धियाणी कि विदाई ‘एक रस्म एक रिवाज’
अचानक एक सपने के टूटते ही नींद खुली तो पता चला कि सुबह के साढ़े पाँच बज चुके हैं और माँ जोर-जोर से दरवाजा पीट रही है कि ‘‘नंदा देवी राजजात यात्रा’’ में चलना है कि नहीं? बड़ी मुश्किल से तन्द्रा टूटी और फिर वह सपना जो मुझे हिमालय की चोटियों पर विचरण और पता नहीं किन-किन यादों और बातों के पीछे भ्रमण करवा रहा था, सब भंग हो गया। खैर! सपना बहुत ही बुरा था, पर जब नींद खुली और नन्दा देवी राजजात यात्रा का पूर्व वृतान्त स्मरण हुआ तो सब बुरे सपनों का साया समाप्त हो गया क्योंकि पिछली रात को इस यात्रा पर खूब बहस हुई थी और बड़ा ही उत्साह था मां नन्दा के दर्शन का। आखिर हो भी क्यों नहीं, आखिर मैंने बचपन के उन दिनों भगवती नंदा के जो दर्शन किये थे, जब बच्चे को खाना-पीना और मस्ती ही नजर आती है। उस समय मैं मात्र दस साल का था, जब उस पराम्बा जगद्जननी के दर्शन हुए थे और मेरे साथ मेरे पिता जी और स्वर्गीय दादीजी जो थी, जिनको मैं अत्यधिक स्मरण कर रहा था। परन्तु यह यात्रा भी मेरे लिए किसी खास दिन से ज्यादा नहीं थी, क्योंकि इस बार मैं अपनी माँ और पिताजी के साथ यात्रा पर जा रहा था। पता नहीं यह खास दिन कैसे आया, क्योंकि अभी कुछ ही दिन पूर्व मेरी ताई जी का निधन जो हुआ था और माँ-पिताजी भी यात्रा में जाने के खिलाफ थे परन्तु मेरी जिद और लेक्चर ने उनका मूढ़ बना दिया और वो तैयार हो गये।
यात्रा के लिए प्रस्थान-कुछ गाँव की दीदीजी, भाभीजी और उनके अन्य सहयोगियों के साथ सुबह-सुबह ठण्डी हवा में बुक की गयी मैक्स में बैठकर ठंडी हवाओं का कुछ ज्यादा ही आनन्द आ रहा था। चारों ओर से सनसनाती हवा मानों कानों को गिरिराज हिमालय के अधिपति भोलेनाथ और सर्वशक्तिदायिनी माँ नन्दा का सन्देश और आशीष दे रही हो। उस दिन आसमान में बादल छाये हुए थे और बीच-बीच में हल्की बूँदा-बाँदी केदारनाथ यात्रा का स्मरण करवा रही थी परन्तु माँ के दर्शन की अभिलाषा ने बिलकुल भी उत्साह में कमी नहीं आने दी। जैसे ही गाड़ी अपने गन्तव्य की ओर बढ़ी तो पिताजी ने बताया कि वहाँ ठंड हो सकती है, जिसका कि हम लोगों ने बिलकुल भी इन्तजाम नहीं किया था किन्तु मुझे तुरन्त ही आइडिया सूझा। मैंने तुरन्त चाचाजी जो कि रुद्रप्रयाग में रहते थे, उनको फोन किया और एक स्वेटर व एक शाॅल मंगवा लिया। अब हम निश्चिन्त होकर मस्ती के साथ आगे बढ़ने लगे। धीरे-धीरे रुद्रप्रयाम जिले के सीमावर्ती गाँवों को छूकर निकलने लगे तो सामने ही ककोड़ाखाल गाँव सहसा दिखाई देते ही स्वर्गीय श्री अनसूया प्रसाद बहुगुणा जी का स्मरण हो आया, जिन्होंने गढ़वाल में बेगार प्रथा के विरु( अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन किया था और पिताजी उस बेगार प्रथा का उल्लेख करने लगे कि किस प्रकार उस समय के राजा और अंग्रेज मिलकर जनता पर अत्याचार किया करते थे। टिहरी की राजशाही और अंग्रेजों के अत्याचारों का विवरण होते ही मैं भी भावनात्मक रूप से उन लोगों से जुड़ने लगा, जिन्होंने ये अत्याचार सहे थे। मेरी पूरी सिम्पैथी उन निर्दोष लोगों के साथ थी जिन्होंने ये अत्याचार सहे थे और श्री बहुगुणा जी मेरी नजरों में हीरो बनने लगे थे।
संगीतमय हो गई यात्रा-धीरे-धीरे आगे बढ़ते ही यात्रा को रोचक व यादगार बनाने के लिए पिताजी ने गढ़वाल के सुप्रसि( गीतकार नरेन्द्र सिंह नेगी जी के माँ नन्दा देवी का प्रसि( गाना ‘‘जै, जै बोला, जै भगोति नन्दा, नन्दा ऊँचा कैलाश की जय’’ गाना प्रारम्भ कर दिया और फिर मुझसे भी रहा नहीं गया और मैं भी स्वर से स्वर मिलाने लगा। गाने के समाप्त होते ही सभी लोग जिन्होंने मुझे पहली बार सुना था, मेरे गले की तारीफ करने लगे किन्तु ये बातें मेरे लिए अब पुरानी सी थी, क्योंकि कोई भी फटे बाँस की आवाज वाला भी गाना गाये तो सभी लोग टाइमपास करने के लिए अकसर तारीफों के पुल बांधने लगते हैं।
आपदा के घाव अभी भी हरे-धीरे-धीरे हम अपने गन्तव्य की ओर हिचकोले खाते हुए बढ़ रहे थे। मानों हर गड्डा हमें अपने में समाने के लिए बैठा हो। प्रत्येक गड्डे पर गाड़ी के उछलते ही मंै चिढ़कर पिताजी से उत्तराखण्ड शसन-प्रशासन की बात कर रहा था जो कि पिछले दो-तीन सालों से नन्दादेवी राजजात यात्रा के बारे में टी.वी व समाचार-पत्रों में विज्ञापनों के माध्यम से तैयारियों का डंका पीट रहे थे। रुद्रप्रयाग व चमोली जिले में आयी भीषण आपदा के बाद भी सड़कों की हालत पर तरस आ रहा था परन्तु क्या किया जा सकता था। मैं लगातार गाड़ी के स्पीड मीटर पर देख रहा था जो 25-30 किमी की स्पीड से आगे बढ़ने का प्रयत्न कर रहा था परन्तु बार-बार असफल हो रहा था। रुद्रप्रयाग से 32 किमी. की दूरी तय करते ही महादानी कर्ण के शहर और अलकनंदा-पिण्डर के संगम स्थल कर्णप्रयाग पहुँचे। कर्णप्रयाग में प्रवेश करते ही जोशीमठ के हरे सेब व हिमाचल के लाल सेबों को देखते ही मन ललचा गया। फिर क्या था तुरन्त मोलभाव किये और 2 किलो मीठे सेब व केले खरीद लिये। यही आगे की पूरी यात्रा में कारगर साबित हुए।
पिण्डर घाटी में प्रवेश-धीरे-धीरे नारायणबगड़, थराली से होते हुए देवाल पहुँच गये। रास्ते में आपदा के जख्म साफ दिखाई दे रहे थे। कहीं पुराने पुल के स्थान पर नये ट्राली के डिब्बे तो कहीं पुल के दोनों ओर के खम्भे जो किसी नये पुल का इन्तजार कर रहे थे। कहीं नदी के कटाव से खेतों की दुर्दशा। देवाल पहुँचते ही माँ नन्दा के लिए श्रृँगार का सामान व कुछ समौण के लिए मार्केट में इधर-उधर घूमने लगे। जैसे ही देवाल से मुन्दोली के लिए रवाना हुए तो प्रकृति की उस अनुपम छटा ने मन को मोह लिया। लहराती हरियाली, सीढ़ीदार खेत उन खेतों में तोर, कौणी, झंगोरे की फसल, गाड-गदेरे पहाड़ों से बहते झरने तथा सामने सुन्दर नगाधिराज अपनी मनोहर छटा बिखेरे आने वाले दर्शनार्थियों के स्वागत के लिए हर वक्त खड़ा दिखाई दे रहा था। जैसे ही मुन्दोली के निकट पहंँचते ही दूर से गाड़ियों की पंक्तियाँ दिखाई देने लगी, जो हरे-भरे पहाड़ पर सफेद ओंस की बूँद जैसे चमक रही थी। मुन्दोली से पूर्व ही गाड़ियों की लम्बी कतार होने के कारण हम भी उस भीड़ का हिस्सा बन गये जो पूर्व से ही माँ नन्दा के दर्शनार्थ आये हुए थे। जैसे ही हम मुन्दोली की उस भीड़ में पहुँचे तो पता चला कि माँ नन्दा की डोली वाण गाँव के लिए रवाना हो चुकी है।
माँ नंदा के दर्शनों की जद्दोजहद-हमने यात्रा का साक्षी बनने के लिए एक कैमरे का बन्दोबस्त भी कर रखा था परन्तु एक शाॅट लेते ही सेल डैमेज हो गये। फिर क्या था मैं अपने साथियों को छोड़कर बाजार में सेल ढ़ँूढने के लिए इधर-उधर भटकने लगा। आखिर एक दुकान पर मुझे सेल मिल गये। मैंने कैमरे में सेल चढ़ाये, एक दो शाॅट लिए और साथियों को ढ़ूँढ़ने लगा। मैंने पिताजी को फोन करने की कोशिश की, परन्तु नेटवर्क न होने के कारण किसी से सम्पर्क नहीं हो पाया। फिर मैंने एक पाखला ;एक गढ़वाली परिधानद्ध पहने, नाक से सिर के अन्त तक सिन्दूर लगायी अधेड़ उम्र की एक महिला से पूछा कि मुझे माँ नन्दा की डोली के दर्शन करने हैं, उन्होंने मुझे एक पैदल रास्ता बताया जिससे अभी-अभी माँ की डोली निकली ही थी। उन्होंने मुझसे कहा कि आपको रास्ते मैं ही माँ की डोली के दर्शन हो जायेंगे।
फिर क्या था, एक हाथ में कैमरा पकड़े व दूसरे हाथ में छोटा सा जंगमवाणी यन्त्र ;मोबाईलद्ध लिये बार-बार पिताजी को व दूसरे अन्य साथियों को फोन कर उसी रास्ते पर निकल पड़ा, जिस पर कि अभी-अभी माँ की डोली निकली ही थी। मैं बड़ी तेजी से पथ पर बढ़ रहा था तथा जो भी दर्शनार्थी उस रास्ते पर मुझसे मिलते, मैं सभी से डोली के बारे मेें पूछता कि डोली कितनी दूर गयी और वो सभी लोग कहते कि बस थोड़ी दूर मुश्किल से आधा किमी. और मैं बड़े उत्साह से भागने लगता। करीब दो ढ़ाई किमी. पैदल चलने के बाद अचानक 3 लड़कों से मुलाकात हुई, जो राजजात यात्रा को सार्थक बनाने में अपना योगदान दे रहे थे। जैसे ही मैंने उनसे डोली के बारे में पूछा तो वो कहने लगे कि बस कुछ ही दूरी पर जा रही है। मैं भी गप मारते-मारते उनके साथ हो लिया। अचानक पिताजी से सम्पर्क हुआ तो पता चला कि वे सभी गाड़ी से किसी दूसरे स्थान पर पहुँचे चुके हैं।
मैंने भी अपने कदम तेजी से बढ़ाने शुरू कर दिये तथा उन तीनों सह यात्रियों में से एक लड़का, जिसने अपना नाम प्रमोद पुरोहित बताया, जो कि थराली का रहने वाला था। वह मुझे यात्रा के बारे में विस्तृत से बतला रहा था तथा मैं एक विदेशी यात्री की भांति उसकी हाँ में हाँ मिला रहा था। यद्यपि उन्होंने मेरे सामान्य ज्ञान बढ़ाने में बहुत मदद की तथा मुझे तब पता चला कि माँ नन्दा की डोली चमोली के अन्तिम गाँव वाण के अन्तर वेदनी बुग्याल से होते हुए पाताल नचोणियाँ, रूपकुण्ड, शिलासमुद्र से इस यात्रा का अन्तिम पड़ाव होमकुण्ड, जो त्रिशूल पर्वत की तलहटी पर स्थित है, के विषय में अनेक कहानियाँ सुनाने लगा, जिससे रास्ता जल्दी जल्दी कटने लगा और उन कहानियों को सुनते-सुनते पता ही नहीं चला कि कब हम अपने साथियों छोड़ और उन घने जंगलों, गदेरों को पार कर गये। गपशप में हम लगभग पाँच साढ़े पाँंच किमी. की दूरी तय कर चुके ही थे कि अचानक मोड़ पार करते ही वह दृष्य, जिसके इन्तजार में मैं अपने साथियों को छोड़कर भटक रहा था।
वह माँ नन्दा साक्षात् रक्त वस्त्र में, अपने सहयोगियों, चेलों व भक्तों के साथ हमारे सामने एक संक्षिप्त विश्राम स्थल में प्रकट हो चुकी थी। हम कृतार्थ हो गये, जीवन धन्य महसूस होने लगा। हमारी वह यात्रा, जिसके लिए इतने वर्षों इन्तजार करना पड़ा था, पल भर में मनोवंाक्षित फल की प्राप्ति हो गयी थी। बस मैंने झट से जूते उतारे और माँ की डोली के सामने गिर पड़ा। उसके बाद कुछ फोटो लेने के लिए दोस्त को बोला और अब फिर अपने साथियों की याद आने लगी क्योंकि यहाँ से न तो किसी का फोन मिल रहा था और न ही उस क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति के बारे में मुझे कुछ खास जानकारी थी। फिर भी मैंने साहस किया और यात्रा के साथ हो लिया। कुछ ही दूर पहुँचा था कि मुझे दूर से कुछ लोग दिखाई दिये जो कि माँ के दर्शनार्थ मार्ग में खड़े थे। बस! देखते ही मुझे अपने पिताजी का कुर्ता-पाजामा पहचान में आ गया और मैंने हाथ हिलाने शुरू कर दिये। उधर से भी मुझे इशारा होते ही मन खुश हो गया जैसे ही मैं पिताजी के नजदीक पहुँचा, पिताजी ने खुशी से गले लगा दिया। जैसे पता नहीं कितने सालों से मिलन हुआ हो! पर खुशी तो थी ही क्योंकि मानो बिछड़ा हुआ हंस जो उन्हें मिल गया था।
तकलीफदेह वापसी-अब सभी साथी मुझे मिल चुके थे शारीरिक थकान भी बहुत ज्यादा हो गयी थी और इन्तजार था तो बस घर जाने का। वो ढालदार रास्ता जिसको पार कर इतनी दूर पहुँचे थे, अब खड़ी चढ़ाई के रूप में तब्दील हो चुकी थी और उसको चढ़ना एवरेस्ट फतह करने के बराबर था। खैर, हमने हिम्मत बढ़ाई और पैदल चलने लगे व रेंगते-रेंगते सड़क में आकर अपनी गाड़ी तक पहुँचने के लिए दूसरी गाड़ी मुन्दोली तक किराये पर ली और फिर अपनी गाड़ी तक पहुँचे। सब लोग बुरी तरह से थक चुके थे और अपने आशियाने तक पहंँचने की जद्दोजहद में थे।
परन्तु अभी साथ में लाया भोजन बाकी था, जिसको हम जल्द से जल्द निपटाकर कुछ शक्ति का पुनर्जागरण करना चाहते थे। मुन्दोली से 10 किमी. की दूरी को पार करते ही एक चाय की दुकान ढ़ूंढ़ी और नाश्ता करते ही थोड़ी सी थकान उतरी। पर अभी भी घर जाने की प्रबल इच्छा थी। देवाल से आगे बढ़ते ही रात होने लग गयी थी। ड्राईवर ने गाड़ी की लाई आॅन की और तेजी से घर की और बढ़ने लगे। रास्ते में हम सभी मिलकर कभी-कभार भजन व गाने भी गा लिया करते थे परन्तु थकान व सुस्ती ने सबको बुरी तरह से घेर लिया था।
अट्ठारह घंटे बाद-रात को लगभग साढ़े ग्यारह बजे उनींदी आँखों के साथ घर पहुँचे, तो माँ नंदा के दर्शनों का सारा नशा व यात्रा की थकान गायब होकर एक गुस्से में बदल गई, क्योंकि उसी दिन लंगूरों की फौज ने हमारे घर के फलों के बगीचे को तोड़-मरोड़, चीरफाड़ दिया था पर अब क्या किया जा सकता था। मन मसोसकर रात को 12 बजे खाना बनाकर खाया और धम्म से बिस्तर पर लेट गया और पता ही नहीं चला कि कब गुडाकादेवी ने अपना प्रकोप ढा दिया।
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