आज आपको रूबरू करवाता हूँ !!! इंदिरा प्रियदर्शिनी नेहरू राजवंश में अनैतिकता को नयी ऊँचाई पर पहुचाया. बौद्धिक इंदिरा को ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में भर्ती कराया गया था लेकिन वहाँ से जल्दी ही पढाई में खराब प्रदर्शन के कारण बाहर निकाल दी गयी. उसके बाद उनको शांतिनिकेतन विश्वविद्यालय में भर्ती कराया गया था, लेकिन गुरु देव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उन्हें उसके दुराचरण के लिए बाहर कर दिया. शान्तिनिकेतन से बहार निकाल जाने के बाद इंदिरा अकेली हो गयी. राजनीतिज्ञ के रूप में पिता राजनीति के साथ व्यस्त था और मां तपेदिक के स्विट्जरलैंड में मर रही थी. उनके इस अकेलेपन का फायदा फ़िरोज़ खान नाम के व्यापारी ने उठाया. फ़िरोज़ खान मोतीलाल नेहरु के घर पे मेहेंगी विदेशी शराब की आपूर्ति किया करता था. फ़िरोज़ खान और इंदिरा के बीच प्रेम सम्बन्ध स्थापित हो गए. महाराष्ट्र के तत्कालीन राज्यपाल डा. श्री प्रकाश नेहरू ने चेतावनी दी, कि फिरोज खान के साथ अवैध संबंध बना रहा था. फिरोज खान इंग्लैंड में तो था और इंदिरा के प्रति उसकी बहुत सहानुभूति थी. जल्द ही वह अपने धर्म का त्याग कर,एक मुस्लिम महिला बनीं और लंदन केएक मस्जिद में फिरोज खान से उसकी शादी हो गयी. इंदिरा प्रियदर्शिनी नेहरू ने नया नाम मैमुना बेगम रख लिया. उनकी मां कमला नेहरू इस शादी से काफी नाराज़ थी जिसके कारण उनकी तबियत और ज्यादा बिगड़ गयी. नेहरू भी इस धर्म रूपांतरण से खुश नहीं थे क्युकी इससे इंदिरा के प्रधानमंत्री बन्ने की सम्भावना खतरे में आ गयी. तो, नेहरू ने युवा फिरोज खान से कहा कि अपना उपनाम खान से गांधी कर लो. परन्तु इसका इस्लाम से हिंदू धर्म में परिवर्तन के साथ कोई लेना - देना नहीं था. यह सिर्फ एक शपथ पत्र द्वारा नाम परिवर्तन का एक मामला था. और फिरोज खान फिरोज गांधी बन गया है, हालांकि यह बिस्मिल्लाह शर्मा की तरह एक असंगत नाम है. दोनों ने ही भारत की जनता को मूर्ख बनाने के लिए नाम बदला था. जब वे भारत लौटे, एक नकली वैदिक विवाह जनता के उपभोग के लिए स्थापित किया गया था. इस प्रकार, इंदिरा और उसके वंश को काल्पनिक नाम गांधी मिला. नेहरू और गांधी दोनों फैंसी नाम हैं. जैसे एक गिरगिट अपना रंग बदलती है, वैसे ही इन लोगो ने अपनीअसली पहचान छुपाने के लिए नाम बदले. . के.एन. राव की पुस्तक "नेहरू राजवंश" (10: 8186092005 ISBN) में यह स्पष्ट रूप से लिखा गया है संजय गांधी फ़िरोज़ गांधी का पुत्र नहीं था, जिसकी पुष्टि के लिए उस पुस्तक में अनेक तथ्यों कोसामने रखा गया है. उसमे यह साफ़ तौर पे लिखा हुआ है की संजय गाँधी एक और मुस्लिम मोहम्मद यूनुस नामक सज्जन का बेटा था. दिलचस्प बात यह है की एक सिख लड़की मेनका का विवाह भी संजय गाँधी के साथ मोहम्मद यूनुस के घरमें ही हुआ था. मोहम्मद यूनुस ही वह व्यक्ति था जो संजय गाँधी की विमान दुर्घटना के बाद सबसे ज्यादा रोया था. 'यूनुस की पुस्तक "व्यक्ति जुनून और राजनीति" (persons passions and politics )(ISBN-10: 0706910176) में साफ़ लिखा हुआ है की संजय गाँधी के जन्म के बाद उनका खतना पूरे मुस्लिम रीति रिवाज़ के साथ किया गया था. कैथरीन फ्रैंक की पुस्तक "the life of Indira Nehru Gandhi (ISBN: 9780007259304) में इंदिरा गांधी के अन्य प्रेम संबंधों के कुछ पर प्रकाश डाला है. यह लिखा है कि इंदिरा का पहला प्यार शान्तिनिकेतन में जर्मन शिक्षक के साथ था. बाद में वह एमओ मथाई, (पिता के सचिव) धीरेंद्र ब्रह्मचारी (उनके योग शिक्षक) के साथ और दिनेश सिंह (विदेश मंत्री) के साथ भी अपने प्रेम संबंधो के लिए प्रसिद्द हुई.पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह ने इंदिरा गांधी के मुगलों के लिए संबंध के बारे में एक दिलचस्परहस्योद्घाटन किया अपनी पुस्तक "profiles and letters " (ISBN: 8129102358 ) में किया. यह कहा गया है कि 1968 में इंदिरा गांधी भारत की प्रधानमंत्री के रूप में अफगानिस्तान की सरकारी यात्रा पर गयी थी . नटवरसिंह एक आईएफएस अधिकारी के रूप में इस दौरे पे गए थे. दिन भर के कार्यक्रमों के होने के बाद इंदिरा गांधी को शाम में सैर के लिए बाहर जाना था . कार में एक लंबी दूरी जाने के बाद,इंदिरा गांधी बाबर की कब्रगाह के दर्शन करना चाहती थी, हालांकि यह इस यात्रा कार्यक्रम में शामिल नहींकिया गया. अफगान सुरक्षा अधिकारियों ने उनकी इस इच्छा पर आपत्ति जताई पर इंदिरा अपनी जिद पर अड़ी रही . अंत में वह उस कब्रगाह पर गयी . यह एक सुनसान जगहथी. वह बाबर की कब्र पर सर झुका कर आँखें बंद करके कड़ी रही और नटवर सिंह उसके पीछे खड़े थे . जब इंदिरा ने उसकी प्रार्थना समाप्तकर ली तब वह मुड़कर नटवर से बोली "आज मैंने अपने इतिहास को ताज़ा कर लिया (Today we have had our brush with history ". यहाँ आपको यह बता दे की बाबर मुग़ल साम्राज्य का संस्थापक था, और नेहरु खानदान इसी मुग़ल साम्राज्य से उत्पन्न हुआ. इतने सालो से भारतीय जनता इसी धोखे मेंहै की नेहरु एक कश्मीरी पंडित था....जो की सरासर गलत तथ्य है..... इस तरह इन नीचो ने भारत में अपनी जड़े जमाई जो आज एक बहुत बड़े वृक्ष में तब्दील हो गया हैं , जिसकी महत्वाकांक्षी शाखाओ ने माँ भारती को आज बहुत जख्मी कर दिया हैं ,,यह मेरा एक प्रयास हैं आज ,,कि आज इस सोशल मीडिया के माध्यम से ही सही मगर हकीकत से रूबरू करवा सकू !!! ,,,बाकी देश के प्रति यदि आपकी भी कुछ जिम्मेदारी बनती हो..
बुधवार, 13 अगस्त 2014
बुधवार, 6 अगस्त 2014
बिजली का आविष्कार
महर्षि अगस्त्य ने किया था बिजली का आविष्कार
वैज्ञानिक ऋषियों के क्रम में महर्षि अगस्त्य भी एक वैदिक ऋषि थे। निश्चित ही आधुनिक युग में बिजली का आविष्कार माइकल फैराडे ने किया था। बल्ब के अविष्कारक थॉमस एडिसन अपनी एक किताब में लिखते हैं कि एक रात मैं संस्कृत का एक वाक्य पढ़ते-पढ़ते सो गया। उस रात मुझे स्वप्न में संस्कृत के उस वचन का अर्थ और रहस्य समझ में आया जिससे मुझे बल्ब बनाने में मदद मिली।
महर्षि अगस्त्य राजा दशरथ के राजगुरु थे। इनकी गणना सप्तर्षियों में की जाती है। महर्षि अगस्त्य को मंत्रदृष्टा ऋषि कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने अपने तपस्या काल में उन मंत्रों की शक्ति को देखा था। ऋग्वेद के अनेक मंत्र इनके द्वारा दृष्ट हैं। महर्षि अगस्त्य ने ही ऋग्वेद के प्रथम मंडल के 165 सूक्त से 191 तक के सूक्तों को बताया था। साथ ही इनके पुत्र दृढ़च्युत तथा दृढ़च्युत के पुत्र इध्मवाह भी नवम मंडल के 25वें तथा 26वें सूक्त के द्रष्टा ऋषि हैं।
महर्षि अगस्त्य को पुलस्त्य ऋषि का पुत्र माना जाता है। उनके भाई का नाम विश्रवा था जो रावण के पिता थे। पुलस्त्य ऋषि ब्रह्मा के पुत्र थे। महर्षि अगस्त्य ने विदर्भ-नरेश की पुत्री लोपामुद्रा से विवाह किया, जो विद्वान और वेदज्ञ थीं। दक्षिण भारत में इसे मलयध्वज नाम के पांड्य राजा की पुत्री बताया जाता है। वहां इसका नाम कृष्णेक्षणा है। इनका इध्मवाहन नाम का पुत्र था।
अगस्त्य के बारे में कहा जाता है कि एक बार इन्होंने अपनी मंत्र शक्ति से समुद्र का समूचा जल पी लिया था, विंध्याचल पर्वत को झुका दिया था और मणिमती नगरी के इल्वल तथा वातापी नामक दुष्ट दैत्यों की शक्ति को नष्ट कर दिया था। अगस्त्य ऋषि के काल में राजा श्रुतर्वा, बृहदस्थ और त्रसदस्यु थे। इन्होंने अगस्त्य के साथ मिलकर दैत्यराज इल्वल को झुकाकर उससे अपने राज्य के लिए धन-संपत्ति मांग ली थी।
'सत्रे ह जाताविषिता नमोभि: कुंभे रेत: सिषिचतु: समानम्। ततो ह मान उदियाय मध्यात् ततो ज्ञातमृषिमाहुर्वसिष्ठम्॥ इस ऋचा के भाष्य में आचार्य सायण ने लिखा है- 'ततो वासतीवरात् कुंभात् मध्यात् अगस्त्यो शमीप्रमाण उदियाप प्रादुर्बभूव। तत एव कुंभाद्वसिष्ठमप्यृषिं जातमाहु:॥
मंगलवार, 5 अगस्त 2014
जननेता हरीश रावत
आम जनता के लिए सप्ताह में अब केवल 2 घण्टे का समय है मुख्यमंत्री हरीश रावत के पास
कभी आम जनता को अपने दरवाजे 24 घण्टे खुले रखने वाले जननेता हरीश रावत ने मुख्यमंत्री बनने के चंद महीनों के बाद उनके दर पर अपनी समस्याओं की फरियाद ले कर आने वालों की भारी भीड़ से घबरा कर आम जनता से मिलने का अब सप्ताह में केवल दो घण्टे के का ही समय रखा है। प्रातःकाल से लेकर मध्य रात्रि तक आये दिन हर समय अपने दर पर मिलने वालों की भीड़ से परेशान मुख्यमंत्री हरीश रावत ने इस समस्या से निजात पाने के लिए आखिरकार निदान ठुंढ ही लिया। उन्होंने इसके लिए मिलने वालों से मुलाकात की एक समय सारणी बनाने का निर्णय लिया।
मुख्यमंत्री के दरवार में मिलने वालों को भारी अनिमियताओं का सामना करना पड़ता है। आम आदमियों को ही नहीं मंत्री, विधायकोंव अधिकारियों को भी इंतजारी का दंश झेलना पड़ता। खुद मुख्यमंत्री व उनका कार्यालय के लोग भी इस समस्या से काफी परेशान थे। दुर्घटना से पहले मुख्यमंत्री को इस समस्या से निपटने में ज्यादा परेशानी तो नहीं होती परन्तु जब से दुर्घटना हुई उसके बाद वे काफी सावधानी बरत रहे हैं।
इसी को देखते मुख्यमंत्री ने इस समस्या के निदान के लिए अपने साप्ताहिक मिलने की सारणी को जारी किया। इसके तहत अब मुख्यमंत्री प्रत्येक सोमवार, बुधवार व शुक्रवार को प्रातः9.30 से 11 बजे का समय मंत्रियों, विधायकों व शासन में बैठे सचिवों के लिए आरक्षित किया गया है।
सोमवार को प्रात11 से एक बजे तक का समय कांग्रेस के सभी फ्रन्टल संगठनों के अध्यक्ष, जिलाध्यक्ष, शहर अध्यक्ष व ब्लाक अध्यक्षों और 2002 से 2012 तक कांग्रेस पार्टी के टिकट पर विधानसभा का चुनाव लड़ चुके उम्मीदवारों के लिए रखा गया है। सोमवार को सायं 6 से 8 बजे का समय सांसदों व विधायकों के लिए रहेगा। इसके अतिरिक्त
मंगलवार, दोहपर 3 से सांय 5 बजे तक का समय शासकीय व पत्रावलियों के निस्तारण के लिए और सांय 6 से 8 बजे का समय कर्मचारी संगठनों के लिए रखा गया है।
बुधवार को प्रातः 11 से दोपहर एक बजे का समय सांसद, विधायक, जिला पंचायत अध्यक्ष, मेयर नगर निगम, नगर पंचातय अध्यक्ष, नगर पालिका अध्यक्ष, ब्लाक प्रमुख, पंचायत जन प्रतिनिधिगण (वर्तमान व पूर्व) पार्षद व जिला पंचायत सदस्यों के लिए आरक्षित किया गया है।
वृहस्पतिवार को प्रात 11 से दोपहर एक बजे तक कांग्रेस पदाधिकारियों के लिए और 3 से सांय 6 जनता दर्शन कार्यक्रम तय किया गया है।
शुक्रवार को प्रातः मंत्रियों व विधायको से मुलाकात के बाद दोपहर 12 से 2 बजे का समय वर्तमान व पूर्व सांसदों और विधायकों के लिए रखा गया है। सांय 6 से रात्रि 8 बजे का समय सामाजिक व सास्कृतिक संगठनों के लिए रखा गया है।
शनिवार को मुख्यमंत्री जनता पर दूरभाष पर वार्ता करेंगे। इसके अतिरिक्त मुख्यमंत्री से समय लेकर मुलाकात की जा सकती है। इसमें राजनैतिक दलों के नेता से लेकर सांसद व विधायक भी शामिल है। हालांकि इस समय सारणी से मिलने वालों को भी राहत मिलेगी। परन्तु आम जनता के लिए सप्ताह के 168 घण्टों में केवल दो घण्टे का समय रखना प्रदेश की जनता के लिए कहां तक राहत देने वाला होगा। परन्तु हरीश रावत जैसे जननेता से आम जनता को यह आश नहीं थी।
इसी को देखते मुख्यमंत्री ने इस समस्या के निदान के लिए अपने साप्ताहिक मिलने की सारणी को जारी किया। इसके तहत अब मुख्यमंत्री प्रत्येक सोमवार, बुधवार व शुक्रवार को प्रातः9.30 से 11 बजे का समय मंत्रियों, विधायकों व शासन में बैठे सचिवों के लिए आरक्षित किया गया है।
सोमवार को प्रात11 से एक बजे तक का समय कांग्रेस के सभी फ्रन्टल संगठनों के अध्यक्ष, जिलाध्यक्ष, शहर अध्यक्ष व ब्लाक अध्यक्षों और 2002 से 2012 तक कांग्रेस पार्टी के टिकट पर विधानसभा का चुनाव लड़ चुके उम्मीदवारों के लिए रखा गया है। सोमवार को सायं 6 से 8 बजे का समय सांसदों व विधायकों के लिए रहेगा। इसके अतिरिक्त
मंगलवार, दोहपर 3 से सांय 5 बजे तक का समय शासकीय व पत्रावलियों के निस्तारण के लिए और सांय 6 से 8 बजे का समय कर्मचारी संगठनों के लिए रखा गया है।
बुधवार को प्रातः 11 से दोपहर एक बजे का समय सांसद, विधायक, जिला पंचायत अध्यक्ष, मेयर नगर निगम, नगर पंचातय अध्यक्ष, नगर पालिका अध्यक्ष, ब्लाक प्रमुख, पंचायत जन प्रतिनिधिगण (वर्तमान व पूर्व) पार्षद व जिला पंचायत सदस्यों के लिए आरक्षित किया गया है।
वृहस्पतिवार को प्रात 11 से दोपहर एक बजे तक कांग्रेस पदाधिकारियों के लिए और 3 से सांय 6 जनता दर्शन कार्यक्रम तय किया गया है।
शुक्रवार को प्रातः मंत्रियों व विधायको से मुलाकात के बाद दोपहर 12 से 2 बजे का समय वर्तमान व पूर्व सांसदों और विधायकों के लिए रखा गया है। सांय 6 से रात्रि 8 बजे का समय सामाजिक व सास्कृतिक संगठनों के लिए रखा गया है।
शनिवार को मुख्यमंत्री जनता पर दूरभाष पर वार्ता करेंगे। इसके अतिरिक्त मुख्यमंत्री से समय लेकर मुलाकात की जा सकती है। इसमें राजनैतिक दलों के नेता से लेकर सांसद व विधायक भी शामिल है। हालांकि इस समय सारणी से मिलने वालों को भी राहत मिलेगी। परन्तु आम जनता के लिए सप्ताह के 168 घण्टों में केवल दो घण्टे का समय रखना प्रदेश की जनता के लिए कहां तक राहत देने वाला होगा। परन्तु हरीश रावत जैसे जननेता से आम जनता को यह आश नहीं थी।
ज्योतिषी पंडित अरुणेश कुमार शर्मा
मेष- नौकरीपेशा लोगों के लिए सहजता शुभता के साथ आया अगस्त माह उत्तरोत्तर शुभकारक है। प्रशासनिक गलियारों में पहुंच बढ़ेगी। भूमि भवन संबंधी मामले सधेंगे। सुख संसाधनों की पर्याप्तता रहेगी। व्यर्थ के विवादों में उलझने से बचें। पूर्वार्ध में तैयारी करें। उत्तरार्ध में अवसरों की अधिकता और समझ बढ़ेगी। नए मित्र बनेंगे। परीक्षा प्रतियोगिता और प्रेम में सफल होंगे।
वृषभ- मन बुद्धि को बल देता आया अगस्त माह कार्यक्षमता बढ़ाने में सहायक है। भेंटवार्ताओं और जनसंपर्क में बेहतर करेंगे। शुभ सूचनाओं का आदान प्रदान करेंगे। भाग्य का साथ बना रहेगा। पूर्वार्ध में प्रदर्शन और सक्रियता से सबको प्रभावित करेंगे। उत्तरार्ध में आवश्यक कारणों से घर से दूर जाना पड़ सकता है। दाम्पत्य में सहजता और संस्कार बढ़ेंगे। आय का प्रतिशत संवरेगा।
मिथुन- घर परिवार में सुख शांति समृद्धि बढ़ाता आया अगस्त माह समझ और सक्रियता बढ़ाने वाला है। धनधान्य की प्रचुरता रहेगी। रहन-सहन संवार पर रहेगा। पूर्वार्ध में परिजनों से नजदीकी रहेगी। उनकी सलाह और समर्थन से अच्छा करते रहेंगे। उत्तरार्ध में अनुशासन और पराक्रम को बल मिलेगा। तार्किकता बढ़ेगी। बड़ों से बहस से बचें। सकारात्मक सोच बनाए रखें।
कर्क- मेलजोल और जनसंपर्क को बल देता आया जुलाई माह नवीन उंचाईयों को छूने को प्रेरित करेगा। सक्रियता समझ और प्रभाव में बेहतर रहेंगे। निजी जीवन में शुभता का संचार रहेगा। लोकप्रियता का ग्राफ चढ़ेगा। पूर्वार्ध में तैयारी पर जोर दें। मेहनत और अनुशासन बढ़ाएं। उत्तरार्ध में सफलता का प्रतिशत उंचा रहेगा।
सिंह- परिजनों के साथ नजदीकी और सुख-सौख्य बढ़ाता आया अगस्त माह मिश्रित फलकारक है। समाज में मान सम्मान बढ़ेगा। आम लोगों के हितचिंतन पर जोर रह सकता है। रिश्तों में मधुरता आएगी। खर्च पर अंकुश बनाए रखें। पूर्वार्ध में अहम् पर नियंत्रण रखें। उत्तरार्ध में सटीक निर्णयों को बल मिलेगा। पूछपरख बढ़ेगी। सुनने की आदत बनाए रखें। अधिनस्थों पर कठोर अनुशासन बनाए रखेंगे।
कन्या- सहजता, सृजनात्मकता और स्मरणशक्ति के साथ आया अगस्त माह आर्थिक गतिविधियां बढ़ाने वाला है। करियर कारोबार में शुभता का संचार रहेगा। विभिन्न स्त्रोतों से आय संभव है। शिक्षा प्रेम संतान और प्रतियोगिता पक्ष हितकर रहेंगे। पूर्वार्ध में अधिकाधिक समय कार्यक्षेत्र में देने की सोच रखें। उत्तरार्ध में दिखावे पर खर्च करने से बचें। अपनों को साथ लेकर चलें।
तुला- रिश्तों में मिठास और नजदीकी बढ़ाता आया अगस्त कार्यक्षेत्र में सफलता के नए आयाम स्थापित करने में सहायक हो सकता है। श्रेष्ठ और महत्वपूर्ण लोगों का सानिध्य और समर्थन मिलेगा। पदोन्नति और पुरस्कार प्राप्ति की संभावना है। पूर्वार्ध में प्रयास फलेंगे। उत्तरार्ध में लाभ का प्रतिशत संवार पर रहेगा। घर में रौनक रहेगी। अच्छे मेजबान साबित होंगे। रक्त संबंध सुधरेंगे।
वृश्चिक- योग्यता प्रदर्शन को बल देता आया अगस्त माह सौभाग्यशाली रहने वाला है। शुभ संकेतों की अधिकता बनी रहेगी। आस्था और आत्मविश्वास को बल मिलेगा। मनोरंजक यात्रा पर जा सकते हैं। मेलजोल बढ़ाने में रुचि रहेगी। कारपोरेट मीटिंग्स में बेहतर करेंगे। पूर्वार्ध में अवसरों को पहचानने में चूक न करें। उत्तरार्ध में श्रेष्ठ प्रदर्शन से सबको प्रभावित करेंगे। पुरस्कृत हो सकते हैं।
धनु- पद प्रतिष्ठा और प्रभाव बढ़ाता आया अगस्त माह उत्तरोत्तर श्रेष्ठता भरने वाला है। अनुशासन और निरंतरता के साथ आगे बढ़ते रहें। नियमों का मान रखें। योजनाओं को साझा करने से बचें। परिजन मददगार रहेंगे। भौतिक संसाधनों की प्रचुरता रहेगी। पूर्वार्ध में कहने से ज्यादा करने में विश्वास रखें। उत्तरार्ध में भाग्य का प्रतिशत संवरेगा। आस्था और आत्मविश्वास बढ़ेंगे।
मकर- धर्म-संस्कारों में विश्वास जगाता आया अगस्त माह घर परिवार में खुशियों को बढ़ाएगा। मित्र विश्वसनीय रहेंगे। व्यक्तित्व प्रभावी होगा। नए साझीदारी संबंध बन सकते हैं। दाम्पत्य में पवित्रता और स्नेह पर जोर दें। अत्यावश्यक कार्यों को पूर्वार्ध में पूरा करने की सोच रखें। उत्तरार्ध में कम बोलें और ज्यादा करें की नीति अपनाएं। समाज के साधारण
तबके से सहयोग प्राप्त होगा।
कुंभ- अनुशासन और आत्मसम्मान की प्रेरणा संग आया अगस्त माह उत्तरोत्तर शुभकारक रहने वाला है। सेवा क्षेत्र से जुड़े लोग अच्छा करेंगे। नए प्रस्ताव प्राप्त होंगे। घर में सुख शांति और संचय बढ़त पर रहेंगे। सामाजिक सरोकारों में दखल बना रहेगा। पूर्वार्ध में प्रयासों में तेजी बनाए रखें। उत्तरार्ध में अधिकांश कार्य स्वतः सध सकते हैं। व्यर्थ विवादों को यथासंभव टालें।
मीन- निज संबंधों में उर्जा भरता आया अगस्त माह सफलता के नए सौपान प्राप्त करने को प्रेरित करेगा। अपनी योजनाएं साझा करने से बचें। गलतियों पर नियंत्रण रखें और उन्हें दूर करने का प्रयास करें। शिक्षा संतान और प्रेम पक्ष हितकर रहेंगे। पूर्वार्ध में तैयारी पर जोर दें। उत्तरार्ध में अवसरों को सटीक प्रदर्शन से उपलब्धि में बदलें। अहम न रखें। जीत के लिए जो संभव बन पड़े करें।
रविवार, 3 अगस्त 2014
शनिवार, 2 अगस्त 2014
गुरुवार, 31 जुलाई 2014
मंगलवार, 29 जुलाई 2014
उदय दिनमान
उदय दिनमान आपकी आपनी आवाज हैै
उदय दिनमान हिंदी मासिक पत्रिका का उददेश्य देहरादून से सामाजिक, राजनैतिक और विशेष कवरेज के साथ जनपक्षीय पत्रकारिता के स्वर बुलंद करना है। पत्रिका को उत्तराखंड के साथ ही दिल्ली और चण्डीगढ़ ,मुंबई से लेखकों का सहयोग प्राप्त है। पत्रिका में समाचार विचार के साथ काब्य कहानी कविता जोक्स के साथ ज्ञानवधर्क सामग्री और अपनेअपने विचार रखने के साथ सभी कुछ मिलेगा। यह उत्तराखंड राज्य ही नहीं वल्कि पूरे देश में इसका प्रसार है
उदय दिनमान हिंदी मासिक पत्रिका का उददेश्य देहरादून से सामाजिक, राजनैतिक और विशेष कवरेज के साथ जनपक्षीय पत्रकारिता के स्वर बुलंद करना है। पत्रिका को उत्तराखंड के साथ ही दिल्ली और चण्डीगढ़ ,मुंबई से लेखकों का सहयोग प्राप्त है। पत्रिका में समाचार विचार के साथ काब्य कहानी कविता जोक्स के साथ ज्ञानवधर्क सामग्री और अपनेअपने विचार रखने के साथ सभी कुछ मिलेगा। यह उत्तराखंड राज्य ही नहीं वल्कि पूरे देश में इसका प्रसार है
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‘उदय दिनमान’ मात्र एक मैग्जीन नहीं है, अपितु यह एक वैचारिक आंदोलन भी है। इस आंदोलन का सरोकार आर्थिकी, राजनीति, समाज, संस्कृति, इतिहास व विकास से है।
अकेले उत्तराखंड की बात करें तो यह क्षेत्र सदियों से न केवल धार्मिक आस्थाओं का केंद्र रहा है, बल्कि यह क्षेत्र मानव सभ्यता-संस्कृति का उद्गम स्थल भी समझा जाता रहा है।
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गुरुवार, 3 अप्रैल 2014
हिंदी मासिक उदय दिनमान
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शनिवार, 15 फ़रवरी 2014
मैं सिर्फ पत्थर नहीं हूॅ, साक्षात शिव हूॅ और मैं कैलाश पर युगों-युगांे से जगत कल्याण के लिए तपस्यारत हूॅ, लेकिन कुछ सालों में मेरी तपस्या को भंग करने के लिए हे मानव! तूने कोई कसर नहीं छोड़ी। आखिर मैं तेरे इस पाप को कब तक सहन करना। इसीलिए मैंने तांडव मचाया है। अगर अभी भी अगर तू नहीं संभला तो मैं...। अगर हम अपने मन की आॅखों से शिव आराधना करें तो शिव यही कहेंगे। क्योंकि आज हमने हिमालय को अपने मौज-मस्ती और अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर शिव की तपस्या में खलल डाल दिया है। इससे शिव का नाराज होकर अपनी तीसरी नेत्र खोलना तो स्वाभाविक था। सो शिव ने अपनी तीसरी नेत्र खोलकर हमें यह थोड़ा से दण्ड दिया है । अगर हम ऐसे ही करते रहे तो शिव तांडव मचा देंगे। जिस देश में करोड़ों देवता वास करते हैं और उनके स्थलों को हम तीर्थ स्थलों के रूप मंे पूजते हैं। हम अपनी आस्था और अपने ईष्ट के प्रति कितने आस्थावान है यह हमसे बेहतर कौन जान सकता है। हमारेे देव हमें सजा दें तो हमें अपने किये पर पछतावा होता है। लेकिन आज हमने अपने तीर्थस्थलों को हनीमून, शराब, शबाब और मंास के स्पाट बना दिए है। तीर्थ स्थलों को पर्यटन से जोड़कर कमाई कर जरिया ढूंढ लिया, लेकिन यह भूल गए कि यहां तो साक्षात देव वास करते हैं। यह हमारा कसूर नहीं बल्कि हमारी सरकारों का भी कसूर है। धार्मिक भावनाओं का उल्लंघन करना प्रकृृति के प्रकोप झेलना जैसा ही है। चार धामों के यात्रा कालांतर में मोक्ष प्राप्ति के लिए हुआ करती थी। लेकिन वर्तमान में बिना नियम धर्म और कर्म के ये धार्मिक यात्रांए मनो-विनोद और विलासिता का साधन बना दी गई है। इसमें आम जनता जितनी दोषी है उससे कई गुना दोषी प्रदेश सरकार की वर्तमान नीतियां है। प्रदेश के जन्म लेते ही यहां नौकरशाह और राजनेता जैसे बु(िजीवियों ने आय के संसाधनों में वृ(ि के उपाय ढूंढन में लगे रहे और एक दिन वह भी आया जब धार्मिक स्थलों को भी पर्यटन से जोड़कर प्रदेश की आय में वृृ(ि हेते इसे मंजूरी भी दी गई। नतीजन आए दिन इन धार्मिक स्थलों की सुचिता पर दाग लगते रहे। जिस )षिकेश हरिद्वार में मांस मदिरा पूर्णतः वर्जित थी वहां इसका प्रचालन शुरू हो गया। पर्यटकों की बढ़ती डिमांड और फलते-फूलते व्यवसाय ने अपने पांव फैलाने शुरू कर दिए। देवप्रयाग, श्रीनगर, रूद्रप्रयाग, नंदप्रयाग, कर्णप्रयाग, चमोली, गोपेश्वर, जोशीमठ से बदरीनाथ और उत्तरकाशी के अलावा सोनप्रयाग, ऊखीमठ केदारनाथ तक। बड़कोट से यमुनोत्री तक शराब और मांस की मंडियां सजनी शुरू हो गई। देखते ही देखते धर्मिक स्थल पिकनिक स्थल और हनीमून पांईट बनने शुरू हो गए। सबसे ज्यादा धर्म और आस्था से जुड़ा बाबा केदारनाथ में इसका प्रचालन शुरू हो गया। मंदिर के पंडे सुचिता बनाने की जगह सपरिवार वहां रहना शुरू कर दिए यही नहीं पर्यटक ठंड का बहाना कर चोरी छुपे शराब का इस्तेमाल करने लगे। शिव को विष धरण करने वाले साधू कहकर उठती लपटों से आदि कैलाश की उतंुग शिखरें भी धुंधलाने लगी। जो धर्म कर्म से जुदा मोक्ष का रास्ता था वह ऐशगाह में तब्दील हो गया। आखिर त्रिनेत्रा ने विवश होकर अपनी तीसरी आंख खोल ही दी जिसका नतीजा सबने भुगता। भगवान भोले नाथ सिर्फ एक पत्थर नहीं वह तो साक्षात शिव हैं यह हमे समझना होगा हमारी सरकार को समझना होगा। ताकी ... उ
उत्तराखंड सूचना विभाग के संरक्षण में फल-फूल रही दलाल-फर्जी पत्रकारों की फौज
उत्तराखंड के सत्ता-सिस्टम में दलालों की एक बड़ी जमात है, जो आए दिन अपनी करतूतों-कारनामों को लेकर चर्चाओं के केन्द्र में रहती है। पत्रकारिता की आड़ लेकर काॅर्ल गल्र्स सप्लाई से लेकर सत्ता की दलाली करने वालों की भी इस राज्य में अच्छी-खासी तादात है। पत्रकारों और पत्रकारिता का जिस हदतक पतन इस नवोदित राज्य में हुआ है, वह बेहद ही शर्मनाक है। हाल में मीडिया की सुर्खियां बने सेक्स स्कैंडल में भी ऐसे दलाल पत्रकारों की भूमिका सामने आई है। बकायदा एक न्यूज चैनल से जुडे़ दो ऐसे कथित पत्रकार पुलिस के शिकंजे में भी आ चुके हैं। इस सेक्स स्कैंडल में कई और ऐसे चेहरों के शामिल होने की भी चर्चाएं हैं, जिन पर पुलिस भी अभी तक हाथ नहीं डाल सकी है। उत्तराखंड की पत्रकारिता में लड़कियों को पत्रकारिता का ग्लैमर दिखाकर पत्रकार बनाने का झांसा देकर उन्हें अपने फायदे के लिए धंधेबाज किसी भी नीचता की हदतक गिर-गिरा सकते हैं। पिछले कई सालों से पत्रकारिता का चोला ओढ़कर इस किस्म के दलालों का एक बड़ा नेटवर्क सक्रिय है। इन धंधेबाजों के फलने-फूलने की एक सबसे बड़ी वजह इन्हें सरकारी संरक्षण मिलना है। उत्तराखंड में ऐसे दलालों को पालने-पोसने में सबसे बड़ी भूमिका सूचना विभाग की है। सूचना निदेशालय में बैठे अफसरों की आंखों पर ऐसा पर्दा पड़ा है कि उन्हें यहां दलाल ही ज्यादा भाते हैं। ऐसे धंधेबाजों को पालने-पोसने में सूचना विभाग की भूमिका को सही-सही खंगालना हो तो सूचना के टैगधारियों पर नजर दौडा़ई जा सकती है, इसमें कई ऐसे चेहरे मिल जाएंगे जो पत्रकारिता जगत में ही छंटे हुए दलाल के तौर पर कुख्यात हैं, जिनका पत्रकारिता से दूर-दूर तक का कोई सरोकार नहीं है और दलाली ही उनका परम सत्य है।
क्या बहुगुणा के घोटालों की जांच कराने का साहस जुटाएंगे सीएम इन वेटिंग हरीश रावत ?
दीपक आजाद
सीएम विजय बहुगुणा और घपले-घोटालों के लिए जमीन तैयार करने को लेकर कुख्यात उत्तराखंड के अपर मुख्य सचिव राकेश शर्मा एक बार फिर अपनी कारगुजारियों को लेकर चर्चा में हैं। इसकी वजह हाल ही में देहरादून के पर्वतीय क्षेत्र त्यूनी और अल्मोड़ा की सोमेश्वर घाटी में सीमेंट कारखाना लगाने को लेकर कंपनियों के साथ किए गए एमओयू है। सामेश्वर जैसी खूबसूरत घाटी में पर्यावरण के लिए खतरनाक माने जाने वाले सीमेंट कारखाना लगाने को लेकर सवाल खड़े हो रहे हैं। इसको लेकर विरोध के स्वर उठ रहे हैं। लेकिन बहुगुणा पर इसका कोई कसर होता नहीं दिख रहा है। सीमेंट कारखाने से पर्यावरण को होने वाले प्रभावों का अघ्ययन किए बगैर इस तरह के उद्योग लगाना अपने में सवाल खड़ा करता है। सीएम विजय बहुगुणा और उनके पुत्र साकेत बहुगुणा के साथ सांठगांठ कर एक के बाद एक घोटालों को अंजाम दे रहे शर्मा पूरी बेशर्मी पर उतर आये हैं। शर्मा इससे पहले छरबा में कोकाकोला को भी तमाम विरोध के बावजूद फैक्टी स्थापित करने को ग्राम समाज की जमीन दिलवा चुका है। सिडकुल की जमीनों को कौड़ियों के भाव जिस तरह से एक के बाद एक बिल्डर्स को सौंपा जा रहा है, वह तो और भी आश्चर्यजनक है। पहले सीतारगंज, फिर हरिद्वार और अब देहरादून में बेशकीमती जमीन रियल स्टेट माफिया के हाथों लुटाई जा चुकी है। भारतीय जनता पार्टी ने विधानसभा में सिडकुल जमीन घोटालों को लेकर रस्मअदायिगी के तौर पर हंगामा तो किया, लेकिन उसके बाद उसने भी अपना मुंह बंद कर लिया। जिस तरह बहुगुणा और शर्मा की जोड़ी एक के बाद एक घोटाले को अंजाम दे रही है, उसकी अगर ईमानदारी से जांच हुई तो इन दोनों को जेल की हवा खाने से कोई नहीं रोक सकता। लेकिन अहम सवाल यह है कि आखिर जांच कौन कराएगा, वह भाजपा जो विरोध भी केवल रस्मअदायगी के लिए ही करती है, या फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए पिछले कई सालों से विलाम कर रहे हरीश रावत ? यह सवाल इसलिए भी अहम है कि जब इन दिनों सियासी गलियारों में बहुगुणा को बदले जाने की हवा तेज हो रही है और हरीश रावत खुदको अगला सीएम बनता देखना चाहते हैं तो यह सवाल भी उतना ही वाजिब है कि अगर वे सीएम बनते हैं तो क्या वे बहुगुणा के घोटालों की जांच कराने का साहस दिखा पाएंगे? जाहिर है इस सवाल का जवाब ना ही हो सकता है, तो फिर यह मुखौटे बदलने जैसा ही होगा। इससे हरीश रावत की इच्छापूर्ति तो हो सकती है, लेकिन उत्तराखंड का कोई भला नहीं हो सकता।
उत्तराखंड के सत्ता-सिस्टम में दलालों की एक बड़ी जमात है, जो आए दिन अपनी करतूतों-कारनामों को लेकर चर्चाओं के केन्द्र में रहती है। पत्रकारिता की आड़ लेकर काॅर्ल गल्र्स सप्लाई से लेकर सत्ता की दलाली करने वालों की भी इस राज्य में अच्छी-खासी तादात है। पत्रकारों और पत्रकारिता का जिस हदतक पतन इस नवोदित राज्य में हुआ है, वह बेहद ही शर्मनाक है। हाल में मीडिया की सुर्खियां बने सेक्स स्कैंडल में भी ऐसे दलाल पत्रकारों की भूमिका सामने आई है। बकायदा एक न्यूज चैनल से जुडे़ दो ऐसे कथित पत्रकार पुलिस के शिकंजे में भी आ चुके हैं। इस सेक्स स्कैंडल में कई और ऐसे चेहरों के शामिल होने की भी चर्चाएं हैं, जिन पर पुलिस भी अभी तक हाथ नहीं डाल सकी है। उत्तराखंड की पत्रकारिता में लड़कियों को पत्रकारिता का ग्लैमर दिखाकर पत्रकार बनाने का झांसा देकर उन्हें अपने फायदे के लिए धंधेबाज किसी भी नीचता की हदतक गिर-गिरा सकते हैं। पिछले कई सालों से पत्रकारिता का चोला ओढ़कर इस किस्म के दलालों का एक बड़ा नेटवर्क सक्रिय है। इन धंधेबाजों के फलने-फूलने की एक सबसे बड़ी वजह इन्हें सरकारी संरक्षण मिलना है। उत्तराखंड में ऐसे दलालों को पालने-पोसने में सबसे बड़ी भूमिका सूचना विभाग की है। सूचना निदेशालय में बैठे अफसरों की आंखों पर ऐसा पर्दा पड़ा है कि उन्हें यहां दलाल ही ज्यादा भाते हैं। ऐसे धंधेबाजों को पालने-पोसने में सूचना विभाग की भूमिका को सही-सही खंगालना हो तो सूचना के टैगधारियों पर नजर दौडा़ई जा सकती है, इसमें कई ऐसे चेहरे मिल जाएंगे जो पत्रकारिता जगत में ही छंटे हुए दलाल के तौर पर कुख्यात हैं, जिनका पत्रकारिता से दूर-दूर तक का कोई सरोकार नहीं है और दलाली ही उनका परम सत्य है।
क्या बहुगुणा के घोटालों की जांच कराने का साहस जुटाएंगे सीएम इन वेटिंग हरीश रावत ?
दीपक आजाद
सीएम विजय बहुगुणा और घपले-घोटालों के लिए जमीन तैयार करने को लेकर कुख्यात उत्तराखंड के अपर मुख्य सचिव राकेश शर्मा एक बार फिर अपनी कारगुजारियों को लेकर चर्चा में हैं। इसकी वजह हाल ही में देहरादून के पर्वतीय क्षेत्र त्यूनी और अल्मोड़ा की सोमेश्वर घाटी में सीमेंट कारखाना लगाने को लेकर कंपनियों के साथ किए गए एमओयू है। सामेश्वर जैसी खूबसूरत घाटी में पर्यावरण के लिए खतरनाक माने जाने वाले सीमेंट कारखाना लगाने को लेकर सवाल खड़े हो रहे हैं। इसको लेकर विरोध के स्वर उठ रहे हैं। लेकिन बहुगुणा पर इसका कोई कसर होता नहीं दिख रहा है। सीमेंट कारखाने से पर्यावरण को होने वाले प्रभावों का अघ्ययन किए बगैर इस तरह के उद्योग लगाना अपने में सवाल खड़ा करता है। सीएम विजय बहुगुणा और उनके पुत्र साकेत बहुगुणा के साथ सांठगांठ कर एक के बाद एक घोटालों को अंजाम दे रहे शर्मा पूरी बेशर्मी पर उतर आये हैं। शर्मा इससे पहले छरबा में कोकाकोला को भी तमाम विरोध के बावजूद फैक्टी स्थापित करने को ग्राम समाज की जमीन दिलवा चुका है। सिडकुल की जमीनों को कौड़ियों के भाव जिस तरह से एक के बाद एक बिल्डर्स को सौंपा जा रहा है, वह तो और भी आश्चर्यजनक है। पहले सीतारगंज, फिर हरिद्वार और अब देहरादून में बेशकीमती जमीन रियल स्टेट माफिया के हाथों लुटाई जा चुकी है। भारतीय जनता पार्टी ने विधानसभा में सिडकुल जमीन घोटालों को लेकर रस्मअदायिगी के तौर पर हंगामा तो किया, लेकिन उसके बाद उसने भी अपना मुंह बंद कर लिया। जिस तरह बहुगुणा और शर्मा की जोड़ी एक के बाद एक घोटाले को अंजाम दे रही है, उसकी अगर ईमानदारी से जांच हुई तो इन दोनों को जेल की हवा खाने से कोई नहीं रोक सकता। लेकिन अहम सवाल यह है कि आखिर जांच कौन कराएगा, वह भाजपा जो विरोध भी केवल रस्मअदायगी के लिए ही करती है, या फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए पिछले कई सालों से विलाम कर रहे हरीश रावत ? यह सवाल इसलिए भी अहम है कि जब इन दिनों सियासी गलियारों में बहुगुणा को बदले जाने की हवा तेज हो रही है और हरीश रावत खुदको अगला सीएम बनता देखना चाहते हैं तो यह सवाल भी उतना ही वाजिब है कि अगर वे सीएम बनते हैं तो क्या वे बहुगुणा के घोटालों की जांच कराने का साहस दिखा पाएंगे? जाहिर है इस सवाल का जवाब ना ही हो सकता है, तो फिर यह मुखौटे बदलने जैसा ही होगा। इससे हरीश रावत की इच्छापूर्ति तो हो सकती है, लेकिन उत्तराखंड का कोई भला नहीं हो सकता।
मीडिया संस्थानों में काली भेड़ियों का एक फलता-फूलता संसार है। दिल्ली से देहरादून तक महिला देह पर गिद्व दृष्टि गड़ाये रखने वाले संपादकों की एक लम्बी फेहरिस्त है। अक्सर ऐसे मामले संस्थानों की चारदिवारी से बाहर नहीं आ पाते। ऐसे काले संपादकों की चर्चाएं तभी होती हैं जब किसी पत्रकार और संपादक में भिड़ंत हो जाए। या फिर उत्पीड़न की शिकार कोई महिला मुखर होकर सामने आ जाय। लाखों रूपये सैलरी और दूसरे घपले-घोटालों में मस्त मैनेजरनुमा संपादक-पत्रकार अपनी उर्जा को ऐसे ही औरतबाजी में खफा रहे हैं। जब पत्रकारिता बाजार की गुलाम हो गई हो और संपादकों के जन सरोकार महीने की मोटी सैलरी बटोरने तक सिमट गए हों, तब यही सबकुछ होना है। खैर खबर यह है कि देहरादून के एक प्रमुख दैनिक समाचार पत्र के संपादक इन दिनों रंडीबाजी को लेकर चर्चा का विषय बने हुए हैं। देहरादून में कदम रखते ही इनकी अयाशियां परवान चढ़ने लगीं। इस संपादक को भारी-भरकम सैलरी मिलती है। इस पैसे का दुरूपयोग वे अपनी रंगीन मिजाजी के लिए कर रहे हैं। रंगीन मिजाजी की खबरें इन दिनों चर्चा का विषय बनी हुई हैं। ये अपनी लम्बी गाड़ी में अक्सर बाजारू लड़कियों को देहरादून के आउटर में ले जाते हैं। ये अपने चापलूस दोस्तों से प्रशिक्षु महिला पत्रकारों को भर्ती कराने के लिए जब-तब कहते रहते हैं। इन महाशय ने देहराूदन में पर्दापर्ण करते ही एक महिला पत्रकार को नाकाबिल घोषित करते हुए संस्थान से बाहर का रास्ता दिखा दिया, लेकिन दूसरी ओर एक प्रशिक्षु पत्रकार के साथ खुदकी बाइलाइन खबरें छापकर उसे स्टाफर का दर्जा तक दिलवा डाला। इस महिला पत्रकार की काबिलियत भी किसी से छुपी नहीं है। ये रंडीबाजी को लेकर पिछले दिनों तब चर्चा में आए जब इनकी अपने ही एक सहयोगी से ठन गई। हुआ कुछ यूं कि इन संपादक महोदय कि देहरादून आगमन के वक्त से ही यहां सालों से जमे-जमाये बैठे एक पत्रकार के साथ ठन गई थी। मामला यहां तक पहुंचा कि पत्रकार को उत्तराखंड से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया, नजीजन पहाड़ी बनाम मैदानी मानसिकता पर जमकर गरमागरम विमर्श होने लगा। उत्तराखंड के एक तेजस्वी पत्रकार, जो अब स्वर्गीय हो चुके, ने देहरादून में इन संपादक के खिलाफ गाजे-बाजे के साथ विरोध-प्रदर्शन तक का ऐलान कर दिया था। हालांकि यह अनोखा प्रदर्शन हो न सका। इस तनातनी के बीच पिछले दिनों संपादक को फूटी आंख न सुहाने वाले से पत्रकार अपने घर देहरादून आए हुए थे। इसी दौरान वे अपने एक साथी के दुख में शरीक होने के लिए देहरादून स्थित अपने अखबार के कार्यालय में उनसे मिलने जा पहुंचे। बताते हैं कि संपादक ने सुरक्षा गार्ड से पत्रकार को बाहर धकियाने को कहा। इसी बात को लेकर अपने गरममिजाज तेवरों को लेकर पहचाने वाले पत्रकार को खुदकी बेइज्जती सहन नहीं हो सकी और उन्होंने संपादक के खिलाफ पूरी भड़ास निकाल डाली। मामला इतना बढ़ गया कि पत्रकार ने संपादक को सरेआम रंडीबाज तक कह डाला। काफी देर तक दोनों के मध्य वाद-विवाद होने के बाद पत्रकार अखबार के कार्यालय से बाहर निकल गए। इसके बाद पत्रकार ने अखबार के नोयडा स्थित कार्यालय में मैनेजमैंट से संपादक की कारगुजारियों की शिकायत कर संस्थान से इस्तीफा दे दिया। अब उन्होंने देहरादून में ही एक नया अखबार ज्वाइन कर लिया है। संपादक की रंडीबाज के किस्से रोज मीडिया में इन दिनों चर्चा का विषय बने हुए हैं।
मीडिया संस्थानों में काली भेड़ियों का एक फलता-फूलता संसार है। दिल्ली से देहरादून तक महिला देह पर गिद्व दृष्टि गड़ाये रखने वाले संपादकों की एक लम्बी फेहरिस्त है। अक्सर ऐसे मामले संस्थानों की चारदिवारी से बाहर नहीं आ पाते। ऐसे काले संपादकों की चर्चाएं तभी होती हैं जब किसी पत्रकार और संपादक में भिड़ंत हो जाए। या फिर उत्पीड़न की शिकार कोई महिला मुखर होकर सामने आ जाय। लाखों रूपये सैलरी और दूसरे घपले-घोटालों में मस्त मैनेजरनुमा संपादक-पत्रकार अपनी उर्जा को ऐसे ही औरतबाजी में खफा रहे हैं। जब पत्रकारिता बाजार की गुलाम हो गई हो और संपादकों के जन सरोकार महीने की मोटी सैलरी बटोरने तक सिमट गए हों, तब यही सबकुछ होना है। खैर खबर यह है कि देहरादून के एक प्रमुख दैनिक समाचार पत्र के संपादक इन दिनों रंडीबाजी को लेकर चर्चा का विषय बने हुए हैं। देहरादून में कदम रखते ही इनकी अयाशियां परवान चढ़ने लगीं। इस संपादक को भारी-भरकम सैलरी मिलती है। इस पैसे का दुरूपयोग वे अपनी रंगीन मिजाजी के लिए कर रहे हैं। रंगीन मिजाजी की खबरें इन दिनों चर्चा का विषय बनी हुई हैं। ये अपनी लम्बी गाड़ी में अक्सर बाजारू लड़कियों को देहरादून के आउटर में ले जाते हैं। ये अपने चापलूस दोस्तों से प्रशिक्षु महिला पत्रकारों को भर्ती कराने के लिए जब-तब कहते रहते हैं। इन महाशय ने देहराूदन में पर्दापर्ण करते ही एक महिला पत्रकार को नाकाबिल घोषित करते हुए संस्थान से बाहर का रास्ता दिखा दिया, लेकिन दूसरी ओर एक प्रशिक्षु पत्रकार के साथ खुदकी बाइलाइन खबरें छापकर उसे स्टाफर का दर्जा तक दिलवा डाला। इस महिला पत्रकार की काबिलियत भी किसी से छुपी नहीं है। ये रंडीबाजी को लेकर पिछले दिनों तब चर्चा में आए जब इनकी अपने ही एक सहयोगी से ठन गई। हुआ कुछ यूं कि इन संपादक महोदय कि देहरादून आगमन के वक्त से ही यहां सालों से जमे-जमाये बैठे एक पत्रकार के साथ ठन गई थी। मामला यहां तक पहुंचा कि पत्रकार को उत्तराखंड से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया, नजीजन पहाड़ी बनाम मैदानी मानसिकता पर जमकर गरमागरम विमर्श होने लगा। उत्तराखंड के एक तेजस्वी पत्रकार, जो अब स्वर्गीय हो चुके, ने देहरादून में इन संपादक के खिलाफ गाजे-बाजे के साथ विरोध-प्रदर्शन तक का ऐलान कर दिया था। हालांकि यह अनोखा प्रदर्शन हो न सका। इस तनातनी के बीच पिछले दिनों संपादक को फूटी आंख न सुहाने वाले से पत्रकार अपने घर देहरादून आए हुए थे। इसी दौरान वे अपने एक साथी के दुख में शरीक होने के लिए देहरादून स्थित अपने अखबार के कार्यालय में उनसे मिलने जा पहुंचे। बताते हैं कि संपादक ने सुरक्षा गार्ड से पत्रकार को बाहर धकियाने को कहा। इसी बात को लेकर अपने गरममिजाज तेवरों को लेकर पहचाने वाले पत्रकार को खुदकी बेइज्जती सहन नहीं हो सकी और उन्होंने संपादक के खिलाफ पूरी भड़ास निकाल डाली। मामला इतना बढ़ गया कि पत्रकार ने संपादक को सरेआम रंडीबाज तक कह डाला। काफी देर तक दोनों के मध्य वाद-विवाद होने के बाद पत्रकार अखबार के कार्यालय से बाहर निकल गए। इसके बाद पत्रकार ने अखबार के नोयडा स्थित कार्यालय में मैनेजमैंट से संपादक की कारगुजारियों की शिकायत कर संस्थान से इस्तीफा दे दिया। अब उन्होंने देहरादून में ही एक नया अखबार ज्वाइन कर लिया है। संपादक की रंडीबाज के किस्से रोज मीडिया में इन दिनों चर्चा का विषय बने हुए हैं।
वैकल्पिक मीडिया के समर्थकों-शुभचिंतकों के नाम अपील़-ॅंजबीक्वह
एक मासिक पत्रिका के तौर पर वाॅचडाॅग की शुरूआत दो साल पहले हुई। इस दौरान मैग्जीन को सरकारी विज्ञापनों पर ही पूरी तरह आश्रित रहना पड़ा। जैसे-तैसे सरकारी इमदाद के भरोसे सीमित दायरे में ही सही, मैगजीन छपती रही है, इसमें कुछ मित्रों का सहयोग भी वक्त-बेवक्त मिलता रहा। जैसे कि अक्सर होता है सत्ता-सिस्टम के खिलाफ खड़े होने की कीमत हर किसी को चुकानी पड़ती है, कम या ज्यादा। यही कीमत वाॅचडाॅग को भी चुकानी पड़ी है। अपने शुरूआती अंक से ही पत्रिका की कवर स्टोरी भ्रष्ट राजनेताओं और नौकरशाहों की कारगुजारियों पर ही केन्द्रित रही, यह जानते-बूझते हुए भी कि जिन्दा रहने के लिए जरूरी रसद इन्हीं राजनेताओं-नौकरशाहों के रहमोकरम पर रिसता हुआ हम जैसों तक भी पहुंचती है, चाहे वह विज्ञापन के रूप में ही हो। जैसे कि मासिक पत्रिकाएं या फिर छोटे समाचार पत्र स्वभावतः सत्ता-सिस्टम को रास नहीं आते, जितना कि कार्पाेरेट मीडिया घराने। उनकी ताकत ज्यादा होती है, लिहाजा वे सत्ता-सिस्टम के नजदीक भी होते हैं और उसी अनुपात में धंधा भी करते हैं। उत्तराखंड में सरकार पूरी तरह इन्हीं कार्पाेरेट मीडिया वालों को पालने-पोसने में लगी हुई है, उसे सरकार की कार्यशैली पर आलोचनात्मक नजर रखने वाले पत्रकार और ऐसे छोटी पत्र-पत्रिकाएं फूटी आंख नहीं सुहाती। छपाई के खर्चे लगातार बढ़ने से भी वाॅचडाॅग जैसी पत्र-पत्रिकाओं के सामने संकट ज्यादा गहरा है। तमाम कोशिशों के बावजूद भी वाॅचडाॅग नियमित तौर पर प्रकाशित नहीं हो पा रही है। यह संकट इसलिए भी तब और बढ़ जाता है जब छोटे स्तर पर बिना किसी पूंजी के प्रकाशित होने वाली वाॅचडाॅग जैसी पत्रिकाएं विज्ञापन के नाम पर अनैतिक तौर-तरीकों का सहारा लेने से बचने की कोशिश करती हैं। इसका नतीजा यह होता है कि विज्ञापन जुटाने के रास्ते बहुत ही सीमित हो जाते हैं। राज्य में विज्ञापन जारी करने वाले अधिकतर विभागों में ऐसे नौकरशाह बैठें हैं जो अपने भ्रष्ट आचरण के लिए कुख्यात हैं। वाॅचडाॅग ने जब इनकी कारगुजारियों पर कलम चलाई तो शुरूआती दिनों से ही इनके अधीन आने वाले विभागों से विज्ञापन हासिल करने के रास्तों को ही अपने लिए बंद कर दिया। नतीजन, साफ-साफ कहें तो यह पत्रिका अब अपने अल्प समय में ही बंदी की स्थिति में पहुंच गई है। इसके बावजूद कोशिश यही है कि पत्रिका को किसी तरह जिंदा रखा जाय। अब तय किया है कि वाॅचडाॅग को प्रिंट में ऐसे ही धक्का मारते रहने के साथ इंटरनेट की आभासी दुनिया में प्रवेश किया जाय, ताकि सोशल मीडिया टूल्स का उपयोग करते हुए वाॅचडाॅग की पहुंच का विस्तार किया जा सके। इसके लिए ूंजबीकवहदमूेण्ूवतकचतमेेण्बवउ नाम से वेब ठिकाना तैयार किया है। प्रिन्ट संस्करण के साथ ही एक ई-मैग्जीन के तौर पर वाॅचडाॅग की कोशिश रहेगी कि उत्तराखंड को केन्द्रित करते हुए सत्ता-सिस्टम की कमजोरियों-कारगुजारियों को प्रखरता के साथ सामने लाया जाय। वाॅचडाॅग के मुख्य फोकस के बिन्दु वे ऐसे सभी सवाल होंगे जो मुख्यधारा की मीडिया में जगह नहीं पाते हैं। वाॅचडाॅग का काम मात्र यही नहीं होगा कि जो परम्परागत तरीके से किसी भी मीडिया संस्थान या पत्रकार का होता है, बल्कि वाॅचडाॅग की भूमिका एक एक्टिविस्ट के तौर पर वे सभी मुददे जो सामने तो आते हैं, लेकिन सरकार की संवेदनहीनता की वजह से किसी अंजाम तक नहीं पहुंच पाते हैं ऐसे सवालों को अदालत की दहलीज तक ले जाना भी होगा। इसके लिए कुछ ऐसे सरोकारी मित्र जो पेशेवर तौर पर वकालत के पेशे में कार्यरत हैं, निःशुल्क अपनी सेवाएं देने को तैयार हैं, ताकि इस मुहिम को आगे बढ़ाया जा सके। यह जानते हुए भी कि एक पत्रकार की परम्परागत भूमिका से हटकर सत्ता-सिस्टम से सीधे-सीधे अदालती चैखट पर टकराव मोल लेने के भी अपने खतरे हैं, ऐसे में भ्रष्ट नेताओं और नौकरशाहों से टकराव होने की सूरत में यह भी संभव है कि आने वाले दिनों में वाॅचडाॅग की घेराबंदी के लिए साजिशों का जाल बिछता दिखे, तो हैरान मत होइये। खैर इन सब अंदेशों के बावजूद हमारी प्राथमिकता के मुददे कुछ इस तरह होंगे-
1-उत्तराखंड में जनपक्षीय पत्रकारिता को बढ़ावा देना।
2- समाचार पत्रों को जनहित से जुड़े विषयों पर समाचार व लेख उपलब्ध कराना।
3- उत्तराखंड में मैला ढोने की सामंती कुप्रथा के खिलाफ एक अभियान संचालित करना।
4- जनहित के मुददों को पीआईएल के रूप में अदालत तक पहुंचाना।
अहम सवाल जो कि आर्थिकी से जुड़ा हुआ है, को हल किए हुए इस तरह की किसी भी मुहिम को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता है। इसके लिए शुरूआती योजना यह है कि वाॅचडाॅग को उन सभी मित्रों, सहयोगियों और शुभचिंतकों के सहयोग से आगे बढ़ाया जाय जो कार्पोरेट मीडिया के इस भनभनाते और दिमाग को सन्न करने वाले शोर के बीच भी वैकल्पिक रास्तों की शिददत के साथ तलाश के राही हैं। इसके लिए प्रायोगिक तौर पर कम से कम ऐसे एक हजार सहयोगियों-शुभचिंतकों की तलाश की जा रही है जो वाॅचडाॅग को पाॅच सौ रूपये से लेकर दो हजार रूपये तक की मदद करने की स्थिति में हों। ऐसे सभी शुभचिंतकों से जो वैकल्पिक मीडिया के समर्थक हैं, से उम्मीद करता हूं कि वे इस मुहिम में शामिल होकर वाॅचडाॅग की मदद को आगे आएंगे और वाॅचडाॅग की नीतियों व लक्ष्यों के निर्धारण व क्रियान्वयन में सहभागी बनेंगे।
भवदीय
दीपक आजाद
एडिटर, वाॅचडाॅग
मीडिया संस्थानों में काली भेड़ियों का एक फलता-फूलता संसार है। दिल्ली से देहरादून तक महिला देह पर गिद्व दृष्टि गड़ाये रखने वाले संपादकों की एक लम्बी फेहरिस्त है। अक्सर ऐसे मामले संस्थानों की चारदिवारी से बाहर नहीं आ पाते। ऐसे काले संपादकों की चर्चाएं तभी होती हैं जब किसी पत्रकार और संपादक में भिड़ंत हो जाए। या फिर उत्पीड़न की शिकार कोई महिला मुखर होकर सामने आ जाय। लाखों रूपये सैलरी और दूसरे घपले-घोटालों में मस्त मैनेजरनुमा संपादक-पत्रकार अपनी उर्जा को ऐसे ही औरतबाजी में खफा रहे हैं। जब पत्रकारिता बाजार की गुलाम हो गई हो और संपादकों के जन सरोकार महीने की मोटी सैलरी बटोरने तक सिमट गए हों, तब यही सबकुछ होना है। खैर खबर यह है कि देहरादून के एक प्रमुख दैनिक समाचार पत्र के संपादक इन दिनों रंडीबाजी को लेकर चर्चा का विषय बने हुए हैं। देहरादून में कदम रखते ही इनकी अयाशियां परवान चढ़ने लगीं। इस संपादक को भारी-भरकम सैलरी मिलती है। इस पैसे का दुरूपयोग वे अपनी रंगीन मिजाजी के लिए कर रहे हैं। रंगीन मिजाजी की खबरें इन दिनों चर्चा का विषय बनी हुई हैं। ये अपनी लम्बी गाड़ी में अक्सर बाजारू लड़कियों को देहरादून के आउटर में ले जाते हैं। ये अपने चापलूस दोस्तों से प्रशिक्षु महिला पत्रकारों को भर्ती कराने के लिए जब-तब कहते रहते हैं। इन महाशय ने देहराूदन में पर्दापर्ण करते ही एक महिला पत्रकार को नाकाबिल घोषित करते हुए संस्थान से बाहर का रास्ता दिखा दिया, लेकिन दूसरी ओर एक प्रशिक्षु पत्रकार के साथ खुदकी बाइलाइन खबरें छापकर उसे स्टाफर का दर्जा तक दिलवा डाला। इस महिला पत्रकार की काबिलियत भी किसी से छुपी नहीं है। ये रंडीबाजी को लेकर पिछले दिनों तब चर्चा में आए जब इनकी अपने ही एक सहयोगी से ठन गई। हुआ कुछ यूं कि इन संपादक महोदय कि देहरादून आगमन के वक्त से ही यहां सालों से जमे-जमाये बैठे एक पत्रकार के साथ ठन गई थी। मामला यहां तक पहुंचा कि पत्रकार को उत्तराखंड से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया, नजीजन पहाड़ी बनाम मैदानी मानसिकता पर जमकर गरमागरम विमर्श होने लगा। उत्तराखंड के एक तेजस्वी पत्रकार, जो अब स्वर्गीय हो चुके, ने देहरादून में इन संपादक के खिलाफ गाजे-बाजे के साथ विरोध-प्रदर्शन तक का ऐलान कर दिया था। हालांकि यह अनोखा प्रदर्शन हो न सका। इस तनातनी के बीच पिछले दिनों संपादक को फूटी आंख न सुहाने वाले से पत्रकार अपने घर देहरादून आए हुए थे। इसी दौरान वे अपने एक साथी के दुख में शरीक होने के लिए देहरादून स्थित अपने अखबार के कार्यालय में उनसे मिलने जा पहुंचे। बताते हैं कि संपादक ने सुरक्षा गार्ड से पत्रकार को बाहर धकियाने को कहा। इसी बात को लेकर अपने गरममिजाज तेवरों को लेकर पहचाने वाले पत्रकार को खुदकी बेइज्जती सहन नहीं हो सकी और उन्होंने संपादक के खिलाफ पूरी भड़ास निकाल डाली। मामला इतना बढ़ गया कि पत्रकार ने संपादक को सरेआम रंडीबाज तक कह डाला। काफी देर तक दोनों के मध्य वाद-विवाद होने के बाद पत्रकार अखबार के कार्यालय से बाहर निकल गए। इसके बाद पत्रकार ने अखबार के नोयडा स्थित कार्यालय में मैनेजमैंट से संपादक की कारगुजारियों की शिकायत कर संस्थान से इस्तीफा दे दिया। अब उन्होंने देहरादून में ही एक नया अखबार ज्वाइन कर लिया है। संपादक की रंडीबाज के किस्से रोज मीडिया में इन दिनों चर्चा का विषय बने हुए हैं।
वैकल्पिक मीडिया के समर्थकों-शुभचिंतकों के नाम अपील़-ॅंजबीक्वह
एक मासिक पत्रिका के तौर पर वाॅचडाॅग की शुरूआत दो साल पहले हुई। इस दौरान मैग्जीन को सरकारी विज्ञापनों पर ही पूरी तरह आश्रित रहना पड़ा। जैसे-तैसे सरकारी इमदाद के भरोसे सीमित दायरे में ही सही, मैगजीन छपती रही है, इसमें कुछ मित्रों का सहयोग भी वक्त-बेवक्त मिलता रहा। जैसे कि अक्सर होता है सत्ता-सिस्टम के खिलाफ खड़े होने की कीमत हर किसी को चुकानी पड़ती है, कम या ज्यादा। यही कीमत वाॅचडाॅग को भी चुकानी पड़ी है। अपने शुरूआती अंक से ही पत्रिका की कवर स्टोरी भ्रष्ट राजनेताओं और नौकरशाहों की कारगुजारियों पर ही केन्द्रित रही, यह जानते-बूझते हुए भी कि जिन्दा रहने के लिए जरूरी रसद इन्हीं राजनेताओं-नौकरशाहों के रहमोकरम पर रिसता हुआ हम जैसों तक भी पहुंचती है, चाहे वह विज्ञापन के रूप में ही हो। जैसे कि मासिक पत्रिकाएं या फिर छोटे समाचार पत्र स्वभावतः सत्ता-सिस्टम को रास नहीं आते, जितना कि कार्पाेरेट मीडिया घराने। उनकी ताकत ज्यादा होती है, लिहाजा वे सत्ता-सिस्टम के नजदीक भी होते हैं और उसी अनुपात में धंधा भी करते हैं। उत्तराखंड में सरकार पूरी तरह इन्हीं कार्पाेरेट मीडिया वालों को पालने-पोसने में लगी हुई है, उसे सरकार की कार्यशैली पर आलोचनात्मक नजर रखने वाले पत्रकार और ऐसे छोटी पत्र-पत्रिकाएं फूटी आंख नहीं सुहाती। छपाई के खर्चे लगातार बढ़ने से भी वाॅचडाॅग जैसी पत्र-पत्रिकाओं के सामने संकट ज्यादा गहरा है। तमाम कोशिशों के बावजूद भी वाॅचडाॅग नियमित तौर पर प्रकाशित नहीं हो पा रही है। यह संकट इसलिए भी तब और बढ़ जाता है जब छोटे स्तर पर बिना किसी पूंजी के प्रकाशित होने वाली वाॅचडाॅग जैसी पत्रिकाएं विज्ञापन के नाम पर अनैतिक तौर-तरीकों का सहारा लेने से बचने की कोशिश करती हैं। इसका नतीजा यह होता है कि विज्ञापन जुटाने के रास्ते बहुत ही सीमित हो जाते हैं। राज्य में विज्ञापन जारी करने वाले अधिकतर विभागों में ऐसे नौकरशाह बैठें हैं जो अपने भ्रष्ट आचरण के लिए कुख्यात हैं। वाॅचडाॅग ने जब इनकी कारगुजारियों पर कलम चलाई तो शुरूआती दिनों से ही इनके अधीन आने वाले विभागों से विज्ञापन हासिल करने के रास्तों को ही अपने लिए बंद कर दिया। नतीजन, साफ-साफ कहें तो यह पत्रिका अब अपने अल्प समय में ही बंदी की स्थिति में पहुंच गई है। इसके बावजूद कोशिश यही है कि पत्रिका को किसी तरह जिंदा रखा जाय। अब तय किया है कि वाॅचडाॅग को प्रिंट में ऐसे ही धक्का मारते रहने के साथ इंटरनेट की आभासी दुनिया में प्रवेश किया जाय, ताकि सोशल मीडिया टूल्स का उपयोग करते हुए वाॅचडाॅग की पहुंच का विस्तार किया जा सके। इसके लिए ूंजबीकवहदमूेण्ूवतकचतमेेण्बवउ नाम से वेब ठिकाना तैयार किया है। प्रिन्ट संस्करण के साथ ही एक ई-मैग्जीन के तौर पर वाॅचडाॅग की कोशिश रहेगी कि उत्तराखंड को केन्द्रित करते हुए सत्ता-सिस्टम की कमजोरियों-कारगुजारियों को प्रखरता के साथ सामने लाया जाय। वाॅचडाॅग के मुख्य फोकस के बिन्दु वे ऐसे सभी सवाल होंगे जो मुख्यधारा की मीडिया में जगह नहीं पाते हैं। वाॅचडाॅग का काम मात्र यही नहीं होगा कि जो परम्परागत तरीके से किसी भी मीडिया संस्थान या पत्रकार का होता है, बल्कि वाॅचडाॅग की भूमिका एक एक्टिविस्ट के तौर पर वे सभी मुददे जो सामने तो आते हैं, लेकिन सरकार की संवेदनहीनता की वजह से किसी अंजाम तक नहीं पहुंच पाते हैं ऐसे सवालों को अदालत की दहलीज तक ले जाना भी होगा। इसके लिए कुछ ऐसे सरोकारी मित्र जो पेशेवर तौर पर वकालत के पेशे में कार्यरत हैं, निःशुल्क अपनी सेवाएं देने को तैयार हैं, ताकि इस मुहिम को आगे बढ़ाया जा सके। यह जानते हुए भी कि एक पत्रकार की परम्परागत भूमिका से हटकर सत्ता-सिस्टम से सीधे-सीधे अदालती चैखट पर टकराव मोल लेने के भी अपने खतरे हैं, ऐसे में भ्रष्ट नेताओं और नौकरशाहों से टकराव होने की सूरत में यह भी संभव है कि आने वाले दिनों में वाॅचडाॅग की घेराबंदी के लिए साजिशों का जाल बिछता दिखे, तो हैरान मत होइये। खैर इन सब अंदेशों के बावजूद हमारी प्राथमिकता के मुददे कुछ इस तरह होंगे-
1-उत्तराखंड में जनपक्षीय पत्रकारिता को बढ़ावा देना।
2- समाचार पत्रों को जनहित से जुड़े विषयों पर समाचार व लेख उपलब्ध कराना।
3- उत्तराखंड में मैला ढोने की सामंती कुप्रथा के खिलाफ एक अभियान संचालित करना।
4- जनहित के मुददों को पीआईएल के रूप में अदालत तक पहुंचाना।
अहम सवाल जो कि आर्थिकी से जुड़ा हुआ है, को हल किए हुए इस तरह की किसी भी मुहिम को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता है। इसके लिए शुरूआती योजना यह है कि वाॅचडाॅग को उन सभी मित्रों, सहयोगियों और शुभचिंतकों के सहयोग से आगे बढ़ाया जाय जो कार्पोरेट मीडिया के इस भनभनाते और दिमाग को सन्न करने वाले शोर के बीच भी वैकल्पिक रास्तों की शिददत के साथ तलाश के राही हैं। इसके लिए प्रायोगिक तौर पर कम से कम ऐसे एक हजार सहयोगियों-शुभचिंतकों की तलाश की जा रही है जो वाॅचडाॅग को पाॅच सौ रूपये से लेकर दो हजार रूपये तक की मदद करने की स्थिति में हों। ऐसे सभी शुभचिंतकों से जो वैकल्पिक मीडिया के समर्थक हैं, से उम्मीद करता हूं कि वे इस मुहिम में शामिल होकर वाॅचडाॅग की मदद को आगे आएंगे और वाॅचडाॅग की नीतियों व लक्ष्यों के निर्धारण व क्रियान्वयन में सहभागी बनेंगे।
भवदीय
दीपक आजाद
एडिटर, वाॅचडाॅग
उत्तराखंड के सूचना निदेशालय में करोड़ों का घोटाला, सरकार खामोश
जांच हुई तो जेल जा सकते हैं चंदोला, राजेश और चैहान की तिकड़ी- उत्तराखंड सरकार का सूचना महकमा अपने कुकर्मो को लेकर कुख्यात है। मुख्यमंत्री के अधीन आने वाले इस महकमें के अफसर विज्ञापनरूपी अस्त्र का प्रयोग कर अपने काले-कारनामों को सार्वजनिक होने से रोकने में अकसर कामयाब होते रहे है। इनकी कुख्याती का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि ये इमानदार अफसरों को भी निदेशालय में टिकने नहीं देते हैं। मिसाल के तौर पर सूचना महानिदेशक बनकर आए दिलीप जावलकर का नाम लिया जा सकता है। निदेशालय में बैठे अनिल चंदोला, राजेश कुमार और चैहान जैसे अफसरों के भ्रष्ट गठजोड़ की दबंगई का आलम यह है कि जब जावलकर ने इनके काले कारनामों की जांच कराने के बाद कार्रवाई की तैयारी शुरू की तो जावलकर को ही डीजी के पद से चलता कर दिया गया। नजीजन जावलकर के हटने के बाद करोड़ों के घोटाले की आडिट रिपोर्ट धूंल फांक रही है।
वाॅचडाॅग पत्रिका के प्रबन्ध संपादक विमल दीक्षित को आरटीआई से हासिल हुई आडिट रिपोर्ट के ब्यौरे चैंकाने वाले हैं। आडिट रिपोर्ट में इन भ्रष्ट अफसरों के कुकर्मों का सिल-सिलेवार खुलासा हुआ है। इन भ्रष्ट अफसरों ने विज्ञापन के नाम पर तो भारी घोटाला किया ही, पत्रकारों की आवभगत की आड़ में भी माल काटने मे कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी। एक वित्तीय वर्ष 2011-12 में ही 45 लाख रूपये पत्रकारों की आवाभगत पर ही फूंक दिए गए। यह आवाभगत कुछ इस तरह की गई कि पत्रकारों को मैनेज करने के नाम पर महंगी घड़ियां तक खरीदी तो र्गइं, लेकिन बांटी नहीं गई। लाखों रूपयों में खरीदी गई घडियों को भी ये भ्रष्ट अफसरान खा गए। आडिट रिपोर्ट में करीब चार करोड का गोलमाल सामने आया है। यह वह गोलमाल है जो सीधे अफसरों के पेट में गया है, विज्ञापन के नाम पर कमीशन का मोटा खेल इसमें शामिल नहीं है।
अपर निदेशक अनिल चंदोला, संयुक्त निदेशक राजेश कुमार, सहायक निदेशक केएस चैहान और वित अधिकारी ओपी पंत की भ्रष्ट चैकड़ी ने वित्तीय वर्ष 2011-12 में पत्रकारों की आवाभगत के नाम पर मोटा खेल खेला। आडिट रिपोर्ट के मुताबिक 14 लाख रूपये पत्रकारों को प्राइवेट गाडियां उपलब्ध कराने, 3 लाख रूपये होटलों में ठहरने और 29 लाख रूपये खाने और 12 लाख रूपये गिफट देने के नाम पर खर्च किए गए। करीब तीन लाख की कीमत से पत्रकारों के लिए तीन सौ रिस्ट वाॅच की खरीद की गई, लेकिन ये घडिया केवल कागजों में खरीदी गईं। देहरादून में कई होटलों को पत्रकारों की आवाभगत के नाम पर लाखों रूपयों का भुगतान किया गया। पैकड फूड के नाम पर कुमार वेजिटेरियन को 80 हजार रूप्ये बिल के अतिरिक्त भुगतान किए गए। पैकेड की संख्या के नाम पर जो खेल खेला गया वह अलग है। अफसरों की मनमानी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि निदेशालय के स्टाफ की चाय के नाम पर ही साढे चार लाख रूपये और लंच व डिनर के नार पर 24 हजार रूपये खर्च किए गए, जबकि नियमानुसार मुफत चाय व लंच-डिनर का कोई प्रावधान नहीं है।
होर्डिग्स व विज्ञापनों की आड में भी मोटा गोलमाल किया गया। एक विज्ञापन एजेंसी को तो सर्विस टैक्स के नाम पर दस लाख रूपये का अधिक भुगतान कर दिया गया। ऐसी ही सरकारी बसों में विज्ञापन के नाम पर एक अन्य विज्ञापन एजेंसी को एक लाख चैदह हजार रूप्ये का अधिक भुगतान किया गया। परिवहन निगम की बसों में विज्ञापन लगाने के नाम पर तो दो माह के अंतराल में ही करीब 50 लाख रूप्ये का ठेका प्रभातम विज्ञापन एजेंसी को दिया गया। इसमें किस हदतक घोटाला किया गया, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि निगम की बसों में विज्ञापन लगाने के नाम पर पहले 24 लाख का ठेका दिया गया और फिर उन्हीं बसों पर सरकारी विज्ञापन चस्पा करवाने के लिए एक महीने बाद ही 26 लाख रूप्ये का ठेका दे दिया गया। यह सीधे-सीधे सरकारी धन को ठिकाने लगाने का मामला है। यही नहीं सूचना निदेशालय के भ्रष्ट अफसरों ने विज्ञापन एजेंसी कलर चैकर्स के साथ सांठगांठ कर उसे एक ही बिल का दो बार भुगतान कर सरकारी खजाने को 9 लाख का चूना लगा दिया। कुछ ऐसा ही मोटा खेल सूचना विभाग के इन भ्रष्ट अफसरों द्वारा समय-समय पर प्रकाशित होने वाली विकास पुस्तिकाओं, मासिक पत्रिका, कलेंडर और टेलीफोन डायरी के नाम पर भी किया गया। ऐसा नहीं है कि भ्रष्ट अफसर ही सरकारी खजाने को चट कर मजे लूट रहे हैं, बल्कि पत्रकारों की भी एक जमात भी सैर सपाटे के लिए सूचना विभाग का जमकर दोहन कर रहे हैं। आॅडिट रिपोर्ट में करीब साढे पांच लाख रूपये पत्रकारों ने अपने निजी कार्यो के नाम पर सैर-सपाटे पर ही उडा दिए। जून 2011 में औली सैफ गेम्स में गए पत्रकारों को लंच पैकेड खिलाने के नाम पर अफसरों ने सीधे-सीधे 9 हजार रूपये का गोलमाल कर दिया। इसी तरह कई चैनलों ने विज्ञापन के नाम पर भुगतान तो लिया लेकिन चैनल पर विज्ञापन दिखाया भी गया, इसका सबूत अधिकारी आडिटर्स को नहीं दिखा पाए। गीत एवं नाटय प्रभाग के तहत भी लाखों रूपयों का घोटाला किया गया। अगर इस आडिट रिपोर्ट पर ईमानदारी से कार्रवाई हुई तो कई प्रिंटर्स और विज्ञापन एजेंसियों के संचालक को भी इन भ्रष्ट अफसरों के साथ जेल की रोटी खानी पड़ सकती है। मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के पास सूचना विभाग भी है। मुख्य सचिव से लेकर सूचना सचिव तक को सूचना विभाग के घोटालों की जानकारी है, मगर विभाग मुख्यमंत्री के पास होने के कारण वह कुख्यात अफसरों के खिलाफ कार्रवाई करने से घबरा रहे हैं। यही नहीं मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के प्रमुख नेताओं ने भी इस पर खामोशी ओढ़ रखी है। बात-बात पर उत्तराखंड के हितों की दुहाई देने वाला उकेडी भी जनता की गाढ़ी कमाई की लूट पर चुप है। कहते हैं कि राज्य गठन के बाद से सीबीआई जैसी संस्था सूचना विभाग के लेखे-जोखे की जांच करे तो तमाम छोटे से लेकर बड़े अफसर जेल की चक्की पीस रहे होंगे।
जांच हुई तो जेल जा सकते हैं चंदोला, राजेश और चैहान की तिकड़ी- उत्तराखंड सरकार का सूचना महकमा अपने कुकर्मो को लेकर कुख्यात है। मुख्यमंत्री के अधीन आने वाले इस महकमें के अफसर विज्ञापनरूपी अस्त्र का प्रयोग कर अपने काले-कारनामों को सार्वजनिक होने से रोकने में अकसर कामयाब होते रहे है। इनकी कुख्याती का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि ये इमानदार अफसरों को भी निदेशालय में टिकने नहीं देते हैं। मिसाल के तौर पर सूचना महानिदेशक बनकर आए दिलीप जावलकर का नाम लिया जा सकता है। निदेशालय में बैठे अनिल चंदोला, राजेश कुमार और चैहान जैसे अफसरों के भ्रष्ट गठजोड़ की दबंगई का आलम यह है कि जब जावलकर ने इनके काले कारनामों की जांच कराने के बाद कार्रवाई की तैयारी शुरू की तो जावलकर को ही डीजी के पद से चलता कर दिया गया। नजीजन जावलकर के हटने के बाद करोड़ों के घोटाले की आडिट रिपोर्ट धूंल फांक रही है।
वाॅचडाॅग पत्रिका के प्रबन्ध संपादक विमल दीक्षित को आरटीआई से हासिल हुई आडिट रिपोर्ट के ब्यौरे चैंकाने वाले हैं। आडिट रिपोर्ट में इन भ्रष्ट अफसरों के कुकर्मों का सिल-सिलेवार खुलासा हुआ है। इन भ्रष्ट अफसरों ने विज्ञापन के नाम पर तो भारी घोटाला किया ही, पत्रकारों की आवभगत की आड़ में भी माल काटने मे कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी। एक वित्तीय वर्ष 2011-12 में ही 45 लाख रूपये पत्रकारों की आवाभगत पर ही फूंक दिए गए। यह आवाभगत कुछ इस तरह की गई कि पत्रकारों को मैनेज करने के नाम पर महंगी घड़ियां तक खरीदी तो र्गइं, लेकिन बांटी नहीं गई। लाखों रूपयों में खरीदी गई घडियों को भी ये भ्रष्ट अफसरान खा गए। आडिट रिपोर्ट में करीब चार करोड का गोलमाल सामने आया है। यह वह गोलमाल है जो सीधे अफसरों के पेट में गया है, विज्ञापन के नाम पर कमीशन का मोटा खेल इसमें शामिल नहीं है।
अपर निदेशक अनिल चंदोला, संयुक्त निदेशक राजेश कुमार, सहायक निदेशक केएस चैहान और वित अधिकारी ओपी पंत की भ्रष्ट चैकड़ी ने वित्तीय वर्ष 2011-12 में पत्रकारों की आवाभगत के नाम पर मोटा खेल खेला। आडिट रिपोर्ट के मुताबिक 14 लाख रूपये पत्रकारों को प्राइवेट गाडियां उपलब्ध कराने, 3 लाख रूपये होटलों में ठहरने और 29 लाख रूपये खाने और 12 लाख रूपये गिफट देने के नाम पर खर्च किए गए। करीब तीन लाख की कीमत से पत्रकारों के लिए तीन सौ रिस्ट वाॅच की खरीद की गई, लेकिन ये घडिया केवल कागजों में खरीदी गईं। देहरादून में कई होटलों को पत्रकारों की आवाभगत के नाम पर लाखों रूपयों का भुगतान किया गया। पैकड फूड के नाम पर कुमार वेजिटेरियन को 80 हजार रूप्ये बिल के अतिरिक्त भुगतान किए गए। पैकेड की संख्या के नाम पर जो खेल खेला गया वह अलग है। अफसरों की मनमानी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि निदेशालय के स्टाफ की चाय के नाम पर ही साढे चार लाख रूपये और लंच व डिनर के नार पर 24 हजार रूपये खर्च किए गए, जबकि नियमानुसार मुफत चाय व लंच-डिनर का कोई प्रावधान नहीं है।
होर्डिग्स व विज्ञापनों की आड में भी मोटा गोलमाल किया गया। एक विज्ञापन एजेंसी को तो सर्विस टैक्स के नाम पर दस लाख रूपये का अधिक भुगतान कर दिया गया। ऐसी ही सरकारी बसों में विज्ञापन के नाम पर एक अन्य विज्ञापन एजेंसी को एक लाख चैदह हजार रूप्ये का अधिक भुगतान किया गया। परिवहन निगम की बसों में विज्ञापन लगाने के नाम पर तो दो माह के अंतराल में ही करीब 50 लाख रूप्ये का ठेका प्रभातम विज्ञापन एजेंसी को दिया गया। इसमें किस हदतक घोटाला किया गया, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि निगम की बसों में विज्ञापन लगाने के नाम पर पहले 24 लाख का ठेका दिया गया और फिर उन्हीं बसों पर सरकारी विज्ञापन चस्पा करवाने के लिए एक महीने बाद ही 26 लाख रूप्ये का ठेका दे दिया गया। यह सीधे-सीधे सरकारी धन को ठिकाने लगाने का मामला है। यही नहीं सूचना निदेशालय के भ्रष्ट अफसरों ने विज्ञापन एजेंसी कलर चैकर्स के साथ सांठगांठ कर उसे एक ही बिल का दो बार भुगतान कर सरकारी खजाने को 9 लाख का चूना लगा दिया। कुछ ऐसा ही मोटा खेल सूचना विभाग के इन भ्रष्ट अफसरों द्वारा समय-समय पर प्रकाशित होने वाली विकास पुस्तिकाओं, मासिक पत्रिका, कलेंडर और टेलीफोन डायरी के नाम पर भी किया गया। ऐसा नहीं है कि भ्रष्ट अफसर ही सरकारी खजाने को चट कर मजे लूट रहे हैं, बल्कि पत्रकारों की भी एक जमात भी सैर सपाटे के लिए सूचना विभाग का जमकर दोहन कर रहे हैं। आॅडिट रिपोर्ट में करीब साढे पांच लाख रूपये पत्रकारों ने अपने निजी कार्यो के नाम पर सैर-सपाटे पर ही उडा दिए। जून 2011 में औली सैफ गेम्स में गए पत्रकारों को लंच पैकेड खिलाने के नाम पर अफसरों ने सीधे-सीधे 9 हजार रूपये का गोलमाल कर दिया। इसी तरह कई चैनलों ने विज्ञापन के नाम पर भुगतान तो लिया लेकिन चैनल पर विज्ञापन दिखाया भी गया, इसका सबूत अधिकारी आडिटर्स को नहीं दिखा पाए। गीत एवं नाटय प्रभाग के तहत भी लाखों रूपयों का घोटाला किया गया। अगर इस आडिट रिपोर्ट पर ईमानदारी से कार्रवाई हुई तो कई प्रिंटर्स और विज्ञापन एजेंसियों के संचालक को भी इन भ्रष्ट अफसरों के साथ जेल की रोटी खानी पड़ सकती है। मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के पास सूचना विभाग भी है। मुख्य सचिव से लेकर सूचना सचिव तक को सूचना विभाग के घोटालों की जानकारी है, मगर विभाग मुख्यमंत्री के पास होने के कारण वह कुख्यात अफसरों के खिलाफ कार्रवाई करने से घबरा रहे हैं। यही नहीं मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के प्रमुख नेताओं ने भी इस पर खामोशी ओढ़ रखी है। बात-बात पर उत्तराखंड के हितों की दुहाई देने वाला उकेडी भी जनता की गाढ़ी कमाई की लूट पर चुप है। कहते हैं कि राज्य गठन के बाद से सीबीआई जैसी संस्था सूचना विभाग के लेखे-जोखे की जांच करे तो तमाम छोटे से लेकर बड़े अफसर जेल की चक्की पीस रहे होंगे।
370 जैसी बाध्यता की, दरकार उत्तराखण्ड को भी एक शेर हैबात निकलेगी तो दूर तक जायेगी और अगर यही बात किसी ऐसे शख्स के श्रीमुख से निकली हो, जो देश के राजनीतिक क्षितिज पर एक बहुत बडा सितारा हो, तब वह कितनी दूर जायेगी इसे खुद ही समझा जा सकता है।पिछले (वर्ष) एक दिसंम्बर को गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा केपीएम इन वैटिंग श्री नरेंन्द्र मोदी नें जम्मू की ललकार रैली में अनुच्छेद-370 के औचित्य-अनौचित्य पर समीक्षा की बात कह डाली, तो देश के चारों खानों से लोगों नेंइस प्रावधान पर जोर-शोर चर्चा शुरू कर दी,देश में खलबली मच गई। क्या सरकार ? और क्या विपक्ष ? मीडिया और आम लोगों के बीच बहस का मुद्दा ही अनुच्छेद-370बन गया, जिसे देखो अनुच्छेद-370 के पक्ष या विपक्ष तर्क देते दिखनें लगा। हालांकि यह विषय विशुद्व रूप से राजनीतिक है, और समकालीन राजनीति के क्षितिज पर विराजमान किसीकद्दावर राजनेता शख्स से जुडा हुआ है, इसलिए इसमें राजनीति का घाल-मेल होंना लाजमी है, अतरू इस विषय पर सन्तुलित चर्चा की अपेक्षा न करते हुए राजनीति करनें वाले हर बन्दे के लिए यह बाद-विवाद का लंबा विषय हो सकता है, जैसे कि हो रहा,दिख रहा है, इस मुद्दे पर बहस जहॉ जानी चाहिए थी वहॉ वह कभी गई ही नही,विडंम्बना देखिये श्रीमान् मोदीजी नें कश्मीरी पंडितों का मुद्दा नहीं उठाया, जोअनुच्छेद-370 जितना महत्वपूर्ण है,63 सालों से बिना किसी राजनीतिक और नागरिक अधिकार के रह रहे पाकिस्तानी रिफ्यूजियों का कोई भी जिक्र नहीं किया,महिलाओं के अधिकारों के संदर्भ में वे जरूर कुछ बोलना चाह रहे थे लेकिन दूर्भाग्यवश इस संमंध में उनकी जानकारी अपूर्ण थी। बहरहाल जम्मू-कश्मीर राज्य पर अनुच्छेद-370 प्रासांगिकता पर टिप्पणी करनें के बजाय, उसकी जो सबसे खास बात, जो आकर्षित करतीहै वह है राज्य में बाहरी लोगों का राज्य में बसनें पर पूर्ण प्रतिबंध, बाहरी नागरिकराज्य की जमीन पर न तो मकान अथवा भवन ही बना सकते हैं न ही किसी प्रकार से जमीन की खरीद फरोख्त ही, इसके अतिरिक्त इस कानून में तमाम ऐसे प्रावधान भी हैं जो इस पहाडी राज्य की जैव विविधता और नैसर्गिक संपदा को सुरक्षा प्रदान करते हैं, इसलिए जम्मू-कश्मीर राज्य आज भी धरती का स्वर्ग बना हुआ है। ये भी सच्चाई है कि इसी कानून की बदौलत यसंभवतया जम्मू कश्मीर रियासत को यह तमगा नसीब हुआ है, वरना भारतीय धनकुबेरों की यहॉ कई-कई अट्टालिकाऐं खडी हुई मिलती जो निश्चित रूप से यहॉ की खुबसुरती को तो धब्बा लगाते ही, साथ ही तमाम तरह के प्रदूषणों के साथ यहॉ की आवो-हव्वा में जहर घोलनें का काम करते। बहुत संभव है कि इस राज्य की कुदरती खुबसुरती की सलामती के लिए उसे अनुच्छेद-370 की के दायरे में लाया गया हो ?1947 में जम्मू-कश्मीर रियासत के तत्कालीन शासक हरि सिंह और भारत सरकार के बीच सहमति के हुई थी,सहमति पर राजा हरिसिंह नें दस्तखत किये हैं, बाद में 1952 में राजा हरि सिंह की इसीभावना को ध्यान में रखते समझौता किया गया, और 1974 में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गॉधी और जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमंत्री (हरि सिंह द्वारा नियुक्त) शेख अब्दुल्ला के बीच हुई सहमति द्वाराभी इस विचार की पुष्टि हुई। हालंाकि राज्य पर अनुच्छेद-370 के प्रावधान पर देश की विभिन्न राजनीतिक पार्टियो ं,बुद्विजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के भिन्न-भिन्न मत,विचार और तर्क हैं, लेकिन भारत राष्ट्र की ्यअनेकता में एकता्य वाली विशेषता को ध्यान में रखते हुए, इस राज्य पर इस अनुच्छेद से ज्यादा असहज भी नहीं है, क्योंकि देश को आजाद हुए छरू दशक से उपर हो गये,ऐसा कोई उदाहरण नहीं है जिससे अनुच्छेद-370 से कोई समस्या पैदा हुई हो,सिवाय राजनीतिकों के बयानों और भाषणों के।यह देश बहुभाषी, बहुधर्मी,विभिन्न मत-मतान्तरों व अलग-अलग भौगोलिक पृष्टभूमी के चलते कुछ राज्यों के विकास को गति प्रदान करनें के लिए कुछ नये स्थानों के लिए नये ढंग से प्रावधानों को गढना आवश्यक है। अनुच्छेद-370 जैसा एक और अनुच्छेद-371 भी है, जो पूर्वोत्तर के कई राज्यों पर लागू है, तथापि समय-समय पर राज्यों के विधान मंडल और देश की संसद देश और राज्यों के लिए नये कानूनों और प्रावधानों का निर्माण करते रहते है।दरअसल इस बहानें हम उत्तराखण्ड राज्य की चर्चा करना चाह रहें हैं अभी हाल में ही आई प्राकृतिक आपदा नें हिमालयी वाशिंदों और देश वासियों को जो संदेश दिया उस अर्लाम को समझना निहायत ही जरूरी हो गया है,इसीलिए इस राज्य को भी अनुच्छेद-370 जैसी की बाध्यता की आवश्यकता महसूस हो रही है। हालांकि इस अनुच्छेद में कई ऐसे प्रावधान हैं,जिन पर कई लोंगो को आपत्ति हो सकती है,यह नितांत राजनीति मुद्दा भीहै,इसलिए स्पष्ट कर देंना जरूरी है कि उत्तराखण्ड राज्य पर अनुच्छेद-370 थोपनें जैसी किसी बात की हिमायत नही हो रही, अपितू जरूरत इस बात कि महसूस की जा रही है कि ऐसा कोई कठोर प्रावधान बनें,जिससे यहॉ कि प्राकृतिक संपदा पर मानवीय हस्तक्षेप कम से कम हो,या इस गुंजाइश को पूर्णतया समाप्त किया जाना चाहिए,कि यहॉ कि प्राकृतिक संपदा को किसी भी प्रकार का कोई अनावश्यक दबाव न झेलना पडे,पिछले कई वर्षों का इतिहास बताता है कि राज्य की प्राकृतिक संपदा पर बडे से बडे व्यापारियों, ठेकेदारों,दलालों बिचोलियो और वन माफियो की नजर रही है, हद तो तब हो गई जब सरकारों नें ही इशारों ही इशारों में इस राज्य की प्राकृतिक संपदा को लुटनें की खुली इजाजत दे दी,चिपको आन्दोलन इसी नीति की परिणति था, जब जबरन वन माफियों को जंगलो में घूसनें की छूट खुद सरकारयनें दी, तब प्रतिकार स्वरूप महिलाओं ने पेडों पर चिपक कर उसका जमकर विरोध किया तब जाकर उन्होंनें पेडों को बचाया। लेकिन आखिर सवाल उठता है कि राज्य की जनता कब तक सडकों पर आंदोलन रत रहेगी ? खासकर तब जब स्वंय सरकार पहाड के बेटे-बेटियों के हाथों में हैं ? लेकिन 13 वर्ष के नन्हें से उत्तराखण्ड को राजनीतिको नें सिवाय राजनीतिक महत्वाकंाक्षा का शिकार बनाया। इससे दुरूखद और क्या हो सकता है,कि पहाड टूटता,दरकता रहा और यहॉ का राजनीतिक वर्ग मैदानों में पलायन करता रहा, राज्य के तमाम बडे नेता जो कभी पहाड की जवानी और पानी को रोकनें की वकालत करते हुए चुनाव जीता करते थे,राज्य बननें के बाद पहले ही पलायन कर गये। झइस राज्य को भी भगवान नें जम्मू और कश्मीर जैसी कुदरती खुबसूरती से नवाजा है। लेकिन इसके संरक्षण और रख-रखाव के लिए अनुच्छेद-370 जैसा कोई प्रावधान न तो पहले बना नही राज्य के अस्तित्व के बाद बना। नतीजन प्राकृतिक संसाधनों की लूट की परंपरा आज भी जीवित है जिससे राजनेता,,अफसर और ठेकेदारों और माफियों की पौ-बारह है। राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 65 फीसदी भाग वनाच्छादित है,सिवाय जल राशि के रूप मेंकई प्रमुख नदियों का उद्गम स्थलों की भरमार है,मिलम,पिंडारी कफनी गंगोत्री व खतलिंग आदि महत्वपूर्ण ग्लेशियर इसी क्षेत्र में पडते हैं,हिमालय में कुल 238 ग्लेशियर हैं, तथा हिमालय के सबसे बडे ग्लेशियरों में से गंगोत्री ग्लेशियर (4,120 मी0 से लेकर,7000 मी0 की ऊॅचाई पर स्थित है, 30 किलोमीटर लम्बा और 02 से 04 किमी चैडा है।) एक है। इन्हीं से गंगा, यमुना और काली नदियॉ निकलती है। उत्तराखण्ड में वर्तमान में 6 राष्ट्रीय पार्क और 6 वन्य जीव विहार हैं। अपनी प्राकृतिक सुषमा के लिए जानें जाना वाला उत्तराखण्ड में फूलों की घाटी जैसे नयनाभिराम दृश्य भी हैं, लेकिन इस प्राकृतिक संपदा का उपयोग सरकार और तमाम माफियों नें अपनें व्यापारिक हितों के लिए जमकर किया। आये दिन नई-नई विद्युत परियोजनाओं को कमजोर और सवेंदनशील पहाड पर थोपा जा रहा हैं, वही सदानिरा नदियों के सतत प्रवाह को रोककर उनके जल को भी प्रदूषित किया जा रहा है,गंगा जैसी पवित्र नदी को बॉधों में डालकर उसकी शाश्वत पवित्रता को खतरे में डाला जा रहा है, वहीं राज्य भर की नदियों से लेकर गाढ-गधेरों में खनन माफिया चॉदी काट रहे हैं खनन से जहॉ नदियो के किनारे बसे नगरं-बस्तियों को खतरा उत्पन्न हो रहा वहीं लगभग सभी नदियों के तटों पर स्थित उपजाऊ खेती के विनाश को खुला आमंत्रण दिया जा रहा है। अभी हाल में ही हरिद्वार में छापे के दौरान जो तथ्य सामनें आये वे चैंका देंनें वाले हैं,पाया गया कि क्षेत्र से करीब 400 ट्रकों में रेत-बजरी पडोसी राज्य उत्तर प्रदेश को जाता है,राज्य की एंटी मांइनिंग फोर्स नें हरिद्वार के श्यामपुर क्षेत्र में खनिज संपदा की लुट में शामिल वन विभाग और पुलिस कर्मियों की मिली भगत का भंडाफोड किया, इससे भी दूर्भाग्यपुर्ण और क्या हो सकता है,कि प्रकुति की इस सौगात को लुटनें में राज्य का हर सरकारी कर्मी लिप्त है,छापे के दौरान वन विभाग की कटेबड चैकी में कर्मचारियों के बिस्तरों के नीचे से 84,000 रू0 नगद प्राप्त हुए,यानें प्रकृति के खजानें को लुटनें में कोई भी पीछे नहीं है। इन्हीं नदियों पर अपनें चहेतों को बडी-छोटी विद्युत परियोजनाओं की बंदर बॉट की परम्परा भी समय-समय पर मुखर हो जाती है,इसी क्रम में कई बडी जल-विद्युत परियोजनाओं को पर्यावरण कार्यकर्ताओं के विरोध के आगे झुकना पडा नतीजन आधी-अधुरे काम के बाद उन्हें अब खंण्डर कर छोड दिया गया है,जबकि निर्माण के दौरान डायनामाइड जैसे विस्फोटको से बडे-बडे पहाडों को छलनी कर दिया गया था, आज हालात ये हैं कि थोडी सी बारिश पर भूस्खलन से बडे-से-बडे पहाड दरकनें लग जाते हैं, जो समय-समय पर बडी से बडी आपदा के साथ जन-धनकी हानि करते हैं। नरकोटा-सिरोबगड के मध्य लगभग 12 किमी के दायरे में डेंजर जोंन लगातार बढते हुए जा रहा है,लगभग एक दर्जन स्थानों पर बारिश के बाद बोल्डरों के गिरनें का सिलसिला बना हुआ है। इस समय राज्य की नदियों पर300 से उपर बिजली परियोजनाऐं प्रस्तावित हैं। भारतीय वन सर्वेक्षण के ऑकडों के अनुसार राज्य में 2001 में सामान्य सघन वनों का क्षेत्रफल 19,023 वर्ग किमी था। जबकि 2011 में यह 14167 वर्ग किमी रह गया। हाल ही में एक सर्वेक्षण के बाद जी0एस0आई0 नें जनपद रूद्रप्रयाग,चमोली,उत्तरकाशी, पिथौरागढ और बागेश्वर जिलों में 21 विशेषज्ञ अधिकारियों के माध्यम से भूगर्भीय और भू-स्थायित्व के बारे में अध्ययन किया के बारे में अध्ययन किया गया । इस दौरान 274 स्थान ऐसे चिन्हित किये गये जो भू स्खलन की दृष्टि से खतरनाक हैं, 1,000 किमी सर्वेक्षण लम्बे क्षेत्र का सर्वेक्षण कार्य किया गया,जिसमें 67 प्रभावित ग्राम-कस्बों और अवस्थापना संबंधी भूवैज्ञानिक ऑकडे तैयार किये। झहिमालय विश्व की सबसे ऊॅची और सबसे युवा पर्वत श्रृखंला है, भूगर्भीय हलचलों के कारण हिमालय हर साल लगभग 5 मिमी0 ऊॅचा हो जाता है। मध्य हिमालय में बसे नवोदित राज्य उत्तराखण्ड प्राकृतिक और भौगोलिक दृष्टि से अत्यन्त संवेदनशील है, लगातार मानवीय हस्तक्षेप और मानवीय गतिविधियों से यहॉ निरंतर प्राकृतिक दूर्घटनाओं का क्रम जारी है हाल में राज्य में आई प्राकृतिक आपदा नें पूरे देश के जनमानस को हिला कर रख दिया, अकेले रूदप्रयाग जिले कि बात करें जहॉ केदारनाथ धाम स्थित है, तो वहॉ इस जल प्रलय नें इस क्षेत्र को तबाह कर दिया जिले में 649 लोंगों की मौत हुई,देश भर के विभिन्न राज्योंसे केदारनाथ यात्रा पर आये 3,218 तीर्थयात्री लापता हुए जिन्हें अब तक मृतक घोषित किया जा रहा है। इसके अलावा तीर्थाटन और पर्यटन व्यवसाय पूरी तरह चैपट हो चुका है,380 से ज्यादा मकान पूरी तरह धराशाही हो गये, करीब 800 मकानों को गंभीर व आंशिक क्षति पहुॅची,रूद्रप्रयाग जिले में 18 पुल ध्वस्त हुए, जिनका निर्माण तक नही हुआ,लोग ट्राली के सहारे जीवन गुजार रहे हैं। वहीं पूरी आपदा के दौरान कुल मरनें वालों का ऑकडा 4032 है, किन्तु माना जा रहा है कि जिस आपदा नें हर तरफ तबाही मचाई उसके चलतें यह ऑकडा दस हजार से कहीं अधिक भी हो सकता है,ग्लेशियरों से अवतरित होंनें वाली इन नदियों नें निचली घटियों में मानव बस्तियों को ही उजाड दिया। इस त्रासदी नें 22 हजार से अधिक परिवार प्रभावित हुए,तो 12,000 हैक्टे0 से अधिक कृषि भूमी तबाह हुई। हेम गंगा पर बना 200 साल पुराना पुलना-भ्यूॅडार पर भी टूटा रौद्र रूप लेकर आगे बढी, हेंम गंगा नें इस गॉव की खुशियों को अपनें साथ बहाते हुए 101 परिवारों को बेघर कर दिया। त्रासदी के दौरान इस नवोदित राज्य को 106 करोड नुकसान का अनुमान है। पर्यटन को ठीक ढंग से उभरनें के लिए 5 साल का वक्त लगनें का अनुमान है, पर्यटन विशेषज्ञ प्रो0 टी0के0 आचार्य के अनुसार अगले पॉच सालों में करीब 4 से 5 हजार करोड की राशि पर्यटन व्यवसाय को खडा करनें में लगेंगें।हे0न0ब0 गढवाल विश्वविद्यालय के भूगर्भ वैज्ञाानिकों का दावा है कि यह त्रासदी नें पिछले 600 सालों को भी पीछे छोड दिया है,अलकनंदा नदी में 11 बार बाढ आई जिसमें 2013 की बाढ को सर्वाधिक विनाशकारी मापा गया है,जब अलकनंदा का जल स्तर 4 मी0 से भी उपर पहॅुच गया। अतरू वैज्ञाानिको के इस शोध को भी गंभीरता से लिया जाना चाहिए। झयोजना आयोग नें पहाडी राज्यों के साथ उत्तराखण्ड राज्य को भी ग्रीन बोनस देंनें की स्वीकृति प्रदान की है, निरूसंदेह यह प्रंशसनीय कदम है,लेकिन महज धन वितरण कर देंनें से यहॉ की पारिस्थितिकी तंत्र को सुरक्षा प्रदान होगी इसमें संदेह है इस मद से मिलनें वाला पैसा सडक,बीजली,पानी, अस्पताल और अच्छा यातायात को मुहैय्या करा लेगा, लेकिन असली सवाल फिर भी अनुत्तरित रहेगा कि कैसे सवेंदन शील हिमालय को मानवीय गतिविधियों और हस्तक्षेप से बचाया जा सके ? शायद इसका उत्तर है अनुच्छेद-370 या फिर इसी तरह का और कोई कठोर कानून।
सोमवार, 25 नवंबर 2013
उत्तराखण्ड दिवस समारोह- दिल्ली में समारोह
उत्तराखण्ड दिवस समारोह- दिल्ली में समारोह
व्यापार मेले में उत्तराखण्ड के इस रूप की भी झलक दिखायी जानी चाहिए-
25 नव0 को सांय 5;30 बजे लाल चौक थियेटर पगति मैदान, नई दिल्ली में भारत अन्तर्राष्टीय व्यापार मेला 2013 उत्तराखण्ड दिवस समारोह के अवसर पर सांस्क़तिक संध्या का उदघाटन उत्तराखण्ड के सीएम व लघु उद्योग, खादी, श्रम एवं दुग्ध विकास मंत्री करेगें, इस व्यापार मेले में उत्तराखण्ड की झलक दिखायी जाएगी, तो उत्तराखण्ड में तो इस समय भ्रष्टाचार खूब फल फूल रहा है, उसकी झलक दिखानी चाहिए,दिल्ली में उत्तराखण्ड की झलक दिखाने के लिए नौकरशाह व सत्तानशीं सांस्क़तिक संध्या का उदघाटन करने का लाखों रूपये का विज्ञापन बांट दिया गया, जबकि उसी दिन नेता प्रतिपक्ष अजय भटट मुख्यमंत्री के सामने चुनौती रखते हैं कि यदि केदारनाथ के भवनों में शव नही मिले तो सक्रिय राजनीति से संयास ले लेगें, परन्तु केदारनाथ की लाशों को 6 माह बाद भी निकालना छोड दिल्ली में सांस्क़तिक संध्या का लुत्फ उठाने के लिए हजारों करोडों रूपये फूंके जा रहे हैं, शायद तभी अजय भटट कहते हैं कि सीएम के इस कदम की हर जगह थू थू हो रही है,
व्यापार मेले में उत्तराखण्ड के इस रूप की भी झलक दिखायी जानी चाहिए-
25 नव0 को सांय 5;30 बजे लाल चौक थियेटर पगति मैदान, नई दिल्ली में भारत अन्तर्राष्टीय व्यापार मेला 2013 उत्तराखण्ड दिवस समारोह के अवसर पर सांस्क़तिक संध्या का उदघाटन उत्तराखण्ड के सीएम व लघु उद्योग, खादी, श्रम एवं दुग्ध विकास मंत्री करेगें, इस व्यापार मेले में उत्तराखण्ड की झलक दिखायी जाएगी, तो उत्तराखण्ड में तो इस समय भ्रष्टाचार खूब फल फूल रहा है, उसकी झलक दिखानी चाहिए,दिल्ली में उत्तराखण्ड की झलक दिखाने के लिए नौकरशाह व सत्तानशीं सांस्क़तिक संध्या का उदघाटन करने का लाखों रूपये का विज्ञापन बांट दिया गया, जबकि उसी दिन नेता प्रतिपक्ष अजय भटट मुख्यमंत्री के सामने चुनौती रखते हैं कि यदि केदारनाथ के भवनों में शव नही मिले तो सक्रिय राजनीति से संयास ले लेगें, परन्तु केदारनाथ की लाशों को 6 माह बाद भी निकालना छोड दिल्ली में सांस्क़तिक संध्या का लुत्फ उठाने के लिए हजारों करोडों रूपये फूंके जा रहे हैं, शायद तभी अजय भटट कहते हैं कि सीएम के इस कदम की हर जगह थू थू हो रही है,
उत्तराखंड के सूचना निदेशालय में करोड़ों का घोटाला, सरकार खामो
उत्तराखंड के सूचना निदेशालय में करोड़ों का घोटाला, सरकार खामोश
दीपक आजाद/watchdog
जांच हुई तो जेल जा सकते हैं चंदोला, राजेश और चैहान की तिकड़ी- उत्तराखंड सरकार का सूचना महकमा अपने कुकर्मो को लेकर कुख्यात है। मुख्यमंत्री के अधीन आने वाले इस महकमें के अफसर विज्ञापनरूपी अस्त्र का प्रयोग कर अपने काले-कारनामों को सार्वजनिक होने से रोकने में अकसर कामयाब होते रहे है। इनकी कुख्याती का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि ये इमानदार अफसरों को भी निदेशालय में टिकने नहीं देते हैं। मिसाल के तौर पर सूचना महानिदेशक बनकर आए दिलीप जावलकर का नाम लिया जा सकता है। निदेशालय में बैठे अनिल चंदोला, राजेश कुमार और चैहान जैसे अफसरों के भ्रष्ट गठजोड़ की दबंगई का आलम यह है कि जब जावलकर ने इनके काले कारनामों की जांच कराने के बाद कार्रवाई की तैयारी शुरू की तो जावलकर को ही डीजी के पद से चलता कर दिया गया। नजीजन जावलकर के हटने के बाद करोड़ों के घोटाले की आडिट रिपोर्ट धूंल फांक रही है।
वाॅचडाॅग पत्रिका के प्रबन्ध संपादक विमल दीक्षित को आरटीआई से हासिल हुई आडिट रिपोर्ट के ब्यौरे चैंकाने वाले हैं। आडिट रिपोर्ट में इन भ्रष्ट अफसरों के कुकर्मों का सिल-सिलेवार खुलासा हुआ है। इन भ्रष्ट अफसरों ने विज्ञापन के नाम पर तो भारी घोटाला किया ही, पत्रकारों की आवभगत की आड़ में भी माल काटने मे कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी। एक वित्तीय वर्ष 2011-12 में ही 45 लाख रूपये पत्रकारों की आवाभगत पर ही फूंक दिए गए। यह आवाभगत कुछ इस तरह की गई कि पत्रकारों को मैनेज करने के नाम पर महंगी घडि़यां तक खरीदी तो र्गइं, लेकिन बांटी नहीं गई। लाखों रूपयों में खरीदी गई घडियों को भी ये भ्रष्ट अफसरान खा गए। आडिट रिपोर्ट में करीब चार करोड का गोलमाल सामने आया है। यह वह गोलमाल है जो सीधे अफसरों के पेट में गया है, विज्ञापन के नाम पर कमीशन का मोटा खेल इसमें शामिल नहीं है।
अपर निदेशक अनिल चंदोला, संयुक्त निदेशक राजेश कुमार, सहायक निदेशक केएस चैहान और वित अधिकारी ओपी पंत की भ्रष्ट चैकड़ी ने वित्तीय वर्ष 2011-12 में पत्रकारों की आवाभगत के नाम पर मोटा खेल खेला। आडिट रिपोर्ट के मुताबिक 14 लाख रूपये पत्रकारों को प्राइवेट गाडियां उपलब्ध कराने, 3 लाख रूपये होटलों में ठहरने और 29 लाख रूपये खाने और 12 लाख रूपये गिफट देने के नाम पर खर्च किए गए। करीब तीन लाख की कीमत से पत्रकारों के लिए तीन सौ रिस्ट वाॅच की खरीद की गई, लेकिन ये घडिया केवल कागजों में खरीदी गईं। देहरादून में कई होटलों को पत्रकारों की आवाभगत के नाम पर लाखों रूपयों का भुगतान किया गया। पैकड फूड के नाम पर कुमार वेजिटेरियन को 80 हजार रूप्ये बिल के अतिरिक्त भुगतान किए गए। पैकेड की संख्या के नाम पर जो खेल खेला गया वह अलग है। अफसरों की मनमानी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि निदेशालय के स्टाफ की चाय के नाम पर ही साढे चार लाख रूपये और लंच व डिनर के नार पर 24 हजार रूपये खर्च किए गए, जबकि नियमानुसार मुफत चाय व लंच-डिनर का कोई प्रावधान नहीं है।
होर्डिग्स व विज्ञापनों की आड में भी मोटा गोलमाल किया गया। एक विज्ञापन एजेंसी को तो सर्विस टैक्स के नाम पर दस लाख रूपये का अधिक भुगतान कर दिया गया। ऐसी ही सरकारी बसों में विज्ञापन के नाम पर एक अन्य विज्ञापन एजेंसी को एक लाख चैदह हजार रूप्ये का अधिक भुगतान किया गया। परिवहन निगम की बसों में विज्ञापन लगाने के नाम पर तो दो माह के अंतराल में ही करीब 50 लाख रूप्ये का ठेका प्रभातम विज्ञापन एजेंसी को दिया गया। इसमें किस हदतक घोटाला किया गया, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि निगम की बसों में विज्ञापन लगाने के नाम पर पहले 24 लाख का ठेका दिया गया और फिर उन्हीं बसों पर सरकारी विज्ञापन चस्पा करवाने के लिए एक महीने बाद ही 26 लाख रूप्ये का ठेका दे दिया गया। यह सीधे-सीधे सरकारी धन को ठिकाने लगाने का मामला है। यही नहीं सूचना निदेशालय के भ्रष्ट अफसरों ने विज्ञापन एजेंसी कलर चैकर्स के साथ सांठगांठ कर उसे एक ही बिल का दो बार भुगतान कर सरकारी खजाने को 9 लाख का चूना लगा दिया। कुछ ऐसा ही मोटा खेल सूचना विभाग के इन भ्रष्ट अफसरों द्वारा समय-समय पर प्रकाशित होने वाली विकास पुस्तिकाओं, मासिक पत्रिका, कलेंडर और टेलीफोन डायरी के नाम पर भी किया गया। ऐसा नहीं है कि भ्रष्ट अफसर ही सरकारी खजाने को चट कर मजे लूट रहे हैं, बल्कि पत्रकारों की भी एक जमात भी सैर सपाटे के लिए सूचना विभाग का जमकर दोहन कर रहे हैं। आॅडिट रिपोर्ट में करीब साढे पांच लाख रूपये पत्रकारों ने अपने निजी कार्यो के नाम पर सैर-सपाटे पर ही उडा दिए। जून 2011 में औली सैफ गेम्स में गए पत्रकारों को लंच पैकेड खिलाने के नाम पर अफसरों ने सीधे-सीधे 9 हजार रूपये का गोलमाल कर दिया। इसी तरह कई चैनलों ने विज्ञापन के नाम पर भुगतान तो लिया लेकिन चैनल पर विज्ञापन दिखाया भी गया, इसका सबूत अधिकारी आडिटर्स को नहीं दिखा पाए। गीत एवं नाटय प्रभाग के तहत भी लाखों रूपयों का घोटाला किया गया। अगर इस आडिट रिपोर्ट पर ईमानदारी से कार्रवाई हुई तो कई प्रिंटर्स और विज्ञापन एजेंसियों के संचालक को भी इन भ्रष्ट अफसरों के साथ जेल की रोटी खानी पड़ सकती है। मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के पास सूचना विभाग भी है। मुख्य सचिव से लेकर सूचना सचिव तक को सूचना विभाग के घोटालों की जानकारी है, मगर विभाग मुख्यमंत्री के पास होने के कारण वह कुख्यात अफसरों के खिलाफ कार्रवाई करने से घबरा रहे हैं। यही नहीं मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के प्रमुख नेताओं ने भी इस पर खामोशी ओढ़ रखी है। बात-बात पर उत्तराखंड के हितों की दुहाई देने वाला उकेडी भी जनता की गाढ़ी कमाई की लूट पर चुप है। कहते हैं कि राज्य गठन के बाद से सीबीआई जैसी संस्था सूचना विभाग के लेखे-जोखे की जांच करे तो तमाम छोटे से लेकर बड़े अफसर जेल की चक्की पीस रहे होंगे।
देहरादून का रंडीबाज संपादक
देहरादून का रंडीबाज संपादक
By Deepak Azad/Watchdog
मीडिया संस्थानों में काली भेडि़यों का एक फलता-फूलता संसार है। दिल्ली से देहरादून तक महिला देह पर गिद्व दृष्टि गड़ाये रखने वाले संपादकों की एक लम्बी फेहरिस्त है। अक्सर ऐसे मामले संस्थानों की चारदिवारी से बाहर नहीं आ पाते। ऐसे काले संपादकों की चर्चाएं तभी होती हैं जब किसी पत्रकार और संपादक में भिड़ंत हो जाए। या फिर उत्पीड़न की शिकार कोई महिला मुखर होकर सामने आ जाय। लाखों रूपये सैलरी और दूसरे घपले-घोटालों में मस्त मैनेजरनुमा संपादक-पत्रकार अपनी उर्जा को ऐसे ही औरतबाजी में खफा रहे हैं। जब पत्रकारिता बाजार की गुलाम हो गई हो और संपादकों के जन सरोकार महीने की मोटी सैलरी बटोरने तक सिमट गए हों, तब यही सबकुछ होना है। खैर खबर यह है कि देहरादून के एक प्रमुख दैनिक समाचार पत्र के संपादक इन दिनों रंडीबाजी को लेकर चर्चा का विषय बने हुए हैं। देहरादून में कदम रखते ही इनकी अयाशियां परवान चढ़ने लगीं। इस संपादक को भारी-भरकम सैलरी मिलती है। इस पैसे का दुरूपयोग वे अपनी रंगीन मिजाजी के लिए कर रहे हैं। रंगीन मिजाजी की खबरें इन दिनों चर्चा का विषय बनी हुई हैं। ये अपनी लम्बी गाड़ी में अक्सर बाजारू लड़कियों को देहरादून के आउटर में ले जाते हैं। ये अपने चापलूस दोस्तों से प्रशिक्षु महिला पत्रकारों को भर्ती कराने के लिए जब-तब कहते रहते हैं। इन महाशय ने देहराूदन में पर्दापर्ण करते ही एक महिला पत्रकार को नाकाबिल घोषित करते हुए संस्थान से बाहर का रास्ता दिखा दिया, लेकिन दूसरी ओर एक प्रशिक्षु पत्रकार के साथ खुदकी बाइलाइन खबरें छापकर उसे स्टाफर का दर्जा तक दिलवा डाला। इस महिला पत्रकार की काबिलियत भी किसी से छुपी नहीं है। ये रंडीबाजी को लेकर पिछले दिनों तब चर्चा में आए जब इनकी अपने ही एक सहयोगी से ठन गई। हुआ कुछ यूं कि इन संपादक महोदय कि देहरादून आगमन के वक्त से ही यहां सालों से जमे-जमाये बैठे एक पत्रकार के साथ ठन गई थी। मामला यहां तक पहुंचा कि पत्रकार को उत्तराखंड से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया, नजीजन पहाड़ी बनाम मैदानी मानसिकता पर जमकर गरमागरम विमर्श होने लगा। उत्तराखंड के एक तेजस्वी पत्रकार, जो अब स्वर्गीय हो चुके, ने देहरादून में इन संपादक के खिलाफ गाजे-बाजे के साथ विरोध-प्रदर्शन तक का ऐलान कर दिया था। हालांकि यह अनोखा प्रदर्शन हो न सका। इस तनातनी के बीच पिछले दिनों संपादक को फूटी आंख न सुहाने वाले से पत्रकार अपने घर देहरादून आए हुए थे। इसी दौरान वे अपने एक साथी के दुख में शरीक होने के लिए देहरादून स्थित अपने अखबार के कार्यालय में उनसे मिलने जा पहुंचे। बताते हैं कि संपादक ने सुरक्षा गार्ड से पत्रकार को बाहर धकियाने को कहा। इसी बात को लेकर अपने गरममिजाज तेवरों को लेकर पहचाने वाले पत्रकार को खुदकी बेइज्जती सहन नहीं हो सकी और उन्होंने संपादक के खिलाफ पूरी भड़ास निकाल डाली। मामला इतना बढ़ गया कि पत्रकार ने संपादक को सरेआम रंडीबाज तक कह डाला। काफी देर तक दोनों के मध्य वाद-विवाद होने के बाद पत्रकार अखबार के कार्यालय से बाहर निकल गए। इसके बाद पत्रकार ने अखबार के नोयडा स्थित कार्यालय में मैनेजमैंट से संपादक की कारगुजारियों की शिकायत कर संस्थान से इस्तीफा दे दिया। अब उन्होंने देहरादून में ही एक नया अखबार ज्वाइन कर लिया है। संपादक की रंडीबाज के किस्से रोज मीडिया में इन दिनों चर्चा का विषय बने हुए हैं।
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