मुकेश त्यागी-
क्या कश्मीर, छत्तीसगढ, उत्तर-पूर्व, ओडिसा, झारखंड या किसी भी और राज्य में आम लोगों पर पुलिस-फौजी बूटों के दमन का विरोध करने का मतलब हिजबुल – लश्कर या किसी और किस्म के आतंकवाद का समर्थन करना है?
१९७८ में जब मकबूल बट्ट और अमानुल्ला खाँ ने जेकेएलएफ की स्थापना की थी तो मकसद कश्मीर और कश्मीरियों (मुसलमानों नहीं) को भारत और पाकिस्तान दोनों से ही स्वायत्त करना था और दोनों हिस्सों में ही तहरीक की शुरुआत की गई थी। आखिर कब और क्यों यह तहरीक इस्लाम और जिहाद से जुड गई? १९८६ में केन्द्र द्वारा चुनी हुई सरकार को बर्खास्त कर जीएम शाह की महाभ्रष्ट सरकार को लादना, १९८७ के चुनाव में की गई भारी धांधली और १९८८ में बिजली के बढे दामों के खिलाफ हुए बडे जनआंदोलनों पर की गई पुलिस गोलीबारी व कठोर दमन के समय शेष भारत के भी जनवादी लोगों की हमदर्दी कश्मीर के लोगों के साथ थी। लेकिन १९८९ में अफगानिस्तान-पाकिस्तान के प्रशिक्षित जिहादी कैसे इस तहरीक पर काबिज हो गये?
इसके बाद कश्मीरी स्वायत्तता का सवाल खत्म होकर इस्लामी राष्ट्र का सवाल हो गया और घाटी से पंडितों की सफाई की गई जिसमें कितनी हत्यायें और गिरिजा टिक्कू जैसे लोमहर्षक कांड ही अंजाम नहीं दिये गये बल्कि बुर्का न पहनने वाली और सिनेमा देखने वाली मुस्लिम लडकियों पर तेजाब डालने और नाक काटने तक के हमले हुए। यह भी सोचने लायक सवाल है कि उस समय राज्यपाल के तौर पर कश्मीर की सत्ता संभालने वाले संजय गांधी के पुराने गुर्गे और संघ के हीरो जगमोहन ने पंडितों के लिये कोई सुरक्षा मुहैया क्यों नहीं कराई?
जेकेएलएफ के बजाय नये उभरे कश्मीरी अलगाववादी नेताओं के भारत और पाकिस्तान दोनों तरफ की इंटेलीजेंस-सैन्य एजेंसियों से रिश्तों और पैसे लेने के सवाल भी समय-समय पर उठते रहे हैं। अभी के मंत्री और पहले के जनरल वीके सिंह तो २०१३ में इन अलगाववदियों को सेना द्वारा पैसा देने की बात खुले आम कह चुके हैं। रॉ/आइबी के पूर्व मुखिया दुलत भी इन संबंधों के बारे में लिख चुके हैं, यहाँ तक कि पाकिस्तान में बैठे सलाहुद्दीन के बेटे का श्रीनगर मेडिकल कॉलिज में प्रवेश आइबी और वाजपेयी पीएमओ ने कराया था यह भी कह चुके हैं। तो क्या कश्मीर के अलगाववादी नेतृत्व के के हिस्से को भारत और पाकिस्तान की हुकुमतों में बैठे लोग अपनी राजनीतिक जरूरतों के लिये इस्तेमाल करते हैं जिससे चुनाव में फायदा उठाया जाये और वक्त जरूरत लोगों का ध्यान दूसरी समस्याओं से हटाया जा सके और उग्र राष्ट्रवाद का जुनून फैलाया जा सके?
यद्यपि राष्ट्रों के आत्मनिर्णय का विचार एक उच्च जनतांत्रिक विचार है लेकिन क्या इसके नाम पर साम्प्रदायिक, मजहबी अंधता और महिलाओं पर तालिबानी विचार रखने वाली तहरीक का समर्थन किया जा सकता है? क्या पूरे दक्षिण एशिया में मेहनतकशों की एकता को तोडकर फासिस्ट ताकतों को मदद करने वाली शक्तियां क्या आत्मनिर्णय के नाम पर समर्थन की दावेदार हो सकती हैं? क्या लाल किले पर इस्लामी झंडा फहराने के नारे से कश्मीर की स्वयत्तता का कोई रिश्ता है? क्या भारत और पाकिस्तान दोनों के ही हुक्मरान इनका इस्तेमाल अपने देशों में शोषण और दमन चक्र को मजबूत करने के लिये नहीं कर रहे? और क्या दोनों ही अपने शासित कश्मीरी हिस्से में सैन्य दमन नहीं चला रहे?
क्या कश्मीर हो या बलूचिस्तान या भारत-पाकिस्तान के कोई भी अन्य क्षेत्र के लोग व्यापक मेहनतकश एकता और पूँजीवादी शोषण के खिलाफ संयुक्त लडाई के बजाय धार्मिक, इलाकाई या भाषाई उग्रवाद के चक्र में फँसकर आत्मनिर्णय का हक प्राप्त कर सकते हैं?
मैं किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाया हूँ लेकिन इतना कहना चाहता हूँ कि हिन्दू राष्ट्र या इस्लामिक जिहाद वाली दोनों जमातों के प्रचार में न फँसकर इन सवालों पर गम्भीरता से सोचने की जरूरत है।
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