शनिवार, 6 दिसंबर 2014

उत्तराखंड सरकार और हड़ताल

क्या होगा हमारे राज्य का?

राज्य के कर्मचारियों की हैं बेहद अजीबो-गरीब मांगें
राज्य के बनने से व्यक्तिगत और सामूहिक लाभ के हकदार कर्मचारी
फिर हफ्ते में एक दिन अधिक काम करने पर आक्रोश कैसा?
सबको रोगमुक्त करने वाले डाक्टर पहाड़ चढ़ने के नाम पर हो रहे हैं स्वयं रोगी
14 सालों में शिक्षकों के ट्रान्सफर की नीति तक फाइनल नहीं
कलेक्ट्रेट में नौकरी करने के आधार पर कुछ लोग नायब तहसीलदार बनना चाहते हैं !
फिर परीक्षा की तैयारी के बजाय कलेक्ट्रेट में नौकरी की जुगत लगाना ज्यादा मुफीद कदम है!

उत्तराखंड राज्य बनने से लेकर अब तक राज्य में यह क्या हो रहा है यहां के आम उत्तराखंडियों के समझ से शायद परे है। इसके पीछे कारण स्पष्ट है कि राज्य के लिए आंदोलन सभी ने किया और इसका फायदा लेने वालों की लिस्ट कुछ खास लोगों की। अन्य आंदोलनकारी कहां गए और वह क्यो लिस्ट में अपना नाम दर्ज नहीं करवाना चाहते हैं। जबकि राज्य के सभी विभागों के कर्मी आज जब भी आंदोलन करते हैं तो खुद को सार्वजनिक मंचों से राज्य आंदोलनकारी बताते हैं। सरकार भी उनके सामने घुटने टेक देती है और उनकी अजीबो-गरीब मांगों को मांग लेती है। फिर प्रश्न आता है कि आम उत्तराखंडी कहां है और वह क्यों चुप हैं। शायद वह इसलिए कि राज्य बनने के इतने वर्षों बाद भी जब राज्य के निर्माण के पीछे का उद्देश्य पूरा नहीं हुआ तो चुप्पी साधने में ही भलाई है। क्योंकि राजनीति के कुचक्र में वह पीसना नहीं चाहते हैं? राज्य के कर्मचारियों की बेतुकी और अजीबो-गरीब मांगों और वर्तमान सरकार की नीतियों पर इंद्रेश मैखुरी का यह विशेष आलेख।     संपादक 
गलत आदमी की सही बात को मानना लोगों के लिए उतना ही मुश्किल होता है, जितना सही आदमी की गलत बात को हजम करना। उत्तराखंड में कर्मचारियों की हड़ताल के मामले में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हरीश रावत की स्थिति भी ऐसी ही है, जैसी गलत आदमी की सही बात कहने पर होती है। यह सही बात है कि आये दिन होने वाली कर्मचारियों की हडतालों में जो मांगें हैं, वे बेहद विचित्र हैं। पर हरीश रावत उन पर ऊँगली उठाने के लिए सही व्यक्ति नहीं हैं। अब देखिये सचिवालय के कर्मचारी इसलिए हड़ताल पर उतर आये हैं क्यूंकि राज्य सरकार ने सचिवालय में 5 दिन के कार्यदिवस के बजाय 6 दिन का कार्यदिवस कर दिया। इस आदेश के खिलाफ सचिवालय के कर्मचारियों का हड़ताल पर उतरना बेहद विचित्र है। जब पूरे प्रदेश में कर्मचारी हफ्ते में 6 दिन काम करते हैं तो सचिवालय में ही कर्मचारियों को 5 दिन क्यूँ काम करना चाहिए?और यदि कार्यदिवस 5 दिन के बजाय 6 हो गए तो ऐसा होना कर्मचारी विरोधी कैसे है?आम तौर पर ऐसे मौकों पर कर्मचारी लोग उत्तर प्रदेश का उदाहरण देने लगते हैं। लेकिन यदि उत्तर प्रदेश ही नजीर है तो अलग राज्य की जरुरत ही क्या थी?उत्तराखंड यदि उत्तर प्रदेश का ही हिस्सा होता तो अपने निजी वाहनों पर ‘सचिवालय’ लिखवाने वालों और सचिवालय कर्मी होने के नाते स्वयं को विशेषाधिकार संपन्न समझने वालों में से कितने इस स्थिति में होते?यह अलग राज्य बनने का ही प्रतिफल है कि कर्मचारियों की अच्छी-भली संख्या राज्य सचिवालय में पहुँच सकी। बेशक राज्य बनने में कर्मचारियों का भी योगदान है, परन्तु राज्य बनने का लाभ भी तो उनके हिस्से में आया है। तो फिर जिस राज्य के बनने से व्यक्तिगत और सामूहिक लाभ के हकदार कर्मचारी हुए, उस राज्य के लिए हफ्ते में एक दिन अधिक काम करने पर आक्रोश कैसा?
ऐसा नहीं है कि ऐसी विचित्र मांग,सिर्फ सचिवालय कर्मियों की ही है। इससे पहले कलेक्ट्रेट के मिनिस्टीरियल कर्मचारियों ने 50 दिन के करीब हड़ताल की। उनकी प्रमुख मांगों में से एक मांग यह थी कि कलक्ट्रेट के मिनिस्टीरियल कर्मचारियों को नायब तहसीलदार के पदों पर दस प्रतिशत पदोन्नति दी जाए। यह बेहद अजीबो-गरीब है। एक तरफ युवा बेरोजगार रात-दिन एक करके लोकसेवा आयोग की परीक्षा पास करके नायब तहसीलदार के पदों पर नियुक्ति के योग्य हो पायेंगे और दूसरी तरफ बिना कोई परीक्षा दिए सिर्फ कलेक्ट्रेट में नौकरी करने के आधार पर कुछ लोग नायब तहसीलदार बनना चाहते हैं ! उत्तराखंड राज्य बनने के बाद नायब तहसीलदार नियुक्त होने वाले तमाम लोग आज एस.डी.एम. और ए.डी.एम.जैसे पदों तक पहुँच चुके हैं। यह अलग तरह का सरकारी गोरखधंधा है तो इस तरह देखें मिनिस्टीरियल कर्मचारी नायब तहसीलदार होकर एस.डी.एम.,ए.डी.एम. भी हो जायेंगे। तो फिर प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी के बजाय कलेक्ट्रेट में नौकरी की जुगत लगाना ज्यादा मुफीद कदम है! उक्त दोनों ही हड़तालें उत्तराखंड उच्च न्यायालय द्वारा सरकार को हड़ताली कर्मचारियों पर एस्मा ;म्ेेमदजपंस ेमतअपबमे उंपदजंपदमदबम ंबजद्ध लगाने के निर्देश के बाद ही वापस हुई।
उत्तराखंड में राज्य कर्मियों की बात हो तो वह शिक्षकों की चर्चा के बिना अधूरी रहती है। राज्य में शिक्षा महकमे की सर्वाधिक चर्चा ट्रान्सफर को लेकर रहती है। शिक्षा महकमें में ट्रान्सफर कितना दुष्कर कार्य है, इसका अंदाजा इस बात से लगता है कि 14 सालों में शिक्षकों के ट्रान्सफर की नीति तक फाइनल नहीं हो सकी है। पिछले दिनों देहरादून में राजकीय शिक्षक संघ के जिला अधिवेशन में शिक्षकों ने मांग की कि उन्हें दुर्गम भत्ता दिया जाए। यह विडम्बना ही कही जायेगी कि जिस राज्य की मांग ही दुर्गम पर्वतीय क्षेत्रों की दिक्कतों को सुगम करने के लिए हुई हो,उस राज्य के निवासी, शिक्षक होकर,उस राज्य के दुर्गम क्षेत्रों में सेवा करने के लिए अतिरिक्त भत्ते की मांग करें। जिन क्षेत्रों को सरकारी भाषा में दुर्गम करार दिया जा रहा है, क्या वहां के वाशिंदों को भी इसी तरह के अलग भत्ते की मांग करनी चाहिए? डाक्टरों की हालत तो शिक्षकों से भी चार हाथ आगे है। सबको रोगमुक्त करने का जिम्मा सँभालने वाले डाक्टर पहाड़ चढ़ने के नाम पर स्वयं रोगी हो जा रहे हैं।
तो क्या मैं उत्तराखंड सरकार और उसके मुखिया हरीश रावत के टाईप की बात कह रहा हूँ। जी नहीं, मैं तो कह रहा हूँ कि हरीश रावत यह बात कहने के लिए गलत आदमी हैं। स्कूल के दिनों में चाँद को खिलौने के रूप में मांग रहे बच्चे वाली कविता,याददाश्त में थोड़े धुंधले रूप में है। राज्य बनने के बाद के तेरह साल में हरीश रावत की स्थिति भी उस बच्चे जैसी ही है, बस उन्हें चाँद नहीं मुख्यमंत्री की कुर्सी चाहिए थी, हर हाल में,किसी भी कीमत पर। राज्य आन्दोलन के जमाने में वे आन्दोलनकारियों से कह रहे थे,राज्य नहीं हिल काउन्सिल होनी चाहिए। राज्य बन गया तो,वे कहने लगे-मुझे मुख्यमंत्री होना चाहिए। राज्य बनने के बाद उन्होंने मुख्यमंत्री बनने के लिए क्या-क्या न किया। अब ऐसा आदमी कर्मचारियों से कह भी दे कि तुम राज्य की सोचो तो वह नैतिक ताकत उसके शब्दों में कहाँ से आएगी जो असर कर सके?और बात सिर्फ हरीश रावत की ही नहीं है,कांग्रेस और भाजपा दोनों की ही यही स्थिति है। याद करिए भाजपा राज में मुख्यमंत्री पद से हटाये गए भुवन चन्द्र खंडूड़ी 2011 में इस बात के लिए अड़ गए कि चाहे 6 महीने के लिए बनाओ पर हर हाल में, मुख्यमंत्री बनाओ,नहीं तो पार्टी छोड़ता हूँ और भाजपा को उनकी इस कुर्सी हट के सामने समर्पण करना पड़ा था। कांग्रेस सत्ता में आये या भाजपा,सरकार बनते ही कार्यकर्ताओं को सरकार में एडजस्ट करने की बात ऐसे चलने लगती है जैसे यह उनका संवैधानिक हक हो और सरकार का सबसे जरुरी उत्तरदायित्व यही हो! कांग्रेस सरकार के एक मंत्री आये दिन कोप भवन में जाने के लिए सुर्खियों में होते हैं और हर बार उनके कोपभवन के पीछे खनन के कारोबार की चर्चा चल पड़ती है।
जो सरकार में हैं, वे अपनी सत्ता के लिए किसी भी हद को पार करने को तैयार रहेंगे और अपने मातहतों को नैतिकता,कर्तव्यपरायणता की घुट्टी पिलायेंगे तो यह हमेशा गलत आदमी के मुंह से कही गयी सही बात साबित होगी,जो किसी को हजम नहीं होगी पर इस सब की कीमत तो चुकानी पड़ेगी राज्य को, राज्य के आम लोगों को आखिर कब तक?

देवभूमि में आंदोलन-आंदोलन

पुराणों-वेदों में उत्तराखंड को देवभूमि कहा जाता है। देवभूमि शब्द का अर्थ देवताओं का वास है। कहते है कि देवभूमि के कण-कण में भगवान शंकर का वास है इसलिए भगवान शंकर के साथ असंख्य देवता भी यहां वास करते है। जहां भगवान शंकर के वास के बात आती है तो वहां स्वाभाविक रूप से राक्षसों का रहना भी स्वाभाविक है। यही कारण है कि यहां दंतकथाओं में कई कथाएं प्रचलित है। उत्तराखंड राज्य बनने से पहले यह भू-भाग उ.प्र. राज्य का अंग था, लेकिन यहां की हमेशा से ही उपेक्षा होती थी। यही कारण रहा कि इस भू-भाग के लोगों ने पृथक राज्य के लिए एक लंबा आंदोलन किया। उसी आंदोलन का परिणाम था कि 2000 में इसे पृथक राज्य का दर्जा मिला। आंदोलनों के इतिहास में राज्यवासियों को दुःख-दर्द और जो वेदनाएं सहनी पड़ी उसका दर्द वह आज भी महसूस कर रहे हैं। यहां इस बात का जिक्र इसलिए किया जा रहा है कि राज्य गठन से लेकर अब तक देश के इतिहास में शायद ऐसा कहीं नहीं होता है कि जहां आंदोलनों का दौर नहीं थमा। आखिर इसके पीछे क्या कारण है। इन पर चर्चा करने के लिए ही उक्त पक्ंितयों को लिखने पर मजबूर हुआ। उत्तराखंड राज्य निर्माण से लेकर इससे पहले से राज्य के हालातों पर नजर रखने के बाद यह बात स्पष्ट होती है कि राज्य के नीति-निर्माता राज्य के निर्माण की मूल भावना को समझ ही नहीं पाए। यही कारण है कि आंदोलनों का दौर आज दिन तक नहीं थमा। आंदोलनों का दौर तो देश के विभिन्न राज्य में या तो किसी बड़ी समस्या के समय उत्पन्न होते हैं या फिर राज्यों के विधानसभा सत्र के दौरान। वहीं उत्तराखंड राज्य में तो नित्य ही आंदोलनों का दौर रहता है। इसके पीछे असल कारण क्या है यह एक यक्ष प्रश्न है और इस पर सोचने विचारने की आवश्यकता है। इस मामले में जब कई लोगों से वार्ता की गई तो लोगों का कहना था कि देश के अन्य राज्यों में भी आंदोलन होते हैं पर वह उत्तराखंड राज्य जैसे नहीं यहां तो नित्य आंदोलन होते हैं और हमारे भाग्यविधाता सोये रहते है। हमारे भाग्यविधाताओं को तो सिफ अपनी जेबे भरने और एक दूसरे को नीचा दिखाने की होड लगी रहती है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण राज्य में अभी तक के मुख्यमंत्रियों का बदलना है। जानकारों की माने तो राज्य के भाग्यविधाता चाहे तो राज्य में हो रहे आंदोलनों को एक दिन में समाप्त करवा सकते हें लेकिन वह ऐसा जनबूझकर नहीं करवाना चाहते है। उन्हे तो राज्य की जनता को परेशानी में दिखना अच्छा लगता है।

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