‘रोशनी की एक किरण’
विस्थापन व पुनर्वास के लिए बने ठोस नीतिः अजेंद्र
लगातार प्राकृतिक आपदाओं के संकट से जूझने वाले उत्तराखंड के आपदा पीड़ितों के विस्थापन व पुनर्वास की लड़ाई आखिरकार हाई कोर्ट तक पहुंच गयी है। आपदा पीड़ितों के विस्थापन व पुनर्वास के लिए लम्बे समय से संघर्घरत केदारघाटी विस्थापन व पुनर्वास संघर्ष समिति के अध्यक्ष अजेन्द्र अजय ने प्रदेश सरकार पर आपदा पीड़ितों के प्रति संवेदनहीन रुख अपनाने का आरोप लगाते हुए प्रभावितों के विस्थापन व पुनर्वास के लिए ठोस नीति बनाये जाने की मांग की है। हाईकोर्ट के कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश वीके बिष्ट व न्यायमूर्ति यूसी ध्यानी की संयुक्त खंडपीठ ने याचिका को स्वीकारते हुए प्रदेश सरकार को इस मसले पर चार हफ्ते में अपना जबाब दाखिल करने के निर्देश दिए हैं। उल्लेखनीय है की उत्तराखंड में प्रतिवर्ष दैवीय आपदा में बड़ी भारी संख्या में जनहानि होती है। सैकड़ों लोग बेघर होते हैं और तमाम लोगों का रोजगार नष्ट हो जाता है। प्रदेश सरकार नाममात्र का मुआवजा वितरित कर पीड़ितों की तरफ से मुंह मोड़ देती है। लिहाजा, आपदा पीड़ित दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हो जाते हैं और उन्हें शरणार्थियों सा जीवन जीने को मजबूर होना पड़ता है। वर्ष 2013 के जून माह में उत्तराखंड की केदारघाटी समेत अन्य हिस्सों में आई हिमालयी सुनामी ने यहाँ के जनमानस को हिला कर रख दिया। आपदा के बाद प्रदेश सरकार के साथ ही तमाम संस्थाओं आदि ने पीड़ितों के विस्थापन व पुनर्वास को लेकर कई बड़ी-बड़ी बातें और दावे किये। पीड़ितों को कई हवाई सपने दिखाए गए। मगर वास्तविक धरातल पर विस्थापन व पुनर्वास का मसला सपना ही बन कर रह गया। आपदा पीड़ितों के संगठन केदारघाटी विस्थापन व पुनर्वास संघर्ष समिति द्वारा इस मसले को लेकर लगातार आंदोलन आदि भी किये जाते रहे। पर, सरकार के स्तर से हर बार पीड़ितों को आश्वासन की घुट्टी ही पिलाई जाती रही। आखिरकार केदारघाटी विस्थापन व पुनर्वास संघर्ष समिति के अध्यक्ष अजेन्द्र अजय ने पिछले दिनों इस मामले में नैनीताल हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर कर प्रदेश में आपदा पीड़ितों के विस्थापन व पुनर्वास के लिए एक ठोस नीति बनाये जाने की गुहार लगायी है। अपनी याचिका में अजेन्द्र ने उत्तराखंड में प्रतिवर्ष हो रही भीषण प्राकृतिक आपदाओं का हवाला देते हुए सरकार पर पीड़ितों की अनदेखी करने का आरोप लगाया है। याचिका में कहा गया है की आपदा के पश्चात सरकार खानापूर्ति के अंदाज में पीड़ितों को नाममात्र की राहत राशि वितरित करती है और फिर उन्हें उनके भाग्य भरोसे छोड़ दिया जाता है। प्रदेश सरकार द्वारा जारी शासनादेशों का हवाला देते हुए याचिका में राहत के मानकों पर भी सवाल उठाया गया है। सरकार द्वारा राहत के मानक हर साल मनमाफिक तरीके से बदल दिए जाते हैं। आरोप लगाया गया है की सरकार के मुआवजा वितरण के मानक भेदभावपूर्ण हैं, जो की पीड़ितों के साथ घोर अन्याय है। याचिका में अजेन्द्र ने सूचना के अधिकार के तहत ली गयी जानकारी का हवाला देते हुए कहा है की वर्तमान में प्रदेश में तीन सौ से भी अधिक गावं विस्थापन की कगार पर खड़े हैं, किन्तु सरकार अभी तक इन गावों का ठीक से सर्वेक्षण तक नहीं करा सकी है। कई गांव वर्षों से पुनर्वास की बाट जोह रहे हैं। याचिका में विस्थापन व पुनर्वास के मुद्दे पर प्रदेष सरकार की मंशा पर सवाल उठाते हुए कहा गया है की लगातार आपदाओं के बावजूद सरकार पीड़ितों के विस्थापन के लिए ना ही खुद कोई योजना बना सकी है और ना ही प्रदेश सरकार ने इस मामले में केंद्र सरकार को कोई तकनीकी प्रस्ताव भेजा है। विस्थापन व पुनर्वास के नाम पर वर्श 2012 में तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने एक पत्र तत्कालीन प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह को भेजा था। इसी प्रकार एक पत्र जून 2014 में वर्तमान मुख्यमंत्री हरीश रावत ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रेषित किया है। तकनीकी प्रस्ताव भेजने के बजाय केवल पत्र लिख कर प्रदेश सरकार ने आपदा पीड़ितों के प्रति अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली। याचिकाकर्ता ने न्यायालय से टीएचडीसी, हरियाणा सरकार व केंद्र सरकार की विस्थापन व पुनर्वास नीति का हवाला देते हुए उत्तराखंड सरकार को इसी तर्ज पर विस्थापन व पुनर्वास नीति बनाने के निर्देश देने की मांग की है। इसके साथ वर्ष 2013 में आयी आपदा में बेघर हुए लोगों के लिए विश्व बैंक सहायतित आवास नीति को भी चुनौती दी है। याचिका में कहा गया है की 2013 के पीड़ितों के लिए प्रदेश सरकार ने चार किश्तों में पांच लाख रूपये देने की योजना बनायीं है। पहली किश्त के रूप में पीड़ितों को डेढ़ लाख रूपये की किश्त जारी कर दी गयी है। बाकी किश्त जारी करने से पहले पीड़ितों को प्रस्तावित आवास निर्माण की भूमि की रजिस्ट्री आदि जैसी शर्तें रखी गयी हैं। ऐसे में उन पीड़ितों के सामने समस्या खड़ी हो गयी है, जिनके पास आपदा के बाद एक इंच भूमि भी नहीं बची है। पीड़ितों को अब प्रशासन द्वारा नोटिस जारी किये जा रहे हैं और उनसे सहायता राशि की वसूली की धमकी दी जा रही है। अपनी याचिका में अजेन्द्र ने केदारघाटी में जल विद्युत परियोजना का निर्माण कर रही एलएनटी कम्पनी से पीड़ितों को मुआवजा दिलाये जाने की मांग भी उठाई है। याचिका में कहा गया है की प्रदेश सरकार कम्पनी द्वारा आपदा पीड़ितों की मदद के लिए स्वीकृत धनराशि को पीड़ितों के बीच बाँटने के बजाय सड़क व पुलों के निर्माण में खर्च करने के लिए जोर दे रही है। बहरहाल, इस याचिका के दाखिल होने से लगातार आपदा की मार झेल रहे आपदा पीड़ितों में रोशनी की एक किरण जली है।
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