शुक्रवार, 16 जनवरी 2015

तो धरती पर प्रकट होंगे केदारघाटी के पाण्डव

तो धरती पर प्रकट होंगे केदारघाटी के पाण्डव


देवभूमि के रूप में विख्यात केदारघाटी के गावांे में पौराणिक पाण्डव नृत्य का आयोजन प्रारंभ हो गया है। और संयोगवश विश्व धरोहर दिवस का आगाज भी हो रहा है। देश और दुनिया में प्राचीन और ऐतिहासिक विरासतों को संरक्षित करने के उद्देश्य से यूनस्को प्रतिवर्ष ‘ विश्व धरोहर ’ का चयन करता है। ऐसे में विश्व विरासत सूची में केदारघाटी के पाण्डव नृत्य को शामिल किया जाए तो देश और दुनिया को उत्तराखण्ड की एक महान प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर के दर्शन होंगे साथ ही केदारघाटी के सैकड़ों गांवों के लिए भी यह संरक्षण का कार्य करेगी। केदारघाटी में यह आयोजन प्राचीन समय से लोक परम्पराओं के साथ स्थानीय जनमानस की श्रुति परम्पराओं को भी सहेज रहा है।  इसी पर केंद्रित दीपक बेजवाल का यह विस्तृत आलेख। संपादक
पौराणिक मान्यता के अनुसार स्वार्गारोहण यात्रा पर जाते समय पाण्डव केदार घाटी की सुन्दरता पर मोहित हो गये थे तब पाण्डवों द्वारा अपने बाण अर्थात शस्त्रों को केदारघाटी में फेंक दिया गया था और घोषणा की मोक्षप्राप्ति के बाद भी हम सूक्ष्म रूप में प्रतिवर्ष यहां आकर अपने भक्तों की कुशलक्षेम पूछगे, इसी मान्यता के कारण साल दर साल केदारघाटी के गांवों में पाण्डव अवतरित होते है, उनके उन सूक्ष्म अवतारों के वाहक व्यक्ति नौर या पश्वा कहलाते है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी नियत होते रहते है। मान्यता है कि ये कही भी रहें पाण्डव अपनी पूजा के अवसर पर इन्हें अपने गांवों में खींच लाते है। यही कारण है कि इन दिनों प्रवासियों के ढेरों परिवार गांवों में आकर पाण्डव नृत्य पूजा में भाग लेते है। गढ़वाल में दीपावली के ग्यारह दिन बाद मनायी जाने वाली एगास बग्वाल के दिन से पाण्डवों का दिया लगना शुरू हो जाता है, और उन्हें बुलाने की स्थानीय रस्मे प्रारम्भ हो जाती है। पाण्डवों की वीरता और उनका चरित्र इस जनपद के निवासियों का आदर्श रहा है, इन आलौकिक देवताओं की गाथाऐ ढोल दमौ के साथ गायी जाती है, जिनमें पाण्डवों का जन्म, दुर्योधन द्वारा निकाला जाना, पांचाल देश पहुंचकर द्रोपदी स्वयम्वर, नागकन्या से विवाह, महाभारत युद्व, बावन व्यूह की रचना चक्रव्यूह, राज्यभिषेक, स्वार्गारोहण आदि सभी लोककथाओं के हिसाब से गायी सुनायी जाती है, यहां प्रत्येक पाण्डव या पात्र को अवतरित करने की अलग अलग थाप अथवा ताल होती है, वास्तव में ढोली इसमें सबसे अहम भूमिका निभाती है जिसकी थापों पर ही मानवों पर पाण्डव देवताओं का अवतरण होता है। पाण्डवों के जन्म के जागर गाये जाते है, जिसमें एक एक कर कुन्ती माता, पांच भाई पंडऊ, राणी द्रोपदी को बुलाया जाता है, उनके हाथों में निशान ‘बाण’ होते है, ढोल पर बजती थापों पर ही वे सभी क्रमशः आवेशित होकर गोल घेरे में नृत्य करते है।पाण्डवों के प्रति लोक में असीम आस्थाये प्रकट की जाती है, मान्यता है कि ये अत्यन्त वीर और श्क्ति प्रदाता है और मानवमात्र के दुख कष्ट को हरने के लिए पृथ्वी पर अवतरित हुऐ है। पाडंव नृत्य का आरम्भ होने की रस्में सालभर पहले से ही शुरू कर दी जाती है इस दौरान दिये का लगाये जाने के साथ पाण्डवों के नये पात्रों को नृत्य की सीख पुराने जानकार बुजर्ग देतेे है। विशेष पूजा अर्चना के साथ गांववासी एकत्रित होकर पाण्डवों के पश्वाओं के साथ अपने पुराने पाण्डव बाणों को निकालते है। जिसके बाद पवित्र स्थानों पर देवताओं और बाणों को स्नान कराया जाता है। इसके साथ ही नृत्य लीला प्रारम्भ हो जाती है, तब से लीला के दौरान ये अपने गांवों का भम्रण कर अपने थात का स्पर्श आमजनमानस, खेत खलिहानो और पशु प्राणिमात्र को देते है। इसे मौपूज कहते है इस यात्रा के स्वागत में गांवभर में ओखलियों में भूजे हुऐ धान को कूटकर चूड़े व भूजले का प्रसाद तैयार किया जाता है जिसे पाण्डवो को भेट स्वरूप अर्पित किया जाता है, पाण्डव अपने आरक्षित चैक में सर्वप्रथम नृत्य करते हुऐ सभी ग्रामीणो को आशीर्वाद देते है, उनके निशानो को पंचगव्य से स्नान कराकर उसके जल को गांवभर में छिड़का जाता है मान्यता है कि ऐसा करने से पशुओ में खुरपका रोग नहीं होता है। इसके साथ ही छाका परम्परा भी प्रारम्भ होती है जिसमें गंावों के सयंुक्त परिवार बारी बारी से पाण्डवों को अर्घ देते है, और पाण्डवों को सामुहिक भोज का निमंत्रण देते है। इसके उपरांत महीने भर तक विभिन्न घटनाओं का वर्णन नृत्य द्वारा किया जाता है। महीने भर तक गांवों में बारी बारी से बावन व्यूहों की रचना भी की जाती है।केदारघाटी में पाण्डवाणी गीतों के जानकारों और ढोलसागर के मर्मज्ञ लोकलावंतों की जुगलबंदी गढ़वाली संस्कृति को जानने वाले के लिए एक बेहतर निमत्रंण की प्रतीक बनती जा रही है। कई विदेशी मेहमान और शोधार्थीयों को पण्डव चैकों में देर रात तक असानी से बैठा देखा जा रहा है। केदारघाटी के वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी डा0 डी आर पुरोहित, कृष्णानंद नौटियाल, राकेश भट्ट, राजीवलोचन भण्डारी,  के सफल निर्देशन में प्राचीन पाण्डवाणी पंरपराओं को जीवंत करने का सफल प्रयास भी कर चुकी है। श्री विधाधर श्रीकला, उत्सव ग्रुप एवं पंचकेदार लोककला मंच द्वारा ठेठ और पारम्परिक अंदाज में दिल्ली, मुम्बई के अनेक अन्र्तराष्ट्रीय आयोजनों में केदारघाटी की इस विरासत का प्रदर्शन किया गया है।
केदारघाटी की पण्डवाणी
पण्डवाणी मण्डाण केदारघाटी की प्राचीन परम्परा है, यही से राज्य के कोने कोने में इसका प्रसार हुआ है। पाण्डवो को अवतरित कराने और नृत्यलीला के दौरान में लोकवाद्यय ढोल की अहम भूमिका रहती है। तकरीबन 16 छोप नृत्यशैलीयाँ में पाण्डव नष्त्य पूरा होता है। इसके साथ प्रत्येक गांव में पाण्डव नृत्य के अपनी-अपनी परंपराए भी होती है।
सबसे पुराने कण्डारा गांव के पाण्डव
केदारघाटी में सबसे पुराने पाण्डव गढ़वाल के ऐतिहासिक बावनगढ़ों में सबसे प्राचीन कण्डारागढ़ के है। आज भी सम्पूर्ण गढ़वाल में पाण्डव नृत्यों के सर्वाधिक पच्चीस छोप ;नृत्यशैलीयाँद्ध कण्डारा में ही आयोजित होती है।
क्या कहते संस्कृतिकर्मीकृकृ
केदारघाटी के पाण्डव उत्तराखण्ड की समृ( सांस्कृतिक विरासत है। गोत्र हत्या से मुक्ति हेतु भगवान शिव के दर्शन के लिए पाण्डवों का केदारघाटी आगमन इस परम्परा की प्राचीनता को स्वंय प्रमाणित करता है। केदारघाटी में यह आयोजन प्राचीन समय से लोकपरम्पराओं के साथ स्थानीय जनमानस की श्रुति परम्पराओं को भी सहेज रहा है। विश्व विरासत सूची में केदारघाटी के पाण्डव नष्त्य को शामिल होने से देश और दुनिया को एक महान प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर के दर्शन होंगे साथ ही केदारघाटी के सैकड़ों गांवों के लिए भी यह संरक्षण का कार्य करेगी।
देवानंद गैरोला, कण्डारा गांव
केदारघाटी में पाण्डव नृत्य और चक्रव्यूह मंचन का अनुष्ठानिक महत्व है, सदियों से यहां इसका भावपूर्ण आयोजन किया जाता रहा है। लोकधुन और लोकभाषा के साथ पाण्डवाणी की वार्ता शैली केदारघाटी की पहचान है। यदि विश्व विरासत सूची में ‘केदारघाटी का पाण्डव नृत्य’ चयन होता है तो यह विश्व की एक महान सांस्कृतिक विरासत को सम्मान देने जैसा सराहनीय कार्य होगा।
राकेश भट्ट
पाण्डव नृत्य के आयोजक

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