रोटी के लिए महानगरों का मुह ताकते को हम मजबूर
814 साल में साढ़े आठ लाख बेरोजगारों की फौज में 30 हजार नौकरियां मिलीं
8हर साल 2153 रोजगार का एवरेज और हर महीने 179 रोजगार
8इस साल सबसे ज्यादा रोजगार पाने वाले जिलों में पिथौरागढ़, बागेश्वर, रुद्रप्रयाग व गोपेश्वर शामिल
अलग उत्तराखंड राज्य आंदोलन की जिन लोगों को याद है शायद ही वे यह भूले हों कि इस आंदोलन का मकसद उत्तरप्रदेश से इतर एक अलग भौगोलिक सांस्कृतिक पहचान पाना था। लेकिन आंदोलन का केन्द्र बिन्दु और चिंता पलायन ही थी। पहाड़ और पलायन पर मर्सिया पढने के शुरुआती दिनों में पलायन के जोरदार और तार्किक पोस्टमार्टम किये गये। लब्बो लुआब यह कि पहाड़ में रोजगार के संकट के चलते जबरदस्त पलायन हुआ। पलायन की यह परंपरा कमोबेस आज भी जारी है। इस परंपरा पर प्रकाश डालने से पहले यह बताना समीचीन होगा कि उत्तराखंड की आबादी का जो पलायन महानगरों की और हुआ उसमें गांवों की भूमिका 90 फीसदी से भी अधिक रही। यानि शतप्रतिशत पलायित कृकृषि, पशुपालन एवं संबंधित अवलंबनों के आधीन थे। इसी पर केंद्रित संतोष बेंजवाल और प्रियंक मोहन बशिष्ठ का यह खास आलेख। संपादक
सदियों से पहाड़ की यही कहानी और यही सच्चाई भी है। ये कहानी है-पलायन की। अपने विकास और खूबसूरत दुनियां को देखने की चाहत के ये विभिन्न अनचाहे रूप हैं। एक मकान केवल इसलिए खंडहर में बदला क्योंकि उसे संवारने के लिए घर में पैसा नहीं था और एक मकान में ताले पर इसलिए जंङ लगा है कि वहां से अपनी प्रगति की इच्छा लिए पलायन हो चुका है। इनमें कोई इसलिए अपने पुश्तैनी घर नहीं लौटे क्योंकि वे बहुत आगे निकल चुके हैं और सब कुछ तो यहां खंडहरों में बदल चुका है। इनमें कई तालों और खंडहरों का संबंध तो राष्ट्राध्यक्ष, राजनयिकों, सेनापति, नौकरशाहों, लेखकों, राजनीतिज्ञों, वैज्ञानिकों, शिक्षकों और लोक कलाकारों का इतिहास बयान करता है जबकि अधिसंख्य खंडहर उत्तराखंड की गरीबी-भुखमरी, बेरोजगारी-लाचारी और प्राकृतिक आपदाओं की कहानी कहते हैं। पलायन और पहाड़ का संबंध कोई नया नही है। वतर्मान समय में पलायन का यह प्रवाह उल्टा हो गया है। जनसंख्या बढ़ने से प्राकृतिक संसाधनों पर बढते बोझ, कमरतोड़ मेहनत के बावजूद नाममात्र की फसल का उत्पादन और कुटीर उद्योगों की जर्जर स्थिति के कारण युवाओं को पहाड़ों से बाहर निकलने को मजबूर होना पड़ा।
उत्तराखंड राज्य निर्माण के बाद बनी किसी भी सरकार ने इस गंभीर समस्या के समाधान के लिये ईमानदार पहल नहीं की। अपितु मैदानी इलाकों को तेजी से विकिसत करने की सरकारी नीति से असन्तुलित विकास की स्थिति पैदा हो गयी है। जिससे पहाड़ से मैदान की तरफ होने वाले पलायन को बढ़ावा ही मिलेगा। क्या उत्तराखंड की सरकार पहाड़ों के पारंपरिक उद्योगों के पुनरुत्थान के लिए भी प्रयास करेगी? पयर्टन उद्योग और गैरसरकारी संस्घ्थानों के द्वारा सरकार पहाड़ों के घ्विकास के घ्लिए योजनाएं चला रही है, उससे पहाडी लोगों को कम मैदान के पूंजीपतियों को ही ज्यादा लाभ मिल रहा है।पहाड़ के गांवों से होने वाले पलायन का एक पहलू और है। वह है कम सुगम गांवों और कस्घ्बों से बड़े शहरों अथवा पहाड़ों की तलहटी पर बसे हल्द्वानी, कोटद्वार, देहरादून, रुद्रपुर और हरिद्वार जैसे शहरों को होता बेतहाशा पलायन। मैदानी इलाकों में रहकर रोजगार करने वाले लोग सेवानिवृत्ति के बाद भी अपने गांवों में दुबारा वापस जाने से ज्यादा किसी शहर में ही रहना ज्यादा पसन्द करते हैं। स्थिति जितनी गम्भीर बाहर से दिखती है असल में उससे कहीं अधिक चिंताजनक है। जो गांव शहरों से 4-5 किलोमीटर या अधिक दूरी पर हैं उनमें से अधिकांश खाली होने की कगार पर हैं। उत्तराखंड में पढे लिखों की जमात के पौ बारह होते पलायन की भी शक्ल बदलती रही । यानि 40 के दशक से 70 के दशक तक घरेलू कामगार यूनियनों के मैम्बर रहे उत्तराखंडी भाई 70 से 90 के बीच दिल्ली मुबई जैसे महानगरों में सरकारी आफिसों में चपड़ासी से क्लर्क तक प्रमोशन पा गये । 90 के बाद का दशक किसका रहा यह बताने से पहले यह जानना जरूरी होगा कि अखबारों में आये दिन छपने वाले विज्ञापनों से यह हटा दिया कि घरेलू काम के लिए पहाड़ी गढवाली कुमांउनी को प्राथमिकता दी जायेगी। यानि 90 के बाद का पलायन उत्तराखंड में थोक के भाव खोल दिये गये आम शिक्षण संस्थानों और आईटीआई पौलटैकनिक के बेरोजगारों का रहा । कांग्रेस के शासन में इनमें से अब कई प्राविधिक संस्थान बंद कर दिये गये हैं । राज्य आंदोलन के दिनों में इन्हें बेरोजगार पैदा करने की फैक्टरियां कहा जाता था।
इन बेरोजगार पैदा करने वाली फैक्ट्रियों के उत्पाद के साथ कुछ मात्रा में हाईस्कूल फेल पास ग्रामीणों की जमात भी अभी तक महानगरों की ओर भाग रही है। यह स्वीकार करना होगा कि अलग उत्तराखंड राज्य बनने के बाद पलायन की रफ्तार और संख्या में थोडा बहुत कमी जरूर दर्ज हुई है, लेकिन इस कमी को उच्च शिक्षित जमात ने पूरा कर दिया है। पलायन के तराजू पर राज्य की सार्थकता को देखा जाय तो राज्य बनने के बाद के आठ वर्ष इस बात की ताकीद नही करते कि इस ओर कोई ठोस प्रयास हुए हैं । शिक्षा के तंत्र में बेरोजगारों को अल्प रोजगार के रूप में ठूंसने के प्रयास राज्य में अब तक बनी सरकारों ने खूब किये हैं। लेकिन असंतोष बरकरार है। आये दिन उत्तराखंड आंदोलनों से गुलजार है तो राजनैतिक दल सत्ता के सूखों की बंदरबाट में इतने व्यस्त हो गये हैं कि पलायितों का मायका बत्तीधारी राजनैतिक महत्वाकांक्षियो का अडडा बन गया है। पिछले 8 सालों में जो परिदृश्य देखने को मिल रहा है उससे यह ढांढस नही बंधता कि राज्य के पास कोई ऐसा जिम्मेदार नेता अभिभावक के रूप में है जो पार्टीगत खींचतान और तुष्टिकरण से बाहर निकल कर राज्य के हित में खड़ा हो। उत्तराखंड के विकास का माडल पंतनगर, सितारगंज, उधमसिंह नगर, देहरानून और हरिद्वार में गुल खिला रहा है। लेकिन पहाड़ यहां भी नदारद हैं। उद्योग या रोजगार विहीन उत्तराखंड का पर्वतीय क्षेत्र अभी भी बियाबान ही बना हुआ है क्योंकि तराई एवं सिचाई संपन्न मैदानी इलाका जहां अब उद्योग लगाये गये है, हमेशा से लहलहाती फसलों के लिए जाना जाता रहा है। राज्य के रहनुमाओं ने कृषि क्षेत्र में तो आसानी से सेंध लगाली लेकिन दुर्गम की ओर जाने का हौसला अब भी नही जुट पा रहा । थोड़ा सा अतीत की ओर नजर डाली जाय तो उत्तराखंड राज्य आंदोलन इन्हीं पहाड़ी जिलों का आंदोलन था। जहां अब राज्य कृकृषि, उद्योग को तिरोहित कर बेरोजगारों को सुविधानुसार बगैर वेतन स्कूलों में ठूंस रहा है। उद्योग धंधें से पूरे पर्वतीय इलाके को महरूम रखा गया है। अब सिर्फ इन क्षेत्रों के विकास के नाम पर नहर गुल और पुल बनवा रहे हैं। तय है कि इस तरह के टोटकों से तात्कालिक राहत मिल सकती है। दीर्घकालिक समाधान के लिए राज्य के प्रति समपर्ण और आंतरिक ईमानदारी की दरकार होगी। पर्वतीय इलाकों में उन स्थानों और उन उद्योगों का चयन करना होगा जो सभी तरीके से ठीक हों । नगदी देने वाली फसलों ने राज्य की लघु कृकृषि बिरादरी को पिछले वर्षों में अच्छा संबल दिया है। इस क्षेत्र की घोर उपेक्षा हुई है। कृकृषि क्षेत्र में आज भी बेरोजगारी की भीषण समस्या के समाधान तलाशे जा सकते हैं। क्या राज्य में इस तरह से गंभीर माहौल तैयार हो पायेगा।? यह प्रश्न स्वयं से पूछने के साथ-साथ हुक्मरानों के चेहरों में पढा जाना चाहिए। आजीविका और रोटी के लिए महानगरों का मुह ताकते वालों को तो यह मान लेना चाहिए कि राज्य से पलायन करना उनकी मजबूरी के साथ अब नियति बन गयी है। स्टेट में साढ़े आठ लाख बेरेाजगारों एवज में मिली नौकरियों की बात की जाए तो युवाओं के लिए वर्ष 2005 बेहद मुफीद रहा। इस वर्ष अब तक के 14 सालों के इतिहास में सबसे ज्यादा 6094 युवा बेरोजगारों को नौकरी मिली। जबकि राज्य स्थापना वर्ष में सबसे कम 37जाब्स मिले। यकीनन 2000 के आखिरी दो महीनों में नौकरियों का यह आंकड़ा रहा। इसके बाद सबसे कम नौकरियों के लिए 2013 का वर्ष भी नीचले पायदान पर रहा। हालांकि यह वर्ष राज्य के लिए आपदा वर्ष भी कहा जाता है। ऐसे ही देहरादून सेवायोजन की बात की जाए तो 2005 यहां के लिए भी सुखद वर्ष रहा, जब इस साल सबसे ज्यादा 3,164 नौकरियां बेरोजगारों के हाथ लगी। उदय दिनमान ने पहले ही बताने की कोशिश की है कि प्रदेश के 14 साल के सफर में साढ़े आठ लाख बेरोजगार युवाओं के एवज में 31, 145 बेरोजगार को रोजगार मिले हैं। लेकिन अब हम यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि इन 14 सालों में किस वर्ष सबसे ज्यादा युवाओं को नौकरी हाथ लगी। इस लिहाज से बेरोजगार युवाओं के लिए 2005 सबसे अच्छा साबित हुआ। इस साल 6094 रोजगार मिले। दूसरा साल 2007 रहा, जब 3956 रोजगार मिले। उसके बाद 2006 में 3169 और 2002 में 2930 नौकरियां बेरोजगारों को मिली। सबसे कम नौकरियां 2000 में केवल 37 मिली। इसी प्रकार से कम नौकरियों की सीरिज में 2001, जब 836, 2013 में 602 नौकरियां मिलीं। इसी प्रकार से देहरादून क्षेत्रीय सेवायोजन कार्यालय की बात की जाए तो यहां भी 2005 सफल वर्ष रहा। जब इस साल 3165 बेरोजगार नौकरी पाने में सक्सेस रहे। 2008 में 624, 2007 मं 543 नौकरियां मिलीं। सबसे कम दून सेवायोजन के लिए वर्ष 2012 रहा। जब केवल इस लाखों बेरोजगारों की तुलना में केवल 11 नौकरियां मिल पाईं। 2013 में 20, 2014 में 22 नौकरियां ही मिल पाईं। अब आप ही अंदाजा लगा सकते हैं कि प्रदेश में जहां लाखों की तादात में बेरोजगार की फेहरिस्त है, उसके एवज में कितने रोजगार मिल पा रहे हैं। जबकि जब भी चुनाव नजदीक आते हैं पालिटिकल पार्टियां लाखों की नौकरियों की बात करते हैं। खुद वर्तमान सरकार ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में दो लाख बेरोजगारों को रोजगार देने का वादा किया था।
14 साल 8 सीएम के कार्यकाल में नौकरियांः
नित्यानंद स्वामी-37,भगत सिंह कोश्यारी-826
एनडी तिवारी-20826,बीसी खंडूडी-4245
रमेश पोखरियाल निशंक-1607,विजय बहुगुणा-2025,हरीश रावत-669
;नौकरियों के आंकड़े वर्षवार दिए गए हैं, जो कुछ ऊपर-नीचे हो सकते हैं।द्ध
स्टेट में वर्षवार मिली नौकरियां
2000-37
2001-836
2002-2930
2003-2074
2004-2603
2005-6094
2006-3169
2007-3956
2008-2137
2009-2108
2010-632
2011-632
2012-1423
2013-602
2014-669
देहरादून सेवायोजन में वर्षवार मिली नौकरियां
2000-159
2001-102
2002-256
2003-305
2004-287
2005-3164
2006-357
2007-543
2008-624
2009-231
2010-31
2011-20
2012-11
2013-20
2014-22
नौकरी पानी किसी चुनौती से कम नहीं
यह सच है कि देश-दुनिया में आज के वक्त में रोजगार पाना किसी चुनौती से कम नहीं है। लेकिन 14 साल पहले जिस राज्य की कल्पना के साथ राज्य का गठन हुआ था, उस वक्त युवाओं के सपने बेहद उत्साह के साथ मजबूत थे। इंप्लाएमेंट के सोर्सेस खुलने के आसार थे। कई सरकारें आई, रोजगार संबंधी कई घोषणाएं हुईं, कोशिशें की भी जारी रहीं। लेकिन आंकड़े आपके सामने है। कुछ छिपा नहीं है। जिस प्रदेश की आबादी सवा करोड़ के पार हो गई हो, साढ़े आठ लाख बेरोजगार इंप्लाएमेंट की तलाश में राह ताक रहे हों, शायद उस नए प्रदेश में महज 30 हजार को रोजगार मिलना समझ में कम ही आता है। खैर, यह रोजगार पानी नए प्रदेश उत्तराखंड में भी कम से कम अब तो जंग जीतना प्रतीत होता है। सरकारें आगामी वर्षों में रोजगार के लिए क्या स्किल्स डेवलेप करती हैं, कितना रोजगार दिलाती हैं। यह तो वक्त बताएगा। लेकिन हकीकत से आप भी रूबरू हो जाएं।
270114 बेरोजगार, 37 को मिली नौकरी
जिस वक्त 9 नवंबर 2000 को उत्तराखंड राज्य का गठन हुआ था। उस साल केवल दो महीने के भीतर उत्तराखंड में 270114 बेरोजगार रजिस्टर्ड हुए थे। बदले में 37 युवाओं को रोजगार मिल पाया था। उसके अगले वर्ष 313185 बेरोजगारों की तुलना में 836 को मिला था रोजगार।
नियुक्ति के हिसाब से 2005 रहा मुफीद
बात रोजगार की हो रही है तो साल 2005 रोजगार की हिसाब से बेरोजागरों के लिए सबसे धनी वर्ष रहा है। इस साल 380217 रजिस्टर्ड बेरोजगारों की तुलना में 6094 बेरोजगारों को रोजगार मिला।
साल 2007 में 3856 युवाओं को रोजगार मिला। 2006 में 3169 और 2002 में 2930 बेरोजगारों के इंप्लाएमेंट के सपने पूरे हुए। ऐसे ही 2000 में जहां
37 को नौकरी मिली, वैसे ही 2001 में 836, 2010 में 632, 2011 में 975 2014 में 669 और 2013 में सबसे कम 602 बेरोजगारों को रोजगार मिला।
युवाओं को मिली नौकरी पर नजर
अल्मोड़ा-15,नैनीताल-80,पिथौरागढ़-229,यूएसनगर-32
बागेश्वर-146,चंपावत-21,देहरादून-22,टिहरी-15
उत्तरकाशी-02,हरिद्वार-01,पौड़ी-13,गोपेश्वर-42
रुद्रप्रयाग-51, 229 नौकरी के साथ पिथौरागढ़ रहा अव्वल पर। बीते वर्ष यानी 2014 में हरिद्वार ऐसा जिला रहा है, जहां 91 हजार से अधिक युवाओं की भीड़ में केवल एक युवा को ही रोजगार मिल पाया। सबसे अव्वल पर आपदा प्रभावित जिले पिथौरागढ़, बागेश्वर, गोपेश्वर व रुद्रप्रयाग रहे।
साल-सूची;संप्रेषणद्ध-नियुक्ति-रजिस्टेªशन
2000-1436-37-270114
2001-14276-836-313185
2002-17853-2930-345211
2003-18630-2074-33755
2004-28199-2603-314472
2005-37049-6094-380217
2006-39370-3169-473618
2007-51739-3856-481832
2008-19025-2137-489744
2009-27177-2108-488789
2010-20661-632-565559
20011-17135-975-661642
2012-9165-1423-704398
2013-5668-602-751024
2014-5305-669-867476
कुल नियुक्तियां-30,145
;डाटा सोर्स इंप्लाएमेंट डायरेक्ट्रेटद्ध
उत्तराखंड के पहाड़ पलायन के कारण खाली
उत्तराखंड की खूबसूरत वादियों में जहां मैदानी क्षेत के सैलानी पाकृतिक सौंदर्य का लुफ्त उठाने के लिए आते हैं वहीं गरीबी व सुविधाओं के अभाव से तस्त इन पहाड़ों के लोग रोजगार की तलाश में मैदानों की तरफ पलायन कर रहे हैं। पलायन के कारण उत्तराखंड के दो जिलों अल्मोड़ा और पौड़ी में जनसंख्या बढ़ने की दर नकारात्मक हो गई है। योजना आयोग ने इस पलायन को खतरनाक और लोगों का अंसतोष करार दिया है। आगामी 22 मई को योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया और उत्तराखंड के मुख्यमंती विजय बहुगुणा के बीच बैठक होनी है। इस बैठक में राज्य की वर्ष 2013-14 के लिए वार्षिक योजना का आकार तय होना है। योजना आयोग ने इस आकार को 8,500 करोड़ रुपए तय करने का पस्ताव किया है। यह राशि पिछले साल के 8,200 करोड़ से मात तीन फीसद ज्यादा है। इसकी वजह राज्य सरकार द्वारा योजनागत राशि को खर्च करने में लापरवाही बरतना है। वर्ष 2012-13 में ही योजना राशि का 95 फीसद खर्च हुआ अन्यथा इससे पहले कभी 65 फीसद तो कभी 60 फीसद ही खर्च हुआ था। आयोग ने जो अपनी रिपोर्ट तैयार की है, उसमें पहाड़ी इलाकों की आबादी का पलायन महत्वपूर्ण मुद्दा है। आयोग के मुताबिक अल्मोड़ा और पौड़ी की आबादी बढ़ने के बजाए घटी है। अल्मोड़ा की आबादी घटने की रफ्तार -1.73 फीसद और पौड़ी की -1.51 फीसद है। बाकी पहाड़ी जिलों चमोली, रुदपयाग, टिहरी, पिथोरागढ़ और बागेश्वर की आबादी 5 फीसद से भी कम की रफ्तार से बढ़ी है जबकि देश की आबादी बढ़ने की औसत रफ्तार 17 फीसद है। उत्तराखंड के ही मैदानी जिले ऊधम सिंह नगर की अबादी 33.40 फीसद, हरिद्वार की 33.16 फीसद, देहरादून की 32 फीसद और नैनीताल की आबादी 25 फीसद की रफ्तार से बढ़ी है। आयोग ने पहाड़ों से अबादी के पलायन के लिए नौकरियों को लेकर असंतोष व अवसरों की कमी को कारण माना है। इस मुद्दे पर उत्तराखंड के मुख्यमंती के साथ विचार-विमर्श होगा। पलायन का असर लिंग अनुपात पर भी पड़ा है। उत्तराखंड में लिंग अनुपात घटकर 886 हो गया है। पिथौरागढ़ में बलिकाओं की संख्या 842 पति हजार रह गई है। योजना आयोग ने इसे खतरे की घंटी बताया है। असंतोष का एक कारण यह भी है कि पहाड़ों में शिक्षा के उचित साधन और अवसर नहीं हैं। गांवों में उपयुक्त स्कूल नहीं हैं या शिक्षक नहीं हैं। आयोग की रिपोर्ट के अनुसार पहाड़ में एक बच्चे की पढ़ाई पर 16,881 रुपए का खर्च आता है, यह मैदानों से 2 से 3 गुना ज्यादा है। राज्य में 17 फीसद स्कूल एक ही टीचर से चलाए जा रहे हैं। 59 फीसद टीचर ठेके पर और अपशिक्षित हैं। राज्य में 17 हजार शिक्षकों के पद खाली पड़ी हैं। आज जहां शहरों में पढ़ाई-लिखाई के लिए एक से एक बढ़िया स्कूल चल रहे हैं वहीं पहाड़ों के स्कूलों का क्या हाल है, इसकी एक झलक एएसईआर की 2012 की रिपोर्ट से मिलती है। रिपोर्ट के अनुसार कक्षा पांचवीं के 42 फीसद और सांतवीं के 24 फीसद छात कक्षा दो की पाठयपुस्तक नहीं पढ़ पाते। पांचवीं के 70 फीसद और सांतवीं के 46 फीसद छात अंगेजी की एक साधारण लाइन नहीं पढ़ पाते, 65 फीसद पांचवीं के बच्चे और 43 फीसद आठवीं के बच्चे गणित में भाग नहीं बना पाते।। यही हाल स्वास्थ्य क्षेत का है। न अस्पताल हैं, न डाक्टर और न ही लैब हैं।
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