बीएड पाठ्यक्रम को 2 वर्षीय किया जा रहा है और शुल्क में भी बेतहाशा वृ(ि की जायेगी, किन्तु इससे सरकार और 600 संचालकों को फायदा है इसलिए इस सुनियोजित ढंग से लूट के व्यवसाय को चालू रखा जा रहा है. कल्याणकारी सरकार के नाम पर सरकारें लुटेरे संगठनों द्वारा संचालित हैं और वे लूट का लाइसेंस दे रही हैं। देश के अलग-अलग भागों में कुकुरमुत्तों की तरह खुले बीएड कालेजों पर मनीराम शर्मा का यह खास आलेख। संपादक
विश्वविद्यालय और बोर्ड भी प्रायोगिक परीक्षा शुल्क का मद महाविद्यालयों और विद्यालयों के लिए खुला छोड़ देते हैं, ताकि वे मनमानी वसूली कर सकें और प्रायोगिक परीक्षा के वीक्षक का स्वागत सत्कार कर सकें जोकि फलदायी होती है। बोर्ड और विश्वविद्यालयों को चाहिए कि वे प्रायोगिक परीक्षा के लिए शुल्क भी नियमित परीक्षा के साथ ही वसूल कर लें और परीक्षा केंद्र को प्रतिपूर्ति अपने स्तर पर ही करें, न की महाविद्यालयों और विद्यालयों को इसके लिए खुला छोड़ें। महाविद्यालयों को यह भी निर्देश दिया जाय कि वे ड्रेस या अन्य किसी सामग्री का विक्रय नहीं करें और छात्रों से कोई वसूली सरकार से अनुमोदन के बिना नहीं करें।
नागरिकों को सामान्य और व्यावसायिक शिक्षा देना तथा रोजगार उपलब्ध करवाना कल्याणकारी सरकार का संवैधानिक धर्म है। इसलिए शैक्षणिक गतिविधियों से कोई वसूली करना स्पष्टः संविधान विरु( है, किन्तु शिक्षा जगत का क्या हाल है और सरकार इसकी किस तरह दुर्गति कर रही है इसका शायद आम नागरिक को कोई अनुमान नहीं है। उदारीकरण, जो कि संविधान की समाजवाद की मूल भावना के सर्वथा विपरीत है, का लाभ धनपतियों और कुबेरों को मुक्तहस्त दिया जा रहा है। यही कारण है कि पंचवर्षीय योजनाओं को ठेंगा दिखाती हुई गरीब और अमीर के बीच की खाई स्वतन्त्रता के बाद बढ़ती ही जा रही है। शायद इस अधोगति के रुकने के कोई आसार दिखाई भी नहीं देते।
शिक्षक भर्ती के लिए आवश्यक बीएड पाठ्यक्रम और निजी संस्थानों की भागीदारी इस दुर्भि संधि को प्रकट करती है। उदारीकरण से पूर्व इस पाठ्यक्रम का संचालन मुख्यतया राज्य क्षेत्र में ही था और वांछित शिक्षकों की पूर्ति सामान्य रूप से हो रही थी। राजस्थान में राज्य एवं निजी क्षेत्र को मिलाकर वर्षभर में सामान्यतया 20000 अतिरिक्त शिक्षकों की आवश्यकता होती है। किन्तु सरकार ने लगभग एक लाख अभ्यर्थियों के लिए बीएड पद सृजित कर दिये हैं। ऐसी स्थिति में काफी व्ययभार उठाकर यह बेरोजगारों की एक फौज प्रतिवर्ष तैयार हो रही है, जो अपना समय और धन लगाकर भी निश्चित रूप से आखिर बेरोजगार ही रहनी है। बीएड पाठ्यक्रम में आगामी वर्ष से परिवर्तन कर सरकार इस कोढ़ में खाज और करने जा रही है। बीएड के अभ्यर्थी से इस विद्यमान एकवर्षीय पाठ्यक्रम के लिए 25 हजार रुपये वार्षिक शुल्क लिया जाता है, जो की पूर्व में मात्र दस हजार रुपये था। अब बीएड पाठ्यक्रम को 2 वर्षीय किया जा रहा है और शुल्क में भी बेतहाशा वृ(ि की जायेगी, किन्तु इससे सरकार और 600 संचालकों को फायदा है इसलिए इस सुनियोजित ढंग से लूट के व्यवसाय को चालू रखा जा रहा है। पहले एक बीएड महाविद्यालय से मान्यता के नाम पर दस लाख रुपये से अधिक शुल्क सरकार और विश्वविद्यालयों द्वारा लिया जाता था और अब दो वर्षीय पाठ्यक्रम के लिए सरकार द्वारा सोलह लाख रुपये और अतिरिक्त लिए जा रहे हैं। निश्चित रूप से इतनी राशि का सरकार को भुगतान करके इस निवेश पर कोई भी व्यक्ति अच्छा मुनाफा कमाना चाहेगा। सेवा के नाम पर कोई भी इतना बड़ा निवेश नहीं करना चाहेगा। इस आकर्षक व्यवसाय के कारण कई संचालकों ने तो अपने विद्यालय बंद करके महाविद्यालय प्रारम्भ कर दिए हैं।विश्वविद्यालय और बोर्ड भी प्रायोगिक परीक्षा शुल्क का मद महाविद्यालयों और विद्यालयों के लिए खुला छोड़ देते हैं, ताकि वे मनमानी वसूली कर सकें और प्रायोगिक परीक्षा के वीक्षक का स्वागत सत्कार कर सकें जोकि फलदायी होती है। बोर्ड और विश्वविद्यालयों को चाहिए कि वे प्रायोगिक परीक्षा के लिए शुल्क भी नियमित परीक्षा के साथ ही वसूल कर लें और परीक्षा केंद्र को प्रतिपूर्ति अपने स्तर पर ही करें, न की महाविद्यालयों और विद्यालयों को इसके लिए खुला छोड़ें। महाविद्यालयों को यह भी निर्देश दिया जाना अति आवश्यक है कि वे ड्रेस या अन्य किसी सामग्री का विक्रय नहीं करें और छात्रों से कोई वसूली सरकार से अनुमोदन के बिना नहीं करें। आश्चर्य होता है कि सरकार को महाविद्यालय और विद्यालय संचालकों की तो चिंता है और उनके द्वारा वसूली जाने वाले शुल्क तय कर दिया है, किन्तु उनके द्वारा दी जाने वाली सेवाओं के मानक और सम्ब( बातों को न तो तय किया जाता, न उनकी निगरानी और न ही नियमन है। और तो और इन महाविद्यालयों व विद्यालयों में कार्यरत कार्मिकों के हितों का कोई नियमन नहीं किया जाता और वे सभी पसीना बहाने वाले शोषण का शिकार होते हैं। उन्हें नियमानुसार अवकाश, भविष्यनिधि और अन्य कोई परिलाभ तक नहीं दिया जाता है।कई मामलों में तो उन्हें दिया जाने वाला वेतन न्यूनतम मजदूरी से भी कम होता है। सरकार इस कुतर्क का सहारा ले सकती है कि जिसे करना हो वह बीएड करे या इस नौकरी के लिए वह किसी को विवश नहीं कर रही है। किन्तु जनता को इस बात का ज्ञान नहीं है कि बीएड के बाद भी रोजगार दुर्लभ है। कीट पतंगे युगोंकृयुगों और पीढ़ियों से आग में जलकर मर रहे हैं दृउन्हें आजतक ज्ञान नहीं हुआ है और यह सिलिसिला आज तक नहीं थमा है। नागरिक हितों की हरसंभव रक्षा करना और मार्गदर्शन सरकार का दायित्व है। फिर यही बात सरकार चिकित्सा महाविद्यालयों के सन्दर्भ में क्यों नहीं करती, जिससे प्रतिस्पर्द्धी वातावरण में जनता को सस्ती चिकित्सा सेवाएं उपलब्ध हो सकें।आधारभूत संरचना के नाम पर इन बीएड कालेजों के पास मात्र कागजी खानापूर्ति है और छात्रों से महाविद्यालय संचालक प्रायोगिक परीक्षा और अन्य खर्चों के नाम पर अतिरिक्त अवैध वसूली भी कर रहे हैं। छात्रों को महाविद्यालय न आने की भी सुविधा भी अतिरिक्त अवैध शुल्क से दे दी जाती है। अर्थात बीएड शिक्षण एक औपचारिक पाठ्यक्रम है। जिस तकनीक एवं विधि से बीएड में पढ़ाना सिखाया जाता है वह भी व्यावहारिक रूप से बहुत उपयोगी नहीं है। अन्य राज्यों की स्थिति भी लगभग राजस्थान के समान ही है। निष्कर्ष यही है कि कल्याणकारी सरकार के नाम पर सरकारें लुटेरे संगठनों द्वारा संचालित हैं और वे लूट का लाइसेंस दे रही हैं। अब जनता सावधान रहे। शायद आने वाले 20-30 वर्षों में आम नागरिक का पूर्ण रक्तपान हो जाएगा तथा गरीब बचेंगे ही नहीं। संपन्न तथा सत्ता के दलाल और अधिक संपन्न जरूर हो जायेंगे।
विश्वविद्यालय और बोर्ड भी प्रायोगिक परीक्षा शुल्क का मद महाविद्यालयों और विद्यालयों के लिए खुला छोड़ देते हैं, ताकि वे मनमानी वसूली कर सकें और प्रायोगिक परीक्षा के वीक्षक का स्वागत सत्कार कर सकें जोकि फलदायी होती है। बोर्ड और विश्वविद्यालयों को चाहिए कि वे प्रायोगिक परीक्षा के लिए शुल्क भी नियमित परीक्षा के साथ ही वसूल कर लें और परीक्षा केंद्र को प्रतिपूर्ति अपने स्तर पर ही करें, न की महाविद्यालयों और विद्यालयों को इसके लिए खुला छोड़ें। महाविद्यालयों को यह भी निर्देश दिया जाय कि वे ड्रेस या अन्य किसी सामग्री का विक्रय नहीं करें और छात्रों से कोई वसूली सरकार से अनुमोदन के बिना नहीं करें।
नागरिकों को सामान्य और व्यावसायिक शिक्षा देना तथा रोजगार उपलब्ध करवाना कल्याणकारी सरकार का संवैधानिक धर्म है। इसलिए शैक्षणिक गतिविधियों से कोई वसूली करना स्पष्टः संविधान विरु( है, किन्तु शिक्षा जगत का क्या हाल है और सरकार इसकी किस तरह दुर्गति कर रही है इसका शायद आम नागरिक को कोई अनुमान नहीं है। उदारीकरण, जो कि संविधान की समाजवाद की मूल भावना के सर्वथा विपरीत है, का लाभ धनपतियों और कुबेरों को मुक्तहस्त दिया जा रहा है। यही कारण है कि पंचवर्षीय योजनाओं को ठेंगा दिखाती हुई गरीब और अमीर के बीच की खाई स्वतन्त्रता के बाद बढ़ती ही जा रही है। शायद इस अधोगति के रुकने के कोई आसार दिखाई भी नहीं देते।
शिक्षक भर्ती के लिए आवश्यक बीएड पाठ्यक्रम और निजी संस्थानों की भागीदारी इस दुर्भि संधि को प्रकट करती है। उदारीकरण से पूर्व इस पाठ्यक्रम का संचालन मुख्यतया राज्य क्षेत्र में ही था और वांछित शिक्षकों की पूर्ति सामान्य रूप से हो रही थी। राजस्थान में राज्य एवं निजी क्षेत्र को मिलाकर वर्षभर में सामान्यतया 20000 अतिरिक्त शिक्षकों की आवश्यकता होती है। किन्तु सरकार ने लगभग एक लाख अभ्यर्थियों के लिए बीएड पद सृजित कर दिये हैं। ऐसी स्थिति में काफी व्ययभार उठाकर यह बेरोजगारों की एक फौज प्रतिवर्ष तैयार हो रही है, जो अपना समय और धन लगाकर भी निश्चित रूप से आखिर बेरोजगार ही रहनी है। बीएड पाठ्यक्रम में आगामी वर्ष से परिवर्तन कर सरकार इस कोढ़ में खाज और करने जा रही है। बीएड के अभ्यर्थी से इस विद्यमान एकवर्षीय पाठ्यक्रम के लिए 25 हजार रुपये वार्षिक शुल्क लिया जाता है, जो की पूर्व में मात्र दस हजार रुपये था। अब बीएड पाठ्यक्रम को 2 वर्षीय किया जा रहा है और शुल्क में भी बेतहाशा वृ(ि की जायेगी, किन्तु इससे सरकार और 600 संचालकों को फायदा है इसलिए इस सुनियोजित ढंग से लूट के व्यवसाय को चालू रखा जा रहा है। पहले एक बीएड महाविद्यालय से मान्यता के नाम पर दस लाख रुपये से अधिक शुल्क सरकार और विश्वविद्यालयों द्वारा लिया जाता था और अब दो वर्षीय पाठ्यक्रम के लिए सरकार द्वारा सोलह लाख रुपये और अतिरिक्त लिए जा रहे हैं। निश्चित रूप से इतनी राशि का सरकार को भुगतान करके इस निवेश पर कोई भी व्यक्ति अच्छा मुनाफा कमाना चाहेगा। सेवा के नाम पर कोई भी इतना बड़ा निवेश नहीं करना चाहेगा। इस आकर्षक व्यवसाय के कारण कई संचालकों ने तो अपने विद्यालय बंद करके महाविद्यालय प्रारम्भ कर दिए हैं।विश्वविद्यालय और बोर्ड भी प्रायोगिक परीक्षा शुल्क का मद महाविद्यालयों और विद्यालयों के लिए खुला छोड़ देते हैं, ताकि वे मनमानी वसूली कर सकें और प्रायोगिक परीक्षा के वीक्षक का स्वागत सत्कार कर सकें जोकि फलदायी होती है। बोर्ड और विश्वविद्यालयों को चाहिए कि वे प्रायोगिक परीक्षा के लिए शुल्क भी नियमित परीक्षा के साथ ही वसूल कर लें और परीक्षा केंद्र को प्रतिपूर्ति अपने स्तर पर ही करें, न की महाविद्यालयों और विद्यालयों को इसके लिए खुला छोड़ें। महाविद्यालयों को यह भी निर्देश दिया जाना अति आवश्यक है कि वे ड्रेस या अन्य किसी सामग्री का विक्रय नहीं करें और छात्रों से कोई वसूली सरकार से अनुमोदन के बिना नहीं करें। आश्चर्य होता है कि सरकार को महाविद्यालय और विद्यालय संचालकों की तो चिंता है और उनके द्वारा वसूली जाने वाले शुल्क तय कर दिया है, किन्तु उनके द्वारा दी जाने वाली सेवाओं के मानक और सम्ब( बातों को न तो तय किया जाता, न उनकी निगरानी और न ही नियमन है। और तो और इन महाविद्यालयों व विद्यालयों में कार्यरत कार्मिकों के हितों का कोई नियमन नहीं किया जाता और वे सभी पसीना बहाने वाले शोषण का शिकार होते हैं। उन्हें नियमानुसार अवकाश, भविष्यनिधि और अन्य कोई परिलाभ तक नहीं दिया जाता है।कई मामलों में तो उन्हें दिया जाने वाला वेतन न्यूनतम मजदूरी से भी कम होता है। सरकार इस कुतर्क का सहारा ले सकती है कि जिसे करना हो वह बीएड करे या इस नौकरी के लिए वह किसी को विवश नहीं कर रही है। किन्तु जनता को इस बात का ज्ञान नहीं है कि बीएड के बाद भी रोजगार दुर्लभ है। कीट पतंगे युगोंकृयुगों और पीढ़ियों से आग में जलकर मर रहे हैं दृउन्हें आजतक ज्ञान नहीं हुआ है और यह सिलिसिला आज तक नहीं थमा है। नागरिक हितों की हरसंभव रक्षा करना और मार्गदर्शन सरकार का दायित्व है। फिर यही बात सरकार चिकित्सा महाविद्यालयों के सन्दर्भ में क्यों नहीं करती, जिससे प्रतिस्पर्द्धी वातावरण में जनता को सस्ती चिकित्सा सेवाएं उपलब्ध हो सकें।आधारभूत संरचना के नाम पर इन बीएड कालेजों के पास मात्र कागजी खानापूर्ति है और छात्रों से महाविद्यालय संचालक प्रायोगिक परीक्षा और अन्य खर्चों के नाम पर अतिरिक्त अवैध वसूली भी कर रहे हैं। छात्रों को महाविद्यालय न आने की भी सुविधा भी अतिरिक्त अवैध शुल्क से दे दी जाती है। अर्थात बीएड शिक्षण एक औपचारिक पाठ्यक्रम है। जिस तकनीक एवं विधि से बीएड में पढ़ाना सिखाया जाता है वह भी व्यावहारिक रूप से बहुत उपयोगी नहीं है। अन्य राज्यों की स्थिति भी लगभग राजस्थान के समान ही है। निष्कर्ष यही है कि कल्याणकारी सरकार के नाम पर सरकारें लुटेरे संगठनों द्वारा संचालित हैं और वे लूट का लाइसेंस दे रही हैं। अब जनता सावधान रहे। शायद आने वाले 20-30 वर्षों में आम नागरिक का पूर्ण रक्तपान हो जाएगा तथा गरीब बचेंगे ही नहीं। संपन्न तथा सत्ता के दलाल और अधिक संपन्न जरूर हो जायेंगे।
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