गुरुवार, 21 जुलाई 2016

पैरों पर कुल्हाड़ी मार रही भाजपा


deepak azad,watchdogpatrika
उत्तराखंड और अरूणांचल में कांग्रेसी सरकार को बर्खास्त कर सुप्रीम कोर्ट में मुंहकी खा चुकी भारतीय जनता पार्टी ने कोई सबक सीखा हो, उसके व्यवहार से ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता। जनता के जीवन से जुड़े सवालों को उठाने के बचाय उत्तराखंड में भाजपा जिस तरह की राजनीति कर रही है उससे वह खुदके पैरों पर ही कुल्हाड़ी चला रही है। अस्थायी राजधानी, देहरादून में उत्तराखंड विधानसभा के दो दिनी विशेष सत्र की शुरूआत भाजपा के हंगामे, शोर-शराबे के साथ हुई। भाजपा ने यह कहते हुए विधानसभा अध्यक्ष गोविन्द सिंह कुंजवाल और उपाध्यक्ष अनुसूया प्रसाद मैखुरी का विरोध किया कि उनके खिलाफ उस दिन ही अविश्वास प्रस्ताव पेश कर दिया था जब इस संकट की शुरूआत हुई थी। भाजपा के विरोध को भांपते हुए स्पीकर ने खुदको पीठ से अलग करते हुए सबसे सीनियर  सदस्य नवप्रभात को पीठासीन अधिकारी का दायित्व सौंप दिया। भाजपा इससे भी सहमत नहीं हुई और संवैधानिक नियमों का हवाला देते हुए पीठासीन अधिकारी का चयन सदन द्वारा किए जाने पर जोर दिया। भाजपा की इस दलील से सहमत हुआ जा सकता है। लेकिन नियम-कानूनों की यह उलझाहट से आखिर भ्रष्टाचार, कुशासन और आपदा के कहर से जूझ रही उत्तराखंड की जनता को क्या हासिल होने वाला है? बेहतर होता भाजपा भ्रष्टाचार, कुशासन, और आपदा जैसे सवालों पर सरकार की घेराबंदी करती तो राजनीतिक तौर पर उसे भी और उत्तराखंड की जनता को भी कुछ फायदा होता। अगर सीएम हरीश रावत की घेराबंदी के लिए भाजपा लोकायुक्त को ही मुददा बनाती तो बेहतर होता। राज्य पिछले चार साल से बिना लोकायुक्त के ही चल रहा है, लेकिन वह असल मुददों की बजाय इस तरह हंगामा कर सीएम हरीश रावत के लिए ही आगे ही राह आसान बना रही है!

कश्मीरः हिन्दू व इस्लामिक जिहादियों के कुचक्र से बाहर आकर इन सवालों के जवाब तलाशिये


मुकेश त्यागी-
क्या कश्मीर, छत्तीसगढ, उत्तर-पूर्व, ओडिसा, झारखंड या किसी भी और राज्य में आम लोगों पर पुलिस-फौजी बूटों के दमन का विरोध करने का मतलब हिजबुल – लश्कर या किसी और किस्म के आतंकवाद का समर्थन करना है?
१९७८ में जब मकबूल बट्ट और अमानुल्ला खाँ ने जेकेएलएफ की स्थापना की थी तो मकसद कश्मीर और कश्मीरियों (मुसलमानों नहीं) को भारत और पाकिस्तान दोनों से ही स्वायत्त करना था और दोनों हिस्सों में ही तहरीक की शुरुआत की गई थी। आखिर कब और क्यों यह तहरीक इस्लाम और जिहाद से जुड गई? १९८६ में केन्द्र द्वारा चुनी हुई सरकार को बर्खास्त कर जीएम शाह की महाभ्रष्ट सरकार को लादना, १९८७ के चुनाव में की गई भारी धांधली और १९८८ में बिजली के बढे दामों के खिलाफ हुए बडे जनआंदोलनों पर की गई पुलिस गोलीबारी व कठोर दमन के समय शेष भारत के भी जनवादी लोगों की हमदर्दी कश्मीर के लोगों के साथ थी। लेकिन १९८९ में अफगानिस्तान-पाकिस्तान के प्रशिक्षित जिहादी कैसे इस तहरीक पर काबिज हो गये?
इसके बाद कश्मीरी स्वायत्तता का सवाल खत्म होकर इस्लामी राष्ट्र का सवाल हो गया और घाटी से पंडितों की सफाई की गई जिसमें कितनी हत्यायें और गिरिजा टिक्कू जैसे लोमहर्षक कांड ही अंजाम नहीं दिये गये बल्कि बुर्का न पहनने वाली और सिनेमा देखने वाली मुस्लिम लडकियों पर तेजाब डालने और नाक काटने तक के हमले हुए। यह भी सोचने लायक सवाल है कि उस समय राज्यपाल के तौर पर कश्मीर की सत्ता संभालने वाले संजय गांधी के पुराने गुर्गे और संघ के हीरो जगमोहन ने पंडितों के लिये कोई सुरक्षा मुहैया क्यों नहीं कराई?
जेकेएलएफ के बजाय नये उभरे कश्मीरी अलगाववादी नेताओं के भारत और पाकिस्तान दोनों तरफ की इंटेलीजेंस-सैन्य एजेंसियों से रिश्तों और पैसे लेने के सवाल भी समय-समय पर उठते रहे हैं। अभी के मंत्री और पहले के जनरल वीके सिंह तो २०१३ में इन अलगाववदियों को सेना द्वारा पैसा देने की बात खुले आम कह चुके हैं। रॉ/आइबी के पूर्व मुखिया दुलत भी इन संबंधों के बारे में लिख चुके हैं, यहाँ तक कि पाकिस्तान में बैठे सलाहुद्दीन के बेटे का श्रीनगर मेडिकल कॉलिज में प्रवेश आइबी और वाजपेयी पीएमओ ने कराया था यह भी कह चुके हैं। तो क्या कश्मीर के अलगाववादी नेतृत्व के के हिस्से को भारत और पाकिस्तान की हुकुमतों में बैठे लोग अपनी राजनीतिक जरूरतों के लिये इस्तेमाल करते हैं जिससे चुनाव में फायदा उठाया जाये और वक्त जरूरत लोगों का ध्यान दूसरी समस्याओं से हटाया जा सके और उग्र राष्ट्रवाद का जुनून फैलाया जा सके?


यद्यपि राष्ट्रों के आत्मनिर्णय का विचार एक उच्च जनतांत्रिक विचार है लेकिन क्या इसके नाम पर साम्प्रदायिक, मजहबी अंधता और महिलाओं पर तालिबानी विचार रखने वाली तहरीक का समर्थन किया जा सकता है? क्या पूरे दक्षिण एशिया में मेहनतकशों की एकता को तोडकर फासिस्ट ताकतों को मदद करने वाली शक्तियां क्या आत्मनिर्णय के नाम पर समर्थन की दावेदार हो सकती हैं? क्या लाल किले पर इस्लामी झंडा फहराने के नारे से कश्मीर की स्वयत्तता का कोई रिश्ता है? क्या भारत और पाकिस्तान दोनों के ही हुक्मरान इनका इस्तेमाल अपने देशों में शोषण और दमन चक्र को मजबूत करने के लिये नहीं कर रहे? और क्या दोनों ही अपने शासित कश्मीरी हिस्से में सैन्य दमन नहीं चला रहे?
क्या कश्मीर हो या बलूचिस्तान या भारत-पाकिस्तान के कोई भी अन्य क्षेत्र के लोग व्यापक मेहनतकश एकता और पूँजीवादी शोषण के खिलाफ संयुक्त लडाई के बजाय धार्मिक, इलाकाई या भाषाई उग्रवाद के चक्र में फँसकर आत्मनिर्णय का हक प्राप्त कर सकते हैं?
मैं किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाया हूँ लेकिन इतना कहना चाहता हूँ कि हिन्दू राष्ट्र या इस्लामिक जिहाद वाली दोनों जमातों के प्रचार में न फँसकर इन सवालों पर गम्भीरता से सोचने की जरूरत है।

बुधवार, 20 जुलाई 2016

नई शिक्षा नीति में हो, ठोस पहल


देव कृष्ण थपलियाल
  देश की हालिया शिक्षा नीति 1986 बनीं थी, जिस पर 1992 में विस्तार पूर्वक पुर्नविचार  किया गया,  पिछले करीब डेढ-दो दशकों से सर्व शिक्षा अभियान और 2009 में लागू शिक्षा के अधिकार कानून के माध्यम से सरकार नें देश की शिक्षा व्यवस्था को पटरी पर लानें के लिए पुरजोर कोशिशें कीं, पर इन नियमों और प्रावधानो  से ऐसी कोई उपलब्धि हासिल हो सकीं हो, जिससें शिक्षा व्यवस्था को नया आयाम मिला हो, कहा नहीं जा सकता ? हालात ये रहे, की अनेक राज्य आरटीआई के लागु करनें के कई वर्षों बाद भी उसके तमाम प्रावधानों से आज भी सहमत नहीं हैं, अपितु उन्हें अपनें यहॉ इसे लागू करनें से भी बचते रहे, विद्याार्थियों को फेल न करना, इस कानून का ऐसा पहलू है जिससे शैक्षिणिक संस्थानों में न केवल नीरसता ही फैल रही बल्कि अच्छी शिक्षा के प्रति भी छात्रों और शिक्षकों का मोह भी भंग हो रहा है, शिक्षा-प्रतियोगिता ही ऐसा उपकरण हैं, जिससे भावी नागरिकों को तराशा जाता हैं, उनमें व्याप्त तमाम तरह के कषाय-कल्मषों को धोया/साफ किया जाता है, छात्रों में नवीन जानकारियों के साथ सजगता और सक्रीयता उत्पन्न  होती है, तथा अच्छे भविष्य के लिए बच्चे मानसिक रूप से भी तैयार होते हैं, उनमें जोखिम लेंनें की प्रवृत्ति का भी विकास होता है।  इसलिए होंना तो ये चाहिए की प्रत्येक माह विद्यालय में परिक्षाओं का आयोजन हो, और सालभर में इन्हीं अंको के ऑकलन के आधार पर बच्चे को अगली कक्षा में दाखिला दिया जाय। इससे बच्चे परिक्षाओं के प्रति अभ्यस्त भी होगें, और निडर भी, साथ ही पढाई के प्रति उसमें ललक भी जागेगी। लेकिन इन प्रावधानों के तहत परीक्षाओं को ही समाप्त कर दिया गया, तो उदासीनता तो आयेगी ही ? जिसका नतीजा पिछले पॉच वर्षों की सर्व शिक्षा अभियान के रिर्पोट से झलकता है, इस राष्ट्रीय कार्यक्रम पर 1,15,625 करोड रूपये बहाये गये, लेकिन 2014 की वार्षिक स्टेटस रिर्पोट के अनुसार जो बातें सामर्नें आइं हैं, वे चौंकानें वालीं हैं, कक्षा-तीन के केवल एक चौथाई  छात्र कक्षा-दो की किताबें ठीक तरह से पढ पाते हैं, गणित विषय में कक्षा -तीन के एक चौथाई छात्र 10 से 99 के बीच की संख्या को पहचान नहीं पाते। अतः इन नीतियों से शिक्षा व्यवस्था का तो भला नहीं हो पाया, पर उल्टा असंतोष जरूर पनप रहा है ? असल में स्वतंत्रता के 70 वर्षों के बाद भी हम देश की शिक्षा नीति को व्यवस्थित नही पाये, नहीं विद्यालय/ शिक्षालयों में इतना आकर्षण पैदा कर पाये की विद्यार्थी वहॉ स्वयं ही खिंचा चला आये ? भारत जैसे देश में जहॉ के क्षेत्र की एक लम्बी पंरपरा रही उसका ये हश्र चिंतित करनें वाला है, विद्यार्थियों के शिक्षा ग्रहण अभी भी उबाउ, थकाउ और नीरस कार्य बना हुआ है,। सन् 1924 में गाधीं जी नें ’हरिजन’ में जो सवाल उठाये थे 90 वर्षों के बाद भी वे ज्यों के त्यों हैं, कहीं शिक्षक, कहीं भौतिक संसाधन नही ंतो कहीं शिक्षकों और अभिवाहकों में अच्छे तालमेल का नितांत अभाव दिखता है, हालाॅिक आजादी के बाद शिक्षा व्यवस्था को सुव्यवस्थित करनें के नाम पर समय-समय पर अनेक आयोंगांे और समितियॉ का तो निर्माण हुआ पर उनके नतीजे फिर वही ढाक के तीन पात के समान रहे। आज भी विद्यालयों में योग्य शिक्षकों के साथ-साथ भौतिक संसाधनों का नितांत अभाव बना हुआ है, शिक्षकों और अभिवाहकों के बीच में अच्छी शिक्षा के प्रति न कोई संवाद है न ही कोई इच्छा शक्ति केवल किताबी ज्ञान के आधार पर परीक्षा पास करना/कराना ही अभिवाहक/अध्यापक का ’लक्ष्य’ मात्र तक सीमित है।
इन तमाम अडचनों के बाद अब नई शिक्षा नीति में व्यापक सुधारों के लिए गठित टीएसआर सुब्रमण्यम कमेटी की सिफारिशों पर गौर फरमानें पर लगता है की देश भर में शिक्षा व्यवस्था के निरंतर गिरते स्तर को लेकर कमेटी नें बखुबी चिंतन/मनन किया है, यह निश्चित रूप से अच्छी खबर है, सुधारीकरण के नाम पर कमेटी नें जो तर्क/तथ्य प्रस्तुत किये हैं वे स्वागत योग्य है और उन्हें ईमानदारी से लागू किया जानें की जरूरत है। यह समय की आवश्यकता है, की शिक्षा में नवाचार ज्यादा से ज्यादा विकसित किया जाय, जिस तेजी से आधुनिक समाज बदला है/बदल रहा है, टैक्नोंलॉजी और आईटी का विकास हुआ, उसी अनुरूप हमारी सरकारी शिक्षा व्यवस्था में भी गुणात्मक परिवर्तन की गुंजाइश है। महज कुछ डिग्रियों और प्रोफेशनल्स को तैयार करनें की एकाकीं प्रवृत्ति पर तुरंत रोक लगनीं चाहिए, पैसा बनानें की गरज से शिक्षा के बाजार को खडा करना कुछ समय के लिए के लिए सुखद लग सकता है ? जिसमें कुछ लोंगों को रोजगार मिले,  कुछ को बाजार और कुछ की स्तरीय जीवन जीनें की लालस पूर्ण हो, सरकार और उसके नुमांईंदे जिस पर अपनीं वाह-वाही लुटा सकंे आदि-आदि, पर इतनें भर से अच्छे राष्ट्र, अच्छे नागरिक और सभ्य समाज की परिकल्पना करना कतईं संभव नहीं है,। आज जरूरत है समग्र विकास की, बाहरी तौर पर देंखें तो तमाम शैक्षिणिक संस्थानों से निकले नौजवानों में पैसे कमानें की हुनर और आधुनिकता से युक्त विलासी व उन्मुक्त जीवनशैली का तो खुब विकास हो रहा है, परन्तु वे प्राचीन भारतीय जीवन मुल्यों और जीवन पद्वति से लगातार पिछडते जा रहे हैं, जीवन के वास्तविक अर्थों से दूर हो रहे हैं/बिखर रहे हैं, उनका सामाजिक, पारिवारिक और आध्यात्मिक जीवन का विकास ना के बराबर है, सहनशीलता, समायोजन की क्षमता का विकास न होंनें के कारण उनका जीवन नितांत ऐकाकीं, अहंकारी और स्वार्थपूर्ण अर्थों में जिया जा रहा है, जिसके कारण निराशा, तनाव और आशंकाऐं उन्हें अंदर ही अंदर रूग्णावस्था तक पहुॅचा रही है, अब सवाल उठता है की क्या आधुनिक शिक्षा के मंदिरों में ऐसे अर्द्वक्षिप्त/ अपंग नागरिक तैयार  होते है ? शायद हॉ अधिकारिक रूप से नही ंतो व्यवहारिक रूप से इसे स्वीकार करना ही पडेगा, देश की युवा पीढी आज जिस दौर से गुजर रही है उससे तो यही आभास मिल रहा है। शिक्षा ग्रहण करना अथवा डिग्री प्राप्त करनें वाले युवाओं के भीतर विनयशीलता की जगह अहंकार  का द्योतक बन गया है,  वे छोटे-मोटे काम-धंधे को हाथ में लेनें को तौहिन समझते हैं, यही कारण है की आज हर पढे-लिखे नौजवान का सपना केवल सरकारी नौकरी प्राप्त करना अथवा ऐसी नौकरी की तलाश तक सीमित है जहॉ उसे हाथ-पैर न चलानें पडे, और मोटी पगार बैठे-बैठे भी मिले। भौतिक संसाधन युक्त जीवन प्राप्त करना, मानों इसीलिए उसनें शिक्षा ग्रहण की हो ? माना की सम्मानजनक रोजगार/जीविका व रहन-सहन प्राप्त करना भी शिक्षा का उद्देश्य है, लेकिन इसका मतलब ये की पैसे कमानें की गरज से ही शिक्षा का मुल्य है ? जो नौकरी पा गये उनकी तो बल्ले-बल्ले, लेकिन जो इससे वंचित रह गये वे दीन-हीन अवस्था में जीवन यापन करनें को अभिशप्त हैं। गॉधी जी नें कहा था ’’जो लोग शारीरिक श्रम नहीं करते वे चोर हैं,’’ यानी बिना शारीरिक श्रम किये बगैर खानें वाले आज के युवाओं के लक्ष्य हैं। तब ऐसे देश का भविष्य क्या होगा ?, इसे समझा जा सकता है। देश में बढ रहीं तमाम तरह की हिंसा, अपराध, अवसाद, आतंकवाद और बेईमानी के पीछे ’’अच्छी और मुल्यवान शिक्षा का नितांत अभाव’’ जिम्मेदार है, इन अपराधों को रोकनें के लिए देश संसद और विधान सभाओं नीति नये कानून रोज बनाये जा रहे हैं पर स्थिति रूकनें के बजाय  तीव्र गति से बढती जा रही है।  आज देश में सुरसा की तरह बढे तमाम प्रकार के अपराध के लिए हमारी एकाकी शिक्षा व्यवस्था की ही जिम्मेदार है ? बालकों के मन में ऐसी जानकारियों का नितांत अभाव जिससे वे मानवीय गुणों प्रेम, सहिष्णुता, भाई-चारा और चाारित्रिक गुणों का विकास कर सकें ? नहीं विद्यालय परिसरों में इस तरह की कोई व्यवस्था है, जिससे उनमें  इस तरह के गुण विकसित हो सके ? मुझे याद है अपनी प्राथमिक शिक्षा के दौरान गॉव की जिस पाठशाला में मैं पढता था, वहॉ मुझे पठन-पाठन की सामग्री के अलावा अपनें लगाये पेड-पौधों के लिए खाद-पानीं का इंतजाम भी करना पडता था, जिसके लिए मैं और मेरे सहपाठी गाय के गोबर के बडे-बडे पालीथीन भरे थैले साथ में ले जाते थे, वहॉ क्यारियॉ थी, जिनमें हम अनेक तरह की साग-भाजी और फूलों और पेड-पौंधों को उगाया करते थे, जो हमें  मानसिक शान्ति के अलावा एक नैसर्गिक आनंद की अनुभूति भी करा देते थे, जो विद्यालय को उत्सव सा माहौल प्रदान करते थे, ऐसे कृत्य निश्चित रूप से सृजनात्मक प्रवृत्ति को बढावा देते हैं, साथ ही विद्यालयों में विभिन्न प्रकार खेंलों से भी बच्चों के बीच आत्मीयता और सहकार को बढावा मिलता था, कब्बड्डी, खो-खो जैसे खेल जहॉ हमारे बीच आमोद -प्रमोद के साधन थे, वहीं वे हमारी प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता के विकास के लिए भी आवश्यक होते थे।
अब सवाल उठता है की जिन शिक्षकों के भरोसे हमारी युवा पीढीं को सुशिक्षित और सुसंस्कारवान बनानें का जिम्मा हैं, क्या वे स्वयं भी इस योग्य हैं ? बात सीधे शिक्षकों की भर्ती से है, उत्तराखंण्ड में पिछले कई  वर्षों से शिक्षकों की भर्ती का अभियान जोंरों पर है, प्राथमिक से लेकर उच्च शैक्षिणिक संस्थानों में अस्थाई/स्थाई शिक्षकों की नियुक्तियॉ लगभग हर साल हो रहीं हैं,अस्थाई तौर पर नियुक्त शिक्षक युनियन बनाकर सरकार पर जल्द से जल्द स्थाईकरण के लिए दबाव बना रहे हैं, जो उनका हक भी है,निरंतर अस्थाई तौर पर रखे वाले अपनीं स्थाईकरण के बारे में ज्यादा चिंतित हैं, बनिस्बत अध्यापन के।  लेकिन सरकार की तरफ से नियुक्त इन शिक्षकों के कार्यों को जॉचनें-परखनें के लिए कोई साधन/एजेंन्सी का नितांत अभाव है, जे सही शिक्षकों की कार्यप्रणाली का सही-सही मुल्यांकन कर सके ?  जब पानी सर से उपर चला जाता है तो सरकार ऐसी अदूरदर्शी नीति की चाल चलती है जिसे समझना संभव नहीं है।   शिक्षक नियमित तौर पर स्कूल में उपस्थित रहे, यह देखनें का सरकार की जिम्मेदारी है, न की पटवारी जी की। देहरादून के जिला कलैक्टर साहब नें जौंनसार बाबर के सुदूरवर्ती क्षेत्रों के स्कूलों के शिक्षकों की नियमित उपस्थिति देखनें के लिए यही आदेश निर्गत किया है ? पटवारी जी जैसे गैर विभागीय कर्मचारी हैं, और वे जिस काम लिए नियुक्त हैं साहब उस काम का क्या होगा ?  बायोमैट्रिक मशीन लगाकर अध्यापकों की हाजिरी जॉचनें का काम उनकी विश्वसनीयता पर सदेंह जताना,और उनके आत्म सम्मान को ठेस पहुॅचान के अलावा कुछ नहीं है, अच्छा होता सरकार पहले ही ऐसी ऐंजेंन्सी बिल्डअप कर देती जिससे अध्यापन करनें/रूची रखनें वाले शिक्षकों को नियुक्त कर लिया जाता ? जिससे आज न तो शिक्षकों पर कडी नजर रखनें की जरूरत होती न अध्यापकों की गरिमा को ठेस पहुॅचाती ? असल में ये सरकार की शिक्षा के प्रति गंभीरता को दर्शाता है, या खोखले अधिकारियों का अन्ध अहंकार है, जिनके पास शिक्षा के लिए न कोई ज्ञान है, न कोई विचार, बस कुछ घीसी-पीटी बातों को दोहरा कर वे अपनें अहं की संतुष्टी कर लेते हैं ?  
 टीएसआर सुब्रमण्यम कमेटी नें शिक्षकों की गुणवत्ता को लेकर सवाल खडे किये हैं, महज बी0एड0/पी0एच0डी0 धारकों को पात्र मानकर शिक्षक बनानें का विरोध किया है, अतः कमेटी की इस बात को समझनें की जरूरत है, आज के बदलते परिवेश में कुछ सच्चाईयों को जान लेंना आवश्यक है, ’बडी से बडी डिग्री पा लेंना अच्छे अंकों से पास हो जाना’ एक बात है, सच्चाई यह भी है की देश की गली-गली में शिक्षा के नाम पर खुली बडी से बडी दुकानें चल रहीं हैं, जो आपको मुहॅ मॉगीं कीमत पर डिग्री उपलब्ध करानें को तैयार बैठे हैं, क्या वाकई आप इन संस्थानों सें गुणवत्तापूर्ण  शिक्षा की उम्मीद लगाये बैठे हैं ? अपना अनुभव तो जरा भी उम्मीद नहीं जगाता ? जिस तरह से दूसरे-दूसरे राज्यों के ऐंजेंण्ट ग्राहकों को आकर्षित करते हैं, और उन्हें अपनें यहॉ दाखिला दिलवाते हैं और उनसे मोटी रकम वसुलते हैंं, उससे तो क्वालिटी ऐजुकेशन की बात करना सिवाय मुर्खता के कुछ नहीं कहा जा सकता ? इसीलिए महज कुछ डिग्रियों और अंकों के आधार पर शिक्षकों की नियुक्त करना कहीं से भी तर्क संगत नजर नहीं आता ? जरूरी यह की शिक्षक बननें वाले के अंर्तमन में क्या वे तत्व हैं, जिससे पूर्ण वह शिक्षक बन सके ? दुर्भाग्यवश आजादी के बाद देश में ऐसी कोई ऐंजेन्सी का निर्माण ही नहीं हुआ जो इन सब तत्थों पर गैर कर करे, अच्छी बात ये है की सुब्रमण्यम कमेटी नें स्कील डवलपमैंट की बात की है, शिक्षक भर्ती के समय इन सब तत्यों को ध्यान में रखा जाना चाहिए।
देश के तमाम ठीक-ठाक शैक्षिणिक संस्थानो (प्राथमिक से लेकर उच्च तक) में ’मैरिट लिस्ट’ के आधार पर  प्रवेश देनें की प्रवृत्ति निःसन्देह खतरनाक प्रतिस्पर्धा की ओंर इशारा कर रही है, आजकल तमाम विश्वविद्यालय में यही नियम अपनाया जा रहा है, दिल्ली विश्वविश्वविद्यालय के तमाम परिसरों में शत-प्रतिशत अंकों की मॉग से छात्रों और अभिवाहकों के माथे पर बल पडना स्वाभाविक है, कम अंकों वाले छात्रों को प्रवेश लेंना एक समस्या है, उन्हें अच्छे शैक्षिणिक संस्थान नहीं मिलेंगें, उनका दोष मात्र इतना है की विगत परीक्षा में उन्हें अपेक्षित अंक नहीं मिल पाये ? अब सवाल उठता है कि इस बात की क्या गारण्टी है, कि अग्रिम कक्षाओं में भी बच्चा अच्छे अंक नहीं पा सकता ? हो सकता है की अग्रिम कक्षाओं में बेहतर प्रदर्शन करे, और ऐसा होता भी है ? दूसरी तरफ उन शैक्षिणिक संस्थानों की ऐसी नीति क्या है कि जिससे वे केवल और केवल अच्छा ही माल भरेंगें ? क्या वे अपनें आप को दुकान साबित करना चाहेंगें ? जी हॉ यही देश की शिक्षा नीति है, जहॉ उच्च अंक प्रतिशत वालों को ही मान्यता मिलेगी ? लेकिन एक सुझाव जरूर है की एक बेहतर नागरिक नौकरशाह, राजनीतिज्ञ अथवा अन्य किसी भी पेशा अपनानें वाले के लिए जरूरी है कि उसके अंदर मानवीय और उच्च मुल्यों का होंना। और इसके लिए जरूरी है,शिक्षा नीति में समग्रता विकास ।
नई शिक्षा नीति में ठोस पहल की दरकार है, आशा है की  टीएसआर सुब्रमण्यम कमेटी इस पर गहनता से विचार करेगी।