का अत्यधिक निर्माण तक इन पहाड़ों के साथ छलावा है पर आश्चर्य होता है ऐसी संवेदी बेल्ट में मन्दाकिनी नदी में पचासों छोटी-बड़ी परियोजनाओं को पर्यावरण मंत्रालय सेे कैसे सहर्ष स्वीकृति दी जाती है? बाॅधों के नाम पर निरंतर जारी विस्फोट से पहाड़ तो हिले ही साथ ही एक बहुत जरुरी पहलू को डिस्टर्व कर गये हम! यहां का वन्य जीवन? घेन्दुडी चकुली कफु हिलाॅस, बाज बुराॅश खर्शू मोरु  समेत ये डाॅडी काॅठी हिमालय की भी संरक्षक है। पानी की पर्याप्त के कारण ही हरे भरे बाॅज बुराॅश के जंगलों से लकदक दिखती है ये डाडी काठी, इसीलिए यहाॅ का वन्यजीवन ऊपरी क्षेत्रों में अत्यन्त धनी है विस्फोटकों की आवाजे इनके लिए बहुत बड़ा खतरा बनती है। आपको पता होगा कि पशु पक्षी भूकम्पीय तरंगों के प्रति काफी संवेदी होते है। ये इन तरंगों के आने से पूर्व ये अजीब हरकतें करते है, पर यहाॅ तो बेफ्रिक होकर वन्यजीवन की अनदेखी की जा रही है। कुलैं चीड पाइनस राॅक्सबर्घाई जैसे पेड़ांे की स्पीसीज ने तो बाॅज बुराश जैसे चैड़े सदाबहार वनों के आस्तित्व पर ही खतरा खड़ा कर दिया। मेरे हिसाब से तपते पहाड़, पिघलते ग्लेशियर, सिमटते बुस्याते धारे पन्ध्यारे जैसी समस्याएॅ सबसे ज्यादा चीड जैसे पेड़ ने भी पैदा की है। ऐसे में आदमी ने हर और से पहाड़ों को ठगा है। लूटा है इसकी अमूल्य संपदा को, अपने पहाड मसूरी कैम्पटी की ही बरत करें तो बाॅज-बुराॅश के सदाबहार जंगलों का एरिया शायद कहीं न कही कम होता जा रहा है विकाश के आगे पर्यदन यात्रा व्यवसाय होटलों की बढ़ती तादात गाडियों का शोरगुल हार्न धुआ परदूषण के कारण आज चहचहाते पक्षी चकुली ध्येन्दुडी कफ्फू -हिलाॅस  घुघती जैसे पक्षियो के कलरव सुनना यहाॅ भी दूभर होता नजर आ रहा है। अब तो मसूरी कैम्पटी तले पंखे कूलर फ्रिज की खूब आवश्यकता महसूस की जाती है ये हमारा विकास नहीं दगडयों ये पहाड़ों के लुटने का सबब भर है यहाॅ अंग्रेजों के समय का किया विकाश मैप पारिस्थित समावेशी था। पर आज शायद हम अपने मन पहाडों का नाचना पनके संसाधनों का जी भर उपभोग करना ही जानते है। इसके लिए हम अपना कर्तब्य भूल चुके है जो कि नितान्त आवश्यकीय पहलू था उत्तराखण्ड को बनाने का। अब घूम फिर कर सवाल यही उटता हैं कि आखिर कब तक लुटते रहेंगे पहाड़ और हम पहाड़ी।
बिखरते पहाडी,
टूटते पहाड़
विकास के आगे
सिमटते पहाड़,
बण जंगल सब कुछ लुटाते पहाड़
पर तब भी आत्मीयता के मयालेपन से
ओत-पोत है ये पहाड़।        
कितना कुछ सिखाते ये पहाड़।
पहले गिराते फिर संभलकर चलना सिखाते ये पहाड़,
हमें तो प्यारे है ये पहाड़,
हमें तो प्यारे है ये पहाड़।  
अश्विनी गौड लक्की                                                                      
लेखक  श्री गुरु राम राॅय पब्लिक स्कूल  कैम्पटी मसूरी में कार्यरत  ;विज्ञान शिक्षकद्ध हैं। 

कोई टिप्पणी नहीं: