शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2014

बिना नाखून का शेर

बिना नाखून का शेर बना खुफिया विभाग

उत्तराखण्ड राज्य गठन के बाद से लगातार मिल रही आतंकी धमकियांे के बावजूद भी सरकारांे ने लाखों लोगों की जानमाल की सुरक्षा व्यवस्था को भगवान भरोसे रख छोड़ा है। उत्तराखण्ड प्रदेश में जहां एक ओर जल विद्युत परियोजनायें, रक्षा आदि सामरिक महत्व से जुड़े उपक्रम जैसे अति संवेदनशील क्षेत्र है वहीं ऐसे भी धार्मिक-पर्यटक स्थल है जहां प्रतिदिन हजारांे-लाखों लोगों का आवागमन होता है। इसके इतर नागरिकों की सुरक्षा का जिम्मा संभालने वाले सरकारी खुफिया तंत्रों के इंतजामात को लेकर सरकार के प्रयास नाकाफी साबित हो रहे हैं। अभी हाल ही में आतंकी संगठन अलकायदा द्वारा राज्य को दी गई एक धमकी के बाद जहां पूरे प्रदेश में अलर्ट जारी तो कर दिया गया लेकिन आतंकियों की गतिविधियां और उसके मंसूबों की भनक तक खुफिया तंत्र और पुलिस को नहीं लगी। 19 सितम्बर को उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले में सिमी ;आतंकवादी संगठनद्ध के छहः आतंकी किराये के एक घर में रह रहे थे। अचानक उस घर में हुए विस्फोट और इस घटना से भयभीत लोगों ने इसकी जानकारी पुलिस को दी। पुलिस जांच के बाद पता चला कि ये आतंकवादी काफी समय से उसी मकान में रहकर बडे़ पैमाने पर विस्फोटक सामग्री प्रयुक्त कर बम बना रहे थे। इस घटना के बाद से फरार हुए छहः आतंकवादी 20 सितम्बर को स्वीफ्ट डिजायर कार में नजीबाबाद होते हुए कोटद्वार की ओर रवाना हुए। जाफरा के समीप पुलिस चैकिंग के दौरान कार में सवार आतंकवादी जाफरा के निकट कार छोड़ जंगल की ओर भाग निकले। 22 सितम्बर को कोटद्वार पहंुची एटीएस मेरठ की टीम ने खुलासा किया कि फरार हुए सभी आतंकवादी सिमी संगठन से जुड़े हंै। आतंकवादियों की कोटद्वार में आमद का अंदेशा होने पर स्थानीय पुलिस और खुफिया विभाग में हडकंप मच गया।
 आनन-फानन में यूपी पुलिस के साथ स्थानीय पुलिस ने पीएसी की मदद से लैंसडौन वन प्रभाग, सनेह, भाबर के जंगलों में डंडांे के सहारे काम्बिंग शुरू कर दी। आतंकवादियों के लैंसडौन वन प्रभाग के जंगल में छिपे होने की घटना से वन महकमे के भी पसीने छूट गये। पहले ही वन विभाग के लिये सिरदर्द बने बावरिया, कत्था और भीमा गिरोह के बाद आतंकवादियों के जंगल में पनाह लेने की घटना ने वन विभाग के अधिकारियों/कर्मचारियांे की परेशानियांे को और बढ़ा दिया है। सिमी के आतंकवादियों के कोटद्वार में होने की सूचना के बाद उत्तर प्रदेश मेरठ की एटीएस व उत्तराखण्ड की खुफिया टीम ने कोटद्वार में डेरा डालकर संवेदनशील और अतिसंवेदनशील में काम्बिंग की लेकिन अभी तक खुफिया विभाग और पुलिस के हाथ कोई ठोस सुबूत नहीं लगे। अलबत्ता पुलिस ने कार्यवाही के नाम पर इन इनामी आतंकवादियों की पहचान सार्वजनिक कर इन्हें पकडवाने की जन अपील जारी की। वर्ष 2004-05 में कोटद्वार के एक दुग्ध व्यवसाय से एक आतंकवादी के तार जुड़े पाये गये थे। आतंकवादी द्वारा एक विवाह समारोह में शिरकत होने के बाद वापस जाने के बाद मीडिया में इस बात का खुलासा होने के बाद खुफिया विभाग को घटना का पता चला। वर्ष 2010-11 में काफी समय से लकडी पडाव क्षेत्र में रह रहे अपराधियों द्वारा लकड़ी पडाव में एक दपंत्ति के दोहरा हत्याकांड को अंजाम देने के बाद पुलिस जांच में यूपी क्षेत्र में आपराधिक रिकार्ड दर्ज होने की बात सामने आई हो या फिर वर्ष 2012 में हरिद्वार में आयोजित कंुभ मेला में आतंकवादियों द्वारा मिली धमकी, हरिद्वार रेलवे स्टेशन को बम से उडाये जाने की धमकी। हर बार ऐसे मामले में प्रदेश के खुफिया विभाग के पास संसाधनों के अभाव और पुलिस विभाग की कार्यशैली के चलते उनके हाथ खाली ही रहे हैं।जिला पौड़ी के संवेदनशीलता की बात करें तो उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश की सीमा से जुड़े कोटद्वार पौड़ी गढवाल के अंतर्गत सैन्य क्षेत्र, रक्षा उपक्रम, प्रसिद्व धार्मिक स्थल, आरक्षित वन क्षेत्र, रामगंगा कालागढ बांध, रेलवे स्टेशन, व अति संवदेनशील क्षेत्र। रेलवे सेवा के जरिये यहां प्रतिदिन विभिन्न प्रांतों से हजारों की संख्या में लोग कोटद्वार पहंुचते हैं। अन्य प्रांतों के कई लोग यहां व्यापार और मजदूरी करने के नाम पर लकड़ी पडाव, काशीरामपुर, आमपडाव, जशोधरपुर भाबर में काफी समय से रह रहे हैं, लेकिन उच्चाधिकारियों के आदेशों के बाद भी पुलिस और संबंधित विभाग ने उनका आज तक सत्यापन नहीं हो सका। जिला पौड़ी के कोटद्वार क्षेत्र के खुफिया तंत्र की बात की जाये तो सूचना क्रांति के इस दौर में खुफिया विभाग आज भी अपने कार्यालय भवन, बेसिक टेलीफोन, वायरलैंस, टीवी, कम्प्यूटर, फैक्स, इंटरनेट और वाहन जैसी बुनियादी जरूरतों से जूझ रहा है। इतना ही नहीं जहां एक ओर सरकार और उसके मंत्रियों पर क्षेत्र भ्रमण और जनता की समस्याओं को दूर करने के नाम पर भरपूर सुविधायें दिये जाने के साथ पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है वहीं दूसरी ओर पूरे प्रदेश की सुरक्षा का जिम्मा उठाये खुफिया तंत्र की बुनियादी जरूरतों की ओर ध्यान तक नहीं दिया जाता।
इतने महत्वपूर्ण खुफिया विभाग की हालत बिना नाखून के उस शेर की तरह है जिसके पास जिम्मेदारी, पद, कर्तव्य, अधिकार रूपी रूतबा तो है लेकिन अपने कर्तव्यों की पूर्ति करने के लिये मूलभूत सुविधायें तक नहीं है। कोटद्वार के सिद्वबली मंदिर, बीईएल, रेलवे स्टेशन और झंडाचैक पहले ही आतंकवादियों की निगाहों में है ऐसे में राजाजी नेशनल पार्क और जिम कार्बेट नेशनल पार्क के मध्य स्थित लैंसडौन वन प्रभाग कोटद्वार, कालागढ़ डैम और गढ़वाल राइफल लैंसडौन सैन्य क्षेत्र जैसे अति-संवेदनशील क्षेत्रों की सुरक्षा व्यवस्था को भी नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। एहतियात के तौर पर भले ही कुछ जगह सीसीटीवी कैमरे लगाये जा चुके हो लेकिन संवेदनशील जगहों में अभी भी चैकिंग और सत्यापन कार्य तीव्र गति से होता नहीं दिखाई दे रहा है। बहरहाल आतंकवादियों की गतिविधियों ने पूरे उत्तराखण्ड समेत उत्तर प्रदेश की पुलिस को हिला कर रख दिया है। आतंकवादियों द्वारा कोटद्वार में पनाह लेने की संभावना के चलते यहां की खुफिया विभाग और पुलिस के लिये आतंकवादी एक बड़ी चुनौती बने हुए है। पुलिस अधीक्षक अजय जोशी का कहना है कि आतंकवादियों की कोटद्वार में छिपे होने की आशंका के चलते पुलिस को रेलवे स्टेशन, कौड़िया, सनेह आदि सीमा से लगे चैक पोस्ट पर सघन चैकिंग अभियान चलाये जाने के कडे निर्देश दिये जा चुके हैं साथ ही बाहरी प्रांतों से कोटद्वार की सीमा में प्रवेश करने वाले संदिग्धों पर भी नजर रखी जा         रही है।

आखिर कबार तलक लुट्येला पहाड़

मानव जनित आपदाओं का गढ़ बना रूद्रप्रयाग जिला 

पिछले साल आई आपदा से हमें बहुत कुछ सीखना होगा। विज्ञान पर गर्व करते हम कब तक अपने प्राकृतिक वैदिक ज्ञान की अवहेलना करते रहेंगे। प्रकृति को पूजने वाले मनखी ने प्रकृति पर ही अपने अधिकतर प्रयोग किये है। इनकी सफलता तो पिछले साल की आपदा बता चुकी है जो मातृ एक झलक थी। अतिसंवेदनशील रूद्रप्रयाग केदारघाटी जो कि भूकम्पीय दृष्टि से अतिसंवेदनशील जोन पाॅच में आती है आज मानव जनित आपदाओं का गढ़ बनती जा रही है।
कितनी बिस्मयकारी बात है कि वाडिया जैसे संस्थान हमारी देवभूमि के ही हिस्से में है, जिसका संदर्भ भूगर्भीय क्षमता में हो रही जाॅच पडताल के अलावा भारत की संस्कृतिक सामाजिक संपदा के संरक्षण से है। पर क्यों इस घाटी की माटी के लिए सूबे की स्थानीय सरकारें संवेदनशील नहीं दिख रही है। केदारघाटी की संपदा जल जंगल जमीन को व्यवसाय मानने और बनाने की बजाय तीर्थ स्थल, रिच बायोडइवर्सिटी, गौ गंगा भूमि, सास्कृतिक भूमि, साहित्यिक भूमि, डाडी काठी दर्शन भूमि के रुप में ही विकसित किया जाना चाहिए। ये मानक हमें बार बार बताता है कि ये बेल्ट अत्यधिक संवेदनशील है, बसके साथ प्राकृतिक छेड़छाड़ तो दूर सड़कों का अत्यधिक निर्माण तक इन पहाड़ों के साथ छलावा है पर आश्चर्य होता है ऐसी संवेदी बेल्ट में मन्दाकिनी नदी में पचासों छोटी-बड़ी परियोजनाओं को पर्यावरण मंत्रालय सेे कैसे सहर्ष स्वीकृति दी जाती है? बाॅधों के नाम पर निरंतर जारी विस्फोट से पहाड़ तो हिले ही साथ ही एक बहुत जरुरी पहलू को डिस्टर्व कर गये हम! यहां का वन्य जीवन? घेन्दुडी चकुली कफु हिलाॅस, बाज बुराॅश खर्शू मोरु  समेत ये डाॅडी काॅठी हिमालय की भी संरक्षक है। पानी की पर्याप्त के कारण ही हरे भरे बाॅज बुराॅश के जंगलों से लकदक दिखती है ये डाडी काठी, इसीलिए यहाॅ का वन्यजीवन ऊपरी क्षेत्रों में अत्यन्त धनी है विस्फोटकों की आवाजे इनके लिए बहुत बड़ा खतरा बनती है। आपको पता होगा कि पशु पक्षी भूकम्पीय तरंगों के प्रति काफी संवेदी होते है। ये इन तरंगों के आने से पूर्व ये अजीब हरकतें करते है, पर यहाॅ तो बेफ्रिक होकर वन्यजीवन की अनदेखी की जा रही है। कुलैं चीड पाइनस राॅक्सबर्घाई जैसे पेड़ांे की स्पीसीज ने तो बाॅज बुराश जैसे चैड़े सदाबहार वनों के आस्तित्व पर ही खतरा खड़ा कर दिया। मेरे हिसाब से तपते पहाड़, पिघलते ग्लेशियर, सिमटते बुस्याते धारे पन्ध्यारे जैसी समस्याएॅ सबसे ज्यादा चीड जैसे पेड़ ने भी पैदा की है। ऐसे में आदमी ने हर और से पहाड़ों को ठगा है। लूटा है इसकी अमूल्य संपदा को, अपने पहाड मसूरी कैम्पटी की ही बरत करें तो बाॅज-बुराॅश के सदाबहार जंगलों का एरिया शायद कहीं न कही कम होता जा रहा है विकाश के आगे पर्यदन यात्रा व्यवसाय होटलों की बढ़ती तादात गाडियों का शोरगुल हार्न धुआ परदूषण के कारण आज चहचहाते पक्षी चकुली ध्येन्दुडी कफ्फू -हिलाॅस  घुघती जैसे पक्षियो के कलरव सुनना यहाॅ भी दूभर होता नजर आ रहा है। अब तो मसूरी कैम्पटी तले पंखे कूलर फ्रिज की खूब आवश्यकता महसूस की जाती है ये हमारा विकास नहीं दगडयों ये पहाड़ों के लुटने का सबब भर है यहाॅ अंग्रेजों के समय का किया विकाश मैप पारिस्थित समावेशी था। पर आज शायद हम अपने मन पहाडों का नाचना पनके संसाधनों का जी भर उपभोग करना ही जानते है। इसके लिए हम अपना कर्तब्य भूल चुके है जो कि नितान्त आवश्यकीय पहलू था उत्तराखण्ड को बनाने का। अब घूम फिर कर सवाल यही उटता हैं कि आखिर कब तक लुटते रहेंगे पहाड़ और हम पहाड़ी।
बिखरते पहाडी,
टूटते पहाड़
विकास के आगे
सिमटते पहाड़,
बण जंगल सब कुछ लुटाते पहाड़
पर तब भी आत्मीयता के मयालेपन से
ओत-पोत है ये पहाड़।        
कितना कुछ सिखाते ये पहाड़।
पहले गिराते फिर संभलकर चलना सिखाते ये पहाड़,
हमें तो प्यारे है ये पहाड़,
हमें तो प्यारे है ये पहाड़।  
अश्विनी गौड लक्की                                                                      
लेखक  श्री गुरु राम राॅय पब्लिक स्कूल  कैम्पटी मसूरी में कार्यरत  ;विज्ञान शिक्षकद्ध हैं। 

बुधवार, 15 अक्तूबर 2014

रेगिस्तान में हरियाली ही हरियाली

इजराइलः रेगिस्तान में हरियाली ही हरियाली

कृषि कार्य महज खाद्य पदार्थों का उत्पादन नहीं है, इसका राष्ट्रीय योगदान काफी ज्यादा है। ताजा कृषि उत्पादों, दु्ग्ध और अंडा उत्पादन के क्षेत्र की जरूरतों को पूरा करने की हमारी क्षमता का महत्व इसके आर्थिक मूल्य से ज्यादा है। इजराइल की कुल भूमि का आधा हिस्सा रेगिस्तान है और इसका विकास करना, रहने योग्य बनना और बसने के लिए लोगों को आकर्षित करना देश का मुख राष्ट्रीय लक्ष्य है।इजराइल एक छोटा सा देश है, जो रेगिस्तान से सटा है। यहां की आबादी करीब 70 लाख है। इसका सकल घरेलू उत्पाद 120 अरब अमेरिकी डालर के आसपास है यानी प्रति व्यक्ति जीडीपी 25,000 अमेरिकी डालर। इस्राइल की कुल भूमि का क्षेत्रफल 21,000 वर्ग किलोमीटर है। इसमें सिर्फ4,40,000 हेक्टेयर यानी 20 फीसदी भूमि ही खेती लायक है। 

इजराइली अर्थव्यवस्था का मूल और शुरुआती आधार खेती और खाद्य पदार्थों का उत्पादन रहा है। 1948 में जब इस्राइल की राष्ट्र के रूप में स्थापना हुई तो निर्यात किए जाने वाले मुख्य उत्पाद नींबू जाति के फल थे, जो जाफा लेबल के तहत बाहर भेजे जाते थे। इस तरह शुरुआत सामूहिक आर्थिक व्यवस्था से हुई, जो कृषि उत्पादों और पारंपरिक उत्पादों पर आधारित थी। अब इसमें बदलाव आया है, जहां खुला बाजार है और विभिन्न प्रकार के निर्मित उत्पादों की विश्व भर में बिक्री हमारे सामने है। यह सफलता बेहद कम समय में प्राप्त की गई है। इजराइल में कृषि, डेयरी व मांस उत्पादन के लिए अब आम पारंपरिक तरीकों की जगह ज्यादा आधुनिक तरीकों का इस्तेमाल हो रहा है। यह खोजपरक शोध और विकास का नतीजा है, जो हमने अपने बूते पर किया है। जिन नए तरीकों का आविष्कार किया गया है उनमें सिंचाई की क्रांतिकारी तकनीक, भूमि को उपजाऊ बनाने, रेगिस्तान के उपयोग के लिये खारे पानी का इस्तेमाल बढ़ाना शामिल है। इजराइल का कृषिदृतकनीक उद्योग अपनी खोजपरक व्यवस्थाओं के गहन शोध और विकास के लिये जाना जाता है। देश में प्राकृतिक संसाधनों की कमी से निपटने की जरूरत के कारण ही आम तौर पर ऐसा हो पाता है। ये जरूरतें खास तौर से खेती योग्य भूमि और जल से संबंधित हैं।कृकृषि तकनीकों के लगातार आगे बढ़ने का कारण है शोधकर्ताओं, उसे विस्तार देने वाले एजेंटों, किसानों और कृषि पर आधारित उद्योगों के बीच करीबी सहयोग। ये मिलेदृजुले प्रयास कृषि के सभी क्षेत्रों में नई-नई सफलताओं और तरीकों को जन्म दे रहे हैं। इससे बाजारोन्मुखी कृषि व्यापार को मजबूती मिली है, जो अपनी कृषि तकनीक का निर्यात पूरे विश्व को कर रहा है। जिस देश में आधी से ज्यादा भूमि रेगिस्तान हो, वहां आधुनिक कृषि विधियां, व्यवस्थाएं और उत्पाद देखने को मिल रहे हैं। इजराइल में कृषि योग्य भूमि का आधा हिस्सा सिंचित है, लेकिन देश में कृषि योग्य भूमि में सिंचित क्षेत्र का यह अनुपात सबसे ज्यादा है। इस्राइल में विकसित कम्प्यूटर नियंत्रित ड्रिप्स सिंचाई प्रणाली बड़ी मात्रा में पानी बचाती है और सिंचाई के जरिये ही खाद की आपूर्ति संभव बनाती है। इजराइल ने ऐसी अत्याधुनिक ग्रीन हाउस तकनीकों का विकास किया है, जो खास तौर से गर्म मौसम वाले इलाकों के लिये हैं। इसका योग उन फसलों के उत्पादन के लिए किया जा सकता है, जिनकी ऊंची कीमत पर मांग है। ग्रीनहाउस सिस्टम में विशिष्ट प्लास्टिक फिल्म और हीटिंग, वेन्टिलेशन और कनातनुमा ढांचों की मदद सेे इस्राइल के किसानों को हर सीजन में 35 से 40 लाख गुलाब प्रति हेक्टेयर उगाने में मदद मिलती है। साथ ही औसतन प्रति हेक्टेयर 400 टन टमाटर भी इस तरीके से उगाया जाता है। खुले खेतों में होने वाले उत्पादन के मुकाबले यह मात्रा चार गुनी है। इजराइल के दुग्ध उत्पादन ने भी आधुनिक तकनीकों का विकास और इस्तेमाल किया है। इससे इस उद्योग में काफी बदलाव आया है। 1950 के मुकाबले अब दूध का उत्पादन ढाई गुना ज्यादा हो गया है। यानी तब डेयरी में प्रति गाय सालाना उत्पादन औसतन 4,000 किलो था, जो अब 11,000 किलो हो गया है। यूं तो कृषकों की संख्या में कमी आई है और सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान घटा है। वर्ष 2002 में यह योगदान महज 2फीसदी था। इसके बावजूद स्थानीय बाजारों में खाद्य पदार्थों की आपूर्ति के लिए कृषि की भूमिका अब भी महत्वपूर्ण है। साल 2004 के आंकड़ों के मुताबिक, जो लोग कृषि कार्य में सीधे रोजगार पाते हैं, वे देश के कुल श्रम संसाधन का 2 फीसदी हैं। पचास के दशक की शुरुआत में एक कृषि कार्मिक 17 लोगों के अनाज की आपूर्ति करता था। जबकि वर्ष 2003 में एक पूर्णकालिककृकृषि कार्मिक 90 लोगों के लिये खाद्य की आपूर्ति कर रहा था। इजराइल की ज्यादातर कृषि सहकारी व्यवस्था पर आधारित है, जिसका विकास बीसवीं सदी के शुुरुआत में किया गया था। यहां के किबुत्ज एक बड़ी सामूहिक उत्पादन इकाई है। किबुत्ज के सदस्य संयुक्त रूप से उत्पादन के साधन अपनाते हैं। वे सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में भी मिलदृजुल कर हिस्सा लेते हैं। फिलहाल किबुत्ज की आय का ज्यादातर हिस्सा उन औद्योगिक उद्यमों से आता है, जिनका स्वामित्व सामूहिक रूप से होता है। एक अन्य व्यवस्था है जिसका नाम है मोशाव। यह निजी पारिवारिक खेती पर आधारित है, जिनको कोआॅपरेटिव सोसाइटियों के रूप में संगठित किया गया है। दोनों प्रकार की व्यवस्थाओं में निवासियों को म्यूनिसिपल सेवाओं के पैकेज दिए गए हैं। तीसरी तरह की व्यवस्था मोशावा है। यह पूरी तरह से निजी तौर पर खेती करने वालों का गांव है। देश के कृषि उत्पाद में किबुत्ज ओर मोशाव का हिस्सा फिलहाल करीब 83 प्रतिशत है।
जल को राष्ट्रीय धरोहर माना जाता है और उसका संरक्षण कानून द्वारा किया जाता है। जल आयोग हर साल प्रयोगकर्ताओं को जल का आवंटन करता है। जलापूर्ति का पूरी तरह से मापन किया जाता है और भुगतान भी खपत और जल की गुणवत्ता के हिसाब से किया जाता है। किसान पेयजल के लिये अलग मूल्य देते हैं, ताकि जल की बचत को बढ़ावा दिया जा सके। इजराइल की कृषि में पानी की कमी एक बड़ी बाधा है। कृषि योग्य भूमि में सिर्फ आधी ही सिंचित है, क्योंकि पानी की कमी है। इजराइल में उत्तर से दक्षिण 500 किलोमीटर की दूरी तक सालाना वर्षा 800 मिलीमीटर से 25 मिलीमीटर तक बारिश होती है। वर्षा )तु अक्टूबर से अप्रैल तक होती है, जबकि गर्मी के मौसम में कोई बारिश नहीं होती। प्रति हेक्टेयर पानी का सालाना इस्तेमाल औसतन 8,000 मीटर क्यूब से गिरकर 5,000 मीटर क्यूब रह गया है, जबकि पिछले 50 सालों में कृषि उत्पादन 12 गुना बढ़ा है। 2004 में यहां का कृषि उत्पादन 3.9 अरब अमेरिकी डालर मूल्य के बराबर था। 50 के दशक की शुरुआत से कृषि में शोध के लिए गहन प्रयास किए गए। यह देखा गया कि सतह पर सिंचाई के बजाय दबावीकृसिंचाई में जल का इस्तेमाल ज्यादा प्रभावी है। फिर सिंचाई उपकरण उद्योग की स्थापना हुई, जिसने तरहदृतरह की तकनीकें और उपकरण विकसित किए। जैसे ड्रिप इरिगेशन ;सरफेस और सब सरफेसद्ध, आॅटोमैटिक वाल्वस और कंट्रोलर्स, सिंचाई जल ले जाने वाले माध्यम और स्वचलित छनना, लो डिस्चार्ज स्प्रेयर्स और मिनी स्ंिक्लर्स, कम्पनसेटेड ड्रिपर्स और स्ंिकलर्स। इनमें फर्टिगेशन ;सिंचाई के साथ खाद का इस्तेमालद्ध आम है। खाद उत्पादकों ने अत्यंत घुलनशील और द्रव रूप वाले खाद का विकास किया है, जो इस तकनीक में काम आते हैं। सिंचाई का ज्यादातर नियंत्रण आॅटोमैटिक वाल्व और कम्प्यूटराइज्ड कंट्रोलर के हाथों में होता है। सिंचाई उद्योग के इस विकास को पूरे विश्व में प्रतिष्ठा हासिल है और इसका 80 फीसदी से ज्यादा उत्पाद निर्यात किया जाता है। इजराइल के किसान इस बात को भलीभांति जानते हैं कि जल अमूल्य है और एक सीमित संसाधन है। इसका संरक्षण करने के साथदृसाथ इसका सबसे प्रभावी और किफायती उपयोग किया जाना चाहिये। सिंचाई के ज्यादातर आधुनिक उपकरण सिंचाई पर नजर रखने और नियंत्रण रखने में मदद करते हैं, ताकि जल के इस्तेमाल की बेहतर क्षमता प्राप्त हो सके। देश भर में कृषि मौसम स्टेशनों का नेटवर्क है, जो मौसम के बारे में किसानों को तात्कालिक आंकड़े उपलब्ध कराते हैं। इन आंकड़ों के जरिये सिंचाई प्रणाली का इस्तेमाल किया जाता है। आज इजराइल की खेती काफी हद तक शोध और विकास पर आधारित है। आधुनिक कृषि के सामने कई चुनौतियां हैं। जैसे बाजार में तियोगिता, जल की घटती उपलब्धता और गुणवाा, पर्यावरण संबंधी चिंताएं, मानव श्रम की लागत और उपलब्धता। इसके लिए जरूरत है लगातार खोज और वैज्ञानिक समुदाय के बीच करीबी सहयोग की। इजराइल की कृषि कुछ खास चुनौतियों का सामना कर रही है, जैसे कृषि योग्य भूमि और जल की सीमित उपलब्धता, मानव श्रम की उंची लागत। ये चुनौतियां भी शोध और विकास की जरूरत को आगे बढ़ाती हैं। शोध और विकास के लिये वित्तीय आवंटन इजराइल में काफी ज्यादा है। इसमें हर साल 9 अरब अमेरिकी डालर निवेश किया जाता है। यह रकम कृषि के सकल राष्ट्रीय उत्पाद का तीन फीसदी है। शोध प्रयासों के कारण इजराइली खेती पानी, भूमि और मानव श्रम के सक्षम इस्तेमाल का आदर्श नमूना बन गई है। इसके साथ ही रेकार्ड उत्पादन और उच्च गुणवाा के उत्पाद भी देखने को मिल रहे हैं। बायोटेक्नोलाजी जैसे उभरते क्षेत्र का पिछले बीस सालों में यहां अदभुत विकास हुआ है। इससे पारंपरिक तरीकों की बाधाओं को खत्म करने का भरोसा मिलता है। बायोटेक्नोलॉजी हमें नई तकनीक और सामग्री उपलब्ध करा रही है। कृषि और ग्रामीण विकास मंत्रालय की कृषि विस्तार सेवा ने इजराइल में कृषिगत विकास के शुरुआती दौर में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके अंतर्गत गैरअनुभवी किसानों को प्रशिक्षण दिया गया, ताकि वे कृषि की आधुनिक विधियों का इस्तेमाल सीमित संसाधनों के बीच अपनी क्षमता के अनुसार कर सकें। साल बीतते गए और कृषि का तेजी से विकास हुआ, क्योंकि शोध में मिली जरूरी सूचनाएं तेजी से खेतों और किसानों तक पहुंचीं। देश में इस दिशा में काम करने वाली टीमों की स्थापना की गई, जिन्होंने देश भर में कुशल और सक्षम शिक्षण दिया। बाजार में प्रतियोगिता का दौर होने के बावजूद कृषि के पेशेवर विकास में प्रशिक्षण की केंीय भूमिका रही। इससे गुणवाा वाले कृषि पैदावारों के उत्पादन को बढ़ावा मिला। देश के विभिन्न क्षेत्रों में जहां जो लाभ हासिल हैं, उनका दोहन करने की क्षमता बढ़ाई गई। इसका इस्तेमाल निर्यात करने और स्थानीय बाजार, दोनों के लिए किया गया। कृषि बाजारों में उच्च गुणवत्ता वाले उत्पादों की मांग लगातार बढ़ रही है। ऐसे उत्पाद जो कीटों, रोगाणुओं और कीटनाशकों से मुक्त हों। स्थानीय खाद्य पदार्थ उद्योग और इससे संबंधित संस्थाओं की मांग पर फसल कटाई के बाद के कामों के मामले में विकास हुआ है। इससे अलग जो विकास हुआ, वह इस उद्योग के भविष्य की जरूरतों का नतीजा है। फसल कटाई के बाद के कामों से जुड़ा शोध इस बात पर केंद्रित होता है कि ताजा, सूखे या संस्कृत खाद्य पदार्थों की हिफाजत, बचाव, उपचारण, संस्करण, भंडारण और परिवहन कैसे किया जाये। ताजा उत्पादों के मामलों में फसल कटाई के बाद के कामों से संबंधित शोध गतिविधियां एक खास दिशा में केंद्रित होती हैं। वह यह कि ताजे फलों, सब्जियों, फूलों और साजदृसज्जा वाले अन्य उत्पादों की उनके खेत से बाहर निकलने के बाद गुणवाा कैसे सुनिश्चित की जाए ताकि उनके निर्यात द्वारा बेहतर कमाई की जा सके।

मीडिया से जुड़े खोजी टाईप के भाई


साधो, जैसा कि नित्य-प्रत्य खबरों से आपको भी आभास हो रहा होगा कि छेड़खानी, छींटाकशी व दुष्कर्म आदि उ.प्र. का नैत्यिक लोकपर्व का रूप ले चुका है। मीडिया से जुडे खोजी टाईप के भाईयों के कारण स्थिति ऐसी बन गयी है कि अखबार हाथ में लगते ही सबसे पहले तलाश ऐसी खबरों की ही रहती है जिससे हमारी 21वीं सदी की इस महान परंपरा का निर्वाह होता रहे! अभी कल ही गोल्डी पा जी के पुत्तर विक्की ने कपूर साहब की सुकन्या को देखकर चांद के जमीन पर उतरने का रहस्योद्घाटन क्या किया उधर अखबार की सुर्खी बन गयी और जमा उठालिया लाला खूबी ने। दीपावली तक का मोमबत्ती का सारा कोटा निकाल लिया। रातो-रात मोहल्ले की महिलाओं का आज्ञाकारी विक्की,पतियों के कान भरने वाला विक्की सट्टे के नंबर बताना वाला विक्की...फंासी का पात्र हो गया। मोहल्ले में दो फाड हो गये, विक्की समर्थक व विक्की विरोधी।
हद तो तब हो गयी तब छेडखानी को लेकर हुई विचार गोष्ठी में मिसेज जोशी सुबह पड़ी। पूछने पर जानकारी मिली की पिछले पन्द्रह मिनट से पूज्यनीय भाउ जी उन्हें ही ताड रहे थे। भाउ जी से शिकायत की तो उनकी पुत्रबधू भडक गयी। कल ही तो पिताजी का मोतिया का आपरेशन हुआ है दिख तो रहा नहीं, ताड रहे है उस कलमुही को। थोडी देर बाद गोष्ठी अध्यक्ष स्वंय सुबकती मिसेज जोशी को कंधे का सहारा देते हुये घर छोड़ने क्या गये फिर अगले दिन गार्डन में अनुलोम-विलोम करते ही दृष्टिगोचर हुये। याद भी सुझाव आया कि क्यो न प्रत्येक घर के बाहर एक पुलिसकर्मी बिठा दिया जाये जो दस-पन्द्रह मिनट पश्चात घरों में तांक-झांक के अलावा अबलाओं की कुशल लेता रहे। मोहल्ले में सीसीटीवी कैमरों का सुझाव आया तो युवा वर्ग मरने-मारने पर उतारू हो गया। परमपूज्य धर्मपाल जी ने यह आग में पानी डाला-बच्चे तो ये सब करते ही रहते है तो क्या उन्हें फांसी पर चढवा दे। तभी हाजी सरताज कान में फुसफुसाये अरे मियां, दिल पर हाथ रखकर बताओ, हममे से किसने लडकियों का पीछा नहीं किया। मि.सरीन उबल पडे-अबे हम यहां छेडखानी का हल निकालने बैठे है या गडे मुर्दे उखाडने। जागरूकता की प्रचंड लहर उठते-उठते बिखर गयी। शाम को विचार मंथन से निकले अमृत को छकने के लिए दारोगा जी का फोन आया। लेकिन वही निल वटा सन्नाटा। फिर पता चला महिला पुलिसकर्मी ही जीन्स टी शर्ट में घूम रही है। मानो कप्तान सहाब ने ही कह दिया हो-हम भी कहां पीछे।लो भई छोडों इन्हें आ गयी चन्द्रमुखी। साधो पूर्ण तन्मयता के साथ उ.प्र.में छेडखानी का लोकपर्व मनाया जा रहा है। थाना, पुलिस, नेता, साधु-असाधु लडके-लडकियां, मोबाईल, नेट, वीडियो क्लिप, माल, कालिज मदरसे...कहने का तात्पर्य यह है कि प्रतिदिन, प्रतिपल अपने उ.प्र. के इस लोकपर्व की छटा बनी रहे।
धर्मात्माआंे की दया
साधो शास्त्रों  में वर्णित  हैं कि शेषनाग के फन पर टिकी हुई है लेकिन अपना अभिमत है कि दुनिया ऐसे धर्मात्माआंे की दया पर टिकी हुई जो दिन रात सिर्फ मानव कल्याण मेें ही डुबे हुये है! यदि ऐसा नही है तो आप किसी भी पत्र पत्रिका में वर्गीकृत        विज्ञापन पर द्रष्टि कीजिये आपको लगेगा चचा मोदी ने तो चार छ महीने पहले अच्छे दिनों की आमद की बानगी छेड़ी लेकिन विज्ञापन पाठक सदैव अच्छे दिनो से लबालब रहे! आप इन विज्ञापन की एक बानगी देखिये 24 घंटे में लोन बिना कागजी कार्यवाही बिना गांरटर कोई पे स्लिप नही कहने का तात्पर्य यह कि इधर फोन करो छप्पर फाड के पैसा हाजिर! ऐसे धर्मात्माआंे के रहते महामना चावार्क के सत्यवचन है कर्ज लो और घी खाओ! इन्ही धर्मात्माओं की फेहरिस्त में शामिल कई धर्मात्मा ऐसे है जिनके दावेनुसार उनके काले इल्म को कोई काट नही सकता और दया दयावान की तरह पहले काम फिर पैसा !मक्ने ऐसे ही एक सिद्वपुरूष को फोन किया तो उधर से कोई गुर्राया धबरा मत मनोकमाना बता! मैने हिचकते हुये की दिया वो सोनाक्षी सिन्हा पर दिल आ गया है जी! उधर से आकशवाणी सी हुई  काम हो जायगा! दिनभर सोनाक्षी के साथ डिनर का ख्वाब संजोये जब शाम को द्वार पर दस्तक हुई तो मै बदहवाश सा भागा! दृश्य चैकाने वाला था द्वार पर थाने का दरोगा हथकडी में एक नशेडी बाबा को लिये खडा था मुझे बाद में पता चला कि बाबा का फोन र्सिवसलांस पर लगा हुआ था साधो बडी मुशिकल से ले देकर पीछा छुडाया और मौहल्ले में फजीहत अलग से हुई! साधे जिस शिक्षा को लेकर आज पेरेन्टस सूख रहे है उस शिक्षा को लेकर मैने कभी चिन्ता नही की! अकसर पिता जब भी मेरा रिपोर्ट कार्ड लेकर उत्तेजित होते! मै उनके सामने अखबार से काटकर एक कटिग रख देता हाई स्कूल फेल सीधे बी.ए.करें तत्पश्चात एम.ए. कर उस्मानिया विश्वविद्यालय से पी.एच.डी.करें। हजारांे छात्र जाब पर! पिता संतुष्ट नही होते तो उन्हे प्रत्येक डिग्री पर लगा स्टार भी दिखा देता जिसका तात्पर्य होता परीक्षा का केन्द्र उनका सेन्टर ही होगा! ऐसे ऐसे धर्मात्माओ के रहते मैंने जीवन मंे कभी कोई चिन्ता नहीं की! यहां आलू की खेती से लेकर मशरूम तक बिना किसी प्रोसेसिंग के लोन इतने सस्ते प्लाट कि आप अपने बजट के एक प्लाट की कीमत पर चार प्लाट खरीद ले! अशिक्षितांे को 20-20 हजार की नौकरियां कैन्सर जैसी बीमारी का इलाज चंद घटांे मंे तो डायबिटीज व रक्तचाप की बीमारियां जड़ से समाप्त किडनी व पित्त की थैली की पत्थरियां कुछ दिनांे में हाथ से निकालने वाले इन धर्मात्माओं के कारण ही अवश्य ही एक दिवस ऐसा आयेगा जब एम्स वैम्स जैसे चिकित्सा शोध संस्थान बद हो जायंेगे व इन धर्मात्माओं को राजकीय सम्मान से भारत रत्न से नवाजा जायेगा! विज्ञापन की इस दुनिया मंे हर मर्ज का इलाज है यदि आपके सिर पर बाल नही है तो मात्र चंद घंटों में इम्पलांटेशन के जरिये आप केश परा बन सकते है! एक से एक शक्तिवद्र्वक अषौधियां सिरप तेल कैप्सूल और न जाने क्या-क्या कहने का तात्पर्य यह है कि आपकी सलमान टाईप जापानी देखकर पूरा मौहल्ला ही चैक पडे़! क्षेत्रीय विधायक विधानसभा में प्रश्न उठा दे कि आखिर भाउ इतना जोश लाते कहां से है? साधो सत्यवचन विज्ञापन का युग है जो बिकता है वो दिखता नहीं और जो दिखता है वो बिकता नहीं! राहुल दिखे पर बिके नहीं तो मोदी बिके पर दिखे नही अंतोगत्वा अच्छे दिनांे की आमद संसद तक ही रह गयी! हालांकि धर्म के समस्त कार्य परदे के पीछे समस्त कार्य परदे के पीछे ही होते है यही कारण है कि ऐसे धर्मात्मा कभी सार्वजनिक नही हुये! गुमनामी की जिन्दगी जीते रहे! अखबार वालों को मजबूरन पीछा छुडाने के लिये पाठकों को अपना जोखिम पर विज्ञापन पर विश्वास करने के लिये विवश किया गया! लेकिन ऐसे धर्मात्मा ईश्वर की भांति ही बने रहे जिन्हंे सुना सब ने लेकिन देखा किसी ने भी नहीं! अभी कल ही कार्यस्थय से लौटकर बालकनी मे बैठा ही था कि धर्मपत्नी ने किसी अखबार की कटिंग सामने रखकर बौरायेपन से पूछा सुनो जी जरा देखकर पहचानना किसकी आंखे है जानू प्रथम पुरूस्कार स्विफट का है! साधों खून तो बेहद खौला लालची औरत न चाय न काफी वही रोज का किस्सा कभी आंखे पहचानो कभी चेहरे पहचानो कभी आमिर खान की पहली पिक्चर बताओ तो कभी राजा नटपरलाल मे इमरान हाशमी का किरदार बताओ! मैने टकासा जबाब दे दिया जब मैं बीस साल से तुझे ही नहीं पहचान पाया तो अब जब आंखों की बिनाई कमजोर हो गयी है तो किसकी ओखे व चेहरा पहचानू! क्यो मुझे नयी नयी टेन्शन देती है! वह फुफकारी व लहराती हुयी किचन मे प्रविष्ट  हो गयी और मैं सामने पार्क मे बैठे जोड़ांे को ताडने मे मशगूल हो गया।
मनोज पोखरियाल

मंगलवार, 14 अक्तूबर 2014

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udaydinmaan: कभी था गुलजार अब है वीरान

udaydinmaan: कभी था गुलजार अब है वीरान: सरहद पार व्यापारः कभी था गुलजार अब है वीरान देश की सीमा पर अत्यंत संवेदनशील रणनीतिक क्षेत्र माना गया भारत-चीन सीमा का चमोली क्षेत्र तमाम...

कभी था गुलजार अब है वीरान

सरहद पार व्यापारः कभी था गुलजार अब है वीरान

देश की सीमा पर अत्यंत संवेदनशील रणनीतिक क्षेत्र माना गया भारत-चीन सीमा का चमोली क्षेत्र तमाम तरह की उपेक्षाओं के चलते आज पलायन की तरफ अग्रसर है। गांवों से शहर की तरफ आने वाली आबादी में पिछले पांच सालों में तीव्र वृ(ि हुई है। सीमा के गांव अचानक तेजी से खाली होने शुरू हुए हैं। अपने बेहतर भविष्य की तलाश में ये संक्रमण तेजी से फैल रहा है। राज्य बन्ने के बाद एक एक कर टूटते सपनों के साथ व विकास की जन विरोधी नीतियों के चलते ये बढ़ेगा ही।फिर शायद हाशिए तो रहेंगे पर हाशिए पर रहने वाले ना रहें। इस दर्रें पर व्यापार और भारत-चीन यु( के बाद पनपे हालात पर प्रेेम पंचोली का यह विशेष आलेख। संपादक

जोशीमठ नीति माना के दर्रों को जाने व जोड़ने का संधिस्थल होने से व्यापारिक मार्ग की वजह से व मुख्य पड़ाव तो था ही। मुख्य व्यापारिक मंडी भी था, जिससे यहाँ के भोटया समुदाय व खेती पर निर्भर अन्य लोगों में समृधि थी। बदरीनाथ यात्रा का पड़ाव होने से इसका और भी महत्व रहा होगा। किन्तु भारत चीन यु( के उपरान्त इस स्थिति में बदलाव आया। भोटिया समुदाय जो पूरी तरह इस वयापार पर निर्भर था उसके सामने आजीविका का संकट खड़ा हो गया। उसे मजबूरन खेती की तरफ रुख करना पडा। जोशीमठ के आस पास अधिकाँश जनजाति गांव आज भी इस झटके से नहीं उबरे। आज भी अधिकाँश भोटिया बहुल गांवों की स्थिती आदिम जमाने के गांवों जैसी है। लाता से ऊपर के गांवों में जाइए तो आप बाकी दुनिया के हिस्से ही नहीं रह जाते। १९९८ में भूकंप की त्रासदी के बाद बहुत से गांव जर्जर हो गए। उसके बाद की बरसातों की आपदा के चलते गांव बसावट लिहाज से असुरक्षित हो गए।
किसी ने कहा है जहां हम खड़े हैं देश वहीं से शुरू होता है। परन्तु मैं जहां रहता हूँ  वहाँ देश खत्म होता है और यह सिर्फ मुहावरे के तौर पर ही नहीं बल्कि सचमुच ही। जोशीमठ भारत के सीमा का आखिरी प्रखंड है। इसकी सीमा फिर तिब्बत या चीन से मिलती है और जिस तरह यह भौगोलिक तौर पर हाशिए पर यानी सीमान्त पर है उसी तरह विकास के पैमाने पर भी हाशिए पर ही है। कुछ समय पहले हम थैंग गांव के लोगों के साथ जोशीमठ के उपजिलाधिकारी से मिले। सवाल था कि पिछले पांच साल में थैंग मोटर मार्ग तीन किलोमीटर भी पूरा नहीं बन पाया है जबकि इसे २0११ में १0 किलोमीटर बन कर पूर्ण हो जाना था। इस सडक के लिए दी गयी राशि जबकि आधी से ज्यादा भुगतान की जा चुकी है, जो सडक बनी भी है उसका हाल ये कि पैदल चलना मुश्किल हो गया है। थैंग गांव जोशीमठ से २२ किलोमीटर की दूरी पर बसा गांव है। सडक से लगभग १0 किलोमीटर की दूरी है। वैसे जोशीमठ से चाहें तो थोडा नजरों पर जोर डालने पर दिखाई भी देता है परन्तु आजादी के इतने साल बाद भे सड़क नहीं। जिस सड़क के पूरा होने की बात लोग जोह रहे हैं, इस सडक के लिए सन २00५ में गांव के लोगों ने आंदोलन किया। आंदोलन के दौर में जब किसी तरह सुनवाई नहीं हुई तो लोगों ने सड़क पर जाम लगा दिया, जिस पर तत्कालीन उपजिलाधिकारी के आदेश पर पुलिस ने ग्रामीणों पर लाठीचार्ज कर दिया जिसमें कई महिलाएं व पुरुष घायल हुए। १७ ग्रामीणों पर मुकदमें हुए, आज भी लोग मुकदमों के फैसले के इन्तजार में हैं। लेकिन जिस के लिए ये सब झेला वो सड़क आज तक नहीं बनी, ऐसा ही गांव है-किमाना सडक से ८-९ किलोमीटर की पैदल खड़ी चढ़ाई वाली दूरी पर इसके बगल का गांव पल्ला,जखोला,ऐसे कई गांव हैं। १९६२ से पहले जबकि भारत चीन यु( नहीं हुआ था, जोशीमठ के रास्ते सीमापार व्यापार होता था। यहाँ से भोटिया ब्यापारी उन और अन्य सामान लेकर जाते और वहाँ से नमक लेकर आते। जोशीमठ नीति माना के दर्रों को जाने व जोड़ने का संधिस्थल होने से व्यापारिक मार्ग की वजह से व मुख्य पड़ाव तो था ही। मुख्य व्यापारिक मंडी भी था, जिससे यहाँ के भोटया समुदाय व खेती पर निर्भर अन्य लोगों में समृधि थी। बदरीनाथ यात्रा का पड़ाव होने से इसका और भी महत्व रहा होगा। किन्तु भारत चीन यु( के उपरान्त इस स्थिति में बदलाव आया। भोटिया समुदाय जो पूरी तरह इस वयापार पर निर्भर था उसके सामने आजीविका का संकट खड़ा हो गया। उसे मजबूरन खेती की तरफ रुख करना पडा। जोशीमठ के आस पास अधिकाँश जनजाति गांव आज भी इस झटके से नहीं उबरे। आज भी अधिकाँश भोटिया बहुल गांवों की स्थिती आदिम जमाने के गांवों जैसी है। लाता से ऊपर के गांवों में जाइए तो आप बाकी दुनिया के हिस्से ही नहीं रह जाते। १९९८ में भूकंप की त्रासदी के बाद बहुत से गांव जर्जर हो गए। उसके बाद की बरसातों की आपदा के चलते गांव बसावट लिहाज से असुरक्षित हो गए। लोगों के विस्थापन की मांग करने पर, सरकार द्वारा सर्वे करवाया गया। सन २00७ में प्रशासन द्वारा बनाई गयी सूची के अनुसार जोशीमठ प्रखंड के ३0 गांव विस्थापन की श्रेणी में रखे गए। १६ -१७ जून २0१३ की आपदा के बाद विस्थापित किये जाने वाले गांवों की संख्या बढ़कर ३६ हो गयी। जोशीमठ प्रखंड में कुल गांवों की संख्या ५२ ही है, जब ५२ में से ३६ गांव विस्थापन की श्रेणी में हों तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि भौगोलिक ,भूगर्भिक तौर पर इस क्षेत्र की क्या स्थिति है। प्रशासनिक व शासन की हील हवाली का ये हाल है कि जो गांव पिछले कई सालों से विस्थापन की मांग कर रहे हैं व बहुत दयनीय दशा में गांव में रह रहे हैं उनकी कोई सुनवाई नहीं है। इन्ही में एक गांव है गनाई, यहां के लोग पिछले कई वर्षों से विस्थापन की मांग कर रहे हैं। पिछले छ माह से लगातार आंदोलन के बावजूद कोई ठोस पहल इनके विस्थापन को लेकर नहीं हुई। गांव की हालत ये है कि ठोड़ी सी भी बरसात होने पर लोग जाग कर रात काटते हैं। गांव के एक हिस्से दाड्मी में कुछ लोग दो बार घर बना चुके है और दोनों बार उजाड गए। जब आंदोलन तेज हुआ तो स्थानीय विधायक राजेन्द्र भंडारी राहत के हेलीकाप्टर से गांव पहुँच गए और १५ दिन में विस्थापन कर देने की घोषणा कर आंदोलन बंद करने को कह कर हवा हो गए। तबसे चार माह हो जाने पर लोग फिर सड़क पर हैं। यही हाल बाकी के विस्थापित होने वाले गांवों का है। १६-१७ जून को पूरी तरह तबाह हो गए गांव भ्युडार के लोग भी लड़ हार कर थक गए। किन्तु उनके लिए विस्थापन हेतु भूमि का प्रबंध नहीं हुआ। आज वे उजाड गए गांव पुलना में ही किसी तरह गुजारा करने को मजबूर कर दिये गए हैं। सन २00१ में जोशीमठ के लोग विष्णुप्रयाग परियोजना, जिसे कि जयप्रकाश कंपनी बना रही थी का विरोध करने सडक पर उतरे। लोगों की मुख्या चिंता इस परियोजना की सुरंग बनाये जाने के लिए किये जा रहे विस्फोटन से क्षेत्र को पैदा हो रहे खतरे को लेकर थी। कुछ दिनों बाद नेतृत्वकारियों का कम्पनी से समझौता हो गया और विस्फोट अबाध जारी रहे। पूरा क्षेत्र हिलता रहा। आन्दोलन इसकी बाद भी हुए।वादे आश्वासन भी हुए पर .. ..परियोजना पूरी हो गयी। और कुछ समय बाद २00७ में इन विस्फोटों के परिणाम स्वरूप चाई गांव उजड़ गया। आज भी गाँव इन दरारों के खतरे में है। किन्तु इसके बाद सन २00४ में एक और परियोजना तपोवन विष्णुगाड जल विद्युत परियोजना का सर्वे यहाँ प्रारम्भ कर दिया गया। सर्वे की शुरुआत से ही जनता में इस परियोजना को लेकर आक्रोश था, जिस कारण इसका तभी से तीव्र विरोध होने लगा जिसकी वजह जोशीमठ की भूगर्भीय स्थिति को लेकर लोगों में आशंका थी। जिसको लेकर १९७६ में बनी सतीश चन्द्र मिश्रा कमेटी की रिपोर्ट ने आगाह किया था। इसके बावजूद जोशीमठ के नीचे से सुरंग बनाया जाना जनता को गवारा ना था। लिहाजा जबर्दस्त आंदोलन हुआ। इस आंदोलन की वजह से परियोजना का उद्घाटन,जो कि जोशीमठ में होना था और मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी द्वारा किया जाना था। सारी तैयारियों के बावजूद निरस्त करना पडा।बाद में इस परियोजना का उद्घाटन परियोजना स्थल से ३00 किलोमीटर दूर देहरादून में किया गया और ये सिलसिला यहीं नहीं रुका, इसके बाद कई अन्य परियोजनाओं को स्वीकृति मिली। आज जोशीमठ प्रखंड में दर्जन भर परियोजनाएं या तो प्रस्तावित हैं अथवा कार्य कर रही हैं जिन सभी पर स्थानीय लोगों की स्वीकृति बस नाम भर को कागजी खानापूर्ति के बतौर ही ली गयी। इनमें से लगभग सभी पर जनता की आपत्तियां हैं आंदोलन हैं। शिक्षा और स्वस्थ्य के सवाल पर भी हाशिए पर ही है जोशीमठ। सुदूर गांवों की शिक्षा की हालत का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि अधिकाँश वहन कर पाने वाले लोग बच्चों को जोशीमठ नगर में लाकर पढाते हैं और नगर की शिक्षा प्राइवेट शिक्षण संस्थाओं के हवाले है। ५0 -६0 हजार की आबादी वाले जोशीमठ ब्लोक का एक मात्र प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र जोशीमठ में है। जिसमें चिकित्सकों का अभाव है। एक भी सर्जन नहीं है। महिलाओं के लिए बना अस्पताल वीरान बाजार पडा है। जबकि यात्रा काल में सडक दुर्घटनाओं के लिए अत्यंत संवेदनशील ये क्षेत्र इसी अस्पताल के भरोसे है जो सामान्य दिनों में ही रेफेरिंग सेंटर की तरह काम करता है। 

शनिवार, 11 अक्तूबर 2014

...और ईनाम पाये ‘बडे़ सरकार’

नंदा राजजात के बाद मुख्यमंत्री किस सफलता का ईनाम बाॅट रहे हैं, और क्यों?
...और ईनाम पाये ‘बडे़ सरकार’

नंदा देवी राजजात पौराणिक और धार्मिक यात्रा की ऐतिहासिकता और प्राचीनता को जरा छोड़ दे, ंतो राजजात यात्रा का महत्व वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी सार पूर्ण है। इस सारी यात्रा के दौरान जो अनुभव हुए हैं, उसमें बेटियों के सरंक्षण, सामाजिक समरसता, पर्यावरण संरक्षण और पलायन से जुझ रहे पहाड़ को बचाने की सीख थी। हालांकि पूरी यात्रा के दौरान जनमानस इन भावनाओं से ओत प्रोत होता रहा,परन्तु जैसे ही यह यात्रा उच्च हिमालयी क्षेत्रों में प्रवेश करती रही वैसे-वैसे वहाॅ की दुर्लभ पादप, जड़ी-बूटियों वृक्ष-वनस्पतियों का ह्मस बडे़ पैमाने पर देखने को मिला। इस दौरान यात्रियों को बचाने की प्राथमिकताऐं सरकार कीं थीं पर हिमालय को घायल करने की कीमत पर।  जो घाव हिमालय को मिले उसका क्या? जिन भक्तों को सुविधाऐं मिलनी चाहिए थी,नहीं मिली,लोग खुद सेवा में लगे रहे, धर्माथ ओर परोपकार करते रहे, फिर मुख्यमंत्री किस सफलता का ईनाम बाॅट रहे हैं, और क्यों? नंदा देवी राजजात यात्रा के बाद के हालातों पर केंद्रित यह विशेष आलेख। संपादक
देव कृष्ण थपलियाल
18 अगस्त को नौटी से शुरू होकर 03 सितंबर 2014 को हिमालय के होमकुंड नामक स्थान पर संपन्न हुई। इस पौराणिक और धार्मिक राजजात यात्रा का र्निविघ्न समापन निश्चित ही संतोष का विषय है।इसके लिए वे हजारों-लाखों श्र(ालुगण, दर्शनार्थी व देवी माॅ के अनन्य भक्तगण कोटिशः बधाई और धन्यवाद के पात्र हैं, जिन्होंनें बिना किसी सरकारी अथवा गैरसरकारी सहायता के इस धार्मिक अनुष्ठान को पूरी तन्मयता और निष्ठा के साथ पूर्ण किया, यह साधुवाद इसलिए भी, क्योकि हमारी राजसत्ता ने यात्रा के संचालन को लेकर जनसामान्य में तमाम सुविधाएं जुटाने के नाम पर इतने भ्रम फैलाये थे कि आम आदमी बिना तैयारी के ही यात्रा में चलने को बेताब था। सरकार द्वारा इसके लिए जो लम्बा-चैडा बजट तय किया गया, उस हिसाब से यात्रा मार्गों-पड़ावों का निर्माण, रख-रखाव व उस स्तर की व्यवस्था कहीं भी देखने को नहीं मिला। करोड़ों रूपयों के प्रचार-प्रसार को देखकर, इस सचल हिमालयी कुंभ की भव्यता का एहसास होता रहा, लेकिन शुरूवाती दौर में जैसे-जैसे यात्रा आवासीय पडावों से गुजरती रही, सरकारी व्यवस्थाओं की पोल भी धडा-धड खुलती रही, संकरी सडकों के चैडीकरण, विभिन्न मार्गों को दुरूस्त कर छोटी-बडी पुलियाओं के निर्माण की बात केवल हवा-हवाई साबित हुई। सरकार द्वारा मीडिया में प्रचारित की जा रहीं घोषणाएं कुछ अपवादों को छोड दें तो शेष ज्यादातर बातें धरातल पर नदारद दिखी शुक्र है लोग पहले ही सजग होते रहे, काश! इन्हीं सभी दावों-वादों पर तनिक भी विश्वास कर लिया गया होता, तो निश्चित ही परिणाम आज कुछ ओर होते? आश्चर्य तो तब हुआ जब देहरादून में बैठी काॅग्रेसनीत सरकार नें बिना देरी किये राजजात यात्रा की शानदार सफलता का सेहरा अपने ही सर बाॅध लिया। अभी लोग राजजात यात्रा से लौटे ही थे, विश्राम और चैन की सांस ले रहे थे, अपने गुजरे यात्राकाल के दौरान हुए अनुभवों पर आत्मचिंतन व विचार-विमर्श करते कि राज्य की राजधानी देहरादून में आनन-फानन में एक समारोह गुंज की सुनाई पडने लगी। राजनीति के चतुर खिलाड़ी माननीय मुख्यमंत्री हरीश रावत ने अपनी सरकारी मशीनरी को पुरस्कारों की सौगात बाॅटकर राजजात की इस भव्य सफलता का सेहरा खुद ही पहन लिया। पुरस्कारों के वितरण को लेकर इतनी व्यग्रता समझ से परे है? आमतौर पर जब भी किसी भी संस्था अथवा व्यक्ति को पुरस्कृत, उपकृत किया जाता है तो, उससे पहले आम लोगों में उसकी क्रिया-प्रतिक्रिया जानी जाती है, जनसामान्य में उस व्यक्ति या कार्य के प्रति उसके रूझान का अन्वेषण किया जाता है प्रायः इस कार्य के लिए कोई समिति, आयोग अथवा संस्था द्वारा संस्तुति पर भी पुरस्कृत किये जाने की परम्परा रही हैं, लेकिन यहाॅ तो मैच फिक्सिंग की तरह ही पहले से पुरस्कारों के विजेताओं के नाम तय किये गये लग रहे थे। राज्य सरकार से हजारों-लाखों रूपयों की मोटी पगार वसुलने और लग्जरी गाडियों व महलनुमा कोठियों का सुख भोगने वाले इन आला अधिकारी-नेताओं पर मुख्यमंत्री की इतनी मेहरबानियाॅ वाकई समझ से परे है? मुख्यमंत्री  द्वारा अपने आला अधिकारियों को दिये गये इन पारतोषिकों का क्या आधार रहा, इसका भी ठीक अनुमान लगाना संभव नहीं है? एक आम और साधारण बर्कर के कार्य को भी इस श्रृंखला में शामिल कर दिया जाता, तो बहुसंख्यक राज्यवासियों में अच्छा संदेश जाता? किन्तु हो सकता है पहाड़ की इन पथरीली चट्टानों में पहली बार पाॅव रखनें वाले इन साहबों की खिदमद में ये इनाम बख्से गये हों? और राजनीतिक रूप से भी यह फायदेमंद रहेगा, इसके अलावा इन पुरस्कारों के औचित्य ढुंढे नहीं मिल रहें हैं, जिससे मुख्यमंत्री की अपनी नौकरशाही के प्रति इस दरियादिली का पता चल सके? वरना राजजात यात्रा के दौरान हुई अव्यवस्थाओं की लम्बी फेहरिस्त है। भला हो उन हजारों-लाखों देवी माॅ के भक्तों का जिन्होंने यात्रा काल के दौरान स्वयं अनुशासित रह कर दूसरों का भी सहयोग किया भले वे सरकार और मुख्यमंत्री की नजर में न आये हों पर उनका कार्य अनुकरणीय है, यात्रा के लगभग हर पड़ाव पर ऐसे नौजवानों, ग्रामीणों, महिलाओं और पुरूषों का जमवाड़ा भी मिला जो यात्रियों के लिए भोजन, आवासीय व्यवस्था, ठंडे पेय, पानी और चाय की निःशुल्क व्यवस्था में स्वेच्छा से तैयार था जहाॅ ऐसे स्वयंसेवियों ने यात्रियों खासकर असमर्थों को राहत पहुॅचाने का कार्य किया वहीं यात्रा व्यवस्थाओं को भी दूरूस्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। इस श्रृंखला में तमाम स्थानीय, प्रादेशिक और राष्ट्रीय स्तर तक की स्वयं सेवी संस्थाओं,संगठनों और व्यक्तियों, संतों, समाज सेवियों का भी उल्लेखनीय सहयोग रहा। 18 अगस्त को नौटी में हुए उदघाट्न समारोह के दिन जब प्रदेश के महामहिम राज्यपाल स्वयं पधारे थे तो नौटी से लेकर कर्णप्रयाग, सिमली गौचर अथवा समीपवर्ती छोटे-बडे नगर-कस्बों में पेट्रोल पंपों पर डीजल, पेट्रोल के लिए सुबह से ही नो इण्ट्री के बोर्ड चस्पा हो चुके थे, जिससे अधिसंख्यक लोग समारोह में ही शामिल नहीं हो पाये। नौटी में बेतरतीब खडे बाहनों से सडक जाम हो गईं, जिससे महिलाओं, बच्चों, बुर्जुगों और बीमारों को कई-कई किलोमीटर पैदल ही नापना पड़ा। जिससे इन बीमारांे और बुर्जुगों को अत्यधिक तकलीफ का सामना करना पड़ा। वहीं समारोह स्थल पर भी समय से नहीं पहुॅच पाये। वाण,चाॅदपुरगढी और कुरूड मे अव्यवस्थाएं सर चढ़ के बोल रहीं थीं इन पड़ावों पर भीषण गर्मी से बचने के लिए न तो पानी की ही समुचित व्यवस्था थी, न हीं धूप से बचनें के लिए टेंटो या टीन शेडो की। पार्किंग की अव्यवस्था से लगभग हर पड़ाव जूझता रहा। नतीजा ये हुआ कि चाॅदपुर गढी से लगभग पाॅच से सात किमी पहले से ही लोगों को पैदल ही आना पड़ रहा था। जाम में फॅसे होने का सबसे बडा खामियाजा महिलाओं के साथ-साथ बेचारे मासुम बच्चों को भी झेलना पड़ा, भूख और प्यास से तडफते बच्चों की दशा देखकर किसी का भी मन पसीज जाता था। सड़क के दोनों किनारों पर खडे वाहन किसी भी हालत में हिलने को तैयार नहीं दिखे। देर सांय जब यात्रा सेम गाॅव  के लिए निकली तब जाकर गाडियाॅ आगे खिसकीं, इस दौरान दूरसंचार व्यवस्था खासकर बीएसएनएल मानों कही गायब ही गया हो। भीड में अगर कोई अपनों से बिछुड जाय तो वापस मिलना मुश्किल था। यात्रा पडाव का अंतिम गाॅव वाॅण जनसमुद्र में परिवर्तित हो गया लग रहा है, हालांकि इन परिस्थितियों में सरकार की भी अपनी सीमाएं थी, हर व्यक्ति के लिए समुचित सुविधा जुटाना संभव भी नहीं था, पर सरकार कहीं दिखी भी तो नहीं, लगभग पच्चीस प्रतिशत लोगों को खुले आसमान के नीचे ही रात बितानी पड़ी। नतीजा ये हुआ कि रात को बारिश आ जानें से लोंगो को आधी रात में हीं सामान समेटना पडा, दूरसंचार की समस्या यहाॅ भी बनीं रही, विशेषज्ञों का मानना है कि मोबाइल टावरों के क्षमता से अधिक उपभोक्ताओं के कारण ये गढबडियाॅ हुई थी, सिंग्नल तो मिले पर बातचीत हर हाल में नहीं हो पा रही थी जिससे लोगों की न व्यवस्थापकों से बातचीत हो पा रहीं थी नही अपनें परिजनों से ही। गैरोली पातल में भी भारी अव्यवस्था दिखी,बंगले में एक दुकान संचालित हो रहीं थी परन्तु देर सांय वह भी बंद हो गई,जिस कारण लोगों को चाय तक के लाले पड़ गये। खाने-पीने की व्यवस्था तो दूर की बात थी,सरकार नें निर्जन पड़ावों पर समुचित आवासीय टेंटों की बात कहीं थी, किन्तु उचित प्रबंधन व मार्गदर्शन के अभाव जरूरतमंद लोगों को उपलब्ध नहीं हो पाये। ऐसे लोग इन पडावों सर छुपाते हुए यत्र-तत्र भागते हुए दिखे। अग्रिम निर्जन पडावों के लिए दी गई जानकारियाॅ भी न केवल अपूर्ण थी, अपितु गलत जानकारियों की भरमार थी। अगला पडाव अगर दस किलोमीटर की दूरी पर स्थित है तो रास्तों पर टंगे अथवा लिखी सूचना के अनुसार महज चार या पाॅच किमी है। ऐसी गलत जानकारियों ने लोगों को न केवल भ्रम में डाला, अपितु अनावश्यक तनाव व थकान को भी झेलना पडा।
  सुतोल, तातड, लाटाखोपडी,चंदनियाॅघाट पैदल मार्ग पर बदरीनाथ वन प्रभाग की कलाकारी दिखी, पुराने रास्ते पर खडंचे की जगहमिट्टी भर दी गई, हो सकता तब मौसम साफ रहा हो पर ऐन यात्राकाल में बारिश नें सच्चाई उगल दी और 14 किमी से भी लम्बे रास्ते को यात्रियों ने घुटने-घुटने तक किचडे से सने पाॅवों से जैसे-तैसे अपने को पार लगाया, इस रास्ते पर चलते वक्त कई यात्री घायल भी हुए। रास्ते पर मंेढ बनाने व उसे सर्पोट प्रदान करनें के लिए इसी वन विभाग नें इस पुनीत अवसर पर लगभग 1,000 देवदार के वृक्षों की बलि दे दी,जिस महकमें को पेडों की सुरक्षा और संवद्र्वन की, मोटी पगार और बजट  दिया जा रहा है वहीं उनका दुश्मन हो बना। ऐसे धार्मिक और पवित्र कार्य पर वृक्षों को काटना न केवल धार्मिक दृष्टि से अपितु कानूनी दृष्टि से भी अनुचित है। होमकुंड में चैंिसंग्या मेढे की विदाई और छंतोलियों के विसर्जन के पश्चात यात्रियों को होमकुड से चंदनियाॅ घाट होते हुए सुतोल आना था। लेकिन वन विभाग द्वारा नौ लाख रूपये खर्च करने के बावजूद मार्ग ये दुर्दशा दिखी। हालांकि जिला अधिकारी चमोली एस.ए. मुरूगेशन ने तत्काल जाॅच व जिम्मेदार अधिकारियों पर कड़ी से कडी कार्यवाही की बात कही थी,परन्तु इतना लम्बा समय बीत जानें के बाद भी, कार्यवाही की बात तो छोड दीजिए, डी.एम. के वायदे के मुताबिक अभी तक जाॅच तक नहीं बिठाई गई।  नंदा देवी राजजात पौराणिक और धार्मिक यात्रा की ऐतिहासिकता और प्राचीनता को जरा छोड़ दे, ंतो राजजात यात्रा का महत्व वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी सार पूर्ण है। इस सारी यात्रा के दौरान जो अनुभव हुए हैं, उसमें बेटियों के सरंक्षण, सामाजिक समरसता, पर्यावरण संरक्षण और पलायन से जुझ रहे पहाड़ को बचाने की सीख थी। हालांकि पूरी यात्रा के दौरान जनमानस इन भावनाओं से ओत प्रोत होता रहा,परन्तु जैसे ही यह यात्रा उच्च हिमालयी क्षेत्रों में प्रवेश करती रही वैसे-वैसे वहाॅ की दुर्लभ पादप, जड़ी-बूटियों वृक्ष-वनस्पतियों का ह्मस बडे़ पैमाने पर देखने को मिला। इस दौरान यात्रियों को बचाने की प्राथमिकताऐं सरकार कीं थीं पर हिमालय को घायल करने की कीमत पर। राजजात यात्रा के निर्जन पडावों लगभग 9500 फीट की ऊॅचाई पर स्थित गैरोली पातल, 11500 फीट की ऊॅचाई पर स्थित वेदनी बुग्याल, 3650 मी0 की ऊॅ. पर स्थित पातर नचैंणियाॅ 4210 मी0 की ऊॅचाई पर स्थित शिलासमुद्र व 2192 मीटर की ऊॅचाई पर स्थित चंदनियाॅघाट के अलावा इन आसपास  स्थित आली बुग्याल, बगुवाबास ,कैलविनायक, रूपकुंड, ज्यूंरागली होमकुंड, लाटाखोपडी, तातड आदि बुग्याल से हरे भरे क्षेत्रों में यात्रियों नें जमकर अजैविक कूडा फैलाया। इन बुग्यालों मे विसलरी, शीतल पेय की बोतले,नमकीन बिस्किट,खैनी सहित प्लास्टिक के कैरी बैगों के साथ-साथ बडे कटे-फटे प्लास्टिक के तिरपाल, फाईबर की प्लैटंे-कटोरी गिलासों के अलावा कई अन्य सामग्री हरे-भरे बुग्यालों मे फैलीं हैं। यात्रा के दौरान फैले सैकड़ों क्विंटल अजैविक कूडे के साथ भारी मात्रा में प्लास्टिक फैला है। जिस पर शासन-प्रशासन की ओर से कोई ध्यान नहीं दिया गया है।
 जानकारों का मानना है, कि बुग्यालों से तत्काल अजैविक कुडे का निस्तारण नहीं किया गया तो बुग्यालों पर विपरीत प्रभाव पडेगा। इस तरह के कूडे के कारण जहाॅ अतिसंवेदनशील बुग्यालों में उगनें वाले तमाम दुर्लभ जडी-बूटियों के अंकूरण व उसके विकास पर पड़ेगा, वहीं अन्य पौधों पर भी इसका विपरित प्रभाव पडना तय है। इस प्रकार यदि बुग्यालों से हजारों टन अजैविक कूडा और प्लास्टिक नहीं हटाया गया तो बुग्यालों का अस्तित्व भी संकट में पड जायेगा। जो आने वाले समय के लिए अच्छा संकेत नहीं है। राजजात यात्रा के दौरान तमाम वर्जनाओं को तोडा गया। हालांकि यह सिलसिला सन् 2000 की राजजात यात्रा से शुरू हो गया था, जहाॅ यात्रा के व्यावसायीकरण का अध्याय भी जुडा,इस बार की यात्रा पारंपरिक सांस्कृतिक मुल्यों और पंरपराओं से हटती हुई भी नजर आई, जहाॅ माॅ नंदा की अराधना उसके जीवन चरित्र को आत्मसात करते हुए लोग भाव-विभोर होते दिखे, वहीं अधिसंख्यक युवा वर्ग रोमांच और मौज-मस्ती की बयार में बहता हुआ नजर आया, यहीं कारण है। उच्च हिमालयी क्षेत्रों के निर्जन पडावों पर प्रकृति को रोदने के लिए हजारों की संख्या में लोग वहाॅ पहुॅचे, रास्ते में ब्रहृमकमल, मासी, अतिश,विश, फैंनकमल समेत तमाम दुर्लभ पादप, जड़ी-बूटियों का सत्यानाश किया गया। बहुत से लोग ब्रहृम कमल जैसे पुष्प पर टूट पडे, कुछ लोग इसी धार्मिक यात्रा की आड में रेड डाटा बुक में शामिल सालम पंजा जैसी दुर्लभतम् और प्रतिबंधित जडी-बूटियों को उखाड़ ले आये। समुद्रतल से 1600 फिट की ऊॅचाई पर स्थित रहस्यमयी झील के नाम से विख्यात रूपकुंड से मानव कंकाल और पुरातात्विक महत्व की अनमोल वस्तुओं को उठा ले जाने पर कोई रोक-टोक न होनें से उत्तराखण्ड का यह अमुल्य पुरातात्विक खजाना आज दुनिया की विभिन्न प्रयोगशालाओं में पहुॅच चुका है। कंकालों के साथ ही वहाॅ कभी आभूषण, राजस्थानी जूते,पान-सुपारी के दाग लगे दाॅत, शंख की चुडियाॅ आदि सामग्री वहाॅ यत्र-तत्र बिखरी पडी हुई थी लेकिन अब वह गायब होती नजर आतीं हैं। जिस पर्यावरण को बचाने का संदेश इस पवित्र यात्रा का उद्देश्य था। दुर्भाग्यवश उसी को नजरअंदाज किया कर दिया गया।


शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2014

GARHWAL - HIMALAYAN MOUNTAINS

Garhwali Hit Movie/Film | Kalyugi Bhakt Or Bhagwan | Kishan Bagot, Minu ...

‘दर्द’ की घाटी

हिमालयी सुनामीः सरकारी तंत्र की विफलता  बनीं ‘रसूखदारों के लिए वरदान’
केदारघाटी बनीं ‘दर्द’ की घाटी
केदारनाथ आपदा के जख्मों पर मुआवजे की लूट
मुआवजा राशि के वितरण में करोड़ों का फर्जीवाड़ा
प्रभावितों की दुकानों के मूल्यांकन में हुआ बड़ा खेल
जून 2013 में आई हिमालयी सुनामी के कारण जो त्रासदी हुई, उसकी याद एक दर्द की तरह सालती रहेगी सालों साल! उन सबको जिन्होंने अपनों को खोया, उन औरतों को जिनके पति व बच्चे वापस नहीं आये, उनको जो किस्मत से खुद तो बच गये लेकिन पानी के उफान में जिन्होंने मौत का मंजर देखा। देखा है- सैकड़ों इंसानों को बहते, टूटते-फूटते मिट्टी पत्थरों के साथ, उनको जो भूख प्यास से तड़पते हुए अंतिम श्वांस तक जिंदगी के लिए लड़ते रहे मौत से। याद रहेगा उनको भी जिनकी जिंदगी भर की कमाई, घर, दुकान, गाड़ी, मवेशी, साजो-सामान कुछ ही घंटों में मिट्टी में मिल गया। रुद्रप्रयाग जिले में केदारनाथ मंदिर सहित ऊखीमठ व अगस्त्यमुनि क्षेत्र के गांवों व कस्बों में जो तबाही हुई, वह अकल्पनीय है और उसकी भरपाई करना असंभव है। घर-बार बर्बाद हो गया, आंखों में आँसू है और सामने अंधेरा। रोज कोई नेता आता है, सपने दिखाने के लिए। शायद याद रहे उन भ्रष्टाचारी व मक्कार शासक वर्ग व उनके नुमाइंदों, मठाधीशों, धन्नासेठों को भी जिन्होंने धर्म व पर्यटन के लूटतंत्र को बढ़ावा दिया। बांधों के निर्माण व मुनाफा कमाने के लिए पहाड़, जंगल, नदियों के साथ खिलवाड़ किया। याद तो उनको भी रहेगा जिन दलालों, नेताओं, अधिकारियों व कर्मचारियों ने आपदा राहत सामग्री को जरूरतमंदों तक पहुंचाने के बजाय उसका दुरुपयोग किया, रास्तों में फेंक दिया, इस आपदा के लिए इकट्ठी की गई करोड़ों की धनराशि के बंदरबांट में इंसानियत व मानवता को दांव पर लगाकर अपने हित साधते रहे। आपदा के जख्म, मुआवजे की लूट, केदारघाटी में मुआवजा राशि के वितरण में करोड़ों का फर्जीवाड़ा, दुकानों में क्षतिग्रस्त हुई सामग्री के मूल्यांकन में हुआ बड़ा खेल। इसी पर केंद्रित यह उदय दिनमान टीम का यह खास आलेख।  संपादक
जून 2013 में आई हिमालयी सुनामी के बाद समय बीतता जा रहा है, जिंदगी ने किसी भी तरह सही गति पकड़ ली है। वैसे भी वक्त हर मरहम की दवा है। जीवन रुकता नहीं, चलता रहता है। हिमालयी सुनामी के कारण जो त्रासदी हुई, उसकी याद एक दर्द की तरह सालती रहेगी सालों साल! फिलवक्त यह कहा जाए कि केदारघाटी दर्द की घाटी बनी हुई है तो इस बात में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। क्योंकि आपदा के समय राहत सामग्री और उसके बाद आपदा राहत के नाम पर जो घोटाला हुआ वह किसी से छुपा नहीं पर कोई बोल नहीं रहा है। क्योंकि आपदा का दर्द आज भी सभी के दिलों में है। वैसे सरकार की लुटेरी, मुनाफा कमाने वाली, भ्रष्ट जनविरोधी नीतियों व जंगलों, पहाड़ों व नदियों के साथ की जा रही ज्यादती के भयंकर नतीजे होने की संभावना तो पिछले कुछ वर्षों से की जा रही थी। लेकिन घोटालों व भ्रष्टाचार में डूबी सरकारें इस तरफ ध्यान देने के बजाय दलालों, माफिया, पूंजीपतियों की सेवा में मशगूल है। यही कारण है कि  घाटी का पूरा इनफ्रास्ट्रक्चर ध्वस्त हो गया। ऐसे हजारों परिवार जिनकी आजीविका केदारनाथ यात्रा पर निर्भर थी, वे आज भी दो जून की रोटी के लिये मोहजात हैं। आपदा के इन जख्मों को भरने के लिये देश और दुनिया के लोगों ने दिल खोलकर राशि दान दी। केन्द्र सरकार से भी करोड़ों की इमदाद राज्य सरकार को मिली। लेकिन, आज भी सैकड़ों पर ऐसे लोग हैं जिन्हें अब तक मुआवजा राशि तक नहीं मिल पाई है। दूसरी ओर, यही मुआवजा राशि गिने-चुने रसूखदार लोगों के लिये वरदान साबित हो रही है। जिन लोगों को मुआवजा राशि का सही आंकलन करने की जिम्मेदारी सौंपी गई है, वही फर्जीवाड़ा करके इसे हड़पने में लगे हुये हैं। खुलेआम मुआवजा बजट की बंदरबांट की जा रही है। या यूं कहें पैसों की लूट मची हुई है। इस प्रकरण में स्थानीय विधायक और जिला प्रशासन की भूमिका संदिग्ध बताई जा रही है।
दरअसल, जलप्रलय के बाद केदारघाटी में जब रेस्क्यू आपरेशन पूरा हो गया तो राज्य सरकार ने आपदा पीड़ितों को मुआवजा राशि बांटने की प्रक्रिया शुरू की। व्यक्ति की मौत, व्यक्ति के लापता होने, मुकान के क्षतिग्रस्त होने, व्यावसायिक भवन के ध्वस्त होने आदि अधिकांश मामलों में राज्य सरकार ने मानक निर्धारित कर मुआवजा राशि बांटने के निर्देश दिये। लेकिन, सबसे बड़ी समस्या यह सामने आयी कि आपदा में ध्वस्त हुये व्यावसायिक भवनों, दुकान आदि के भीतर नष्ट हुये सामान का आंकलन व मूल्यांकन कैसे किया जाये। इसकी जिम्मेदारी व्यापारियों को ही सौंप दी गई। तिलवाड़ा से केदारनाथ तक के जितने भी स्थानीय व्यापारी संगठन थे, उन्होंने सामूहिक रूप से ”संयुक्त व्यापार संघ केदारघाटी” नाम का एक संगठन बनाया, जिसे प्रत्येक व्यापारिक प्रतिष्ठान अथवा दुकान में नष्ट हुई सामग्री के आंकलन के साथ ही मूल्यांकन की जिम्मेदारी सौंप दी गई। हुआ यह कि ‘संयुक्त व्यापार संघ’ के पदाधिकारी ही मुआवजा राशि की बंदरबांट में जुट गये। छोटे व मझले दरजे के व्यापारियों ने अपनी दुकान में हुये नुकसान के लिये शपथ पत्र समेत अनिवार्य दस्तावेज प्रस्तुत किये लेकिन उनमें से कई को मुआवजा देना तो दूर आपदा पीड़ितों की सूची में तक उनका नाम शामिल नहीं किया गया। ऐसे व्यापारी दर-दर भटकते रहे लेकिन कहीं उनकी सुनवाई नहीं हुई। विधायक व जिला प्रशासन से की गई गुहार का भी कोई असर नहीं हुआ है। इससे इतर, आइये समझते हैं कि ‘संयुक्त व्यापार संघ’ के पदाधिकारियों ने कैसे आपस में अथवा अपने चहेतों के बीच मुआवजा राशि की बंदरबांट की।
पिछले साल केदारघाटी में आई भीषण आपदा ने यहां के वाशिंदों को ऐसा दर्द दिया कि जो उम्रभर उन्हें सालता रहेगा। यहां के लोगों के अपनी मेहनत से जीवन जीने के लिए तैयार किया गया मूलभूत ढंाचा एक ही झटके में ध्वस्त हो गया था। हजारों जिंदगियों को दो जून की रोटी मयस्सर करवाने वाली केदारनाथ धाम की यात्रा के ठहरने से लोग आज भी सकते में हैं। इस आपदा के बाद सरकार और गैर सरकारी संगठनों ने इनके जीवन को ढर्रे पर लाने के लिए दिल खोलकर अपनी थैलियां खोली। हर बार की तरह भ्रष्ट और अमानवीय सिस्टम ने इन प्रयासों को पहले ही पग पर ध्वस्त कर दिया।
सरकारी तंत्र की विफलता ने पीड़ितों की राहत को रसूखदारों के लिए वरदान बना दिया। अगर उस वक्त क्षेत्र के निर्वाचित जनप्रतिनिधियों ने जरा भी तत्परता और मानवीय दृष्टिकोण दिखाया होता तो आज जिस तरह मुआवजा के वितरण में धांधली के गंभीर आरोप लग रहे हैं, और राहत के नाम पर फर्जीवाड़ा करने वालों के नित नये नाम सामने आने पर साबित भी हो रहे हैं, उससे बचा जा सकता था।
इसी प्रकरण में एक बात यह भी उठ रही है कि आपदा राहत कार्यों को कराने वाले कई ठेकेदारों को कार्य पूर्ण करने के बाद भी भुगतान नहीं मिल पाया है। सूत्र बताते हैं कि इन कार्यों में जमकर कमीशनबाजी का खेल खेला गया है।

गुरुवार, 9 अक्तूबर 2014

अरे बोल ना रे कुछ ?

सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन हेतु आवंटित धनराशी का उपयोग ना करना तो बहुत बुरी बात है, तुम भी कैसे ठहरे हो, तुम्हे उत्तर प्रदेश में योजनाओं का क्रियान्वयन न करने वाला अधिकारी तो दिखाई दे गया, लेकिन अपने उत्तराखण्ड में जो ऐसा काम कर प्रमोशन ले गए उन पर तुम्हारी तीखी नजर क्यों नहीं गयी ? क्या इसलिए वो तेरे खासम ख़ास हैं या मंत्री के कमाऊ पूत हैं इसलिए ?
अरे देख तो रे जरा शासन का आवंटन पत्र संख्या 98/XVII(1)06-15(प्रकोष्ठ) 2006 दिनांकित 16-मार्च-2006 को, जिसमें स्पेशल कंपोनेंट प्लान के अंतर्गत जनपद हरिद्वार और उधमसिंहनगर में एक-एक एम्बुलेंस खरीदने को 80.00 लाख रूपये की धनराशी आवंटित की गयी थी !
उस समय के अधिकारी भी ऐसे ही रहे होंगे कि उन्हें सुध ही नहीं आयी कि इस पैसों से भी समाज के दबे कुचले वर्ग के लिए एक-एक एम्बुलेंस टाईप का कुछ खरीदा जाना है, वो भी अनुसूचित जातियों के बहुल्य क्षेत्र में उपयोग के लिए !
अब इस ग्याडू ने अपने पुराने दस्तावेज खंगाले तो पता लगा है कि तेरे खासमखास पोटीयाल जैसों ने दिनांक 05-मार्च-2012 तक उस धनराशी का उपयोग ही नहीं किया, और अंत में कह दिया कि 80.00 लाख में दो जिलों के लिए एक-एक एम्बुलेंस जैसा वाहन नहीं खरीदा जा सकता बल, दो एम्बुलेंस खरीदने के लिए 80.00 लाख भी रुपया कम पड़ रहा है बल ?
अब देख तो तेरे तत्समय के समाज कल्याण के लिए जिम्मेदार अधिकारी 80.00 लाख रूपये में एम्बुलेंस ना खरीद कर हेलिकॉप्टर खरीदना चाह रहे थे बल ! अब ये तो तेरे वो अधिकारी ही जाने या तू ही जाने जिन्होंने उक्त 80.00 लाख रूपये की भारी भरकम धनराशी को 6 वर्षों तक खर्च भी नहीं किया और ना ही विभाग के बैक खाते में जमा किया, अब और भी जन कल्याण को आयी धनराशीयों के तेरे खासों ने क्या किया होगा ये तो तू ही जाने ?
बल ये ग्याडू तेरी जगह बैठा होता तो उत्तर प्रदेश के 41.50 लाख रुपयों को गड्डे में डालकर अपनी जान देकर बनाए इस उत्तराखण्ड के 80.00 लाख रूपये की रकम को योजनाओं में न लगाने वाले एक-एक अधिकारी की पहचान कराता, अब तेरे प्यारे तो, तेरे प्यारे ही ठहरे, ये ग्याडू भी देखता है तू किस-किस दोषी अधिकारी की दो दो वेतन वृद्धियां स्थायी रूप से रोकने के साथ साथ परनिंदा प्रविष्ठी करने का फरमान जारी करता है ?
कुछ करेगा ना कल को, या सुअरों का दण्ड यूँ ही फकीरों पर जबरन पेलता रहेगा, वैसे तेरे भेदिये तेरे को सब खबर तो देतेईच होंगे ना !

चन्द्रशेखर करगेती

बुधवार, 1 अक्तूबर 2014

बीस बरस बाद भी उत्तराखंड को इन्तजार

“जो घाव लगे और जाने गयीं वे प्रतिरोध की राजनीति की कीमत थी”1996 में इलाहबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति रवि एस.धवन ने अपने फैसले में लिखा.जिस सन्दर्भ में वे इस बात को लिख रहे थे,उस बात को आज 2 अक्टूबर 2014 को बीस साल हो गए हैं.आज से बीस वर्ष पहले 2 अक्तूबर 1994 को केंद्र में बैठी “मौनी बाबा” नरसिम्हा राव की सरकार से अलग राज्य की मांग करने दिल्ली जा रहे उत्तराखंड आन्दोलनकारियों को उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुलायम सिंह यादव सरकार के पुलिस प्रशासन ने मुजफ्फरनगर में तलाशी के बहाने रोका और फिर हत्या, लूटपाट,महिलाओं से अभद्रता और बलात्कार यानि जो कुछ भी गुंडे-बदमाश या कुंठित-विकृत मानसिकता के अपराधी कर सकते थे,वो सब देश की सर्वोच्च प्रशासनिक व पुलिस सेवा-आई.ए.एस. और आई.पी.एस. के अफसरों की अगवाई में किया गया.आज बीस बरस बाद भी उत्तराखंड को इन्तजार है कि इन हत्यारे,बलात्कारी अफसरों और अन्य कर्मियों को सजा मिले.चूँकि उत्तराखंड को आज भी मुजफ्फरनगर काण्ड के मामले में अभी भी न्याय की दरकार है,इसलिए उस जघन्य काण्ड को मैं न्यायपालिका के कुछ फैसलों के नजरिये से याद करने की कोशिश करता हूँ.मुजफ्फरनगर काण्ड के खिलाफ यदि कोई सबसे सशक्त फैसला था तो वो 6 फ़रवरी 1996 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ती रवि एस.धवन और ए.बी.श्रीवास्तव की खंडपीठ ने दिया.273 पेजों के इस फैसले में इन दोनों न्यायाधीशों ने इस प्रशासनिक अपराध के प्रति बेहद कठोर रुख अपनाया और पीड़ित उत्तराखंडी स्त्री-पुरुषों के प्रति इनका रवैया बेहद संवेदनशील था.दोनों न्यायाधीशों ने अलग-अलग फैसला भी लिखा और उनकी खंडपीठ ने संयुक्त निर्देश भी जारी किये.जस्टिस रवि एस. धवन ने मुजफ्फरनगर काण्ड को राज्य का आतंकवाद करार दिया.जस्टिस ए.बी.श्रीवास्तव ने लिखा कि “महिलाओं का शीलभंग करना,बलात्कार करना,महिलाओं के गहने और अन्य सामान लूटना,वहशीपन की निशानी है जो कि आदिम पुरुषों में भी नहीं पायी जाती थी और यह देश के चेहरे पर एक स्थायी धब्बे की तरह रहेगा.”यह धब्बा आज भी धुला नहीं और पीड़ितों को न्याय की दरकार है,न्याय का इन्तजार है पर न्याय की उम्मीद नजर नहीं आती है.इलाहाबाद उच्च नयायालय ने ही इस काण्ड की सी.बी.आई.जांच का आदेश भी दिया.उक्त फैसले में सी.बी.आई. की कार्यप्रणाली की तीखी आलोचना की गयी है कि वह जानबूझ कर मामले को लटका रही है.अदालत ने लिखा कि सी.बी.आई. ने इस मामले में जिस तरह कार्यवाही की,उससे “समय और सबूत दोनों नष्ट” हो गए.आज बीस साल बाद सी.बी.आई. की अदालतों में लंबित मुकदमों और एक-एक कर छूटते अभियुक्तों,तरक्की पाते और शान से रिटायरमेंट के बाद का जीवन गुजारते मुजफ्फरनगर काण्ड के दोषी अफसरों को देख कर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की बात सच होती प्रतीत हो रही है कि सी.बी.आई. की रूचि दोषी अफसरों को सजा दिलाने में नहीं है.इलाहाबाद उच्च  न्यायालय के उक्त फैसले में पुलिस की गोलीबारी में मरने वालों और बलात्कार की शिकार महिलाओं को 10 लाख रूपया मुआवजा देने का आदेश किया किया गया.साथ ही घायलों को 25 हज़ार,गंभीर रूप से घायलों को 2.5 लाख और अवैध रूप से बंदी बनाये जाने वालों को 50 हज़ार रुपये मुआवजा देने का आदेश दिया गया था.उत्तराखंड की तब की 60 लाख जनसँख्या के लिए अदालत ने आदेश किया था कि पांच साल तक एक रुपाया,प्रति व्यक्ति,प्रति माह केंद्र और राज्य मिलकर जमा करें और इस राशि को उत्तराखंड के लोगों विशेषतौर पर महिलाओं के विकास के लिए खर्च किया जाए.अदालत ने इसे उत्तराखंडियों के घावों पर मरहम लगाने के छोटी विनम्र कोशिश कहा था.1999 में 273 पन्नों के उक्त फैसले को मुजफ्फरनगर काण्ड के समय वहां के डी.एम.रहे अनंत कुमार सिंह की अपील पर सुप्रीम कोर्ट ने कुछ किन्तु-परन्तु लगा कर खारिज कर दिया.अनंत कुमार सिंह ने ही आन्दोलनकारियों पर गोली चलाने का आदेश दिया था और बाद में यह शर्मनाक बयान भी उन्ही का था कि “कोई महिला यदि रात के समय गन्ने के खेत में अकेली जायेगी तो उसके साथ ऐसा ही होगा”.ये अनंत कुमार सिंह ना केवल सपा,बसपा बल्कि कांग्रेस,भाजपा को भी अत्यधिक प्रिय रहे हैं.मुख्यमंत्री रहते हुए वर्तमान गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने अनंत कुमार सिंह के खिलाफ मुकदमा चलाने की इजाजत देने से इन्कार कर दिया और इन्हें प्रमोशन देकर अपना प्रमुख सचिव बनाया.केंद्र की पिछले कांग्रेस सरकार के दौरान अनंत कुमार सिंह केंद्र सरकार में सचिव पद पर आरूढ़ हो चुके थे.अदालती फैसलों की श्रंखला में 2003 में अजब-गजब तो नैनीताल उच्च न्यायलय में हुआ. न्याय की मूर्ती एम.एम.घिल्डियाल और पी.सी.वर्मा ने मुजफ्फरनगर काण्ड के आरोपियों अनंत कुमार सिंह आदि को बरी कर दिया.इसके खिलाफ प्रदेश भर में तूफ़ान खड़ा हो गया.आन्दोलनकारियों ने हाई कोर्ट के घेराव का ऐलान कर दिया.1 सितम्बर 2003 को होने वाले इस घेराव के एक दिन पहले उक्त दोनों न्याय की मूर्तियों ने अपना फैसला यह कहते वापस ले लिया कि अदालत के संज्ञान में यह बात नहीं थी कि 1994 में एम.एम.घिल्डियाल उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति के वकील रहे थे और अब वे उसी मामले में फैसला सुना रहे हैं.यह विचित्र था क्यूंकि किसको मालूम नहीं था,यह तथ्य-स्वयं एम.एम.घिल्डियाल को?बहरहाल जनता के घेराव के दबाव में अदालत द्वारा अपना फैसला वापस लेने की यह अनूठी मिसाल है.लेकिन इतने कानूनी दांवपेंच के बावजूद भी उत्तराखंड के सीने पर मुजफ्फरनगर काण्ड के घाव हरे हैं.उत्तराखंड में कांग्रेस-भाजपा के नेता सत्तासीन होने के लिए अपनी पार्टियों के भीतर सिर-फुट्टवल मचाये हुए हैं.लेकिन जिनकी शहादतों और कुर्बानियों के चलते वे सत्ता सुख भोगने के काबिल हुए,उनको न्याय दिलाना सत्ता के लिए मर मिटने वालों के एजेंडे में नहीं है.इलाहबाद उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में लिखा था कि “भारत के संविधान की यह अपेक्षा है कि हम एक लोकतान्त्रिक लोकतंत्र चलायें,एक जनवादी जनतंत्र चलायें ना कि पिलपिला लोकतंत्र(banana republic) या तानाशाही हुकूमत.”लेकिन उत्तराखंड ही क्यूँ देश के कई हिस्सों में न्याय,लोकतंत्र और संविधान का यह तकाजा पूरा होना बाकी है.मुजफ्फरनगर काण्ड के दोषियों को बीस वर्ष बाद भी सजा ना मिलना अंग्रेजी नाटककार जॉन गाल्सवर्दी के इस प्रसिद्द कथन को ही सच सिद्ध करता है कि “न्याय देने में विलम्ब करना,न्याय देने से इनकार करना है(justice delayed is justice denied)”. खटीमा,मसूरी,मुजफ्फरनगर काण्ड आदि दमन कांडों के दोषियों को बीस बरस बाद भी सजा ना मिल पाना,हमको न्याय देने से इनकार ही तो है.     -इन्द्रेश मैखुरी 

मंगलवार, 30 सितंबर 2014

1000 रूपए मासिक पेंशन

1000 रूपए मासिक पेंशन स्कीम शुरू

 देशभर के करीब 32 लाख पेंशनभोगी को तत्काल रूप से लाभान्वित करने जा रही है। कर्मचारी भविष्य निधि संगठन मंगलवार को देशभर के अपने 120 क्षेत्रीय केन्द्रों पर न्यूनतम 1000 रूपए मासिक पेंशन योजना की शुरूआत करेंगी। मोदी सरकार ने हाल ही में न्यूनतम पेंशन 1,000 रूपए किए जाने को लेकर हाल ही में ईपीएस-95 के संशोधन को अधिसूचित किया है। ईपीएफओ के अनुसार करीब 32 लाख पेंशनभोगी इससे तत्काल लाभान्वित होंगे जिन्हें हर महीने1,000 रूपए से कम पेंशन मिल रहा है। फिलहाल योजना के अंतर्गत कुल 49 लाख पेंशनभोगी हैं। अगले महीने होने वाले विधानसभा चुनावों के मद्देनजर यह योजना महाराष्ट्र और हरियाणा में नहीं होगा। ईपीएफओ योजना के तहत विभिन्न जगहों पर आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में गृहमंत्री राजनाथ सिंह, दूरसंचार मंत्री रवि शंकर प्रसाद, रेल मंत्री डी वी सदानंद गौड़ा, जल संसाधन मंत्री उमा भारती, श्रम मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर और स्वास्थ्य मंत्री हर्ष वर्घन शामिल हो सकते हैं।

शुक्रवार, 26 सितंबर 2014

अठारह साल के कृत्य पर अब सजा

अठारह साल के कृत्य पर अब सजा

 (असलियत क्या है खुद जाने) 

आईएएस नौकरशाह कैसे राज्य के ईमानदार अफसरों का मनोबल मीडीया के गठजोड़ से तोड़ते खुद जाने.....

सस्पेंड चल रहे समाज कल्याण अधिकारी एनके शर्मा को 18 साल पहले
की गई गलती की सजा अब मिली। शासन ने शर्मा केआचरण की घोर निंदा करते हुए
दो वेतन वृद्धि पर स्थाई रोक दी है। शर्मा 1996-97 में बुलंदशहर में समाज
कल्याण अधिकारी के पद पर तैनात थे। शासन ने विभाग के खिलाफ अनर्गल
बयानबाजी करने के आरोप में दो माह पहले शर्मा को सस्पेंड कर सीडीओ
पिथौरागढ़ कार्यालय से संबंध कर रखा है। सस्पेंड होने के समय वह
पिथौरागढ़ के ही समाज कल्याण अधिकारी के पद पर तैनात थे।
शर्मा पर आरोप है कि उन्होंने बुलंदशहर में तैनाती के दौरान स्वच्छकार
विमुक्ति योजना के अंतर्गत 2075 स्वच्छकारों को प्रशिक्षण देने के लिए
यूपी अनुसूचित जाति वित्त विकास निगम द्वारा दिए गए 41.50 लाख रुपये का
प्रयोग नहीं किया। उन्हें, उक्त धनराशि को पीएलए में रखने और आहरण वितरण
अधिकारी के कर्तव्यों एवं दायित्वों का उचित पालन नहीं किए जाने का दोषी
पाया गया। 2004 में शर्मा यूपी से उत्तराखंड आ गए, इसके बाद यूपी ने
उत्तराखंड शासन को जांच रिपोर्ट आदि तथ्य भेजकर दंडित करने की सिफारिश
की, लेकिन तब से मामला अब तक लटका रहा। करीब चार माह पहले शर्मा को
सस्पेंड कर दिया गया और जून में राज्य लोक सेवा आयोग ने भी शर्मा को दिए
जाने वाले दंड पर अपनी सहमति दे दी। पर, मामला फिर लटक गया। अब समाज
कल्याण आयुक्त व अपर मुख्य सचिव एस राजू ने विगत 22 सितंबर को जारी आदेश
में दोषी अफसर के आचरण की घोर निंदा कर दो वार्षिक वेतन वृद्धि स्थाई रूप
से रोकने का दंड जारी किया।"

Chandra Shekhar Kargeti
Chandra Shekhar Kargeti's profile photo
nkargeti@gmail.com
Advocate , RTI Activist

चुनौंऽ अर बिकाश

                                                                                     

                  चुनौंऽ अर बिकाश    

                                                                                                      अश्विनी गौड लक्की                                                                                                                           दंानकोट रूद्रप्रयाग                                 

गैड़ु-गैड़ु मा, जौंका पोस्टर लगिन,
जुबि चुनांैैऽका परत्य्सि बणिन,
तबार त् तौंन ब्वोलि,
कि मैं!
मुळ्के खैरि बिपदा तै, बिधानसभा मा ल्यालू,
अर, अपड़ाये मुळ्कतै मि, स्वर्ग बणालू,
म्येरा गौंऽका टूट्या पुळ माबि, तौंकि तस्बीर चिपकीं,
कि, बिपक्ष कतई बिकास नी कनीं,
हमारि पाळ्टी सत्तामा ळ्यावा
अर बिकासकू धारु बगावा,
आज दुबारा चुनौंऽकु समौं एैगि
पर ! तस्बीर निबद्लि ते पुळे,
हिट्ण लैक नी रयंू,
पर !
अजुबि चिपकी सकदा
तेंमा पोस्टर,
अर ! ठेळी सकदु सु,
द्वी-चार चुनांैऽ  होर बि,
द्वी चार चुनौंऽ होर बि।
     
                अध्यापक विज्ञान एस जी आर आर गुरुराम राय
                                                   पब्लिक स्कूल कैम्पटीफाॅल मसूरी
                                    मो0बा0 8979821859

गुरुवार, 25 सितंबर 2014

udaydinmaan: जनता की आॅंखों में धूल आखिर कब तक?

udaydinmaan: जनता की आॅंखों में धूल आखिर कब तक?: जनता की आॅंखों में धूल आखिर कब तक? विकास योजनाओं पर विकासपुत्र ही लगा रहे हैं सेंघ। आजाद भारत के इतिहास के पन्नों को खोले तो देश के विकास ...

सोमवार, 22 सितंबर 2014

सुकून देते हैं केदार घाटी के तीर्थ, ताल, बुग्याल व सरोवर

सुकून देते हैं केदार घाटी के तीर्थ, ताल, बुग्याल व सरोवर

हिमालय सदियों से घुम्मकड़ों, तीर्थ यात्रियों और पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र रहा है और यहां आकर वह खुद को स्वर्ग की सैर का अहसास कराता है। अकेले हिमालय की गोद में स्थित केदारघाटी का सम्पूर्ण भू-भाग प्राचीन काल से शांति, एकान्त और प्राकृतिक सौंदर्य के कारण )षि- मुनियों, तत्वविदों, विद्वानों और विद्या के आश्रमों का केन्द्र रहा हैं। इस घाटी के तमाम धार्मिक स्थल, ताल व बुग्याल तीर्थयात्रियों और पर्यटकों का सहज ही मन मोह लेते हैं और यहां लोगों के आने का सिलसिला अनवरत जारी है और जारी रहेगा। केदारघाटी के प्राकृतिक सौन्दर्य पर लक्ष्मण सिंह नेगी का यह खास आलेख।
संपादक
हिमालय की गोद में स्थित केदारघाटी का सम्पूर्ण भू-भाग प्राचीन काल से शांति, एकान्त और प्राकृतिक सौंदर्य के कारण )षि-मुनियों, तत्वविदों, विद्वानों और विद्या के आश्रमों का केन्द्र रहा हैं। इस घाटी के तमाम धार्मिक स्थल, ताल व बुग्याल तीर्थयात्रियों और पर्यटकों का सहज ही मन मोह लेते हैं। भगवान केदारनाथ का भक्त व प्रकृति का रसिक जब रूद्रप्रयाग से कुंड की ओर अग्रसर होता हैं। तो मन्दाकिनी की  कल-कल निनाद, सीढ़ीनुमा खेतों की हरियाली उसे रोमांचित करती हैं। कुंड से आगे जब श्रदालु केदार घाटी की तरफ बढ़ता हैं। तो जीवन के दुःख-दर्दो को भूलकर प्रकृति का हिस्सा बन जाता है। क्योकि कुंड से आगे बढ़ते ही गुप्तकाशी में भगवान विश्वनाथ, नाला में ललिता मा, नारायणकोटि में लक्ष्मीनारायण, फाटा मैखंडा में महिषमर्दनी जामू में जमदग्नि, रामपुर में दुर्गा देवी व तोना मंदिर, नानतोली खुमेरा में सिहंभवानी, त्युडी़ में बलभद्र स्वामी, जाख में जाखराजा, त्रियुगीनारायण में ब्रह्मा, विष्णु, महेश, तोषी और तरसाली में मां चंडिका, सोनप्रयाग में मुंडकट्या गणेश, गोरीकुंड में गोरा माता के साथ ही तर्पण व धर्म कुंड, हाट में गौरिया देवी, जंगल चट्टी में भैरवनाथ, रामबाड़ा के निकट भीमबली, गरूड़ चट्टी में गरूड़ भगवान व गुफा में बजरंग बली, हिमालय की गोद में प्रथम केदार भगवान केदारेश्वर व काल भैरव विराजमान हैं। इसके अलावा सि(पीठ कालीमठ में माॅ काली, कोटमा में महाकवि कालिदास की जन्मस्थली, रूच्छ में कोटिमाहेश्वरी व रूच्छ महादेव, कालीशिला में माॅ काली, रांसी में माॅ राकेश्वरी व गौण्डार से आगे बुग्यालों के मध्य द्वितीय केदार मद्महेश्वर  भगवान, मनसूना में मणना देवी ,नन्दा देवी, गिरिया में राजराजेश्वरी, गडगू में जाख, ऊखीमठ में ओंकारेश्वर भगवान के साथ ऊषा-अनिरूद्व के विवाह का मंडप, भोलेश्वर, ग्यारहवें रूद्र भगवान बजरंग बली, मक्कू में मार्कण्डेय तीर्थ व चोपता से तीन किमी ऊपर तृतीय केदार भगवान तुगनाथ  के साथ ही केदार घाटी में सैकड़ों तीर्थ मौजूद हैं। तीर्थो के अलावा मेमसारनी ;त्रिवेणी संगमद्ध का भी घाटी में विशेष महत्व हैं। केदारघाटी में गांधी सरोवर, बिशोनी ताल, कासीन ताल, पय्य्ंाा ताल, देवरिया ताल, बसुकीताल, पनपतिया ताल, दैय्य ताल, सुरजल सरोवर के अलावा टिगडी बुग्याल, मद्महेश्वर, पांडुसेरा, नंदीकुंड, ताखनी बुग्याल, मेंढाखाल, बंशीनारायण, फ्यूंला नारायण, रूद्रनाथ बुग्याल, पनार बुग्याल, खाम मणनी बुग्याल, फौली बुग्याल, मदानी बुग्याल, तिलकोडू, पाली बुग्याल, सैख्रक, पवांली, रौका,  उखातोली ;उषा माता की तपस्थलीद्ध नागपीठा सहित कई बुग्यालकी भरमार है। श्रद्वालु जब केदारघाटी के तीर्थ स्थलांे में पहुचते हंै तो अपने को धन्य महसूस करता है व प्रकृति का रसिक जब यहा कें तालो बुग्यालों सरोवरो में पहुंचता है इस प्राकृतिक सौदर्य को देखकर मोहित हो जाता हैं प्राचीन काल से वर्तमान समय तक देश-विदेश के कोने कोने से तीर्थयात्री व प्रकृति के रसिक यहां पहुंचते है।
बुग्याल और ताल
गांधी सरोवर, बिशोनी ताल, कासीन ताल, पय्य्ंाा ताल, देवरिया ताल, बसुकीताल, पनपतिया ताल, दैय्य ताल, सुरजल सरोवर के अलावा टिगडी बुग्याल, मद्महेश्वर, पांडुसेरा, नंदीकुंड, ताखनी बुग्याल, मेंढाखाल, बंशीनारायण, फ्यूंला नारायण, रूद्रनाथ बुग्याल, पनार बुग्याल, खाम मणनी बुग्याल, फौली बुग्याल, मदानी बुग्याल, तिलकोडू, पाली बुग्याल, सैख्रक, पवांली, रौका,  उखातोली ;उषा माता की तपस्थलीद्ध नागपीठा बुग्याल
केदारघाटी के तीर्थस्थल
भगवान विश्वनाथ, नाला में ललिता मा, नारायणकोटि में लक्ष्मीनारायण, फाटा मैखंडा में महिषमर्दनी जामू में जमदग्नि, रामपुर में दुर्गा देवी व तोना मंदिर, नानतोली खुमेरा में सिहंभवानी, त्युडी़ में बलभद्र स्वामी, जाख में जाखराजा, त्रियुगीनारायण में ब्रह्मा, विष्णु, महेश, तोषी और तरसाली में मां चंडिका, सोनप्रयाग में मुंडकट्या गणेश, गोरीकुंड में गोरा माता के साथ ही तर्पण व धर्म कुंड, हाट में गौरिया देवी, जंगल चट्टी में भैरवनाथ, रामबाड़ा के निकट भीमबली, गरूड़ चट्टी में गरूड़ भगवान व गुफा में बजरंग बली, हिमालय की गोद में प्रथम केदार भगवान केदारेश्वर व काल भैरव विराजमान हैं। इसके अलावा सि(पीठ कालीमठ में माॅ काली, कोटमा में महाकवि कालिदास की जन्मस्थली, रूच्छ में कोटिमाहेश्वरी व रूच्छ महादेव, कालीशिला में माॅ काली, रांसी में माॅ राकेश्वरी व गौण्डार से आगे बुग्यालों के मध्य द्वितीय केदार मद्महेश्वर  भगवान, मनसूना में मणना देवी ,नन्दा देवी, गिरिया में राजराजेश्वरी, गडगू में जाख, ऊखीमठ में ओंकारेश्वर              भगवान के साथ ऊषा-अनिरूद्व के विवाह का मंडप, भोलेश्वर, ग्यारहवें रूद्र भगवान बजरंग बली, मक्कू में मार्कण्डेय तीर्थ व चोपता से तीन किमी ऊपर तृतीय    केदार  भगवान तुगनाथ

भाग्यविधाताओं को नहीं फुर्सत

उत्तराखंड में नदी, गाड़-गदेरे बन गए हैं मनुष्य के लिए खतरनाक और
भाग्यविधाताओं को नहीं फुर्सत
पहाड़ में जितनी बसासतें पिछले दस-बीस सालों में अस्तित्व में आई हैं,  वे खतरे के मुहाने पर खड़ी हैं। दरअसल पहाड़ में जहाँ भी सड़कें बनी,वे नदियों के किनारे ही बनी। सड़के के नजदीक नयी बसासतें बसनी शुरू हुई और आबादी बढ़ते-बढ़ते प्राकृतिक जल निकासी के स्रोतों तक आ गयी या उन्हें भी अतिक्रमित करने लगी। यह पूरे पहाड़ की ही समस्या है। बहुत सारी जगहों पर कुछ प्रभावशाली लोग और कुछ लोग मजबूरी के वशीभूत होकर नदियों,प्राकृतिक जल निकासों को अतिक्रिमित कर भी भवन आदि बना रहे हैं। तो क्या सिर्फ लोगों को ही सब आपदाओं में हुई तबाही के लिए जिम्मेदार मान लेना चाहिए?लोग तो गलत प्रभाव का इस्तेमाल करके या फिर मजबूरीवश ही ऐसे आपदा संभावित स्थानों पर बसेंगे ही। लेकिन प्रशासन,नियामक निकाय-इनका काम क्या है? ये घूस-रिश्वत लेकर लोगों को खतरे की जगह पर बसने दें और फिर संकट आने पर लोगों को ही दोषी ठहरा दें,क्या इतनी ही प्रशासन और नियामक निकायों की भूमिका है या होनी चाहिए?जाहिर सी बात है कि उनकी भूमिका लोगों को खतरनाक स्थानों पर बसने से रोकने के प्रभावी उपाय और कदम उठाने की होनी चाहिए। प्राकृतिक आपदाओं के समय होने वाली जन-धन की हानि पर इंद्रेश मैखुरी का यह खास आलेख।    संपादक
दुनिया में नदियों के किनारे सभ्यताओं के विकास का लंबा इतिहास रहा है। लेकिन पिछले कुछ अरसे से उत्तराखंड में नदी तो क्या छोटे-छोटे गाड़-गदेरे ;नाले-झरनेद्ध भी यहाँ के मनुष्य के लिए खतरनाक होते जा रहे हैं। टिहरी जिले के नौताड नामक स्थान पर बदल फटने और उसके बाद गदेरे में आये भारी मलबे से हुई तबाही ने प्रकृति के विकराल रूप को एक बार फिर सामने ला दिया। नौताड़ राजस्व गाँव जखन्याली का एक छोटा सा तोक है, जहां मुश्किल से 15-20 परिवार निवास करते हैं। यह स्थान घनसाली से लगभग पांच किलोमीटर और पुराने टिहरी शहर को डुबो कर अस्तित्व में आये नए टिहरी शहर से यह लगभग पचास किलोमीटर की दूरी पर है। 30 जुलाई की रात को जब नौताड़ के वाशिंदे सोने गए होंगे तो उन्हें सपने में भी गुमान नहीं रहा होगा कि कैलेण्डर में तारीख बदलने के कुछ घंटों के बाद ही उनका सब कुछ मलबे में दफन हो जाएगा। रात में लगभग सवा दो बजे के आसपास, आबादी से लग कर बहने वाल रुईस गदेरा अपने साथ पहले पानी और फिर भारी मात्रा में मलबा ले कर आया। उसने पूरे नौताड़ को तहस-नहस कर दिया। कुछ मकानों के टूटे हुए हिस्से तो तबाही की कहानी बयान करते प्रतीत होते हैं, लेकिन तबाही की भयावहता का सबसे अविश्वसनीय सबूत,वह मलबे का ढालदार मैदान है,जिसके बारे में स्थानीय निवासी इंगित करके बताते हैं कि यहाँ आठ कमरों का दो मंजिला मकान था,वहां पर चक्की थी, गौशाला थी,खेत थे। पहली बार मलबे के इस ढालदार ढेर को देख कर अपने दिमाग में यह आकृति बनाना भी मुश्किल है कि मलबे के नीचे दफन वह आठ मंजिला मकान कैसा दिखता होगा? इस तबाही ने सात लोगों की जीवनलीला समाप्त कर दी,जिसमें दो बच्चियां और दो महिलायें शामिल थी। बच्चियों के बारे में सरकारी स्कूल में शिक्षक रविन्द्र बिष्ट बताते हैं कि एक बच्ची उनके स्कूल में पढ़ती थी। उनके परिवार को शाम को घनसाली वापस लौटना था, लेकिन किन्ही कारणों से नहीं लौट पाए और इस हादसे का शिकार हो गये। एक व्यक्ति गंभीर हालत में है,जिसे पहले हिमालयन अस्पताल,जौलीग्रांट, देहरादून में भर्ती करवाया गया और वहां से दिल्ली रेफर कर दिया गया है। मरने वालों में एक व्यक्ति मलबे के ढेर में या तो दफन हो गया या पानी के तेज बहाव में बह गया,कहना मुश्किल है। लापता हुए इस शख्स का नाम राजेश नौटियाल था। ग्रामीण बताते हैं कि राजेश नौटियाल ग्राम प्रहरी था। उसी ने लोगों को गदेरे में पानी बढ़ने और मलबा आने के खतरे से आगाह किया था। कुछ लोग और गाय आदि तो वह बचाने में सफल रहा। लेकिन स्वयं को न बचा सका। राजेश नौटियाल ग्राम प्रहरी था,वही ग्राम प्रहरी जिन्हें सरकार मानदेय के नाम पर 500 रूपया महीना यानि 16 रूपया प्रतिदिन देती है। यह भी बढ़ा हुआ मानदेय है। पहले ये ग्राम प्रहरी 200 रूपया प्रतिमाह यानि 6 रूपया प्रतिदिन पाते थे। बताते हैं कि राज्य सरकार ने घोषणा तो 1000 रुपया प्रतिमाह की कर दी है पर मिल 500 रूपया ही रहा है। इतने कम पैसा पाने वाले,नाममात्र के सरकारी तंत्र के अंग ने अपने पद “ग्राम प्रहरी” के नाम को तो सार्थक कर ही दिया। पर क्या राज्य के प्रहरियों और रखवालों के लिए नौताड़ का ग्राम प्रहरी किसी प्रेरणा का स्रोत बन पायेगा? ऐसी आपदाएं जब भी घटित होती हैं सरकारी तंत्र कितना ही संवेदनशील दिखने की कोशिश क्यूँ ना करें,वो लचर ही नजर आता है। देखिये ना कैसी अजीब हालत है कि सामजिक संस्थाएं तत्काल मौके पर पहुँच कर लोगों को खाना,कपडे आदि उपलब्ध करवाने का काम शुरू कर देती हैं। लेकिन शासन-प्रशासन या तो उदासीन या फिर लाचार नजर आता है। 2 अगस्त को नौताड का दौरा करने वाले युवा सामाजिक कार्यकर्ता अरण्य रंजन बताते हैं कि टिहरी के जिलाधिकारी ने उनके साथियों से बच्चों के लिए कपडे उपलब्ध करवाने का आग्रह किया। वे सवाल उठाते हैं कि क्या प्रशासन इतना भी सक्षम नहीं कि 6 बच्चों के लिए कपड़ों का इंतजाम कर सके?बिजली-पानी बहाल करने में ही 48 घंटे से अधिक का समय लग गया। 2 अगस्त को शाम के सात बजे के आसपास नौताड में बिजली और पानी बहाल किया जा सका। यह बेहद अजीब है कि एक छोटी सी जगह पर आया मलबा सरकारी अमले को इस कदर मजबूर कर दे कि उसे बिजली-पानी सुचारू करने में दो दिन लग जाएँ। अलबत्ता सरकारी कारिंदों ने नल में पानी आते ही उसकी फोटो खींचने में जरुर बिजली की सी फुर्ती दिखाई। प्रशासन के इस ढीलेपन के चलते ही प्रभावितों ने पहले दिन राहत राशि के चेक लौटा दिए। प्रभावितों का आक्रोश जायज ही था कि बच्चों के लिए दूध,दवाईयों,कपडे और बिजली-पानी का इंतजाम नहीं हो रहा है तो वे इन चेकों का क्या करेंगे। मकानों के लिए मिलने वाले मुआवजे को लेकर भी लोगों में असंतोष है। स्थानीय राजनीतिक कार्यकर्ता जयवीर सिंह मियाँ कहते हैं कि आठ कमरों के दो मंजिले मकान का,जिसमें 6 भाई रहते थे,एक लाख रूपया दिया जा रहा है और इस लाख रुपये को ही 6 हिस्सों में बांटने को कहा जा रहा है। जाहिर सी बात है कि 1 लाख रुपये में 6 भाई तो क्या एक भाई के लिए भी मकान बना पाना मुमकिन नहीं है। लेकिन वो सरकार ही क्या जो लोगों के संकट के समय भी तर्कहीन और संवेदनहीन नजर ना आये ! आम दिनों में मुश्किल से एक मीटर पानी वाला यह गदेरा,31 जुलाई को जितना पानी और मलबा लेकर आया,वह अकल्पनीय है। लेकिन पानी के इस प्राकृतिक स्रोत के इतने सटा कर बनाए गए मकान एक तरह से दुर्घटना को आमन्त्रण ही थे। इसी क्षेत्र के 74 वर्षीय बुजुर्ग उत्तम सिंह मिंयाँ बताते हैं कि नौताड़ गाँव तो पहले पहाड़ पर ऊपर था। जिस स्थान पर बसासत को रुईस गदेरे ने तहस-नहस कर दिया,वहां तो पहले लोगों की छानियां ;गौशालाएंद्ध और खेत ही होते थे। सड़क आने पर ही यहाँ मकान बनाना शुरू हुए। उत्तम सिंह मिंयाँ कहते हैं कि गदेरे के नजदीक मकान नहीं बनाने चाहिए थे। तबाही का यह भयावह दृश्य देख रही पड़ोस के गाँव की एक महिला को वे डांटते हुए कहते हैं कि उस के परिवार ने गदेरे के किनारे मकान बना कर अपने को ऐसे ही संकट के मुंह में डाल दिया है। ये बुजुर्गवार बताते हैं कि लगभग 50 साल पहले भी छ्म्ल्याण के गदेरे;भिलंगना नदी के दूसरे छोर की तरफ स्थितद्ध में ऐसे ही भारी बारिश के बाद पानी और मलबा आया था.लेकिन उस समय तबाही कम हुई क्यूंकि लोगों के मकान गदेरे के इतने नजदीक नहीं थे। वे बताते हैं कि उस तबाही को लेकर इस क्षेत्र में लोकगीत भी गाया जाता है-
रैंसी खेली पैंसी, रै सिंह दिदा बचो मेरी भैंसी
पहली पंक्ति टेक है,दूसरी पंक्ति में कहा गया है कि राय सिंह भाई मेरी भैंस को बचाओ। इस लम्बे से गीत में उस समय हुई भारी बारिश के बाद की आपदा का पूरा विवरण है कि कैसे कुछ लोग विपदा में फंसे,रात को 12 बजे बाद यह आपदा आना शुरू हुई,आदि-आदि। यह सिर्फ एक नौताड़ का ही किस्सा नहीं है। पहाड़ में जितनी बसासतें पिछले दस-बीस सालों में अस्तित्व में आई हैं,वे इसी तरह से खतरे के मुहाने पर खड़ी हैं। दरअसल पहाड़ में जहाँ भी सड़कें बनी,वे नदियों के किनारे ही बनी। सड़के के नजदीक नयी बसासतें बसनी शुरू हुई और आबादी बढ़ते-बढ़ते प्राकृतिक जल निकासी के स्रोतों तक आ गयी या उन्हें भी अतिक्रमित करने लगी। यह पूरे पहाड़ की ही समस्या है। नौताड़ का निकटवर्ती कस्बा घनसाली भी ऐसे ही खतरे के मुहाने पर है,जहां नदी में कालम खड़े करके मकान बनाए गए हैं। नौताड़ में नदी तो आबादी से थोडा दूरी पर है। परन्तु रुईस गदेरा आबादी से सट कर गुजरता है। 31 जुलाई की रात से पहले भी यह गदेरा बेहद शांत और निरापद नजर आता रहा होगा और उस हौलनाक रात के बाद भी यह शांत और निरापद ही दिखता है। लेकिन उस रात को जितना पानी और उससे कई गुना ज्यादा मलबा यह गदेरा अपना साथ लाया,उससे ऐसा लगता है,जैसे कि रुईस गदेरा लोगों की जान की कीमत पर भी अपने रास्ते में पड़ने वाले हर अवरोध,हर अतिक्रमण को हटा लेना चाहता हो।
प्रश्न यह है कि क्या हम हर बार नौताड़ जैसी त्रासदियों पर रोने को अभिशप्त हैं?पुरानी बसासतों को हटाया नहीं जा सकता,क्या सिर्फ इस तर्क के साथ उन्हें आपदा की भेंट चढ़ने का इन्तजार करना चाहिए?सवाल तो यह भी है कि क्या हमारा सरकारी तंत्र आपदाओं से कोई सबक सीखता है?2012 में रुद्रप्रयाग जिले के उखीमठ क्षेत्र के मंगोली और चुन्नी गाँव भीषण आपदा के शिकार बने थे। लेकिन आज मंगोली गाँव में उसी गदेरे के मुहाने पर मकान बनाना शुरू हो गए हैं,जो 2012 में तबाही लेकर आया था। वहां मकान बनवा रहे एक सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य श्री भट्ट ने इस लेखक को इसी वर्ष जनवरी में बताया कि वे अगस्त्यमुनि में बसना चाहते थे,लेकिन 2013 की आपदा के बाद अगस्त्यमुनि भी निरापद नहीं रहा। देहरादून में जमीन खरीदने की कोशिश की,लेकिन वहां आसमान छूते जमीनों के भाव उनकी सामर्थ्य से बाहर थे। सो वे वहीं बसने को विवश हैं। लोगों को ही सब आपदाओं में हुई तबाही के लिए जिम्मेदार मान लेना चाहिए?लोग तो गलत प्रभाव का इस्तेमाल करके या फिर मजबूरीवश ही ऐसे आपदा संभावित स्थानों पर बसेंगे ही। लेकिन प्रशासन,नियामक निकाय-इनका काम क्या है? ये घूस-रिश्वत लेकर लोगों को खतरे की जगह पर बसने दें और फिर संकट आने पर लोगों को ही दोषी ठहरा दें,क्या इतनी ही प्रशासन और नियामक निकायों की भूमिका है या होनी चाहिए?जाहिर सी बात है कि उनकी भूमिका लोगों को खतरनाक स्थानों पर बसने से रोकने के प्रभावी उपाय और कदम उठाने की होनी चाहिए। लगातार एक बाद एक आने वाली आपदा उत्तराखंड में नए सिरे से सड़कें,भवन बनाने के तौर-तरीके पर विचार करने,ठेकेदार परस्त,पूँजीपरस्त विकास के माडल पर पुनर्विचार करने का सबक लेकर आ रही है। हमारे भाग्यविधाताओं के पास आम लोगों की चिंता करने की फुर्सत ही नहीं है। इसलिए साल दर साल हम आपदा का दंश झेलने को विवश हैं।