यात्रियों को लुभाते बुग्याल
उत्तराखंड आस्था, भक्ति और प्राकृतिक सौंदर्य का मिला जुला संगम है। जून 2013 की जलप्रलय के बाद से उत्तराखंड के पर्यटन और तीर्थाटन पर बुरा असर पड़ा है। इसमें चार धामों की यात्रा पर संकट खड़ा हो गया था, लेकिन आगामी वर्ष में बदरीनाथ यात्रा बेहतर चलने के संकेत मिलने लगे हैं। राज्य में सरकार ने खस्ता हाल मार्गों की मरमत पर ध्यान दिया तो अगले साल से उत्तराखंड का पर्यटन-तीर्थाटन पटरी पर दौड़ने लगेगा। आगामी वर्ष में धाम में दर्शनों के बाद रहने के लिए तीर्थयात्रियों की ओर से यहां होटल और लाज मालिकों को एडवांस बुकिंग मिलने लगी हैं। बताया जा रहा है कि अभी तक धाम के होटल, लाज व्यवसायियों को करीब दस हजार तीर्थयात्रियों के ठहरने और खाने की बुकिंग मिल गई हैं। बदरीनाथ में मई २१५ माह में कपाट खुलने के तुरंत बाद दो श्रीमद्देवी भागवत और यज्ञ भी प्रस्तावित हैं। बदरीनाथ में होटल व्यवसायी डा. जमुना प्रसाद रैवानी का कहना है कि आगामी वर्ष की तीर्थयात्रा के लिए दिल्ली के करीब तीन हजार तीर्थयात्रियों के बदरीनाथ धाम आने की बुकिंग मिली हैं। इस वर्ष कुछ तीर्थयात्री बदरीनाथ धाम की तीर्थयात्रा पर आए थे, जो होटल में बुकिंग करके चले गए हैं। धाम में जैन धर्मशाला, सरोवर पोर्टिको, स्नो क्रेस्ट, नारायण पैलेस, बदरी बिला और शंकर श्री में तीर्थयात्रियों ने मई से जून माह तक की बुकिंग कराई हैं। बदरीनाथ में होटल व्यवसायी शंकर श्री, अमित त्रिपाठी और सरोवर पोर्टिको के मैनेजर हरि बल्लभ सकलानी का कहना है कि एडवांस बुकिंग मिलने से आगामी वर्ष की तीर्थयात्रा बेहतर चलने की उम्मीद जगी है। कोलकाता के श्र(ालु मनोज सराफ ने बदरीनाथ धाम की आगामी दस साल तक की अभिषेक पूजा और केदारनाथ में रुद्राभिषेक पूजा के लिए एडवांस बुकिंग कर ली है। इसके लिए श्र(ालु ने बदरीनाथ- केदारनाथ मंदिर समिति को दस लाख रुपये नगद भुगतान भी कर दिया है। एक श्र(ालु के सोजन्य से तो आगामी दस वर्ष तक बदरीनाथ की अभिषेक और केदारनाथ की रुद्राभिषेक पूजा संपन्न कराई जाएगी। बदरीनाथ धाम की तीर्थयात्रा के आगामी वर्ष बेहतर चलने की उम्मीद है। उम्मीद है कि यात्रा शुरू होने से पहले बदरीनाथ हाईवे भी चाक-चैबंद हो जाएगा। धाम में पहुंचने वाले तीर्थयात्रियों को पूरी सुविधाएं दी जा रही हैं। केदारनाथ धाम की तीर्थयात्रा भी आगामी वर्ष पटरी पर लौट जाएगी।
चलिए अब बात करते हैं उत्तराखंड के चारधामों की। केदारनाथ धाम, जहां स्वयं भगवान शिव स्वयं पंच केदार के रूप में बिराजते हैं। मई माह से ही इन चार धाम यात्रा की शुरुआत हो जाती है। उत्तराखंड के रूद्रप्रयाग जनपद में भगवान केदारनाथ जी का पावन मंदिर स्थित है, जो जनआस्था के साथ ही प्रकृति के अद्भुत सौंदर्य आस्था और भक्ति के संगम के रूप में सदियों से जाना जाता है। यहां पहुंचने के लिए पर्यटकों एवं तीर्थ यात्रियों को दुर्गम पहाड़ियों सर्पनुमा सड़कों एवं जंगली मार्गों से होकर गुजरना होता है। इसके बाद यात्रियों को 14 किलोमीटर की यात्रा पगडंडियों से गुजर कर धाम तक पहुंचना होता है। धाम मार्ग में जाते समय यात्रियों को पहाड़ों से उतरती मंदाकिनी नदी के दूध सदृश्य जल का अद्भुत दर्शन होता है। मंदाकिनी नदी चैराबारी स्थित हिमनद के कुंड से निकलती है। केदारनाथ धाम की ऊंचाई समुद्र तल से 3562 मीटर है। इस मंदिर का निर्माण पांडव काल में कत्थूरी शैली में किया गया है, जिसका जीर्णेा(ार आद्यगुरू जगत गुरू शंकराचार्य जी ने करवाया था। मंदिर के गर्भगृह में सदाशिव की प्राण प्रतिष्ठा की गई है। पंच रूपों में शिव की स्थापना के कारण ही पंचकेदार की मान्यता प्राप्त है। केदारनाथ ज्योर्तिलिंग भगवान शिव के बारह ज्योर्तिलिंगों में एक है। इसका स्पष्ट उल्लेख महाभारत पुराण में मिलता है। पुराणों में ऐसा उल्लेख है कि केदारनाथ में भगवान श्री के शिव लिंग, तुंगनाथ में बाहु, रूद्रनाथ में मुंख, श्रीमध्यमहेश्वर में नाभी एवं कल्पेश्वर में जटा की पूजा होती है। केदारनाथ धाम के प्रवेश द्वार पर नंदी जी की जीवंत मूर्ति की स्थापना की गई है। हर वर्ष 6 माह तक मई से अक्टूबर मास तक श्र(ालुओं को धाम में दर्शन-पूजन की सुविधा प्राप्त होती है। इस धाम के निकट ही पर्यटकों के खास आकर्षण का केंद्र गांधी सरोवर एवं बासुकी ताल भी स्थित है। इस इलाके के नागनाथ, शरदोत्सव, जोशीमठ का शरदोत्सव, शिवरात्रि का मेला, गोपेश्वर नंदा देवी, नौटी, नवमी जसोली हरियाली, रूपकुंड महोत्सव, बेदनी बुग्याल, कृष्णा मेला जोशीमठ, गोचर मेला, सहित अनसूइया देवी सहित कई मेले जनता में खासे लोकप्रिय हैं।
मंदाकिनी एवं अलकनंदा नदी के मध्य रूद्रनाथ गुहा मंदिर स्थित है। यहां गुहा कि एक भित्ति बनाकर बंद कर दिया गया है, जिसके आंतरिक भाग में एक प्राचीन शिव लिंग स्थित है, जिस पर जल की बूंदे सदैव टपकती रहती हैं। कल्पेश्वर, कल्पगंगा घाटी में स्थित है, जिसके संदर्भ में केदारखंड में ऐसी मान्यता है कि यही दुर्वासा )षि ने कल्पवृक्ष के नीचे तपस्या की थी। यही से कल्प गंगा नाम की नदी भी प्रवाहित होती हैं। जिसका प्राचीन नाम हिरण्यवती था। इसी के दाएं तट पर दुर्वासा भूमि है, जहां ध्यानबद्री का मंदिर स्थित है। जिसके गर्भ में स्वंयभू शिव लिंग के विराजमान होने की मान्यता है। मध्यमहेश्वर जी का धाम इन पंच
केदारों में सर्वाधिक आकर्षक है।
इस मंदिर का शिखर स्वर्णकलश से अंलकृत है। इसके पृष्ठ भाग में हर गौरी की प्रतिमा है। छोटे मंदिर में माता पार्वती जी की मूर्ति भी स्थित है। मंदिर के मध्य भाग में नाभि क्षेत्र के समान एक शिवलिंग भी स्थित है। इस शिव लिंग के संदर्भ में कहावत है कि इसके दर्शन मात्र से मानव को स्वर्ग के वास का अधिकार मिलता है। इस मध्यमहेश्वर से मात्र दो किलोमीटर की दूरी पर मखमली घास सहित फूलों की घाटी के साथ ही बूढ़ा मध्यमहेश्वर नाथ के साथ क्षेत्रपाल देवता के दर्शन होते हैं। इस इलाके में मात्र 7 किलोमीटर की दूरी पर कालीमठ के नाम से विख्यात महाकाली का भव्य मंदिर स्थित है। तुंगनाथ जी चंद्रशिला शिखर के नीचे स्वंय विराजमान हैं। तरासे प्रस्तरों से निर्मित यह मंदिर लगभग ग्यारह मीटर ऊंचा है। इसके शिखर पर 1.6 मीटर ऊंचा स्वर्ण कलश स्थित है। यहां से ग्यारह किलोमीटर की दूरी पर देवरिया ताल स्थित है, जो एक मनोहारी पर्यटक स्थल के रूप में विख्यात है। इस धाम में पहुंच कर पांडवों को नाना पापों से मुक्ति मिलने की चर्चा इस धाम को पाप मुक्ति धाम के रूप में भी मान्यता दिलाता है। केदारनाथ के साथ पंचकेदार के दर्शन का फल आज भी श्र(ालुओं में मान्यता प्राप्त है। वैसे तो देव भूमि के कण-कण में भगवान के वास होने की मान्यता से हर भारतवासी सनातनी हिंदू श्र(ालु इन धामों में दर्शन के लिए खिंचा आता है। प्रकृति की मनोहरी रमणियता पर्यटकों को भी बरबस खींच लाती है, जिसके कारण उत्तराखंड को विश्व पर्यटन के मानचित्र में भी मान्यता प्राप्त है। पर्यटन राज्य होने के कारण सूबे की सरकार के साथ भारत सरकार भी यहां आने वाले पर्यटकों को अनेक सुविधाएं प्रदान करती है। उत्तराखंड की सरकार की पहल से चार धाम यात्रा के लिए हवाई यात्रा की सुविधा भी आरंभ हो चुकी है, जिससे यात्रियों की संख्या में दिनों दिन बढ़ोतरी हो रही है। उत्तराखंड में चारधाम के साथ यहां पंचबदरी और पंच केदार के साथ पंच प्रयाग बुग्याल और बहुत कुछ और भी है। यहां आकर तीर्थयात्री और पर्यटक बरबस इसी प्राकृतिक सौंदर्य के साथ
यहां से अपने मन कोमोहने में लगा रहताहै।देवभूमि में बदरी-केदार धाम का जितना महात्म्य है, उतना ही पंच बदरी का भी। असल में ये मंदिर भी बदरी-केदार धाम के ही अंग हैं। हालांकि, इनमें कुछ स्थल सालभर दर्शनार्थियों के लिए खुले रहते हैं, लेकिन बाकी में चारधाम सरीखी ही कपाट खुलने व बंद होने की परंपरा है।
पांच केदारश्री केदारनाथ धाम-गिरिराज हिमालय की केदार नामक चोटी पर अवस्थित है देश के बारह ज्योतिर्लिंगों में सर्वोच्च केदारनाथ धाम। कहते हैं कि समुद्रतल से 11746 फीट की ऊंचाई पर केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग के प्राचीन मंदिर का निर्माण पांडवों ने कराया था। पुराणों के अनुसार केदार महिष अर्थात् भैंसे का पिछला अंग ;भागद्ध है। मंदिर की ऊंचाई 80 फीट है, जो एक विशाल चबूतरे पर खड़ा है।
तुंगनाथ-तृतीय केदार के रूप में प्रसि( तुंगनाथ मंदिर सबसे अधिक समुद्रतल से 3680 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यहां भगवान शिव की भुजा के रूप में पूजा-अर्चना होती है। चंद्रशिला चोटी के नीचे काले पत्थरों से निर्मित यह मंदिर हिमालय के रमणीक स्थलों में सबसे अनुपम है। तुंगनाथ मंदिर के विषय में एक प्राचीन पौराणिक कथा प्रचलित है। कथा महाभारत के मुख्य पात्रों से संबन्धित है।
कथा के अनुसार जब पांच पांडवों पर अपने परिवार के भाईयों की हत्या का आरोप लगा, तो अपने भाईयों की हत्या करने का उन्होंने जो पाप किया था, उस पाप के श्राप के रुप में उन्हें बैल का रुप दे दिया गया। पांडवों ने इन स्थानों में प्रत्येक मंदिर में पांच केदार का निर्माण किया गया। इस दुनिया में तुंगनाथ मंदिर को चोटियों का स्वामी कहा जाता है। इस मंदिर के विषय से जुड़ी एक मान्यता प्रसि( है कि यहां पर शिव के हृदय और बाहों की पूजा होती है। इस मंदिर की पूजा का दायित्व यहीं के एक स्थानीय व्यक्ति को दिया गया है। समुद्रतल से इस मंदिर की ऊंचाई 12000 फीट से अधिक है। इसी कारण इस मंदिर के सामने पहाड़ों पर बर्फ जमी रहती है। अन्य चार धामों की तुलना में यहां पर श्र(ालुओं की भीड़ कुछ कम होती है. परन्तु फिर भी यहां अपनी मन्नतें पूरी होने की ख्वाहिश में आने वालों की संख्या कुछ कम नहीं है। इस मंदिर में तीर्थयात्री हजारों की संख्या में प्रत्येक वर्ष पहुंचते है। इस स्थान से एक अन्य कथा जुड़ी हुई है, कि भगवान राम से रावण का वध करने के बद ब्रह्माहत्या शाप से मुक्ति पाने के लिये उन्होंन यहां पर शिव की तपस्या की थी। तभी से इस स्थान का नाम चंद्रशिला भी प्रसि( है. यहां से बद्रीनाथ, नीलकंठ, पंचचूली, सप्तचूली, बंदरपूंछ, हाथी पर्वत, गंगोत्री व यमनोत्री के दर्शन भी होते है। पंचकेदार की कथा ऐसी मानी जाती है कि महाभारत के यु( में विजयी होने पर पांडव भ्रातृहत्या के पाप से मुक्ति पाना चाहते थे. इसके लिए वे भगवान शंकर का आशीर्वाद पाना चाहते थे, लेकिन वे उन लोगों से रुष्ट थे। भगवान शंकर के दर्शन के लिए पांडव काशी गए, पर वे उन्हें वहां नहीं मिले। वे लोग उन्हें खोजते हुए हिमालय तक आ पहुंचे। भगवान शंकर पांडवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे, इसलिए वे वहां से अंर्तध्यान हो कर केदार में जा बसे। इस पर भीम ने अपना विशाल रूप धारण कर दो पहाड़ों पर पैर फैला दिया। अन्य सब गाय-बैल तो निकल गए, पर शंकर जी रूपी बैल पैर के नीचे से जाने को तैयार नहीं हुए। भीम बलपूर्वक इस बैल पर झपटे, लेकिन बैल भूमि में अंर्तध्यान होने लगा। तब भीम ने बैल की त्रिकोणात्मक पीठ का भाग पकड़ लिया। भगवान शंकर पांडवों की भक्ति, संकल्प देख कर प्रसन्न हो गए। उन्होंने तत्काल दर्शन देकर पांडवों को पाप मुक्त कर दिया। उसी समय से भगवान शंकर बैल की पीठ की आति-पिंड के रूप में श्री केदारनाथ में पूजे जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि जब भगवान शंकर बैल के रूप में अंर्तध्यान हुए, तो उनके धड से ऊपर का भाग काठमाण्डू में प्रकट हुआ। अब वहां पशुपतिनाथ का मंदिर है। शिव की भुजाएं तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथ में, नाभि मदमदेश्वर में और जटा कल्पेश्वर में प्रकट हुए। इसलिए इन चार स्थानों सहित श्री केदारनाथ को पंचकेदार कहा जाता है। यहां शिवजी के भव्य मंदिर बने हुए हैं।
रुद्रनाथ-यह मंदिर समुद्रतल से 2286 मीटर की ऊंचाई पर एक गुफा में स्थित है, जिसमें भगवान शिव की मुखाकृति की पूजा होती है। रुद्रनाथ के लिए एक रास्ता उर्गम घाटी के दमुक गांव से गुजरता है। लेकिन, बेहद दुर्गम होने के कारण श्र(ालुओं को यहां पहुंचने में दो दिन लग जाते हैं। इसलिए वे गोपेश्वर के निकट सगर गांव होकर ही यहां जाना पसंद करते हैं।
मद्महेश्वर-चैखंभा शिखर की तलहटी में 3289 मीटर की ऊंचाई स्थित मद्महेश्वर मंदिर में भगवान शिव की पूजा नाभि लिंगम् के रूप में की जाती है। पौराणिक कथा के अनुसार नैसर्गिक सुंदरता के कारण ही शिव-पार्वती ने मधुचंद्र रात्रि यहीं मनाई थी। मान्यता के अनुसार यहां का जल इतना पवित्र है कि इसकी कुछ बूंदें ही मोक्ष के लिए मानी जाती हैं।
कल्पेश्वर-यहां भगवान शिव की जटा पूजी जाती हैं। कहते हैं कि इस स्थल पर दुर्वासा )षि ने कल्पवृक्ष के नीचे घोर तपस्या की थी। तभी से यह स्थान कल्पेश्वर या कल्पनाथ के नाम से प्रसि( हुआ। श्र(ालु 2134 मीटर की ऊंचाई पर स्थित कल्पेश्वर मंदिर तक 10 किमी की पैदल दूरी तय कर उसके गर्भगृह में भगवान शिव की जटा जैसी प्रतीत होने वाली चट्टान तक पहुंचते हैं। गर्भगृह का रास्ता एक प्राकृतिक गुफा से होकर है।
पांच बदरी
श्री बदरी नारायण-समुद्रतल से 3133 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है भूबैकुंठ बदरीनाथ धाम। माना जाता है कि शंकराचार्य ने आठवीं शताब्दी में इसका निर्माण कराया था। वर्तमान में शंकराचार्य की निर्धारित परंपरा के अनुसार उन्हीं के वंशज नंबूदरीपाद ब्राह्मण भगवान बदरीविशाल की पूजा करते हैं।
आदि बदरी-कर्णप्रयाग-रानीखेत मार्ग पर अवस्थित है। यह तीर्थ स्थल 16 मंदिरों का एक समूह है, जिसका मुख्य मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है। मंदिर समूह के सम्मुख एक जलधारा, जो उत्तर वाहिनी गंगा के नाम से प्रसि( है, प्रवाहित होती है। माना जाता है कि यह तीर्थ स्थल गुप्तकाल में आदि शंकराचार्य ने स्थापित किया।
वृ(बदरी- बदरीनाथ से आठ किमी पूर्व 1380 मीटर की ऊंचाई पर अलकनंदा के सुरम्य धारों में स्थित है वृ( बदरी धाम। इस मंदिर की खासियत इसका सालभर खुले रहना है। इसे पांचवां बदरी कहा गया है।
योग-ध्यान बदरी-जोशीमठ से 20 किमी दूर 1920 मीटर की ऊंचाई दूर पांडुकेश्वर नामक स्थान पर स्थित हैं तृतीय योग-ध्यान बदरी। पांडु द्वारा निर्मित इस मंदिर के गर्भगृह में कमल पुष्प पर आसीन मूर्तिमान भगवान योगमुद्रा में दर्शन देते हैं।
भविष्य बदरी- समुद्रतल से 2744 मीटर की ऊंचाई पर तपोवन से चार किमी पैदल मार्ग पर स्थित हैं भविष्य बदरी। कहते हैं कि अगस्त्य )षि ने यहां तपस्या की थी। लेकिन, विकट चढ़ाई के कारण शारीरिक रूप से फिट यात्री ही यहां पहुंच पाते हैं।
पंच प्रयाग
नदियों के संगम को पंच प्रयाग कहा जाता हैं। उत्तराखंड के प्रसि( पंच प्रयाग देवप्रयाग रुद्रप्रयाग कर्णप्रयाग नन्दप्रयाग तथा विष्णुप्रयाग मुख्य नदियों के संगम पर स्थित हैं ।
देवप्रयाग-अलकनंदा तथा भगीरथी नदियों के संगम पर देवप्रयाग नामक स्थान स्थित है। इसी संगम स्थल के बाद इस नदी को गंगा के नाम से जाना जाता है । यह समुद्र सतह से १५00 फीट की ऊंचाई पर स्थित है । देवप्रयाग की )षिकेश से सडक मार्ग दूरी ७0 किमी है । गढवाल क्षेत्र मे भगीरथी नदी को सास तथा अलकनंदा नदी को बहू कहा जाता है। देवप्रयाग में शिव मंदिर तथा रघुनाथ मंदिर है, जो की यहां के मुख्य आकर्षण हैं। रघुनाथ मंदिर द्रविड शैली से निर्मित है। देवप्रयाग को सुदर्शन क्षेत्र भी कहा जाता है। देवप्रयाग में कौवे दिखायी नहीं देते, जो की एक आश्चर्य की बात है ।
रुद्रप्रयाग-मन्दाकिनी तथा अलकनंदा नदियों के संगम पर रुद्रप्रयाग स्थित है । संगम स्थल के समीप चामुंडा देवी व रुद्रनाथ मंदिर दर्शनीय है। रुद्रप्रयाग )षिकेश से १३९ किमी की दूरी पर स्थित है । यह नगर बद्रीनाथ मोटर मार्ग पर स्थित है। यह माना जाता है कि नारद मुनि ने इस पर संगीत के गूढ रहस्यों को जानने के लिये रुद्रनाथ महादेव की अराधना की थी।
कर्णप्रयाग-अलकनंदा तथा पिण्डर नदियों के संगम पर कर्णप्रयाग स्थित है । पिण्डर का एक नाम कर्ण गंगा भी है, जिसके कारण ही इस तीर्थ संगम का नाम कर्णप्रयाग पडा। यहां पर उमा मंदिर और कर्ण मंदिर दर्शनीय है।
नन्दप्रयाग-नन्दाकिनी तथा अलकनंदा नदियों के संगम पर नन्दप्रयाग स्थित है। यह सागर तल से २८0५ फीट की ऊंचाई पर स्थित है। यहां पर गोपाल जी का मंदिर दर्शनीय है।
विष्णुप्रयाग-धौली गंगा तथा अलकनंदा नदियों के संगम पर विष्णुप्रयाग स्थित है। संगम पर भगवान विष्णु जी प्रतिमा से सुशोभित प्राचीन मंदिर और विष्णु कुण्ड दर्शनीय हैं। यह सागर तल से १३७२ मी.की ऊंचाई पर स्थित है।
प्रमख नदियां- गंगा, यमुना, काली, रामगंगा, भागीरथी, अलकनन्दा, कोसी, गोमती, टौंस, मंदाकिनी, धौली गंगा, गौरीगंगा, पिंडर नयार पिंडर नयार आदि प्रमुख नदियां हैं।
प्रमुख हिमशिखर- नंदा देवी ;7817द्ध,कामेत ;7756द्ध,गंगोत्री ;6614द्ध,माणा ;7273द्ध,चैखंवा ;7138द्ध, त्रिशूल ;7120द्ध, द्रोणगिरि ;7066द्ध,पंचाचूली ;6905द्ध, नंदा कोट ;6861द्ध, केदारनाथ ;6490द्ध, बंदरपूछ ;6315द्ध,नीलकंठ ;5696द्ध, गोरी पर्वत ;6250द्ध, हाथी पर्वत ;6727द्ध, नंदा धुंटी ;6309द्ध, देव वन ;6853द्ध, मृगथनी ;6855द्ध, गुनी ;6179द्ध, यूंगटागट ;6945द्ध।
प्रमुख ग्लेशियर-1. गंगोत्री 2. यमुनोत्री 3. पिण्डर 4. खतलिगं 5. मिलम 6. जौलिंकांग, 7. सुन्दर ढूंगा इत्यादि।
प्रमुख झीलें ;तालद्ध- गौरीकुण्ड, रूपकुण्ड, नंदीकुण्ड, डूयोढ़ी ताल, जराल ताल, शहस्त्रा ताल, मासर ताल, नैनीताल, भीमताल, सात ताल, नौकुचिया ताल, सूखा ताल, श्यामला ताल, सुरपा ताल, गरूड़ी ताल, हरीश ताल, लोखम ताल, पार्वती ताल, तड़ाग ताल ;कुंमाऊँ क्षेत्रद्ध इत्यादि।
प्रमुख दर्रे- बरास- 5365मी.,;उत्तरकाशीद्ध, माणा- 6608मी. ;चमोलीद्ध, नोती-5300मी. ;चमोलीद्ध, बोल्छाधुरा-5353मी.,;पिथौरागड़द्ध, कुरंगी-वुरंगी-5564 मी.; पिथौरागड़द्ध, लोवेपुरा-5564मी. ;पिथौरागड़द्ध, लमप्याधुरा-5553 मी. ;पिथौरागड़द्ध, लिपुलेश-5129 मी.;पिथौरागड़द्ध, उंटाबुरा, थांगला, ट्रेलपास, मलारीपास, रालमपास, सोग चोग ला पुलिग ला, तुनजुनला, मरहीला, चिरीचुन दर्रा।
वन अभ्यारण्य- 1. गोविन्द वन जीव विहार 2. केदारनाथ वन्य जीव विहार 3. अस्कोट जीव विहार 4. सोना नदी वन्य जीव विहार 5. विनसर वन्य जीव विहार।
बीना बेंजवाल
हिमालय पर्वत श्रृंखलाओं पर छितराए तीर्थ स्थलों की यात्रा से पैदा थकान छूमंतर करने की क्षमता यहाँ फैले प्राकृतिक मनोरम दृदृश्यों में खूब है। फिर भी यदि आप तीर्थयात्रा को प्रकृति की यात्रा से भी जोड़ना चाहते हैं तो हिमालय पर स्थित विभिन्न बुग्यालों की यात्रा जरूर करें बल्कि वहाँ ठहरें। हिमालय पर स्थित सर्वाधिक सुंदर स्थलों में से एक इन बुग्यालों पर बिताए हर लम्हे आप जीवन भर याद करेंगे। चारधाम की यात्रा पर निकले हजारों तीर्थयात्री इन बुग्यालों की ओर रुख कर रहे हैं जिसके बारे में कहा जाता है कि कभी यहाँ देवताओं का वास था। पुराणों में वर्णित अनेक कथाओं में यहाँ रहने या कुछ पल बिताने या इस भूमि को किसी अन्य महत्वपूर्ण स्थलों की यात्रा के दौरान अपना मार्ग बनाने के जिक्र आए हैं।
आखिर ऐसा क्यों न हो? दुर्लभ वनस्पतियों और जंतुओं के इस क्षेत्र की ओर आज भी हजारो सैलानी खिंचे चले आते हैं। उनमें क्या देखें, क्या छोड़े की उत्कट दुविधा रहती है। माजातोली और छिपलाकोट बुग्याल तो दुर्लभ वनस्पतियों के भंडार ही माने गए हैं। लगभग 5000 मीटर की ऊँचाई पर सामान्य वनस्पतियाँ समाप्त होने लगती हैं इसे वृक्षरेखा कह लें। वहीं लगभग 5400-5600 मीटर की ऊँचाई से हिमपात होना शुरू होने लगता है इसे हिमरेखा कह सकते हैं। इसी वृक्षरेखा और हिमरेखा के बीच के भूभाग में वनस्पतियों की अनेकानेक दुर्लभ प्रजातियाँ पाई जाती हैं। इनमें से कई रामबाण औषधियाँ भी हैं। नवंबर से मई तक बर्फ से ढके रहने वाले इन बुग्यालों में विपरीत परिस्थितियों में जीवित रहने वाले पौधे अपनी जीवटता का वरदान मनुष्य को भी औषधि के रूप में देते हैं। ये वनस्पतियाँ बर्फ आच्छादित समय में अपनी जड़ों में अपनी ऊर्जा संचित करके रखती हैं। उत्तराखंड के बुग्यालों में 600 प्रजातियों की दुर्लभ वनस्पतियाँ पाई जाती हैं। बहरहाल, उत्तराखंड के चारधाम यात्रा मार्ग से सटे अनेक बुग्याल श्र(ालुओं को बरबस अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं। फूलों की घाटी बदरीनाथ और हेमकुंट साहिब की यात्रा मार्ग से लगभग लगी ही है। पंचकेदार, जिनमें केदारनाथ, कल्पनाथ, मदमहेश्वर, तुंगनाथ, रुद्रनाथ शामिल हैं, के घेरे में फूलों की दर्जनों घाटियाँ आती हैं। ऊखीमठ से चोपता, फिर तुंगनाथ अनसूया देवी तथा दूसरी ओर देवस्थली-वनस्थली सभी से फूलों से लदे बुग्याल हैं। रुद्रनाथ की ओर जाते हुए गोपेश्वर से 10 किलोमीटर दूर पंथार बुग्याल पित्तीधार और रुद्रनाथ के चारों ही ओर सिर्फ फूल ही फूल नजर आते हैं। यहाँ आ रहे सैलानी ब्रह्मा बुग्याल और वहीं से होते हुए मनपई बुग्याल की ओर जरूर जाते हैं। लगभग तीस किलोमीटर के इस मार्ग में तमाम भू भाग पत्थरों को भेद कर जीवित रहनेवाले गुगुलू, पोलीगोनम तथा लाइकेन शैवालों से ढके रहते हैं। रुद्रनाथ से होते हुए सैलानी कल्पनाथ एवं मदमहेश्वर तक निकलते हैं। ब्रह्मा खर्क, गदेला, वंशनारायण से कल्पनाथ की लगभग 20 किलोमीटर लंबी यात्रा के दौरान भी लोगों को अनेक मनोरम घाटियाँ बांहें फैलाए नजर आती हैं। ब्रह्मा बुग्याल, मनपई, वैतरणी, पंचदयूली, पांडवसेरा से मदमहेश्वर की लगभग 40 किलोमीटर की यात्रा के दौरान अनेक घाटियाँ अपनी मखमली फूलदार चादर की खूबसूरती में सैलानियों को बांध रही हैं। ग्वालदम तपोवन के यात्रा मार्ग पर रूपकुंड तथा सप्तकुंड जाते हुए औली वेदनी बुग्याल भी अपनी अनुपम छटा से लोगों को आकर्षित कर रहा है। जोशीमठ जहाँ से बदरीनाथ क्षेत्र की शुरुआत मानी जाती है, से आठ किलोमीटर दूर औली और गुरसों बुग्याल में भी अच्छे-खासे पर्यटक जुट रहे हैं। जोशीमठ से नीति मार्ग में सुरेत, तोलमरा, हिमतोली, धरासी, भुजगारा होते हुए नंदादेवी बुग्याल पहुंचा जा सकता है। इसमें केवल दुर्लभ वनस्पतियाँ ही नहीं, वरन दुर्लभ जंतु भी मिलते हैं। इसी क्षेत्र में स्थित औली में तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर के शीतकालीन खेलों की योजना तक राज्य सरकार बना रही है। वहीं गंगोत्री व यमुनोत्री के मार्ग उत्तरकाशी में भी अनेक बुग्याल हैं जो इस क्षेत्र की प्रसि(ि का कारण बने हैं। पंवाली कांठा में अप्रैल से लेकर सितंबर तक भैंस चराने वाले यायावर गुज्जर निवास करते हैं। ऐसे में यहाँ आने वाले ट्रैकर एवं यात्री इन्हीं गुज्जरों के डेरों में भी ठहरते हैं। यहाँ से हिमशिखरों की एक पूरी पंक्ति दिखती है। इनमें द्रौपदी का डांडा, जोगिन, नीलकंठ, बंदरपूंछ, मेरु, सुमेरु, स्फटिक, चैखंबा आदि प्रमुख हैं। इस बुग्याल के निचले भूभाग में दिखते मोरु, खिर्सू, देवदार और भोजवृक्ष आदि पेड़ों के सघन वन और फूलों की सैकड़ों प्रजाति यात्रियों में अद्भुत ऊर्जा भरती है। हिमपथी, मैना और कस्तूरीमृग यहाँ के दुर्लभ जीव हैं। यहाँ पास ही भट्या बुग्याल स्कीइंग करने वालों का सर्वाधिक आकर्षक क्षेत्र है। पंवाली के उत्तर पश्चिम में क्यारी बुग्याल, पूरब में ताली बुग्याल तथा उत्तर में दर्जन भर अन्य खूबसूरत बुग्यालों की श्रृंखलाएं हैं। पंचकेदार के तुंगनाथ मंदिर के दर्शनार्थ आ रहे तीर्थयात्रियों को यहाँ 3200 से 4200 मीटर की ऊँचाई पर फैले बुग्याल आकर्षित करते हैं। यहाँ पाए जाने वाले 200 प्रकार की दुर्लभ वनस्पतियों में मीठा विष, अतीस, वेनपसा, वज्रदंती, पाषाणभेद, चैरा, बूटकेशी, सरामांसी, कंडारा, विष कंडारा, चिरायता, लिचकुरा, हयाजती आदि महत्वपूर्ण औषधि प्रजातियाँ मिलती हैं। केदारनाथ तथा बदरीनाथ के निकट स्थित बुग्याल खूबसूरत और दुर्लभ वनस्पतियों से लकदक हैं। यहाँ आज भी 250 प्रकार की दुर्लभ प्रजातियाँ मिलती हैं। रुद्रनाथ में लगभग 3400 मीटर की ऊँचाई के बाद जंगल कमोवेश खत्म होने लगता है और पूरा क्षेत्र बुग्यालों में तब्दील दिखता है। यहाँ 150 से भी अधिक प्रकार की दुर्लभ वनस्पति प्रजातियाँ बहुतायत में पाई जाती हैं। उत्तरकाशी में हर की दून घाटी की प्रसि(ि भी सैलानियों को खूब रिझा रही है। यहाँ के बुग्याल से स्वर्गरोहिणी पर्वत पर आरोहण के लिए रास्ता जाता है। मान्यता है कि जीवन के अंत में द्रौपदी के साथ पांडव इसी पर्वत शिखर से स्वर्ग की ओर गए थे। इसी घाटी की रूपिन व सुपिन नदियाँ आगे जाकर टौंस नदी बन जाती हैं। केदारखंड और मानसखंड के रूप में उत्तराखंड दो भागों में बंटा है। गंगा द्वार यानी हरिद्वार से लेकर महाहिमालय तक तथा तमसा के तट से लेकर बौ(ांचल या नंदा पर्वत बधाण नंदादेवी तक विस्तृत पचास योजन लंबा और तीस योजन चैड़ा क्षेत्र केदारखंड तो प्राचीन समय से साक्षात स्वर्गभूमि ही माना जाता है। कहते हैं कि इस पुनीत भूमि के दर्शन के लिए देवता भी उतावले रहते हैं। कहीं न कहीं यहाँ की खूबसूरती को लेकर ही ऐसी आस्था पैदा हुई हैं।यह क्षेत्र प्राचीन काल से ही नैसर्गिक सौंदर्य एवं सांस्कृतिक परंपरा का वाहक रहा है। गंगा, यमुना, भागीरथी, अलकनंदा, मंदाकिनी, पिंडर, टोंस, धौली एवं भिलंगना आदि नदियों का उद्गम भी इसी क्षेत्र से होता है। इस क्षेत्र में हिमशैलों सहित तटों एवं नदी के संगमों पर चरक, व्यास, पाणिनि, भृगु, अगस्त्य और भारद्वाज जैसे )षियों ने जप-तप-योग साधना की थी और उनसे जुड़े विभिन्न आख्यान प्रचलित हुए। महामुनि वेदव्यास ने हिमालय के इसी प्रदेश की एक निर्झरणी के तट पर तपोवन के समीप बैठकर महान ग्रंथों की रचना की थी। महाकवि कालीदास का भी तपस्थल यही था। जाहिर है, उन्होंने यहाँ की खूबसूरती पर रीझकर ही इसे स्वप्नपुरी बताया होगा। इस क्षेत्र के उत्तर में गंगा और दक्षिण में छोटी-बड़ी जल धाराएँ असंख्य जलस्रोत से निकलकर अंततः गंगा में समा जाती हैं और इसी भू भाग को मध्य से काटते हुए खूबसूरत यात्रा पथ श्री केदारनाथ, श्री बदरीनाथ, यमुनोत्री व गंगोत्री के लिए जाते हैं। जाहिर है, तीर्थ की थकान उतारने में यहाँ स्थित झोपड़ियों और टेंटों में विश्राम अमृत की तरह काम करता है। खैर, चारधाम प्रदेश की घाटियों में श्सत्यं शिव सुंदर का बजता अनहद नाद सदा से लोगों को आकर्षित करता रहा है और आज भी कर रहा है। यहाँ बड़ी संख्या में ऐसे सैलानी मिल जाते हैं जो यहाँ पुराणों में वर्णित कथाओं के आधार पर विभिन्न मुनियों के तप स्थलों की मूल भूमि तलाशते हैं। उन स्थलों की पूजा की लालसा उनमें देखी जा रही है।