मंगलवार, 11 नवंबर 2014

’’ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्’’

                             ’’ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्’’



 चंपा के लिए आज का दिन सचमुच किसी बडे तीज-त्यौहार से कम नहीं, ’ताराकुंड महौत्सव’ नाम से विख्यात इस मेले में मनोरंजन और मौज-मस्ती के लिएइस पहाडी गाॅव की विवाहिता के सब कुछ है,स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता और जन हितैसियों का चैला ओडे पार्टी और नेताओं के कुछ’’खास लोगों’’ के योगदान से सजा यह मंदिर परिसर, इस पहाडी इलाके केखासो-आम से गुलजार है,अचानक चर्चा में आया यह छोटा सा पौराणिक मंदिर आज हर किसी की जुबान पर था, इसीलिए कुछ बुद्विजीवी-टाईप लोग आदतन बाल की खाल खिचनें पर तुले है, मंदिर का इतिहास, भूगोल,गणित और दर्शन शास्त्र क्या है ? क्यों है ? कहाॅ से इतना पैसा आया है ? बडे-बडे स्टारों पर पानी की तरह पैसा कौेंन और क्यों बहाया जा रहा है ?बच्चों को नौकरी नहीं,मंहगाई संुरसा की तरह रात-दिन बढ रही हैबगैरहा-बगैरहा, पर अपनी चंपा और उसकी कुछ खास सहेलियों को क्या ? उन्हेे तो चारों ओर ओंर आनंद ही आनंद विखरा पडा दिख रहा था। विगत कई वर्षों से पहाड के कई हिस्सों से पौराणिक मठ-मंदिरों और धार्मिक स्थलों पर पर्व-विशेष मनानें की श्रंृखला ही चल पडी है, इस बहानें हजारों-लाखों की इकट्ठी भीड का राजनीतिक फायदा कैसे लिया जाय ? ये हमारे राजनीतिज्ञों से ज्यादा भला कौंन जानता है ? लोंगों की आस्था और विश्वास का राजनीतिकरण अपनें पक्ष में कैसे किया जाता है ? ये उत्तराखण्ड के राजनीतिज्ञों से सीखें। दिसबंर की कडकडाती ठंड मेंखिली धुप वाकई इस पहाडी पर चाॅदनी विखेर रहीं थी,कौथिग में पहाड के नामी-गिरामी गीतारों से सजे मंच पर चल रहे मन-पंसद पहाडी गीत-संगीत की स्वर लहरियों का आनंद, आसपास के गाॅवों और मायके से पहॅुचें लोंगों का लाव-लस्कर, दुकानों में सजी गरमा-गरम जलेबी, पकोडी चाय-पानी का नाश्ता का अपना ही रसास्वादन  था। कौथिग में सैर-सपाटा चल ही रहा था, तभी संगीत रूका और मंच पर प्रकट हुए नेतानुमा सज्जन नें कहा की उद्घाट्न के लिए राज्य के मुख्यमंत्री श्री़.... श्री.. जी पहुॅच चुके हैं, और’‘जिंदाबाद-जिंदाबाद, जय हो,जय हो’’ के नारों और गर्जनाओं से सारा का सारा मेला स्थल, आस-पास की झाडियाॅ, जंगल और जंगल से सटे गाॅवों की सीमाऐं गुॅज उठी, जो जहाॅ था वही अवाक् सा खडा होता दिखाई दिया, हर कोई उस सख्स को देखनें-सुननें के लिए आतुर था,जिसे मुख्यमंत्री कहा जा रहा है, इन सबसे चंपा और उसकी सहेलियों वाकई बिल्कुल अनजान थीं, कौंन मुख्यमंत्री, कैसा मुख्यमंत्री ? गाॅव की इन अनजान लडकियों को ये भी नहीं मालूम था कि राज्य की सरकार का एक मुखिया होता है और उसे ’मुख्यमंत्री’ कहा जाता है,जिसके इर्द-गिर्द सरकार काम करती है, उसी के नेतृत्व, निर्देशन-संचालन में राज्य का विकास  होता है। हालांकि वे कुछ समय से चुनावों में ’वोट’ करती आईं हैं,पर किसको वोट कर रहीं हैं ? उन्हे बिल्कूल नहीं मालूम ं, यह सब उनके गाॅव के मुखिया या कुछ सयानों के कहनें पर ही होता है ? एक डिग्री कालेज के प्रांगण में धुप सेक रहे कुछ छात्र-छात्राओं से जब यह पुछा गया कि कालेज का ’प्रेसीडेंट’ कौंन है ? जिसे आपनें चुना है ? तो जबाब मेंस्थानीय ’विधायक’ का नाम बता कर छात्र-छात्राओं नें उस व्यक्ति को हैरत में डाल दिया। आज के युग की ये भी कितनीं बडी बिडंम्बना है कि पहाडी क्षेत्र की इन लडकियों का सामान्य ज्ञान कितना और विकास कहाॅ है ?नया राज्य बना तो जनता की माॅग पर कई जगहों पर स्कूल-काॅलेज खुब स्वीकृत हुए हैं, पर ये शिक्षा के मंदिर धरातल पर कम आसमान पर टिके ज्यादा प्रतीत होतें हैं, हालात ये हैं कि दुर्गम इलाकों में स्वीकृत या पहले से स्थित विद्यालयों के ठीक-ठाक भवन की कल्पना तो नहीं की जा सकती पर पर जिन के पास थोडा-बहुतं भवन और आवश्यक साजो-सामान है भी, वहाॅ गुरूजी के दर्शन नहीं हो पाते किसी ’नये’ को वहाॅ नियुक्ति मिल भी गई तो भी अपनी ’उॅची पहुॅच’ के कारण जल्दी ही रफूचक्कर हो जाते हैं। तब गुरूजी विहीन शिक्षार्थी का ज्ञान क्या होगा इसका अंदाजा सहज ही लग जायेगा ? पर खैर आसमान से हैलीकाॅफ्टर जमीन पर उतरा और मुख्यमंत्री के रूप में एक सज्जन के दर्शन हो ही गये, चीकनी- चुपडी त्वचा के इस महामानव की सही उम्र का पता लगानें में भी कोई गच्चा खा जाय, सफेद रंग के कुर्ता-पैजामा औरजवाहर कट पहनें फिल्मी हीरो सा दिखनें वाले, इस सज्जन को इन भोले-भाले ग्रामीणका मुख्य सेवक कहीं भी नहीं कहा जा सकता है ? चारों ओंर से ब्लैंक-कंैट कंमाडो से घिरे सैकडों पुलिस कर्मी के साथ जनता के बीच दिख रहे इस सज्जन में वैसे तो बडी आत्मीयता और सहजता दिख रही थी, पर चारों ओंर से लगा तंत्र उस व्यक्ति की भयावहता और खौफनाक दृश्य की तस्वीर पेश कर दे रहा था, भला इस पहाडी क्षेत्र के सहज और भोले-भाले मनुष्यों से किसी को भी किस तरह का खतरा कैंसे हो सकता है ? ये बात राजनीतिज्ञ भी भली प्रकार जानते हैं और प्रशासन भी। यह महज सयोंग ही था कि मुख्यमंत्री जी जब जनता के बीच पहुॅचे तो सीधे चंपा और उसकी सहेलियों के झूंड के आ फटके चंपा की ओंर देखते ही’बेटा’ संबोधन से पुंछनें लगे,तो चंपा भी फट पडी पति नौकरी नहीं करते, बच्चों की संख्या भी इसी उम्र में दो हैं, मायके की परिस्थितियों भी इससे जुदा नहीं हैं। माॅ और पिताजी नें गरीबी और फटेहाल में जींदगी बसर की तो भाईयों की तरक्की भी बीस नहीं है। इस पर राज्य के सुबेदार नें उसे समझाया की आनें वाले दिनों में ये सब मुश्किलात ठीक हो जायेंगें, ’चिंता मत करो’चंपा के लिए यह आश्वासन सोंनें पे सुहागा था, एक तो राज्य के मुख्यमंत्री नें सीधे उससे बात की तो दूसरा इस दरिद्रता से मुक्ति का वादा भी’ यह घटना जंगल में आग की तरह फैल गई, जहाॅ इससे खुशी मिली तो, सहेलियों के बीच ं ईष्र्या की पात्र बन गई। 
अब जब यह राज्य अपना चैदहवाॅ वर्ष गाॅठ मना रहा है तो चंपा सैंतीस की हो जायेगी, महज इसी उम्र में गोद में पाॅच बच्चें और नानी तक का सफर ?पर मुख्यमंत्री जी के ’वादे का साल दर साल इंतजार खत्म नहीं हुआ ?जिन बातों को लेकर राज्य का गठन हुआ था वे धरातल में कहीं नहीं हैं, जिस सपनें के लिए पहाड के लोंगों नें सडकों पर भूखे रह कर कई-कई सालों तक संघर्ष किया था वे कहीं वजूद में ही नहीं दिख रहीं है,नतीजन पहाड में वही बेचारगी, गरीबी और संसाधनों की कमी का रोंना बदस्तुर जारी है,पहाड की जरूरतों के मुताबिक यहांॅ न तो बुनियादी सुविधाओं को जुटाया गया है न हीं उपलब्ध संसाधनों से रोजगार उत्पन्न करनें की संभावनाओं पर सोचा गया, नतीजन पहाड में पलायन राज्य बननें के बाद ज्यादा हुआ, लेकिन जो समर्थ नहीं हैं वे यही गाॅवों में कष्ट के साथ जीवन यापन करनें को मजबूर हैं ? जिन खेत-खलियानों में कभी हमारे पूर्वजों नें सोंना उगला था, आज जंगली जानवरों के निशानें पर हैं, पलायन के कारण गाॅव की आबादी कम हुई तो अधिकाॅश खेती भी बंजर हो गई इन खाली पडे खेतों के कारण भी, आबाद हो रही खेती को नुकसान पहुॅचा है, पिछले कुंभ में हरिद्वार और अन्य मैदानी क्षेत्र के बंदरों को पहाड के जंगलों में छोडा गया था, तत्कालीन सरकार नें इसकी सफलता ढोल खुब पींटे हों, पर पहाडों में इन बंदरों के आतंक नें यहाॅ की आबाद खेती और घरों को बर्बाद करके रख दिया है, हालात ये हैं ये बंदर लोग पर आक्रमण से लेकर घरों में पका-पकाया भोजन चट कर जा रहें हैं घरों में रखी और संभाली फसल और वस्तुओं को भी ये आयातित बंदर भारी नुकसान पहुॅचा रहे हैं।वहीं खेती किसानी करनें वाले लोंगों का मनोबल लगातार गिरता जा रहा है, जिन स्थानों पर नकदी फसलों को उत्पादित किया जा सकता है उनके विपणन और रख-रखाव के लिए उपयुक्त व्यवस्था और कोल्ड स्टोरेज की व्यवस्था केवल कागजों तक सीमित है। कुछ क्षेत्रों में पाये जानें वाले आलू से यहाॅ की अर्थ व्यवस्था को पंख लग सकते हैं, लेकिन उपयुक्त प्रोत्त्साहन और सुविधा के अभाव में किसानों का मनोबल लगातार गिरा है, इस संदर्भ में सरकार का कृर्षि महकमा चिंतित हो ऐसा कभी नहीं लगा। इस संबंध में पहाडी क्षेत्रों के विभिन्न स्थानों की मृदा और भूमि पर कभी शोध-अनुसंधान हुआ ही नहीं,लापरवाह हुक्मरानों नें खेती किसानी से लेकर पर्वतीय क्षेत्रों में पाई जानें वाली दुर्लभतम् जडी-बुटियों के संरक्षण, उत्पादन के लिए भी कोई खास कार्य-योजना तैयार नहीं की, जबकि ये जडी-बुटियाॅ राज्य की अर्थव्यवस्था के साथ-साथ असाध्य रोंगों  के लिए भी वरदान साबित हो सकतीं हैं, हालांकि वन तस्करों से पकडे जानें के कारण इन विलक्षण जडी-बूटियों की चर्चाऐं मीडिया कीं खबरें तो बनती है, पर उनकें संरक्षण के लिए कुछ  नहीं किया गया।
राज्य की भौगोलिक बनावट और नैसर्गिक सौंदर्य की चर्चाऐ ंतो खुब होतीं हैं, पर उनके विकास और प्रचार-प्रसार को लेकर धरातल पर योजना कर नितांत अभाव है,  देव भूमि के नाम से विख्यात यह राज्य अनेक पौराणिक और धार्मिक महत्व की विशेषताओं से अलंकृत और विभूषित है,पर ऐसे कुछ स्थानों को छोड, शेष प्राचीन मंदिरों व स्थान विशेष की जानकारी आम लोंगों तक नहीं,यहाॅ तक की स्थानीय लोंगों को भी इनके महत्व और विशेषताओं का ज्ञान नहीं है। या महत्वपूर्ण विषय पर जानकारों से कोई मशविरा लिया गया है, जनपद गढवाल के पैठाणी कस्बे में स्थित राहु मंदिर देश का एक मात्र राहु मंदिर है,लेकिन दुर्भाग्यवश  इस राज्य के अनेक मुख्यमंत्रियों नें यहाॅ आ कर पूजा-अर्चना की हो, पर इसके महत्व और प्रचार-प्रसार पर मौंन साध लिया,यहाॅ यह तथ्य भी विशेष ध्यान देंने वाला है कि राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके, अब हरिद्वार सांसद डाॅ0 रमेश पोखरियाल निशंक का यह लम्बे समय तक कर्मभूमि रहा है,लिहाजा विधान सभा क्षेत्र होंनें के कारण वे कई मर्तबा यहाॅ आते जाते रहे हैं, जनपद पौडी गढवाल के जिला मुख्यालय से महज 47 किमी0 की दूरी पर थैलीसैंण के पैठाणी कस्बे में आज भी मुलभूत संविधाऐं नहीं जुटाई गईं है, उचित सुविधाओं के अभाव में दर्शनार्थियों और आस्थावानों के लाख चाहनें के बाद भी यह उनके सुलभ नहीं हो पाता,ऐसे ही राज्य में अनेक धार्मिक और पौराणिक किस्म के अनेक मंदिर और  धर्मस्थल हैं, जिनको विकसित किये जानें से यहाॅ नौजवान को आजीविका तो मिलती, साथ ही क्षेत्र विशेष के सर्वोंगिण विकास की ओंर भी ध्यान जाता।तीर्थाटन के साथ-साथ पर्यटनके लिए भी यह पहाडी राज्य मशहुर है,पर यहाॅ भी राज्य सरकार में बैठे निट्ठल्ले हुक्मरानें की उदासीनता दृष्टिगोचर होती है।
इस संबंध में आज तक की सरकारांे के कामकाज पर गौर करें तो एक उदासीन तस्वीर उभर आती है, इस छोटे से राज्य पर इसी छोटे से कार्यकाल में सात लोंगों नें अपनें मुख्यमंत्री बननें हसीन सपनें को साकार कर दिखाया। कैबिनेट मंत्री,राज्य मंत्री, दर्जा धारियों की तो लम्बी फौज है, आखिर उन्होंनें भी किसी का क्या बिगाडा है ? किसी की किस्मत अगर अच्छी है ? तो भला पहाड की इन अधिसंख्यक जनता जर्नाजन को कैसी जलन ? अगर उन्हें पहाड की इन दुर्गम परिस्थितियों में जन्म मिला है तो मंत्री, मुख्यमंत्री अगर तमाम दर्जाधारी महानुभावों की क्या गलती ?इसीलिए जनता के वोट से जीते हमारे महानुभाव सबसे पहले  अपनें रहनें के लिए शानदार आशिंया बना लेते हैं। सरकार पता नहीं कब जाये-आये, फिर जीत आयें इसकी भी क्या गरांटी ? जनता तो जनता है, उनके लिए अच्छे काम करना-न-करना बराबर है। पिछले 13 सालों का इतिहास तो कम से कम यही कह रहा है, येन-केन प्रकारेंण सत्ता हथियायी जाय, बस । हमारे कर्मचारीगणों को भी अच्छी तरह से मालूम है कि राज्य सरकार की कमजोर कडी क्या है, वे अच्छी तरह से जानते हैं।  आये दिन हडताल से जनता हलकान रहती है, आखिर उनकी भी जायज माॅगें है। राज्य जिन उद्देश्यों के लिए बना था उसके बारे में बाद में भी सोचा जा सकता है, फिलहाल तो बस  ़’’ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्’’। ( घीं पीते रहो चाहे कर्ज करके लाना पडे, और देंने की बारी आई मर जाओ, अपना क्या, कर्ज जिसको चुकाना होगा, चुकायेगा)

शनिवार, 8 नवंबर 2014

अमृत वृ(ाश्रम

अमृत वृ(ाश्रम 
विजय कुमार सप्पत्ति
मैंने धीरे से आँखे खोली, एम्बुलेंस शहर के एक बड़े हार्ट हास्पिटल की ओर जा रही थी। मेरी बगल में भारद्वाज जी, गौतम और सूरज बैठे थे। मुझे देखकर सूरज ने मेरा हाथ थपथपाया और कहा, “ईश्वर अंकल, आप चिंता न करे, मैंने हास्पिटल में डाक्टर्स से बात कर ली है, मेरा ही एक दोस्त वहाँ पर हार्ट सर्जन है, सब ठीक हो जायेंगा। “गौतम और भारद्वाज जी ने एक साथ कहा, “हाँ सब ठीक हो जायेंगा। “मैंने भी धीरे से सर हिलाकर हाँ का इशारा किया। मुझे यकीन था कि अब सब ठीक हो जायेंगा।
मैंने फिर आँखे बंद कर ली और बीते बरसो की यात्रा पर चल पड़ा। यादो ने मेरे मन को घेर लिया।
कुछ बरस पहले
कार का हार्न बजा। किसी ने ड्राइविंग सीट से मुंह निकाल कर आवाज लगाई, “अरे चैकीदार, दरवाजा खोलना। “
मैंने आराम से उठकर दरवाजा खोला। एक कार भीतर आकर सीधे पार्किंग में जाकर रुकी। मैं धीरे धीरे चलता हुआ उनकी ओर बढा। कार में से एक युवक और युवती निकले और पीछे की सीट से एक बूढी माता। युवक कुछ बोलता, इसके पहले ही मैंने कहा, “अमृत वृ(ाश्रम में आपका स्वागत है, आफिस उस तरफ है। “
मैंने गहरी नजरों से तीनो को देखा। ये एक आम नजारा था इस वृ(ाश्रम के लिए। कोई अपना ही अपनों को छोडने यहाँ आता था। सभी चुप थे पर लड़के के चेहरे पर उदासी भरी चुप्पी थी। लड़की के चेहरे पर गुस्से से भरी चुप्पी थी और बूढी अम्मा के चेहरे पर एक खालीपन की चुप्पी थी। मैं इस चुप्पी को पहचानता था। ये दुनिया की सबसे भयानक चुप्पी होती है। खालीपन का अहसास, सब कुछ होते हुए भी डरावना होता है और अंततः यही अहसास इंसान को मार देता है।
तीनों धीरे धीरे मेरे संग आफिस की ओर चल दिए। मैं बूढी अम्मा को देख रहा था। वो करीब करीब मेरी ही उम्र कीथी। बहुत थकी हुई लग रही थी, उसके हाथ कांप रहे थे। उससे ठीक से चला भी नहीं जा रहा था। अचानक चलते चलते वो लडखडाई तो मैंने उसे झट से सहारा दिया और उसे अपनी लाठी दे दी। लड़के ने खामोशी से मेरी ओर देखा। मैंने बूढी अम्मा को सांत्वना दी। “ठीक है अम्मा। धीरे चलिए, कोई बात नहीं। बस आपका नया घर थोड़ी दूर ही है। ”मेरे ये शब्द सुनकर सब रुक से गए। युवती के चेहरे का गुस्सा कुछ और तेज हुआ। लड़के के चेहरे पर कुछ और उदासी फैली और बूढी माँ के आँखों से आंसू छलक पडे। युवती गुर्राकर बोली, “तुम्हे ज्यादा बोलना आता है क्या? चैकीदार हो, चैकीदारही रहो”। मैंने ऐसे दुनियादार लोग बहुत देखे थे और वैसे भी मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता था। मैं इन जमीनी बातो से बहुत ऊपर आ चुका था। मैंने कहा, “बीबीजी, मैंने कोई गलत बात तो नहीं कही, अब इनका घर तो यही है। ”युवती गुस्से से चिल्लाई, “हमें मत समझाओ कि क्या है और क्या नहीं। “युवक ने उसे शांत रहने को कहा। बूढी अम्मा के चेहरे पर आंसू अब बहती लकीर बन गए थे।
ये शोर सुनकर आफिस से भारद्वाज और शान्ति दीदी बाहर आये।उन्होंने पुछा, “क्या बात है ईश्वर किस बात का शोर है? ”मैंने ठहर कर कहा”जी, कोई बात नहीं,बस ये आये है। बूढी अम्मा को लेकर।“ युवती फिर भड़क कर बोली, “तुम जैसे छोटे लोगो के मुंह नहीं लगना चाहिए।“ भारद्वाज जी सारा मामला समझ गए। उन्होंने शांत स्वर में कहा, मैडम जी, यहाँ कोई छोटा नहीं है और न ही कोई बड़ा। ये एक घर है, जहाँ सभी एक समान रहते है। और मुझे बड़ी खुशी होती अगर ऐसा ही घर समाज के हर हिस्से में भी रहता!
युवती कसमसा कर चुप हो गयी। युवक ने सभी को भीतर चलने को कहा। जाते जाते बूढी अम्मा ने मुझे पलटकर देखा। मैंने उसे आँखों ही आँखों में एक अपनत्व भरी सांत्वना दी !
आफिस में मैंने बूढी माता के लिए कुर्सी लाकर रख दी। मैं उन सभी को और इस फानी दुनिया के खत्म होते रिश्तो को देखते हुए खुद दरवाजे के पास खड़ा रहा। थोड़ी देर की चुप्पी के बाद युवक धीरे से बोला, भारद्वाज जी, आपसे कल बात हुई थी, मैं अमित हूँ, ये मेरी माँ है। इनके बारे में आपसे बात कीथी। इतना बोलने के बाद वो चुप हो गया। वो असहज सा था। उसका गला रुक रुक जाता था। मैंने अपने लम्बे जीवन में ये सब बहुत देखा था। मैंने युवती की ओर देखा। वो अभी भी गुस्से में ही थी। बूढी अम्मा अपने बेटे की ओर देख रही थी,इस आशा में कि अब जो होने वाला है, वो नहीं होंगा और वो फिर वापस चल देंगे। लेकिन मैं जानता था, ये नहीं होने वाला था।
मैंने चुपचाप अलमारी से रजिस्टर और रसीद बुक निकाल कर भारद्वाज जी के सामने रख दिया। भारद्वाज जी ने अमित को वृ(ाश्रम के खर्चे के बारे में बताया। अमित ने चुपचाप अपने पर्स से रुपये निकाल कर दे दिये और जरुरी कागजात पर दस्तखत कर दिए।
बूढी अम्मा की आँखों से आंसू बहे जा रहे थे वो अब भी अपने बेटे को देखी जा रही थी। भारद्वाज जी ने धीरे से कहा, अब सब ठीक है जी। ये सुनते ही युवती उठकर खड़ी हो गयी चलने के लिए। बूढी अम्मा ने अपने आंसू पोंछ दिए और युवती से कहा, बहु, अमित का ख्याल रखना। युवती ने कोई जवाब नहीं दिया और बाहर की ओर चल दी। युवक बैठा रहा चुपचाप। फिर उसकी आँखों में से भी आंसू टपक पडे। बूढी अम्मा ने कहा, जाने दे बेटा। सब ठीक है। यहाँ ये सब मेरा ख्याल रखेंगे। तू अपना ख्याल रखना, समय पर खाना खा लिया करना। युवक, बूढी औरत के पैरों पर गिर पड़ा और रोने लगा, माँ मुझे माफ कर दे।
माँ बेचारी क्या करती। वो तो है ही ममता की मूरत। उसने उसे उठाया और कहा, अमित, कोई बात नहीं, चलो अपना घर बार संभालो, मेरा क्या है, आज हूँ, कल नहीं। तू जा। हाँ, अब कभी मुझसे मिलने मत आना। युवक अवाक सा चुप खड़ा रहा। ये खामोशी विदाई की थी। ये खामोशी रिश्तो के टूटने की थी। ये खामोशी य इंसान की इंसानियत के मरने की भी थी। इतने में दो आवाजे एक साथ आई। उस युवती की, जो बाहर से चिल्ला रही थी, अब चलो भी, यहीं नहीं रहना है मुझे और दूसरी आवाज शान्ति की थी, जिसने बूढी अम्मा को सहारा देकर अन्दर चलने के लिए कहा था।
युवक चुपचाप हार और बेचारगी को अपने चेहरे पर लिए बाहर की ओर चल दिया। बाहर जाते हुए उसने मुझे कुछ रुपये देने चाहे और कहा, चैकीदार भैय्या, माँ का ख्याल रखना मैंने उसके पैसे वापस लौटाते हुए कहा, माँ का ख्याल तो हम रख लेंगे अमित बाबू। आप सोचो, आपका माँ जैसा ख्याल अब कौन रखेंगा। और यहाँ पैसे नहीं प्यार का सौदा होता है। युवक खामोशी से मुझे देखता रह गया।
युवक- युवती कार की ओर चल दिये, बूढी अम्मा शान्ति दीदी के साथ भीतर की ओर चल दी। भारद्वाज जी मुझे देखते हुए अलमारी की ओर चल दिए और मैं फिर से अपनी जगह गेट पर चल दिया।
मेरे लिए ये कहानी लगभग हर महीने की थी। जब कोई न कोई किसी न किसी अपने को यहाँ छोड़ जाता है। हाँ आज की गाथा थोड़ी अलग सी थी। लड़का जिन्दगी के पेशोपेश में था, पर कायर था, खैर मैंने मन ही मन गिनती की, अब यहाँ २६ लोग हो गए थे। ये वो बूढ़े थे, जिनमें से किसी का कोई नहीं था, इसीलिए वो यहाँ थे और किसी का हर कोई होते हुए भी यहाँ था। कोई गरीब था, कोई अमीर था, पर एक बात सबमे एक समान थी,वो ये कि सबके सब इस जगह पर अकेले ही बन कर आये। और यहाँ आकर एक दुसरे से मानसिक और भावनात्मक रूप से जुड़ गए। यहाँ की बात कुछ और है। यहाँ सबको एक अपनापन मिलता है। घर से अलग होकर भी यहाँ घर जैसा प्रेम और अपनत्व मिलता है।
बहुत बरस पहले
इस जगह का नाम अमृत वृ(ाश्रम था। और मेरा नाम ईश्वर। पता नहीं मेरी माँ ने क्या सोच कर मेरा नाम इतना अच्छा रखा था। जब मैं बीस बरस का था, तब मैं अपनी माँ के साथ अपना गाँव छोड़कर यहाँ आया था, तब ये एक छोटा सा हास्पिटल था। डाक्टर अमृतलाल नामक सज्जन इस जगह के मालिक थे। इस हास्पिटल में माँ का इलाज होने लगा और फिर मुझे भी कहीं नौकरी चाहिए थी सो मैं इस हास्पिटल का वार्ड बाय ़ चैकीदाऱ सारे बचे हुए काम करने वालाबन गया था। माँ का बहुत इलाज हुआ, उसे टी बी थीपर वो बच नहीं सकी। करीब एक साल के बाद वो चल बसी। अब मेरा इस दुनिया में कोई नहीं था, सो मैं यही का होकर रह गया। धीरे धीरे अमृतलाल जी का मैं विश्वसनीय बन गया। हास्पिटल बड़ा होने लगा, लोग आने लगे। अमृतलाल जी का यहाँ कोई न था जो यहाँ रह सके। एक अकेला बेटा गौतम था जो कि डाक्टर बनने की चाह में चंडीगढ़ में एम.बी.बी.एस. कर रहा था। ये उसका आखरी साल था। अमृतलाल जी चाहते थे कि वो यहीं इसी जनता हास्पिटल में आकर काम करे। लेकिन उसके इरादे कुछ और थे, वो आगे की पढाई के लिए लन्दन जाना चाहता था और इसी बात पर अक्सर दोनों पिता पुत्र में तेज बातचीत हो जाती थी।
हास्पिटल बढ़ रहा था, सस्ता हास्पिटल होने की वजह से बहुत से गरीब यहाँ आते थे। अमृतलाल जी की पुस्तैनी संपत्ति से ये हास्पिटल चल रहा था। मैं हास्पिटल का हर काम कर लेता था। सब मुझे पसंद भी करते थे। मैं मेहनती था और माँ के गुजरने के बाद हर किसी की सेवा करता था। और सभी इसी सेवाभाव से खुश थे। अमृतलाल जी मेरा ख्याल रखते थे। मैं उन्ही के साथ उन्ही के घर पर रहता था। एक दिन उनके मित्र भारद्वाज जी उनसे मिलने आये। दोनों बहुत सालों के बाद मिले थे। मैंने उनके लिए खाना बनाया। खाने के दौरान भारद्वाज जी ने अमृतलाल जी से कहा कि उनकी बहु उनसे ठीक बर्ताव नहीं करती है और वो बहुत दुखी हैं। अमृतलाल ने बिना सोचे कहा कि वो यही आकर रहे और उनके साथ इस हास्पिटल की देखभाल करे। भारद्वाज को जैसे मन चाहा वरदान मिल गया। वो यही रह गए। अमृत जी का घर बड़ा सा था, मैं उन के लिए खाना बनाता, घर का रखरखाव करता और वहीं रहता। दोपहर में हास्पिटल के छोटे बड़े काम करता। बस जिन्दगी कट रही थी। ये हास्पिटल एक बहुत बड़े परिवार का अहसास दिलाते रहता था।
मेरे मन में कभी शादी करने का ख्याल भी नही आया। काम इतना रहता था कि किन्हीं और बातोंके लिए समय ही नहीं मिल पाता था। इतने सारे लोगो की सेवा में मुझे बहुत खुशी मिलती,बदले में मुझे आशीर्वाद और प्रेम ही मिलता। सब ने मुझे हमेशा अपना ही समझा।
समय बीतने के साथ भारद्वाज जी ने उस हास्पिटल के पिछले हिस्से में एक वृ(ाश्रम खोला। जहाँ उन बूढ़े व्यक्तियों को रहने की व्यवस्था की गयी थी, जिनका सब कुछ होकर भी, कहीं कोई नहीं था, कहीं कुछ नहीं था। मैंने धीरे धीरे ये हिस्सा संभालना सीख लिया। मेरे विनम्र और दयालु स्वभाव की वजह से सब मुझे अपना ही मानने लगे।
एक दिन भारद्वाज का लड़का आया अपनी पत्नी के साथ, जायदाद मांगने के लिए। खूब हंगामा हुआ, भारद्वाज जी ने गुस्से में सारी जायदाद इस वृ(ाश्रम के नाम लिख दीऔर उसी वक्त से अपने बेटे,बहु से रिश्ता तोड़ लिया। मैं अवाक था। मैंने अक्सर यहाँ एक घर को टूटते और दुसरे घर को बनते देखा है।
हम तीनो मैं, अमृतलाल जी और भारद्वाज जी दीन दुखियों की सेवा में ही अपना सारा सुख ढूंढते थे। फिर वो दिन भी आ ही गया जो मुझे कभी पसंद नहीं था। अपनी पढाई पूरी करके अमृतलाल जी का लड़का लन्दन जाने की तैयारी के साथ आया और अमृतलाल जी को अपना फैसला सुना दिया। अमृतलाल जी ने कहा, ठीक है पढाई पूरी करके वापस आ जाओ ‘और ये हास्पिटल संभालो, लड़के ने मना कर दिया। लड़के ने खुले रूप से कहा कि वो इन गरीबों के लिए नहीं बना है और न ही वो कभी यहाँ आना चाहेगा। उसने पिताजी से कहा, या तो वो उसके साथ चले या यहीं रहें। अमृतलाल जी अवाक रह गए। उन्होंने कहा, ये मेरा घर है, ये सभी मेरे अपने लोग, मैं इन्हें छोड़कर कहाँ जाऊं, मैं ही इन सबका सहारा हूँ। लड़के ने कहा आप ने इन सब का ठेका नहीं लिया हुआ है। मैं आपका अपना बेटा हूँ, आपका खून हूँ, आपको मेरा साथ देना चाहिए। अमृतलाल जी ने कहा, डाक्टर तू बना है, लेकिन सेवाभाव मन में नहीं आया है। लड़के ने कहा, सेवा करने के लिए मैंने पढाई नहीं की है। मैंने एक सुख भरे जीवन की कल्पना की है, जो कि यहाँ रहने से नहीं मिलेगा। आप मेरे साथचलिए। पर अमृतलाल जी नहीं माने। मैं चुप था। भारद्वाज जी भी चुप थे। अमृतलाल जी ने उसकी पढाई के लिए पैसों की व्यवस्था कर दी और चुपचाप सोने चले गए। लड़का दूसरे दिन चला गया अकेला ही बिना अपने पिता को साथ लिये। हमेशा के लिए।
अमृतलाल जी उसका पैसा भेजते रहे। वो पढ़ता रहा, उसने वही लन्दन में अपने साथ काम करने वाली डाक्टर लडकी से शादी कर ली और फिर बीतते समय के साथ, उसे एक बेटा भी पैदा हुआ, उसका नाम सूरज था, ये नाम अमृतलाल जी ने ही सुझाया था।
फिर वो दिन भी आ ही गया, जिसे मैं कभी भी याद भी नहीं करना चाहता।
उस दिन अमृतलाल जी का जन्मदिन था। उन्हें सुबह से ही सीने में दर्द था। उनका बेटा गौतम लन्दन से आया हुआ था और वो शाम को मिलने आने वाला था। अमृतलाल जी की उससे मिलने की बहुत इच्छा थी, क्योंकि उनका पोता सूरज भी साथ आया हुआ था।उन्होंने अब तक उसे नहीं देखा था। हॉस्पिटल में उस दिन कोई नहीं था। हम सब उनके कमरे में थे, मैंने और भारद्वाज जी ने उनके कमरे को सजाया। शाम को करीब एक वकील साहब आये। अमृतलाल जी, वकील साहब और भारद्वाज जी के साथ अपनी बैठक में चले गए। करीब एक घंटे बाद वो सब बाहर निकले। अमृतलाल जी के चेहरे पर परम संतोष था।
फिर वो इन्तजार करने लगे अपने बेटे, बहु और पोते का। मैंने सभी के लिए अच्छा सा खाना बनाया हुआ था और हाँ,उनके लिए केक भी ले कर आया था। हम सब इन्तजार ही कर रहे थे कि अचानक शहर में तेज बारिश होने लगी,बर्फ के ओले भी गिरे, और आंधी तूफान का माहौल हो गया। बिजली भी चली गयी, मैंने और भारद्वाज जी ने लालटेन जलाई। हम इन्तजार कर ही रहे थे कि उनका बेटा गौतम अपने परिवार के साथ आये लेकिन कुछ ही देर बाद उसका फोन आ गया कि वो इस आंधी तूफान मेंनहीं आ सकता। यह सुनकर अमृतलाल जी का चेहरा बुझ गया। उन्होंने हमें सो जाने को कहा।और वापस अपनी बैठक में जाकरदरवाजा अंदर से बंद कर लिया। हम दोनों चुपचाप थे। रात गहराती जा रही थी। मैंने भारद्वाज जी से कहा कि वो भी सो जाएं। उनके सोने के बहुत देरबाद रातकरीब दो बजे मैंने हिम्मत करकेअमृतलाल जी की बैठक में झांक कर देखा, वो चुपचाप बैठे थे। बार बार वो अपने फोन कीओर देख उठते थे कि शायद वो बजे और संदेशा आये कि उनका गौतम आ रहा है।लेकिन उसने न बजना था सोन बजा। के वैसे ही पड़ा रहा। खानाकिसी ने भी नहीं खाया।
मैं वहीँ बैठक के बाहर बैठे बैठे सो गया। सुबह सुबह भारद्वाज जी ने मुझे उठाया। वो और अमृतलाल जी दोनों रोज सैर को जाते थे। रात बीत चुकी थी। आंधी तूफान भी ठहर गया था। मैंने दरवाजा ठकठकाया। दरवाज अन्दर से बंद था, कोई आवाज नहीं आई, हम दोनों आशंकित हो उठे और जोर जोर से दरवाजा ठोका। फिर नहीं खुला तो तोड़ दिया। वही हुआ जिसका डर था। अमृतलाल जी चल बसे थे। मैं और भारद्वाज जी रोने लगे। इतने में गौतम अपनी पत्नी और सूरजके साथ आ पहुंचा। उसे सब कुछ समझते हुए देर नहीं लगी। वो अचानक ही चुप हो गया। भारद्वाज जी ने कहा, गौतम तुम यही बैठो। इतने बड़े इंसान है, बहुत से लोग आयेंगे। बहुत सा काम करना होगा, हम सब इंतजाम करते है।
अंतिम संस्कार हुआ, सारे शहर से लोग आये। मुझे भी उस दिन पता चला कि अमृतलाल जी की इस शहर में कितनी इज्जत थी। गौतम चुपचाप बैठा रहा, बहु भी चुपचाप ही थी, हाँ पोता सूरज थोडा परेशान सा था, विचलित था। उसने दादा को पहले कभी नहीं देखा था और जब देखा तो इस अवस्था में देखा था। वो बार बार रो उठता था। गौतम चुपचाप इसलिए था कि उसने शहर के लोगों की भीड़ देखी थी और उसे समझ में आ गया था कि उसने क्या खो दिया है? मैं खुद हैरान सा था कि कितने सारे लोग उनसे प्रेम करते थे और कितनांे का रो रोकर बुरा हाल था।
रात को सारा कार्यक्रम निपटने के बाद, हम जब बैठे तो सिर्फ झींगुरो की आवाजे ही सुनाई दे रही थी। सभी बहुत चुपचाप थे। मैं था, भारद्वाज जी थे और गौतम था।बहु,सूरजके साथ सोने चली गयी थी, सूरज को हल्का सा बुखार आ गया था और वो मन से भी परेशान था। इतने में वकील साहब आये। वो अमृतलाल जी के पुराने मित्र थे। उन्होंने कहा, कल रात को शायद अमृत को आशंका हो गयी थी कि वो शायद ज्यादा दिन नहीं रहेगा। उसने अपनी वसीयत करवा ली थी। मैं उसे आप सब को बताना चाहता हूँ।
मैं उठकर खड़ा हो गया। वकील ने मुझे बैठने को कहा। वकील ने कहा जायदाद के तीन हिस्से हुए है। एक बड़ा हिस्सा इस हास्पिटल और वृ(ाश्रम को दिया गया है। दूसरा हिस्सा पोते सूरज के लिए दिया गया है और तीसरा हिस्सा चैकीदार ईश्वर के नाम है।
ये सुनकर मैं बहुत जोर से चैंका। मैंने कहा, साहब, कोई गलती हो गयी होगी, मुझे कोई पैसा रकम नहीं चाहिए। मैं तो यही रहूँगा। सब कुछ मेरा अब यही है। अमृत साहब मेरे पिता जैसे थे। उनके बाद अब मेरा कौन है कहकर मैं रोने लगा।
वकील ने समझाया, भाई जो उन्होंने कहा, वो मैंने किया, भारद्वाज भी थे वहां। पूछ लो।
मैंने कहा, मुझे कुछ नहीं चाहिए, मेरा हिस्सा भी सूरज को ही दे दीजिये। वकीलने मेरा सर थपथपाया। मैं चुपचाप आंसू बहाने लगा।
गौतम चुपचाप उठकर खड़ा हो गया। उसने कहा, कल सुबह मिलते है, राख को नदी में बहाने जाना है
रात बहुत गहरी हो रही थी और मेरी आँखों में नींद नहीं थी। कल तक मैं कुछ भी नहीं था और आज इस जायदाद के एक हिस्से का मालिक। लेकिन मैं इस रुपये का क्या करूँगा, मेरे तो आगे पीछे कोई है ही नहीं। नहीं नहीं, मुझे कुछ नहीं चाहिए। मैं तो इसी जगह के एक कोने में पड़ा रहूँगा।
सुबह हुई, हम सब वही पास में मौजूद नदी के किनारे चले, रास्ते में शमशान घाट से अमृत जी की चिता में से राख ली और नदी में जाकर उसे बहा दिया, मेरी आँखों से आंसू बहने लगे। भारद्वाज भी रोने लगे। उनका सबसे पुराना और गहरा मित्र जो चला गया था। लड़का जो कल तक कुछ नहीं बोला, आज रोने लगा, उसकी पत्नी भी रोने लगी और सूरज भी रोने लगा।कुछ देर के शोक के बाद सब वापस आये। गौतम पास केट्रेवल एजेंट के पास गया और वापसी की टिकिट करवा ली। वो अचानक ही बहुत शांत हो गया था, अब उसे समझ आ गया था कि जो उसने खोया था वो कभी भी वापस नहीं आने वाला था।
तेरहवी के भोज के बाद, गौतम, मेरे और भारद्वाज के पास आया, उसने उन्हें एक लिफाफा दिया और कहा। मैं सारी वसीयत, जो पिताजी ने सूरज के नाम कीहै, उसे इस वृ(ाश्रम और ईश्वरको देता हूँ। इसके सही हकदार यही दोनों है। मैं शांत था। मैंने एक बार कहा, गौतम भैय्या, अगर यही रुक जाते तो हम सभी को बहुत खुशी होती। गौतम चुपचाप रहा, कुछ नहीं कहा। शायद कुछ कहने के लिए था ही नहीं।
दुसरे दिन गौतम वापस चला गया। शायद हमेशा के लिए। शायद कभी भी वापस नहीं आने के लिए।
कुछ दिनों बाद मैंने वकील से कहकर सारी जायदाद जो कि मेरे नाम थी, उसे उस वृ(ाश्रम के नाम कर दी। अब चूँकि अमृत जी नहीं रहे तो धीरे धीरे हास्पिटल बंद हो गया और फिर कुछ दिनों के बाद सिर्फ, आज का ये अमृत वृ(ाश्रम ही रह गया। भारद्वाज जी सारा काम काज संभालते और मैं सबकी सेवा करते रहता।
मैंने भारद्वाज से वचन लिया कि वो किसी से इस बारे में नहीं कहेंगे कि इस वृ(ाश्रम में मेरा क्या योगदान है। मैंने कहा कि मैं इसी चैकीदार वाले रूप में खुश हूँ। और मुझे यहीं बने रहने दीजिये। भारद्वाज जी नहीं माने, मैंने फिर उन्हें अपनी कसम दी, वो चुप हो गए। उन्होंने कहा, बेटा, तू सच में ईश्वर है। भगवान हर किसी को तेरे जैसी ही औलाद दे।
वृ(ाश्रम चल पड़ा। यहाँ हर महीने कोई न कोई आ जाता, कोई न कोई गुजर जाता। मैं कई बातो का अभ्यस्त हो चुका था। जिन्दगी चल रही थी, एक दुसरे के सुख दुःख बांटते थे। मिलकर काम करते थे, हमने कुछ नर्से रखी हुई थी। कुछ लोग रखे हुए थे। सब इस आश्रम की देखभाल करते थे। और भारद्वाज जी ने सभी से कह दिया था कि ईश्वर की बात हर कोई माने। बहुत कम लोग मुझे ईश्वर कहकर पुकारते थे। ज्यादातर लोग मुझे सिर्फ चैकीदार ही कहते थे। और मुझे इससे कोई शिकायत भी नहीं थी।
कुछ बरस पहले
एक दिन शान्ति दीदी का फोन आया। शान्ति हमारे पुराने हास्पिटल में नर्स थी, उसके आगे पीछे कोई नहीं था, एक भतीजा था, जो कि उसकी नौकरी पर अपनी जिन्दगी के मजे ले रहा था। फिर शान्ति को एक दिन एक्सीडेंट में पैर में चोट लग गयी। वो अब काम पर नहीं आती थी। फिर भी अमृत जी ने इंतजाम करवाया था कि उसे हर महीने, उसकी तनख्वाह मिल जाए।
उस दिन उसका फोन आया कि उसके भतीजे ने उसका घर ले लिया है और उसे घर से निकल जाने को कह रहा है, अब वो बेसहारा है। मैंने और भारद्वाज जी ने कहा कि वो बेसहारा और बेआसरा नहीं है, वो यहाँ आ जाए और फिर मैं उसे लाने के लिए आश्रम की गाडी लेकर उसके घर पंहुचा। मैं जब उसे लेने गया तो देखा वो घर के बाहर एक छोटी सी पेटी लेकर चुपचाप बैठी है। मुझे देखकर वो उठी, पैर की चोट की वजह से वो लड़खड़ा गयी,मैंने दौड़कर उसे संभाला। मैंने उससे कहा और कोई सामान, जो ले जाना हो? उसने कहा, कुछ नहीं, जो कुछ कमाया, वो ये घर ही था। वो भी छिन गया। अब कहीं कुछ नहीं रहा। लेकिन हाँ वृ(ाश्रम जाने के पहले मुझे तुम कुछ जगह ले जा सकते हो तो मुझे बहुत खुशी होगी।
मैंने कहा कोई बात नहीं आप चलो तो। मैंने उसे गाडी की पिछली सीट पर बिठाकर उससे पुछा, बताओ कहाँ जाना है? उसने कहा, मैं हर जगह एक बार जाना चाहती हूँ जहाँ मैंने अपनी जिन्दगी का कोई हिस्सा जिया है। मैंने धीरे से पुछा, अब इस बात का क्या मतलब है? उसने शायद रोते हुआ कहा था, मुझे पता है, मैं उस वृ(ाश्रम में आखरी दिन बिताने जा रही हूँ जहां से अब कभी भी नहीं लौट पाउंगी। मैं चुप हो गया। मेरे गले में कुछ अटक सा गया था। मुझे भी शायद रुलाई आ रही थी। पर मैंने चुपचाप गाडी आगे बड़ा दी। उसने रास्ते में रूककर कुछ फूल खरीदे।
सबसे पहले वो एक मोहल्ले में, एक बड़े से घर के पास मुझे लेकर गयी, उसे देखते हीउसकी आँखों में बड़ा दर्द सा उमड आया। उसने मुझे बताया कि वो ब्याह कर इसी घर में आई थी, फिर इसी घर में उसके पति का देहांत हो गया। और इसी घरवालो ने उसे उसके बच्ची सहित घर से बाहर निकाल दिया।
फिर वो मुझे एक इसाई हास्पिटल में लेकर आई, जहाँ उसने मुझे बताया कि यहाँ एक सिस्टर मेरी थी, जिसने उसे सहारा दिया और यहाँ पर उसे नर्सिंग सिखाया। फिर वो यहीं पर नर्स बनी और फिर इसके बाद वो हमारे हास्पिटल में नर्स बनी।
फिर वो मुझे एक कब्रिस्तान में लेकर आई, उसने रास्ते में जो फूल खरीदे थे, उन्हें लेकर उतर गयी। मैंने उसे एक प्रश्न भरी निगाह से देखा। उसने आँखों में आंसू भरकर कहा, यहाँ मेरी बच्ची की कब्र है, बचपन में ही कुपोषण की वजह से बीमारियों की शिकार हुई और फिर एक दिन इस दुनिया से चल बसी। उसी की कब्र पर वो फूल चढाकर आना चाहती थी। मेरे मुँह से कोई बोल न फूटे। वो भीतर चली गयी और मैं फूट फूट कर रो पडा।
कुछ देर बाद वो आई तो बहुत संयत दिख रही थी, वो शायद जी भरकर रो चुकी थी और अपना मन हल्का कर चुकी थी। वो गाडी में आकर चुपचाप बैठ गयी और एक गहरी सांस लेकर कहा, चलो, मेरे नए घर में मुझे ले चलो, मैंने गाडी को मोड़ते हुए धीरे से पुछा, एक बार क्या वो अपना घर भी देखना चाहेंगी, जिसे वो छोड़ कर आ रही है। उसने एकआह भरी और थोडा सोचकर कहा, हाँ एक बार दिखा दो, मैंने बड़ी मेहनत से उसे बनाया है। पर उसे भी इस दुनिया के मक्कार लोगों ने छीन लिया।
मैंने चुपचाप उसे उसके घर के पास रोका। वो बहुत देर तक कार में बैठकर उसे देखती रही और रोती रही, फिर उसने धीरे से कहो, चलो चलते है। मैं उसे यहाँ ले आया, तब से वो यही पर है और इसीआश्रम का एक हिस्सा है। और मेरी तरह सबकी सेवा करती है।
अब
इसी तरह की कहानियों और किस्सों से भरा हुआ है ये अमृत वृ(ाश्रम। लेकिन एक बात यहाँ बहुत अच्छी है, लोग यहाँ आकर अपने दुःख भूल जाते है, और सब एक ही परिवार का हिस्सा बनकर रहते है। मेरे परिवार का, हां, ये मेरा ही तो परिवार है एक बड़ा सा भरा हुआ परिवार। मेरा अपना तो कोई है नहीं, लेकिन ये सभी अब मेरे अपनी ही बन गए हैं। ये तो परमात्मा की ही कृपा थी, कि अमृतलाल जी, भारद्वाज जी और मैं, हम सब की सोच एक जैसी थी। और इस सपने को हमने जीवन दिया। यहाँ हर धर्म के लोग रहते है और यहाँ हर त्यौहार भी मनाया जाता है। बस जीवन के अंतिम दिनों में सभी खुश रहे यही हम सबकी एक निरंतर कोशिश रहती है।
बस एक कमी है, और वो है -हास्पिटल की सेवाएं, उसके लिए हमें दूसरो पर, दूसरे हास्पिटल्स पर निर्भर रहना पड़ता था। अब सभी बूढ़े थे। सो हमेशा कोई न कोई बीमार ही रहता था। अक्सर हमें किसी न किसी को हास्पिटल ले जाना पड़ता था। आश्रम के पास एक एम्बुलेंस था और्शंती थोड़ी बहुत प्राथमिक उपचार कर लेती थी, पर हमेशा ही हॉस्पिटल जाना पद जाता था।अक्सर ऐसे मौको पर एक कसक सी दिल में उठती थी कि, काश, उस वक्त,अमृतजी का बेटा, गौतम यहाँ रुक गया होता, या पढाई पूरी करके यही बस गया होता तो वो हास्पिटल कभी भी बंद नहीं होता।
खैर विधि का विधान जो भी हो।
आज
आज सुबह मैं थोडा जल्दी उठ गया हूँ। कुछ अच्छा नहीं लग रहा है। शायद उम्र का असर था। पता नहीं मेरी उम्र कितनी हो गयी है, आजकल कुछ याद भी नहीं रहता।
भारद्वाज जी ने आकर मुझे देखा और कहा, ईश्वर शायद तुम्हारी तबियत खराब है, तुम आराम कर लो। मैंने कहा जी कुछ नहीं, थोड़ी सी हरारत है शायद उम्र थक रही है।
इतने में एक कार आकर रुकी। हम दोनों ने पलटकर दरवाजे की ओर देखा। कार से अचानक एक आवाज आई, ईश्वर काका! मेरे लिए ये एक नया संबोधन था। सब मुझे चैकीदार ही कहकर पुकारते थे। बाहर की दुनिया में किसी को मेरा असली नाम पता नहीं था। हम दोनों ने गौर से देखा। कार का दरवाजा खुला और एक सुखद आश्चर्य की तरह अमृतलाल जी का बेटा गौतम,एक नौजवान के साथ उतरा। मुझे बहुत अच्छा लगा, मैंने भारद्वाज जी से कहा, आज सूरज हमारे आँगन में उगा है,जरुर ये सूरज होगा।अमृत जी का पोता। पास आकर गौतम ने कहा हाँ, ईश्वर ये सूरज है। हमारा सूरज, आप का सूरज, हम सब का सूरज। सूरज ने मेरे पास आकर मेरे पैर छुए तो मेरी आँखे छलक गयी, पहली बार किसी ने मेरे पैर छुए थे। मेरे हाथ कांपते हुए आशीर्वाद देने के लिए उठ गए। सूरज ने कहा, ईश्वर काका। मैं आज आपसे अपने पिता जी की तरफ से माफी मांगने आया हूँ और दादाजी का सपना पूरा करने आया हूँ। मेरी आँखे खुशी से बह रही थी। सूरज ने आगे कहा, मैंने भी डा0क्टरी की पढाई पूरी कर ली है और अब मैं और पिताजी यहीं रहेंगे और दादाजी का सपना पूरा करेंगे। “मैंने कंपकंपाते स्वर में पुछा, “और माँ ?”गौतम ने कहा, “वो नहीं रही। इसी साल उसका देहांत हो गया और मैंने फैसला कर लिया है कि अब हम यही आकर रहें, आपने और भारद्वाज अंकल ने जो निस्वार्थ सेवा का बीड़ा उठाया है, अब हम भी उसमें अपना योगदान देंगे। यही सच्चे अर्थो में हमारी वापसी होगी, अपने देश के लिए, अपने पिता के लिए, उनके उद्देष्य के लिए और यही हमारा प्रायश्चित होगा। “इतना कहकर गौतम ने अपनी आँखों से आंसू पोंछे।
शान्ति जो इतने देर से पीछे से आकर हमारी बाते सुन रही थी वो अपने आंसू पोंछते हुए वापस मुड़कर आश्रम के भीतर गयी और एक पूजा की थाली ले आई। आरती का दिया जला कर दोनों की आरती उतारते हुए उसने कहा, पधारो आपणे देश बेटा ! हम सबकी आँखे भीग उठी।
गौतम ने एक लिफाफा निकाल कर मेरे और भारद्वाज जी के हाथो में दिया और कहा, इसमें मेरी सारीसंपत्ति के कागजात है, मैंने अपना सबकुछ इस वृ( आश्रम को दे दिया है। और इसकीसारी जिम्मेदारी ईश्वर और भारद्वाज अंकल को सौंपी है, सब कुछ अब इस आश्रम की मिटटी के लिए।
ये सुनकर मैं रो पड़ा, मेरा दर्द और बढ गया और मैं कांप कर गिर पडा। सूरज ने तुरंत मेरी नब्ज को देखा और कहा, अरे आपकी नब्ज डूब रही है। जल्दी इन्हें हास्पिटल ले चलो मैं ने कहा, बस बेटा आज का ही इन्तजार था, तुम्हारी वापसी हो गयी और मुझे अब क्या चाहिए? बस अब चलता हूँ।
सूरज ने कहा, कुछ नहीं होंगा,आपको माइल्ड हार्ट अटैक आया है, सब ठीक हो जायेंगा।
भारद्वाज जी ने जल्दी से आश्रम के एम्बुलेंस का इंतजाम किया और मुझे उसमे लिटाकर, शहर के एक हार्ट हॉस्पिटल की ओर चल पड़े।
एक नयी शुरुवात
हास्पिटल आ गया था, मुझे स्ट्रेचर पर आपरेशन थिएटर के भीतर ले जाया जा रहा था, मैंने चारो तरफ सभी को देखा। मुझे खुशी थी। अमृत वृ(ाश्रम अब बेहतर हाथो में था। अमृतलाल जी का और मेरा सपना सच हो गया था। मैंने सभी को प्रणाम किया और भीतर की ओर चल पड़ा। अब सब ठीक हो गया था।अब कोई दुःख मन में नहीं था।और मुझे यकीन था कि मैं भी ठीक हो ही जाऊँगा, फिर से अपने अमृत वृ(ाश्रम की सेवा करने के लिए।

17 साल पहले शुरू हुई यात्रा समाप्त

नेत्रहीन मां को 27 हजार किमी पैदल चलकर कराए चारधाम17 साल पहले शुरू हुई यात्रा समाप्त जेब में एक रुपया नहीं, चल दिए यात्रा परउज्जैन (मप्र)त्न 87 साल की नेत्रहीन मां की इच्छा पूरी करने के लिए वह इस कलियुग में श्रवण कुमार बन गया।कैलाश ने जब यात्रा शुरू की तो उसके पास जेब में एक रुपया नहीं था। भगवान भरोसे वह कावड़ लेकर निकल पड़ा और गर्मी, ठंड व बारिश के बीच यात्रा आगे बढ़ती चली गई। जहां भी गया, उस शहर में लोगों ने रहने, खाने की मदद की और कुछ रुपए भी दिए, लेकिन पूरी यात्रा में कहीं कोई सरकारी मदद नहीं ली।अपने कंधों पर कावड़ में मां को बैठाकर 17 साल और कुछ महीनों में 27 हजार किलोमीटर पैदल चलकर उसने चारधाम की तीर्थ यात्रा पूरी करा दी। बरगी (ग्वालियर) के 40 वर्षीय कैलाश गिरि ब्रह्मचारी कावड़ में बैठी मां कीर्ति देवी के साथ सोमवार को जब उज्जैन की सड़कों से गुजरा तो उसे देखने वालों की नजरें थम गईं और बूढ़े मां-बाप को कंधों पर यात्रा कराने वाले पौराणिक पात्र श्रवण कुमार की याद आ गई। कैलाश गिरि ने कहा कि 1995 में क्रम से रामेश्वर, जगन्नाथपुरी, बद्रीनाथ और द्वारिका धाम की यात्रा कर अब उज्जैन में महाकाल दर्शन के साथ यात्रा पूरी की है। हालांकि संकल्प के मुताबिक वह मां को गांव तक कावड़ से ही ले जाएगा।उज्जैन से वह देवास के रास्ते ग्वालियर के लि
ए रवाना हो गया।

सोमवार, 3 नवंबर 2014

तीर्थटन व पर्यटन विशेषांक

तीर्थटन व पर्यटन विशेषांक

मित्रों हिंदी मासिक पत्रिका उदय दिनमन का नवंबर अंक तीर्थटन व पर्यटन विशेषांक के रूप में प्रकाशित हो रहा है। इस अंक में उत्तराखंड के चारधाम,पंचबदरी,पंचकेदार,पंचप्रयाग के साथ यहांके ताल हिमनद और यहां के बुग्यालों के बारे में पूरी जानकारी के साथ अन्य विषयों पर विशेष आलेक है। प्रति प्राप्त करने के लिए अपना पता भेज सदस्यता ग्रहण करने के साथ अपनी प्रतिक्रिया भेजे। 

संतोष बेंजवाल
संपादक
उदय दिनमान
 

शनिवार, 18 अक्तूबर 2014

परीक्षाओं के लिए सफलता की कुंजी

हिमालयी राज्य संदर्भ कोश
परीक्षाओं के लिए सफलता की कुंजी

सिन्धु से लेकर ब्रह्मपुत्र या कराकोरम से लेकर अरुणाचल की पटकाइ पहाड़ियों तक की लगभग 2400 किमी लम्बी यह पर्वतमाला विलक्षण विविधताओं से भरपूर है। इस उच्च भूभाग में जितनी भौगोलिक विधिताएं हैं उतनी ही जैविक और सांस्कृतिक विविधताएं भी हैं। वरिष्ठ पत्रकार जयसिंह रावत ने हिमालयी राज्य संदर्भ कोश शीर्षक की अपनी पुस्तक में इन्हीं विविधताओं की जानकारियां जुटा कर परोसने का प्रयास किया है। हालांकि हिमालय से अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, नेपाल, भूटान, तिब्बत जुड़े हुये हैं, लेकिन इस पुस्तक में केवल भारतीय हिमालय की गोद में बसे 12 राज्यों के बारे में सामान्य जानकारियां उपलब्ध कराई गयी हैं, जोकि विभिन्न श्रेणियों की सरकारी सेवाओं के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं में काफी काम की हो सकती हैं। इस हिमालयी बिरादरी के सात सदस्य राज्य सेवन सिस्टर्स या सात बहनों के नाम से भी पुकारे जाते हैं। भौगोलिक दृष्टि से जम्मू. कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड और सिक्कम सहित हिमालय पुत्रियों की संख्या ग्यारह है। देखा जाय तो पश्चिम बंगाल का दार्जिंलिंग वाला हिस्सा भी हिमालय का अंग होने के कारण इस बिरादरी की संख्या ग्यारह की जगह बारह हो जाती है। उम्मीद की जा सकती है कि इस पुस्तक से संघ लोक सेवा आयोग और राज्यों के लोक सेवा आयोगों तथा अन्य संस्थानों द्वारा आयोजित प्रतियोगी परीक्षाओं में लाखों युवा लाभान्ति होंगे और उनका भविष्य संवरेगा। पर्वतराज हिमालय आकार में जितना विराट है अपनी विशेषताओं के कारण उतना ही अद्भुत भी है। अगर हिमालय न होता तो दुनियां और खास कर एशिया का राजनीतिक भूगोल न जाने क्या क्या होता, एशिया का )तुचक्र और उसमें घूमने वाला मौसम क्या होता, किस तरह की जनसांख्यकी होती और किस तरह के शासनतंत्रों में बंधे कितने देश होते, विश्व विजय के जुनून में दुनिया के आक्रान्ता भारत को किस कदर रौंदते, इसके बगैर न गंगा होती, न सिन्धु होती और ना ही ब्रह्मपुत्र जैसी महानदियां होतीं। अगर ये नदियां ही न होती तो संसार की महानतम् संस्कृतियों में से एक सिन्धु घाटी की सभ्यता भी न होती। दरअसल हिमालय न केवल एशिया के मौसम का नियंत्रक बल्कि एक जल स्तम्भ भी है। यह रत्नों की खान भी है तो गंगा के मैदान की आर्थिकी को जीवन देने वाली उपजाऊ मिट्टी का श्रोत भी है। लेखक के अनुसार ये प्रमाणिक जानकारियों विभिन्न राज्य सरकारों के वैब पोर्टलों और सरकारी प्रकाशनों, जनगणना रिपोर्ट, इतिहास की पुस्तकों एवं कुछ उपलब्ध प्राचीन ग्रन्थों के इधर उधर छपे अंशों आदि से जुटाई गयी हैं और ऐसे ही दूसरे श्रोतों से उनकी पुष्टि की गयी है। लेखक का 36 सालों से अधिक समय का पत्रकारिता का लम्बा अनुभव भी इन जानकारियों के संकलन और उनकी प्रमाणिकता में सहायक रहा है। ग्रामीण पत्रकारिता, और उत्तराखण्ड की जनजातियों का इतिहास के बाद वरिष्ठ पत्रकार जयसिंह रावत की 192 पृष्ठों वाली यह तीसरी पुस्तक है जिसे विन्सर पब्लिशिंग कंपनी ने प्रकाशित किया है।                                                                                                                                                                          समीक्षक-बीना बेंजवाल

चमत्कारः आपदा और बचाव पर आधारित कहानियों का संग्रह

उत्तराखण्ड और देश के विभिन्न भागों में लगातार आ रही आपदा ने हमारी विकास की सोच पर प्रश्न चिह्न लगा दिया है। आपदाएँ मनुष्य के वश में नहीं होती किन्तु प्रबन्धन के अंतर्गत किए उपायों द्वारा इसके प्रभावों को कम अवश्य किया जा सकता है। जानमाल के नुकसान को काफी हद तक कम किया जा सकता है। आपदाओं से सम्बन्धित अवधारणाओं तथा आपदाओं से पहले ,आपदाओं के समय और आपदाओं के बाद बरती जाने वाली सावधानियों और उपायों को कहानियों के माध्यम से समझाने का सार्थक प्रयास किया है डा. नन्द किशोर हटवाल ने अपनी पुस्तक श्चमत्कार श् में। इस पुस्तक में बादलों का गरजना,आग लगना,आपदा से पहले संवेदनशील गाँवों को सुरक्षित स्थानो पर विस्थापित करना,भूकम्प,बस-मोटर दुर्घटना,वन्य जीव संरक्षण,सर्पदंश,वर्षा एवं भूस्खलन,प्राथमिक चिकित्सा एवं आपातकालीन सहायता तथा हिमस्खलन की अवधारणाओं और बचाव के तरीकों को समझाया गया है। उत्तराखण्ड में आपदा का जो कहर बरपा है उसका एक कारण नदियों के किनारे किया गया अनियोजित भवन निर्माण भी है। नदी एक निशिचित अंतराल के बाद अपना रास्ता बदलती है। अतयनदियों के किनारे किया भवन निर्माण खतरे से खाली नहीं है। साथ ही नदी के बगड़ में बसे गाँवों का समय रहते सुरक्षित स्थानो पर विस्थापन जरूरी है। इसी तथ्य की ओर जीत कहानी में लेखक ने पाठकों का ध्यान खींचा है। पुस्तक में १0 कहानियों को समाहित किया गया है। इन कहानियों को इस तरीके से बना गया है कि पढ़ते-पढ़ते आपदाओं से जुड़े मिथक ,वैज्ञानिक अवधारणाएँ और किये जाने योग्य उपाय स्वत स्पष्ट हो जातें हैं। यों तो बाजार में आपदाओं पर जानकारी देने वाली सैकड़ों पुस्तकें हैं किन्तु आपदा पर आधारित विषयवस्तु के प्रस्तुतीकरण की दृष्टि से यह पुस्तक अलग है। कहानियों में प्रयुक्त भाषा सरल,विषयानुकूल और भावानुकूल है। कहीं -कहीं गढ़वाली शब्दों का किया प्रयोग भी विषयानुकूल हैं। पुस्तक बालमनोविज्ञान के अनुरूप चित्र आधारित है। चित्रांकन लेखक ने स्वयं किया है। बिन्सर प्रकाशन देहरादून द्वारा बाल श्रृंखला के अंतर्गत प्रकाशित १६२ पेज वाली इस पुस्तक का मूल्य है ६५ रुपए। पुस्तक का गेटअप आकर्षक और मुद्रण स्पष्ट है। पुस्तक का चमत्कार नाम सार्थक है। पुस्तक आपदाओं के बचाव के लिए कोई टोटके या दैवीय चमत्कार नहीं सुझाती अपितु सन्देश देती है कि आपदाओं को जानने और कुछ तरीकों को अपनाने से बचाव रूपी चमत्कार किया जा सकता है। पुस्तक बच्चों के लिए विशेष रूप से उपयोगी है। समीक्षक-डा. उमेश चमोला। 

सरकारी नजूल भूमि पर अवैध निर्माण

सरकारी नजूल भूमि पर अवैध निर्माण
बेशकिमती नजूल भूखण्ड एवं सरकारी सम्पत्ति
रूड़की के सिविल लाईन्स क्षेत्र में सरकारी भूमि पर सैकड़ो जगर हो रहा है अवैध निर्माण
बहुमंजिले आवासीय और व्यावसायिक परिसरों को हो रहा है निर्माण
बिना भवन मानचित्र स्वीकृत कराए और बिना विकास शुल्क जमा कराये हो रहा है अवैध निर्माण

उत्तराखंड में सरकारी भूमि पर कब्जे और अवैध निर्माण आम बात हो गई है। सरकारी भूमि को खूर्द-बूर्द करने के कई मामले सामने आये लेकिन इस दिशा में न तो सरकार और न ही स्थानीय प्रशासन ने आज दिन तक कोई विशेष प्रयास किए। इसी का परिणाम है कि सरकार भूमि पर अतिक्रमण और अवैध निर्माण लगातार जारी है। जनपद हरिद्वार के रूड़की नगर के सिविल लाईन्स क्षेत्र में पूरी जमीन नजूल है जो राजस्व अभिलेखों में रूड़की अन्दर हदूद मौजे की खतौनी में वर्ग 15, उपवर्ग-2 में दर्ज है और यह भूमि वर्तमान समय में नगर निगम रूड़की के पास है। इसके बाद भी कुछ नेताओं और अफसरों की मिलीभगत से इसे खुर्द-बूर्द किया जा रहा है। एडवोकेट और पूर्व सभासद बृजेश त्यागी ने इस मामले को उठाते हुए मुख्य सचिव को पत्र लिखकर मामले की जानकारी दी है। श्री त्यागी ने इसके लिए सूचना के अधिकारी के तहत जानकारी मागी। जानकारी के अनुसार रूड़की सिविल लाईन्स की समस्त भूमि नगर निगम के नाम से है। यहां यह उल्लेख भी करना चाहेंगे कि नगर निगम का वार्षिक सत्यापन जिलाधिकारी द्वारा किया जाता है, लेकिन इस मामले में नगर निगम उक्त नजूल रजिस्टर को जो जीर्ण-शीर्ण व फटे हाल में है को वार्षिक सत्यापन के समय डीएम से इसका सत्यापन भी नहीं करवाते हैं। इससे इस मामले में नगर निगम की भूमिका भी संदिग्ध नजर आती है। मामले में एक अन्य तथ्य भी सूचना के अधिकार के तहत सामने आया कि अवैध कब्जेदारों को चिन्हित करने के उद्देश्य से तहसील रूड़की प्रशासन और नगर पालिका रूड़की ने शासन के निर्देश पर वर्ष 1992-1993 में एक संयुंक्त सर्वे कराया। सर्वे की रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि रूड़की में नजूल भूमियों/प्लांटों की संख्या उस समय 1466 थी जिसमें से 38 प्लाट चार दीवारी से घिरे खाली पड़े थे, जिसका क्षेत्रफल 55181.95 वर्गमीटर था। रिपोर्ट के अनुसार शेष 1428 नजूल प्लाटों पर अवैध निर्माण द्वारा अनाधिकृत व्यक्तियों का कब्जा था, जिनके नाम उक्त रिपोर्ट में अंकित है। इन 1428 नजूल भूखंडों पर अनाधिकृत कब्जों में 127696.46 वर्गमीटर भूमि पर व्यावसायिक कब्जे तथा 537851.33 वर्गमीटर भूमि पर आवासीय कब्जे मौके पर पाये गए। रिपोर्ट के अनुसार समस्त 1466 खाली प्लाट भूमि, आवासीय एवं व्यावसायिक निर्माण द्वारा अवैध कब्जों में कुल मिलाकर 720729.74 वर्गमीटर नजूल भूमि स्थित है। वर्तमान सर्किल रेट से उपरोक्त व्यावसायिक व आवासीय नजूल भूमियों की कुल कीमत 1002.94.68.162 रूपये ;एक हजार दो करोड़ चैरानवें लाख अडसठ हजार एक सौ बासठ रूपयेद्ध होती है। वही अगर वर्तमान बाजार मूल्य 35000 रूपये प्रति वर्गमीटर के हिसाब से इसका वर्तमान बाजार मूल्य 2765 करोड़ के आस-पास है।
विजेंद्र सिंह

शुभ समृ(ि की अभीप्सा पूर्ति का त्यौहार है, दीपावली

शुभ समृ(ि की अभीप्सा पूर्ति का त्यौहार है, दीपावली

बड़ी दिव्या दीपावली होगी इस वर्ष की। ईष मास की १ गते अर्थात शरद सम्पात अर्थात ठीक आश्विन संक्रान्ति के दिन अर्थात २३ सितम्बर २0१४, मंगलवार को इस संवत की दीपावली का त्यौहार बनता है। इसी दिन ठीक ८ बजे सूर्य की तुलार्क संज्ञक संक्रान्ति भी हो रही है। अस्तु, यह एक दिव्य संयोग है कि ठीक शरद सम्पात के दिन दीपावली का भी त्यौहार होगा।
चैत्र शुक्लपक्षारम्भ में ये दीपावली का त्यौहार होता है। शुक्लादि मास गणना क्रम में यह दिन आश्विन अमावश की रात्रि का किन्तु कृकृष्णादि के मास क्रम में कार्तिक की अमावस की रात्रि का होता है। निशीथ  व्यापिनी अमावश्या वाली रात्रि वाली तिथि ही दीपावली का त्यौहार होता है। मित्रो! वेद और पुराणों के अनुसार सम्पात युक्त इस दीपावली का माहात्म्य उजागर करने के उद्देश्य से कुछ विशेष कहने का मन है। ध्यान पूर्वक समझ कर कृतार्थ कीजियेगा।
शिव महापुराण में भगवान शिव का एक लोकोपकारी कथन इस प्रकार है -
तस्माद् दश गुण गेयं रवि संक्रमणे बुधाः। विषुवे तद् दशगुणमने तद् दशस्मृतम्।।
तात्पर्य है कि आम दिनों में पुण्य कार्य, यज्ञ, दान उपासनादि का जो लाभ होता है वही कार्य जब संक्रांति के दिन अर्थात् सामान्य संक्रांति ;क्रांतिवृत्त के समविभाजित द्वादश खण्डों में सूर्य जब वर्तमान से अगले खण्ड, जिसे कि राशि कहकर व्यक्त किया जाता है, में जाता है तो वह दिन संक्रान्ति के नाम से जाना जाता है।द्ध में किया जाता है तो उसका फल डेढ गुणा अधिक होता है। वही कार्य जब संपात या विषुव ;यहाँ विषुव शब्द पर सभी लोग खास ध्यान दें क्योंकि विषुव शब्द से हट जाएंगे तो वैसाखी का अर्थ १४ अप्रैल की निरर्थक तिथि से भी जोड़ा जा सकेगा। लोग ऐसा न समझें अर्थात किसी को भी भ्रम न रह जाये, यही व्यवस्था इस श्लोक में विषुव या अयन शब्द से है।द्ध यहाँ कहा गया है कि सामान्य संक्रांति से भी विषुव और पुनः विषुव संक्रांतियों ;वसंत और शरद सम्पात की दो संक्रांतियांद्ध से भी श्ष्अयन संक्रांतियां ;दक्षिण और उत्तर अयन की दो संक्रांतियांद्धअधिक पुण्य प्रदायी होती हैं। शायद इसी लिए उत्तरायण या मकर संक्रान्ति सनातन वैदिक धर्मियों का सबसे बड़ा त्यौहार है। मैं स्वयं इस एक त्यौहार को बहुत खासतौर पर मनाता हूँ। मोटे तौर पर आप ये समझ लें कि सामान्य दिन की एक आहुति का मतलब एक ही आहुति किन्तु संक्रांति के दिन की इसी एक आहुति का मतलब, सम्पात वाली संक्रांति के दिन की एक आहुति का मतलब और अयन संक्रांति के दिन की इसी एक आहुति का मतलब १000 आहुतियों के बराबर हुवा।
अब अगर आप पञ्चाङ्ग को नहीं जानते हैं तो-
आप इतनी प्रभावी सन्धि बेलाओं ;संक्रांति स्वयं में एक सन्धि बेला होती है और ’’’’वेद में इन सभी संधि बेलाओंद्ध प्रातः, सायं, पूर्णिमा, अमावस, मास संक्रांति, )तु संक्रान्ति ;जिस दिन )तु बदलती है द्ध अयन संक्रांति। जिस दिन अयन बदलता है और अंततः वर्ष अर्थात संवत की सन्धि जिस दिन नव संवत्सर शुरू होता है को नहीं जान पाएंगे और अगर आप पंचांग के बारे में गलत जानकारी रखते है या आजकल उपलब्ध तमाम गलत ;सत्य से भटके हुएद्ध पंचांगों पर चलते है तो इन दोनों ही स्तिथियों में आपको इन महत्वपूर्ण संधिबेलाओं की जानकारी भी या तो गलत होगी या होगी ही नहीं। इस से क्या हुआ? हुवा ये कि आप अपने पुण्य के बहुत बड़े कदम से, एक बार के लिए नहीं, हमेशा हमेशा के लिए वंचित रह जाते हैं। क्या ऐसा होना चाहिए? भाइयो और बहिनो ! हमारे नित्य कर्मों में संध्या का सर्वोपरि महत्व है। जिस तरह श्र(ा की कार्मिक अभिव्यक्ति को श्रा( कहते हैं उसी तरह सन्धि की लिए जो कार्य हम करते हैं उसको सन्ध्या कहते हैं। संधि बेला को जानना चाहिए और संध्या को करना चाहिए।
आप सभी को इस महा पुण्य काल के महापर्व की मैं अग्रिम शुभ कामनाएं देता हूँ। स्मरण रखें कि श्री सूक्त के मन्त्रों से सविधि यज्ञ पूर्वक इस त्यौहार को सश्र(ा मनौती प्रदान करनी है। वैदिक पंचांग के अनुसार यही दिन वास्तविक दीपावली का दिन है। यथा सामर्थ्य शु( सरसों के तेल से या घृत से दीप प्रज्ज्वलित करें। मैंने स्वयं इस दिन पर विशु( स्वदेशी अर्थात दीपक-प्रकाश व्यवस्था की ही जगमगाहट से अपना घर प्रकाशित रखने का निश्चय किया है।
विधाता ने जो ज्ञान मुझे दिया है उसका सदुपयोग करते हुए मैंने बड़े परिश्रम और लगाव से आप के और अपने भले के लिए या अनुस्मारक ;रिमाइंडरद्ध लेख आप ही को अर्पित किया है। अब हम स्वयं अपना भला चाहते हैं या नहीं ये तो हम पर ही निर्भर करता है।
संपादक
श्री मोहनकृति आर्ष तिथि पत्रक

आत्महत्या


नाटक



आत्महत्या

मुख्य कलाकार : 
कांस्टेबल रामसिंह
सब इंस्पेक्टर काम्बले
सूबेदार मेजर रावत
डिप्टी कमांडेंट सिंह
कमांडेंट देवेन्द्र
सेकंड इन कमांडेंट यादव
डॉक्टर कृष्णकुमार –साय्कोलोजिस्ट

प्रारम्भ
स्टेज पर पर्दा उठना
 सीन एक :
[ स्टेज पर लाइट जलता है ]
स्थान : ऑफिस का कोरिडोर 
 स्टेज पर कांस्टेबल रामसिंह आता है और अपने एक साथी से जोश में हँसते हुए कहता है  “ अहा अब मुझे छुट्ठी मिल गयी है , अब घर जाऊँगा और माँ की गोद में चैन के कुछ दिन  बिताऊंगा “ और वो दोनों दुसरे दरवाजे से चले जाते है !
[ स्टेज पर लाइट बुझता है ]

सीन दो  :
[ स्टेज पर लाइट जलता है ]
स्थान : ऑफिस का कोरिडोर 

स्टेज पर सूबेदार मेजर रावत आता है और अपने एक दोस्त से कहता है , “ अहा अब मुझे छुट्ठी मिल गयी है , कितने महीने हो गए है , मैंने अपनी प्यारी सी बीबी की सूरत नहीं देखि है. इस बार तो मैं चांदनी को सरप्राइज दूंगा, उसे तो बताया ही नहीं कि मैं आनेवाला  हूँ  “  दोस्त हँसता है “ हां यार तेरी तो नयी नयी शादी जो हुई है ... हा हा ..”और वो दोनों हँसते हुए दुसरे दरवाजे से चले जाते है !
[ स्टेज पर लाइट बुझता है ]

सीन तीन  :
[ स्टेज पर लाइट जलता है ]
स्थान : ऑफिस का कोरिडोर 

स्टेज पर सब इंस्पेक्टर काम्बले  आता है और अपने आप से उदास और ख़ुशी दोनों के स्वर में कहता है  “अब मुझे छुट्ठी मिल गयी है , यहाँ से मुक्ति तो मिली , इस डिप्टी कमांडेंट ने तो जीना हराम किया हुआ है. कुछ दिन अपने घर में दोस्तों और भाईयो के साथ रहकर ज़िन्दगी के मजे लूँगा “

और वो दुसरे दरवाजे से जाने लगता है , तभी दुसरे दरवाजे से डिप्टी कमांडेंट सिंह आता है और उससे कहता है , “ क्या रे सुना है , अपने घर जा रहा है ,”

उसे देखकर काम्बले उसे सेल्यूट करता है और सावदान की मुद्रा में खड़ा हो जाता है और कहता है , “जी श्रीमान “

सिंह उसके कंधे पर हाथ मारकर बोलता है, “ अबे तो यहाँ कौन रहेंगा ? कौन हमारा ख्याल रखेंगा ? तू साले नीच जाती का आदमी ,  हम ठाकुरों को सीखायेंगा कि लड़ाई कैसे करना और क्या करना है ?”

काम्बले कुछ धीमे स्वर में अपने गुस्से को दबाते हुए कहता है “ साब , मुझे देरी हो रही है , जाने दीजिये “
सिंह “ ठीक है जा , आना तो तुझे यही है . तब देखता हूँ “

काम्बले सर झुका कर दरवाजे से चला जाता है
[ स्टेज पर लाइट बुझता है ]

सीन चार  :
[ स्टेज पर लाइट जलता है ]
स्थान : ऑफिस का एक कोना

स्टेज पर कमान्डेंट देवेन्द्र और सेकंड इन कमान्डेंट यादव बैठे है . दोनों के बीच में मेज लगी हुई है  और दोनों दोस्त ड्रिंक्स ले रहे है  .
देवेन्द्र “ यार यादव , मैंने तो बहुत से जवानो और ऑफिसर्स की छुट्टियां मंजूर की है . सब अपने घर जाए और खुशियाँ लेकर आये , बस यही दुआ है “
यादव  “ हां देवेन्द्र , सच कहा , मैं तो इन आत्महत्याओं से दुखी हो गया हूँ “
देवेन्द्र “ मैं उम्मीद करता हूँ की जल्दी ही हम इन बातो को रोक सकेंगे ”
देवेन्द्र “ मैंने एक सायाकोलोजिस्ट को बुलाया है , वो आने के बाद हमारे कैम्प पर सबकी एक वर्कशॉप लेंगे , इससे बहुत से फायदे होने की संभावना है ,  शायद जवानो ने छाया हुआ डिप्रेशन ख़त्म हो जाए “
यादव “ अमीन  मेरे भाई “
देवेन्द्र “ अमीन “
[ स्टेज पर लाइट बुझता है ]

सीन पांच   :
[ स्टेज पर लाइट जलता है ]
स्थान : गाँव के एक घर का सेट .

एक चारपाई और दो तीन मुढे . चारपाई पर रामसिंह की माँ बैठी हुई है . एक मुढे पर उसकी बीबी बैठी है और दुसरे पर खुद राम सिंह .
माँ “ भाई राम , तू तो अपनी जोरू को ले जा अपने साथ  ये रोज रोज के झगडे हमें नहीं चाहिए , कभी किसी बात पर लढाई , तो कभी किसी बात पर झगडा , नहीं बेटा नहीं चाहिए बुढापे में ये दुःख “
बीबी , “हमें कौनसा यहाँ रहना है , रोज का तकाजा , रोज के ताने , जैसे यदि आपने ब्याह कर नहीं लाया होता तो मैं कुंवारी ही बैठी रह जाती . अरे कोई कितना सहेंग , हमारे भी दुख है  . लेकिन रोज की लड़ाई , देखो जी , या तो चौका अलग कर लो , हमें अलग घर ले दो , नहीं तो मैं अपने घर चली”

रामसिंह “ अरे चुप हो जाओ तुम दोनों , जब से आया  हूँ , यही सब सुन रहा हूँ . दो दिन की शान्ति नहीं मिली मुझसे . मैं वह काम करूँ या तुम दोनों के झगडे सुलझाऊ !”

तीनो मिलकर बहुत सी बाते एक साथ करने और आपस में लड़ना शुरू कर देते है .
[ स्टेज पर लाइट बुझता है ]

सीन छह  :
[ स्टेज पर लाइट जलता है ]
स्थान : एक कमरे का सेट

घर में एक पर्दा लगा हुआ है . बाहर दरवाजे पर रावत खड़ा है और खुद से कह रहा है, “ आज मैं चांदनी  को ऐसा सरप्राइज दूंगा कि वो याद रखेंगी  “

सूबेदार रावत चुपचाप अपने घर में घुसता है और एकदम से चिल्लाता है “ आय लव यू चांदनी “ मैं आ गया “ ऐसा कहते हुए वो भीतर घुसता है तो देखता है कि उसकी पत्नी चांदनी उसके दोस्त रवि  के साथ बैठी है . रावत को देखकर दोनों घबरा जाते है . और रवि जाने लगता है . रावत को पहले तो कुछ समझ नहीं आता है और फिर वो समझ जाता है कि उसकी पत्नी चांदनी ने उसे धोखा दिया है .

वो आँखों में आंसू लिए पूछता है , “ क्यों चांदनी , क्यों , ऐसा किया . मेरे प्रेम में क्या कमी रह गयी . देखो , इस बार मैंने पूरे २० दिन की छुट्टी लेकर आया था , लेकिन तुमने मुझे धोखा देकर अच्छा नहीं किया . वो भी मेरे सबसे अच्छे दोस्त रवि के साथ ! धिक्कार है तुम पर . “

चांदनी , “ सुनो मुझे माफ़ कर दो जी , अब ऐसी गलती नहीं होंगी जी “

लेकिन रावत घर से निकल जाता है . और चांदनी रोती हुई बैठी रह जाती है .
[ स्टेज पर लाइट बुझता है ]


सीन सात  :
[ स्टेज पर लाइट जलता है ]
स्थान : एक होटल का सेट

काम्बले अपने दोस्त मोहन के साथ बैठा हुआ है और चाय पीते हुए उससे अपनी बात कह रहा है .  यार मोहन , मेरी पोस्टिंग इस जगह में हो क्या गयी , मेरी ज़िन्दगी नरक बनी हुई है . एक डिप्टी  कमान्डेंट सिंह मुझे रोज तंग करता है , रोज मुझे नीचा दिखाता है , सिर्फ इसलिए कि मैं  दलित हूँ और मैंने एक ट्राइबल कैंप ट्रेनिंग के दौरान गुरिल्ला फाइट सीखा हुआ है और वो मैं सभी को सीखना चाहता हूँ , बस ईसिस बात पर हमेशा मुझे नीचा दिखाता है , कभी कभी सबके सामने ही लताड़ देता है.

मोहन “ उसकी शिकायत तो करो . “
काम्बले , “नहीं यार शिकायत करने से मुझ पर ही गाज गिरेंगी , उसका ओहदा मुझसे बड़ा है . मैं ही कुछ करता हूँ “
दोनों दोस्त चुपचाप चाय पीते है
[ स्टेज पर लाइट बुझता है ]

सीन आठ   :
[ स्टेज पर लाइट जलता है ]
स्थान : एक कमरे का सेट

स्टेज पर राम सिंह चुपचाप बैठा हुआ है और अपने आप से बाते कर रहा है . “ये क्या ज़िन्दगी है. जिनके लिए कमाता हूँ वही आपस में इतना लड़ते है . बाज आया ऐसी ज़िन्दगी से . मैं कल ही कैम्प में लौट जाता हूँ !”
[ स्टेज पर लाइट बुझता है ]

सीन नौ  :
[ स्टेज पर लाइट जलता है ]
स्थान : एक कमरे का सेट

स्टेज पर रावत पागलो की तरह ड्रिंक्स ले रहा है और अपने आप से बाते कर रहा है “ मेरे साथ ही ऐसा क्यों हो रहा है . आखिर मेरा कसूर क्या है . मैं उसे कितना प्यार करता था अब क्या जीना .. मैं कल ही कैम्प में लौट जाता हूँ !”
[ स्टेज पर लाइट बुझता है ]


सीन दस :
[ स्टेज पर लाइट जलता है ]
स्थान : एक कमरे का सेट

स्टेज पर काम्बले अपने दोस्त से कहता है  “मैं इस मामले को वहां जाकर सुलझाता हूँ . मैं कल ही कैम्प में लौट जाता हूँ !”
[ स्टेज पर लाइट बुझता है ]


सीन ग्यारह  :
[ स्टेज पर लाइट जलता है ]
स्थान : एक कमरे का सेट

स्टेज पर रामसिंह अपनी वर्दी में चुपचाप बैठा है और फिर अचानक ही सर हिलाते हुए अपनी रायफल से खुद को शूट कर देता है !
[ स्टेज पर लाइट बुझता है ]

सीन बारह  :
[ स्टेज पर लाइट जलता है ]
स्थान : एक कमरे का सेट

स्टेज पर रावत पागलो की तरह पी रहा है और फिर अपनी रिवाल्वर निकाल कर खुद को शूट कर देता है .
[ स्टेज पर लाइट बुझता है ]


सीन तेरह  :
[ स्टेज पर लाइट जलता है ]
स्थान :ऑफिस का सेट 

स्टेज पर काम्बले को सिंह डांट रहा है, और दोनों में तेज झगडा होता है . काम्बले, सिंह की वर्दी के होल्स्टर से रिवाल्वर निकाल कर खुद को शूट कर देता है
[ स्टेज पर लाइट बुझता है ]

सीन चौदह  :
[ स्टेज पर लाइट जलता है ]
स्थान : ऑफिस का कोना 

ऑफिस की मेज पर देवेन्द्र और यादव दोनों बैठे हुए है . चुपचाप ड्रिंक्स ले रहे है .
देवेन्द्र “ मुझे समझ में नहीं आता है कि मैं क्या करू , कितना कोशिश करता हूँ ,कि जवानो का मोरल डाउन नहीं हो , लेकिन ये हो जाता है और ये देखो , एक नहीं तीन तीन आत्महत्याए . ऊपर से इन्क्वारी के ऑर्डर्स अलग से .

यादव “ कल वो साय्कोलोजिस्ट आ रहा है .उसी को कहेंगे कि इन जवानो को कुछ समझाए “
[ स्टेज पर लाइट बुझता है ]

सीन पंद्रह  :
[ स्टेज पर लाइट जलता है ]
स्थान : मैदान का सेट

स्टेज पर कुछ कुर्सियां है और एक माईक है जिस के पास डॉक्टर का चोला पहने डॉ. कृष्णकुमार खड़े है . पास के कुर्सियों में देवेन्द्र, यादव और कुछ और ऑफिसर बैठे हुए है .

डॉ. कृष्णकुमार कहते है ,” आप सभी जवानो को मेरा सलाम . मैं दिल से आपके शौर्य की हौसला-आफजाई करता हूँ और ये बात मैं मानता हूँ कि आप सभी यदि हमारे बॉर्डर्स पर नहीं होते तो आज हम चैन की नींद नहीं सो पा रहे होते . सलाम आपको .
लेकिन आज मैं एक बात कहने आया हूँ और ये बात हम सभी को बहुत चिंतित कर रही है . वो बात है . आपके साथियो के द्वारा आत्महत्या कर लेना . देखिये एक डॉक्टर के होने के नातेमैं आप सभी से ये कहना चाहूँगा कि ये प्रवर्ती बहुत खतरनाक है . आत्महत्या कर लेने से कोई भी समस्या का हल नहीं होता . मैं मानता हूँ कि पारिवारिक , सामाजिक और यहाँ तक की अपने सीनियर्स के द्वारा प्रताड़ना पाना और कष्टदायक हालात में रहना बहुत दुखदायी है लेकिन मेरी मानिए , आत्महत्या करना कोई भी समाधान नहीं है . आपकी आत्महत्या से आपकी कहानी ख़त्म हो जायेंगी , लेकिन जो परिवार आप पर निर्भर है , उसका क्या . उन के बारे जरा सोचिये और इस तरह के नेगेटिव ख्यालो से बचिए . अपने ऑफिसर्स से बात करिए और अपने प्रोब्लेम्स का समाधान लीजिये . लेकिन आत्महत्या न करे. यही मेरी आपसे विनंती है क्योंकि देश को और आपके परिवार को आपकी जरुरत है .
आईये अपने अकेलेपन को दूर करिए . मैं आपको ये कहना चाहूँगा कि अलग अलग एक्टिविटी में भाग लीजिये , अपने साथियो के साथ खूब सारी बाते करिए , ,परिवार और दोस्तों के साथ खूब बाते करिए , शराबा तथा अन्य ड्रग्स से दूर रहिये . रेगुलरली योग तथा दुसरे कसरते करे . दौड़े , मैडिटेशन करे . और अपने आप को किसी क्रिएटिव कार्य में लगाए . और हां गाना बजाना न भूले. संगीत जीवन के डिप्रेशन का सबसे बड़ा हल है . अब तक पिछले दस सालो में करीब ३०० से ज्यादा जवानो ने आत्महत्या की है . आप उस राह पर न चले यही मेरी आप सभी से प्रार्थना है . आप सभी का दिल से धन्यवाद ! याद रखिये आत्महत्या करना , अपने आप के प्रति और और अपने परिवार के प्रति  और अपने भगवान के प्रति पाप है . जीवन सुन्दर है . इसे भरपूर जिए . यही मेरी मंगलकामना है आप सभी के लिए . एक बार और से आप सभी को प्रणाम और धन्यवाद .
विजय कुमार सप्पत्ति

VIJAY KUMAR SAPPATTI,  
FLAT NO.402, FIFTH FLOOR, PRAMILA RESIDENCY;
HOUSE NO. 36-110/402, DEFENCE COLONY,
SAINIKPURI POST,  
SECUNDERABAD- 500 094 [TELANGANA ]