सोमवार, 19 जनवरी 2015

दो वक्त की रोटी के पड़े हैं लाले

पैरों पर खड़े नहीं हो पाते माता-पिता, बच्चे मजदूरी करने को मजबूरउपचार पर लाखों रुपए खर्च के बावजूद स्थिति नहीं हुई सामान्यदो वक्त की रोटी के पड़े हैं लाले


 जिला मुख्यालय से सटे तिलणी गांव के गजेन्द्र सिंह का परिवार दुखों के पहाड़ के तले दबा हुआ है। उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि एक दिन उसका परिवार अनाज के एक-एक दाने के लिए मोहताज होगा। अस्थमा की बीमारी घर कर जाने के बाद पत्नी आशा देवी के कंधों पर परिवार की जिम्मेदारी आ गई। लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। एक दुर्घटना में पत्नी की रीढ़ की हड्डी टूट गई। हालिया स्थिति यह है कि पति-पत्नी चल-फिर नहीं सकते हैं। परिवार के खातिर बच्चों ने स्कूल छोड़कर मजदूरी शुरू कर दी है।
रुद्रप्रयाग शहर से महज तीन किमी दूर तिलणी गांव में आज से कुछ वर्ष पूर्व गजेन्द्र सिंह (48) का परिवार खुशहाल था। हंसते-खेलते परिवार चल रहा था। गजेन्द्र एक छोटी सी दुकान चलाकर अपने परिवार का भरण-पोषण करता था। अचानक गजेन्द्र की तबीयत बिगड़ गई। डाॅक्टरों ने बताया कि उसे अस्थमा हो गया है। रुद्रप्रयाग और श्रीनगर में उपचार के बावजूद उसकी स्थिति में सुधार नहीं हो पाया। आज गजेन्द्र जिंदगी और मौत से जंग लड़ रहा है। अब परिवार का पूरा भार पत्नी आशा देवी ने ऊपर आ गया। खेती-बाड़ी और दूध बेचकर वह किसी तरह परिवार को पटरी पर लाई। पति तो बीमार थे, लेकिन परिवार का गुजारा चल रहा था। लेकिन एक घटना ने इस परिवार की खुशियां पूरी तरह काफूर कर दी। पिछले वर्ष फरवरी माह में आशा देवी (44) छत से नीचे गिर गई और उनकी रीढ़ की हड्डी टूट गई।
इस घटना से पूरा परिवार स्तब्ध रह गया। ग्रामीणों ने चंदा कर आशा को उपचार के लिए देहरादून के इंद्रेश हास्पिटल में भर्ती कराया गया। जहां उनका लंबा उपचार चला। डाॅक्टरों ने आशा को हास्पिटल में बेड रेस्ट की सलाह दी। आर्थिक तंगी के कारण तीमारदार उन्हें घर ले आए। लेकिन घर में देखरेख और समय-समय पर जांच न होने के कारण उनके पिछले हिस्से में घाव (बेड शोर) हो गए। स्किन गल गई। एक बार फिर ग्रामीणों ने पैसा एकत्रित कर उसे हास्पिटल में भर्ती कराया। डाॅक्टरों ने उसकी प्लास्टिक सर्जरी की। लेकिन हालत में सुधार नहीं हुआ। अब स्थिति यह है कि उनके शरीर के निचले हिस्से में पैरालाइज हो गया है। आशा के उपचार पर परिजन ग्रामीणों की सहायता से सात लाख रुपए से अधिक खर्च कर चुके हैं। अब तो उपचार के लिए उनके पास फूटी कौड़ी भी नहीं है। दोनों पति-पत्नी अपने पैरों के बल खड़े भी नहीं हो पाते हैं।
गजेन्द्र और आशा की दो बेटी और दो बेटे हैं। अपने माता-पिता की देखभाल और परिवार चलाने के लिए दो बच्चों ने पढ़ाई छोड़ दी है। सबसे बड़ी बेटी 24 वर्षीय पिंकी की शादी हो चुकी है। दूसरी बेटी ऋचा 18 वर्ष की है। ऋचा 12वीं पास कर चुकी है। परिवार की जिम्मेदारी उसके कंधे पर आने के बाद वह ग्रेजुएशन नहीं कर पा रही है। ऐसी ही स्थिति 16 वर्षीय योगेन्द्र की है। हाईस्कूल की परीक्षा पास करने के बाद उसकी पढ़ाई छूट गई है। सबसे छोटा बेटा 13 वर्षीय योगेश अभी कक्षा नौ में पढ़ रहा है। दोनों भाई-बहिन मजदूरी और दूध बेचकर अपने भाई को पढ़ाने के साथ ही अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी की व्यवस्था कर रहे हैं। ऋचा और योगेन्द्र बताते हैं कि कई बार घर में अनाज का एक भी दाना नहीं रहता। गांव वाले मदद कर रहे हैं। मां के उपचार में भी गांव के लोगों ने काफी मदद की। गांव वाले भी कब तक मदद करेंगे। आशा देवी के चेहरे पर भविष्य की चिंता साफ देखी जा सकती है। रूंधे गले से वह कहती हैं कि उनके परिवार पर न जाने किसकी नजर लग गई। बच्चे पढ़ाई करने के बजाय मजदूरी कर रहे हैं। हम पति-पत्नी अपने बच्चों पर बोझ बन गए हैं। गजेन्द्र के भाई रघुवीर कठैत का कहना है कि ग्रामीणों और हम लोगों से जो कुछ भी संभव था, हमने किया। उन्होंने स्वयं सेवी संस्थाओं से मदद की गुहार लगाई है।
रुद्रप्रयाग शहर से महज तीन किमी दूर तिलणी गांव में आज से कुछ वर्ष पूर्व गजेन्द्र सिंह (48) का परिवार खुशहाल था। हंसते-खेलते परिवार चल रहा था। गजेन्द्र एक छोटी सी दुकान चलाकर अपने परिवार का भरण-पोषण करता था। अचानक गजेन्द्र की तबीयत बिगड़ गई। डाॅक्टरों ने बताया कि उसे अस्थमा हो गया है। रुद्रप्रयाग और श्रीनगर में उपचार के बावजूद उसकी स्थिति में सुधार नहीं हो पाया। आज गजेन्द्र जिंदगी और मौत से जंग लड़ रहा है। अब परिवार का पूरा भार पत्नी आशा देवी ने ऊपर आ गया। खेती-बाड़ी और दूध बेचकर वह किसी तरह परिवार को पटरी पर लाई। पति तो बीमार थे, लेकिन परिवार का गुजारा चल रहा था। लेकिन एक घटना ने इस परिवार की खुशियां पूरी तरह काफूर कर दी। पिछले वर्ष फरवरी माह में आशा देवी (44) छत से नीचे गिर गई और उनकी रीढ़ की हड्डी टूट गई। इस घटना से पूरा परिवार स्तब्ध रह गया। ग्रामीणों ने चंदा कर आशा को उपचार के लिए देहरादून के इंद्रेश हास्पिटल में भर्ती कराया गया। जहां उनका लंबा उपचार चला। डाॅक्टरों ने आशा को हास्पिटल में बेड रेस्ट की सलाह दी। आर्थिक तंगी के कारण तीमारदार उन्हें घर ले आए। लेकिन घर में देखरेख और समय-समय पर जांच न होने के कारण उनके पिछले हिस्से में घाव (बेड शोर) हो गए। स्किन गल गई। एक बार फिर ग्रामीणों ने पैसा एकत्रित कर उसे हास्पिटल में भर्ती कराया। डाॅक्टरों ने उसकी प्लास्टिक सर्जरी की। लेकिन हालत में सुधार नहीं हुआ। अब स्थिति यह है कि उनके शरीर के निचले हिस्से में पैरालाइज हो गया है। आशा के उपचार पर परिजन ग्रामीणों की सहायता से सात लाख रुपए से अधिक खर्च कर चुके हैं। अब तो उपचार के लिए उनके पास फूटी कौड़ी भी नहीं है। दोनों पति-पत्नी अपने पैरों के बल खड़े भी नहीं हो पाते हैं। गजेन्द्र और आशा की दो बेटी और दो बेटे हैं। अपने माता-पिता की देखभाल और परिवार चलाने के लिए दो बच्चों ने पढ़ाई छोड़ दी है। सबसे बड़ी बेटी 24 वर्षीय पिंकी की शादी हो चुकी है। दूसरी बेटी ऋचा 18 वर्ष की है। ऋचा 12वीं पास कर चुकी है। परिवार की जिम्मेदारी उसके कंधे पर आने के बाद वह ग्रेजुएशन नहीं कर पा रही है। ऐसी ही स्थिति 16 वर्षीय योगेन्द्र की है। हाईस्कूल की परीक्षा पास करने के बाद उसकी पढ़ाई छूट गई है। सबसे छोटा बेटा 13 वर्षीय योगेश अभी कक्षा नौ में पढ़ रहा है। दोनों भाई-बहिन मजदूरी और दूध बेचकर अपने भाई को पढ़ाने के साथ ही अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी की व्यवस्था कर रहे हैं। ऋचा और योगेन्द्र बताते हैं कि कई बार घर में अनाज का एक भी दाना नहीं रहता। गांव वाले मदद कर रहे हैं। मां के उपचार में भी गांव के लोगों ने काफी मदद की। गांव वाले भी कब तक मदद करेंगे। आशा देवी के चेहरे पर भविष्य की चिंता साफ देखी जा सकती है। रूंधे गले से वह कहती हैं कि उनके परिवार पर न जाने किसकी नजर लग गई। बच्चे पढ़ाई करने के बजाय मजदूरी कर रहे हैं। हम पति-पत्नी अपने बच्चों पर बोझ बन गए हैं। गजेन्द्र के भाई रघुवीर कठैत का कहना है कि ग्रामीणों और हम लोगों से जो कुछ भी संभव था, हमने किया। उन्होंने स्वयं सेवी संस्थाओं से मदद की गुहार लगाई है।

शुक्रवार, 16 जनवरी 2015

तो धरती पर प्रकट होंगे केदारघाटी के पाण्डव

तो धरती पर प्रकट होंगे केदारघाटी के पाण्डव


देवभूमि के रूप में विख्यात केदारघाटी के गावांे में पौराणिक पाण्डव नृत्य का आयोजन प्रारंभ हो गया है। और संयोगवश विश्व धरोहर दिवस का आगाज भी हो रहा है। देश और दुनिया में प्राचीन और ऐतिहासिक विरासतों को संरक्षित करने के उद्देश्य से यूनस्को प्रतिवर्ष ‘ विश्व धरोहर ’ का चयन करता है। ऐसे में विश्व विरासत सूची में केदारघाटी के पाण्डव नृत्य को शामिल किया जाए तो देश और दुनिया को उत्तराखण्ड की एक महान प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर के दर्शन होंगे साथ ही केदारघाटी के सैकड़ों गांवों के लिए भी यह संरक्षण का कार्य करेगी। केदारघाटी में यह आयोजन प्राचीन समय से लोक परम्पराओं के साथ स्थानीय जनमानस की श्रुति परम्पराओं को भी सहेज रहा है।  इसी पर केंद्रित दीपक बेजवाल का यह विस्तृत आलेख। संपादक
पौराणिक मान्यता के अनुसार स्वार्गारोहण यात्रा पर जाते समय पाण्डव केदार घाटी की सुन्दरता पर मोहित हो गये थे तब पाण्डवों द्वारा अपने बाण अर्थात शस्त्रों को केदारघाटी में फेंक दिया गया था और घोषणा की मोक्षप्राप्ति के बाद भी हम सूक्ष्म रूप में प्रतिवर्ष यहां आकर अपने भक्तों की कुशलक्षेम पूछगे, इसी मान्यता के कारण साल दर साल केदारघाटी के गांवों में पाण्डव अवतरित होते है, उनके उन सूक्ष्म अवतारों के वाहक व्यक्ति नौर या पश्वा कहलाते है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी नियत होते रहते है। मान्यता है कि ये कही भी रहें पाण्डव अपनी पूजा के अवसर पर इन्हें अपने गांवों में खींच लाते है। यही कारण है कि इन दिनों प्रवासियों के ढेरों परिवार गांवों में आकर पाण्डव नृत्य पूजा में भाग लेते है। गढ़वाल में दीपावली के ग्यारह दिन बाद मनायी जाने वाली एगास बग्वाल के दिन से पाण्डवों का दिया लगना शुरू हो जाता है, और उन्हें बुलाने की स्थानीय रस्मे प्रारम्भ हो जाती है। पाण्डवों की वीरता और उनका चरित्र इस जनपद के निवासियों का आदर्श रहा है, इन आलौकिक देवताओं की गाथाऐ ढोल दमौ के साथ गायी जाती है, जिनमें पाण्डवों का जन्म, दुर्योधन द्वारा निकाला जाना, पांचाल देश पहुंचकर द्रोपदी स्वयम्वर, नागकन्या से विवाह, महाभारत युद्व, बावन व्यूह की रचना चक्रव्यूह, राज्यभिषेक, स्वार्गारोहण आदि सभी लोककथाओं के हिसाब से गायी सुनायी जाती है, यहां प्रत्येक पाण्डव या पात्र को अवतरित करने की अलग अलग थाप अथवा ताल होती है, वास्तव में ढोली इसमें सबसे अहम भूमिका निभाती है जिसकी थापों पर ही मानवों पर पाण्डव देवताओं का अवतरण होता है। पाण्डवों के जन्म के जागर गाये जाते है, जिसमें एक एक कर कुन्ती माता, पांच भाई पंडऊ, राणी द्रोपदी को बुलाया जाता है, उनके हाथों में निशान ‘बाण’ होते है, ढोल पर बजती थापों पर ही वे सभी क्रमशः आवेशित होकर गोल घेरे में नृत्य करते है।पाण्डवों के प्रति लोक में असीम आस्थाये प्रकट की जाती है, मान्यता है कि ये अत्यन्त वीर और श्क्ति प्रदाता है और मानवमात्र के दुख कष्ट को हरने के लिए पृथ्वी पर अवतरित हुऐ है। पाडंव नृत्य का आरम्भ होने की रस्में सालभर पहले से ही शुरू कर दी जाती है इस दौरान दिये का लगाये जाने के साथ पाण्डवों के नये पात्रों को नृत्य की सीख पुराने जानकार बुजर्ग देतेे है। विशेष पूजा अर्चना के साथ गांववासी एकत्रित होकर पाण्डवों के पश्वाओं के साथ अपने पुराने पाण्डव बाणों को निकालते है। जिसके बाद पवित्र स्थानों पर देवताओं और बाणों को स्नान कराया जाता है। इसके साथ ही नृत्य लीला प्रारम्भ हो जाती है, तब से लीला के दौरान ये अपने गांवों का भम्रण कर अपने थात का स्पर्श आमजनमानस, खेत खलिहानो और पशु प्राणिमात्र को देते है। इसे मौपूज कहते है इस यात्रा के स्वागत में गांवभर में ओखलियों में भूजे हुऐ धान को कूटकर चूड़े व भूजले का प्रसाद तैयार किया जाता है जिसे पाण्डवो को भेट स्वरूप अर्पित किया जाता है, पाण्डव अपने आरक्षित चैक में सर्वप्रथम नृत्य करते हुऐ सभी ग्रामीणो को आशीर्वाद देते है, उनके निशानो को पंचगव्य से स्नान कराकर उसके जल को गांवभर में छिड़का जाता है मान्यता है कि ऐसा करने से पशुओ में खुरपका रोग नहीं होता है। इसके साथ ही छाका परम्परा भी प्रारम्भ होती है जिसमें गंावों के सयंुक्त परिवार बारी बारी से पाण्डवों को अर्घ देते है, और पाण्डवों को सामुहिक भोज का निमंत्रण देते है। इसके उपरांत महीने भर तक विभिन्न घटनाओं का वर्णन नृत्य द्वारा किया जाता है। महीने भर तक गांवों में बारी बारी से बावन व्यूहों की रचना भी की जाती है।केदारघाटी में पाण्डवाणी गीतों के जानकारों और ढोलसागर के मर्मज्ञ लोकलावंतों की जुगलबंदी गढ़वाली संस्कृति को जानने वाले के लिए एक बेहतर निमत्रंण की प्रतीक बनती जा रही है। कई विदेशी मेहमान और शोधार्थीयों को पण्डव चैकों में देर रात तक असानी से बैठा देखा जा रहा है। केदारघाटी के वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी डा0 डी आर पुरोहित, कृष्णानंद नौटियाल, राकेश भट्ट, राजीवलोचन भण्डारी,  के सफल निर्देशन में प्राचीन पाण्डवाणी पंरपराओं को जीवंत करने का सफल प्रयास भी कर चुकी है। श्री विधाधर श्रीकला, उत्सव ग्रुप एवं पंचकेदार लोककला मंच द्वारा ठेठ और पारम्परिक अंदाज में दिल्ली, मुम्बई के अनेक अन्र्तराष्ट्रीय आयोजनों में केदारघाटी की इस विरासत का प्रदर्शन किया गया है।
केदारघाटी की पण्डवाणी
पण्डवाणी मण्डाण केदारघाटी की प्राचीन परम्परा है, यही से राज्य के कोने कोने में इसका प्रसार हुआ है। पाण्डवो को अवतरित कराने और नृत्यलीला के दौरान में लोकवाद्यय ढोल की अहम भूमिका रहती है। तकरीबन 16 छोप नृत्यशैलीयाँ में पाण्डव नष्त्य पूरा होता है। इसके साथ प्रत्येक गांव में पाण्डव नृत्य के अपनी-अपनी परंपराए भी होती है।
सबसे पुराने कण्डारा गांव के पाण्डव
केदारघाटी में सबसे पुराने पाण्डव गढ़वाल के ऐतिहासिक बावनगढ़ों में सबसे प्राचीन कण्डारागढ़ के है। आज भी सम्पूर्ण गढ़वाल में पाण्डव नृत्यों के सर्वाधिक पच्चीस छोप ;नृत्यशैलीयाँद्ध कण्डारा में ही आयोजित होती है।
क्या कहते संस्कृतिकर्मीकृकृ
केदारघाटी के पाण्डव उत्तराखण्ड की समृ( सांस्कृतिक विरासत है। गोत्र हत्या से मुक्ति हेतु भगवान शिव के दर्शन के लिए पाण्डवों का केदारघाटी आगमन इस परम्परा की प्राचीनता को स्वंय प्रमाणित करता है। केदारघाटी में यह आयोजन प्राचीन समय से लोकपरम्पराओं के साथ स्थानीय जनमानस की श्रुति परम्पराओं को भी सहेज रहा है। विश्व विरासत सूची में केदारघाटी के पाण्डव नष्त्य को शामिल होने से देश और दुनिया को एक महान प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर के दर्शन होंगे साथ ही केदारघाटी के सैकड़ों गांवों के लिए भी यह संरक्षण का कार्य करेगी।
देवानंद गैरोला, कण्डारा गांव
केदारघाटी में पाण्डव नृत्य और चक्रव्यूह मंचन का अनुष्ठानिक महत्व है, सदियों से यहां इसका भावपूर्ण आयोजन किया जाता रहा है। लोकधुन और लोकभाषा के साथ पाण्डवाणी की वार्ता शैली केदारघाटी की पहचान है। यदि विश्व विरासत सूची में ‘केदारघाटी का पाण्डव नृत्य’ चयन होता है तो यह विश्व की एक महान सांस्कृतिक विरासत को सम्मान देने जैसा सराहनीय कार्य होगा।
राकेश भट्ट
पाण्डव नृत्य के आयोजक

गुरुवार, 15 जनवरी 2015

मोहित ने किया उत्तराखंड का नाम रोशन

युवा सम्मानः मोहित ने किया उत्तराखंड का नाम रोशन

राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता में बेस्ट फोटोग्राफर चुने गए मोहित
गुवाहाटी में आयोजित यूथ फेस्टिवल में लिया हिस्सा
एनवाईकेएस की पत्रिका में भी छपी मोहित की फोटो

युवा कार्यक्रम एवं खेल मंत्रालय भारत सरकार और खेल एवं युवा कल्याण विभाग असम सरकार की ओर से गुवाहाटी (असम) में आयोजित 19वें यूथ फेस्टिवल में रुद्रप्रयाग जिले के युवा फोटोग्राफर मोहित डिमरी ने उत्तराखंड का नाम रोशन किया है। फोटोग्राफी में बेस्ट आॅफ थ्री प्रतियोगिता में उनका चयन होने पर उन्हें पुरस्कृत किया गया। यूथ फेस्टिवल में पूरे देशभर के अलग-अलग राज्यों से 21 फोटोग्राफर पहुंचे हुए थे। मोहित को पुरस्कार मिलने पर विभिन्न संगठनों ने इसे युवाओं के प्रेरणास्रोत बताते हुए उन्हें बधाई दी है।
दरअसल, नेहरू युवा केन्द्र संगठन की ओर से प्रत्येक वर्ष नेशनल यूथ फेस्टिवल का आयोजन किया जाता है। इस बार गुवाहाटी में यह फेस्टिवल आयोजित हुआ। जिसमें देश भर के अलग-अलग राज्यों से युवाओं ने प्रतिभाग किया। फोटोग्राफी में उत्तराखंड से मोहित डिमरी का चयन हुआ था। फोटोग्राफी प्रतियोगिता के लिए देश भर से कुल 21 युवा फोटोग्राफरों ने हिस्सा लिया। प्रतियोगिता के तहत फोटोग्राॅफरों को अनेकता में एकता की थीम दी गई। नियमानुसार प्रत्येक फोटोग्राॅफरों ने अपनी तीन बेस्ट फोटो निर्णायक मंडल को उपलब्ध कराई। मोहित की फोटो बेस्ट फोटो के रूप में चयनित की गई। इस फोटो की आयोजक मंडल ने भी प्रशंसा की और इसे अपनी पत्रिका में प्रकाशित किया। गुवाहाटी से वापस लौटने के बाद मोहित ने बताया कि यूथ फेस्टिवल में प्रतिभाग करना उनके जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा। फेस्टिवल के दौरान काफी कुछ सीखने को मिला। अन्य राज्यों के युवा फोटोग्राॅफरों ने उनका पूरा सहयोग किया। उन्होंने बताया कि फोटोग्राफी के फील्ड में युवा अपना करियर बना सकते हैं। जल्द ही राष्ट्रीय स्तर पर एक फोटोग्राफी ग्रुप तैयार कर दिया जाएगा। इसमें नए-नए फोटोग्राफरों को जोड़कर उन्हें फोटोग्राफी की विधाएं सिखाई जाएंगी।
नेहरू युवा केन्द्र के जिला समन्वयक डाॅ मुकेश डिमरी ने बताया कि मोहित ने राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता में अपना बेस्ट देकर उत्तराखंड को पहचान दिलाई है। अन्य युवाआंे को भी उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए। उन्होंने कहा कि अच्छा वातावरण और दिशा-निर्देशन से ही जीवन में सफलता मिलती है। उत्तराखंड में प्रतिभाओं की कमी नहीं है। जरूरत है उनको तलाशने की। 

बुधवार, 14 जनवरी 2015

नेगी को सौंपी गई कांग्रेस प्रदेश प्रवक्ता की कमान

नेगी को सौंपी गई कांग्रेस प्रदेश प्रवक्ता की कमान 


कांग्रेस वरिष्ठ नेता सूरज नेगी को मीडिया में संगठन की बात मजबूती से रखने के लिए कांग्रेस प्रदेश प्रवक्ता की कमान सौंपी गई है। इससे पूर्व श्री नेगी युवा कांग्रेस प्रवक्ता की बागडोर संभाल चुके हैं। उनके कार्यकाल से खुश होकर प्रदेश हाईकमान ने उन्हें ये जिम्मेदारी सौंपी है।
प्रदेश कांग्रेस कमेटी के कार्यक्रम प्रभारी राजेन्द्र शाह ने बताया कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष किशोर उपाध्याय ने मीडिया में पार्टी का पक्ष रखने के लिए प्रवक्ताओं के पैनल की नियुक्ति की है, जिसका विस्तार करते हुए वरिष्ठ कांग्रेस नेता सूरज नेगी के नाम को सम्मिलित किया गया है। उन्होंने अपेक्षा की कि श्री नेगी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के दिशा-निर्देशों के अनुरूप मीडिया में पार्टी का पक्ष मजबूती से रखने का कार्य करेंगे। श्री नेगी पार्टी में छात्र जीवन से लेकर युवा कांग्रेस एवं जिला स्तर पर भी पार्टी में विभिन्न पदों पर रहकर पार्टी की नितियों को जन-जन तक पहुंचाते रहें हैं। जिसके उपरान्त प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष किशोर उपाध्याय द्वारा सूरज नेगी को प्रदेश प्रवक्ताओं के पैनल में नियुक्ति किया गया है। श्री नेगी को प्रदेश प्रवक्ता की कमान सौंपे जाने पर पार्टी कार्यकर्ताओं में खासा उत्साह बना हुआ है। कांग्रेस प्रदेश प्रवक्ता सूरज नेगी ने कहा कि जो जिम्मेदारी संगठन ने उन्हें सौंपी है, उसका वह ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा व सहजता से निर्वहन करेंगे। पार्टी की रीति-नीतियों को जन-जन तक पहुंचाने के साथ ही मीडिया में पार्टी का पक्ष भी मजबूती के साथ रखा जायेगा। उनके प्रदेश प्रवक्ता बनने पर जिले के कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने खुशी व्यक्त कर प्रदेश हाईकमान का आभार जताया है।
प्रदेश कांग्रेस कमेटी के कार्यक्रम प्रभारी राजेन्द्र शाह ने बताया कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष किशोर उपाध्याय ने मीडिया में पार्टी का पक्ष रखने के लिए प्रवक्ताओं के पैनल की नियुक्ति की है, जिसका विस्तार करते हुए वरिष्ठ कांग्रेस नेता सूरज नेगी के नाम को सम्मिलित किया गया है। उन्होंने अपेक्षा की कि श्री नेगी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के दिशा-निर्देशों के अनुरूप मीडिया में पार्टी का पक्ष मजबूती से रखने का कार्य करेंगे। श्री नेगी पार्टी में छात्र जीवन से लेकर युवा कांग्रेस एवं जिला स्तर पर भी पार्टी में विभिन्न पदों पर रहकर पार्टी की नितियों को जन-जन तक पहुंचाते रहें हैं। जिसके उपरान्त प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष किशोर उपाध्याय द्वारा सूरज नेगी को प्रदेश प्रवक्ताओं के पैनल में नियुक्ति किया गया है। श्री नेगी को प्रदेश प्रवक्ता की कमान सौंपे जाने पर पार्टी कार्यकर्ताओं में खासा उत्साह बना हुआ है। कांग्रेस प्रदेश प्रवक्ता सूरज नेगी ने कहा कि जो जिम्मेदारी संगठन ने उन्हें सौंपी है, उसका वह ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा व सहजता से निर्वहन करेंगे। पार्टी की रीति-नीतियों को जन-जन तक पहुंचाने के साथ ही मीडिया में पार्टी का पक्ष भी मजबूती के साथ रखा जायेगा। उनके प्रदेश प्रवक्ता बनने पर जिले के कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने खुशी व्यक्त कर प्रदेश हाईकमान का आभार जताया है।

शुक्रवार, 9 जनवरी 2015

एक किरण’

‘रोशनी की एक किरण’
विस्थापन व पुनर्वास के लिए बने ठोस नीतिः अजेंद्र


लगातार प्राकृतिक आपदाओं के संकट से जूझने वाले उत्तराखंड के आपदा पीड़ितों के विस्थापन व पुनर्वास की लड़ाई आखिरकार हाई कोर्ट तक पहुंच गयी है। आपदा पीड़ितों के विस्थापन व पुनर्वास के लिए लम्बे समय से संघर्घरत केदारघाटी विस्थापन व पुनर्वास संघर्ष समिति के अध्यक्ष अजेन्द्र अजय ने प्रदेश सरकार पर आपदा पीड़ितों के प्रति संवेदनहीन रुख अपनाने का आरोप लगाते हुए प्रभावितों के विस्थापन व पुनर्वास के लिए ठोस नीति बनाये जाने की मांग की है। हाईकोर्ट के कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश वीके बिष्ट व न्यायमूर्ति यूसी ध्यानी की संयुक्त खंडपीठ ने याचिका को स्वीकारते हुए प्रदेश सरकार को इस मसले पर चार हफ्ते में अपना जबाब दाखिल करने के निर्देश दिए हैं। उल्लेखनीय है की उत्तराखंड में प्रतिवर्ष दैवीय आपदा में बड़ी भारी संख्या में जनहानि होती है। सैकड़ों लोग बेघर होते हैं और तमाम लोगों का रोजगार नष्ट हो जाता है। प्रदेश सरकार नाममात्र का मुआवजा वितरित कर पीड़ितों की तरफ से मुंह मोड़ देती है। लिहाजा, आपदा पीड़ित दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हो जाते हैं और उन्हें शरणार्थियों सा जीवन जीने को मजबूर होना पड़ता है। वर्ष 2013 के जून माह में उत्तराखंड की केदारघाटी समेत अन्य हिस्सों में आई हिमालयी सुनामी ने यहाँ के जनमानस को हिला कर रख दिया। आपदा के बाद प्रदेश सरकार के साथ ही तमाम संस्थाओं आदि ने पीड़ितों के विस्थापन व पुनर्वास को लेकर कई बड़ी-बड़ी बातें और दावे किये। पीड़ितों को कई हवाई सपने दिखाए गए। मगर वास्तविक धरातल पर विस्थापन व पुनर्वास का मसला सपना ही बन कर रह गया। आपदा पीड़ितों के संगठन केदारघाटी विस्थापन व पुनर्वास संघर्ष समिति द्वारा इस मसले को लेकर लगातार आंदोलन आदि भी किये जाते रहे। पर, सरकार के स्तर से हर बार पीड़ितों को आश्वासन की घुट्टी ही पिलाई जाती रही। आखिरकार केदारघाटी विस्थापन व पुनर्वास संघर्ष समिति के अध्यक्ष अजेन्द्र अजय ने पिछले दिनों इस मामले में नैनीताल हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर कर प्रदेश में आपदा पीड़ितों के विस्थापन व पुनर्वास के लिए एक ठोस नीति बनाये जाने की गुहार लगायी है। अपनी याचिका में अजेन्द्र ने उत्तराखंड में प्रतिवर्ष हो रही भीषण प्राकृतिक आपदाओं का हवाला देते हुए सरकार पर पीड़ितों की अनदेखी करने का आरोप लगाया है। याचिका में कहा गया है की आपदा के पश्चात सरकार खानापूर्ति के अंदाज में पीड़ितों को नाममात्र की राहत राशि वितरित करती है और फिर उन्हें उनके भाग्य भरोसे छोड़ दिया जाता है। प्रदेश सरकार द्वारा जारी शासनादेशों का हवाला देते हुए याचिका में राहत के मानकों पर भी सवाल उठाया गया है। सरकार द्वारा राहत के मानक हर साल मनमाफिक तरीके से बदल दिए जाते हैं। आरोप लगाया गया है की सरकार के मुआवजा वितरण के मानक भेदभावपूर्ण हैं, जो की पीड़ितों के साथ घोर अन्याय है।  याचिका में अजेन्द्र ने सूचना के अधिकार के तहत ली गयी जानकारी का हवाला देते हुए कहा है की वर्तमान में प्रदेश में तीन सौ से भी अधिक गावं विस्थापन की कगार पर खड़े हैं, किन्तु सरकार अभी तक इन गावों का ठीक से सर्वेक्षण तक नहीं करा सकी है। कई गांव वर्षों से पुनर्वास की बाट जोह रहे हैं। याचिका में विस्थापन व पुनर्वास के मुद्दे पर प्रदेष सरकार की मंशा पर सवाल उठाते हुए कहा गया है की लगातार आपदाओं के बावजूद सरकार पीड़ितों के विस्थापन के लिए ना ही खुद कोई योजना बना सकी है और ना ही प्रदेश सरकार ने इस मामले में केंद्र सरकार को कोई तकनीकी प्रस्ताव भेजा है। विस्थापन व पुनर्वास के नाम पर वर्श 2012 में तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने एक पत्र तत्कालीन प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह को भेजा था। इसी प्रकार एक पत्र जून 2014 में वर्तमान मुख्यमंत्री हरीश रावत ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रेषित किया है। तकनीकी प्रस्ताव भेजने के बजाय केवल पत्र लिख कर प्रदेश सरकार ने आपदा पीड़ितों के प्रति अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली। याचिकाकर्ता ने न्यायालय से टीएचडीसी, हरियाणा सरकार व केंद्र सरकार की विस्थापन व पुनर्वास नीति का हवाला देते हुए उत्तराखंड सरकार को इसी तर्ज पर विस्थापन व पुनर्वास नीति बनाने के निर्देश देने की मांग की है। इसके साथ वर्ष 2013 में आयी आपदा में बेघर हुए लोगों के लिए विश्व बैंक सहायतित आवास नीति को भी चुनौती दी है। याचिका में कहा गया है की 2013 के पीड़ितों के लिए प्रदेश सरकार ने चार किश्तों में पांच लाख रूपये देने की योजना बनायीं है। पहली किश्त के रूप में पीड़ितों को डेढ़ लाख रूपये की किश्त जारी कर दी गयी है। बाकी किश्त जारी करने से पहले पीड़ितों को प्रस्तावित आवास निर्माण की भूमि की रजिस्ट्री आदि जैसी शर्तें रखी गयी हैं। ऐसे में उन पीड़ितों के सामने समस्या खड़ी हो गयी है, जिनके पास आपदा के बाद एक इंच भूमि भी नहीं बची है। पीड़ितों को अब प्रशासन द्वारा नोटिस जारी किये जा रहे हैं और उनसे सहायता राशि की वसूली की धमकी दी जा रही है। अपनी याचिका में अजेन्द्र ने केदारघाटी में जल विद्युत परियोजना का निर्माण कर रही एलएनटी कम्पनी से पीड़ितों को मुआवजा दिलाये जाने की मांग भी उठाई है। याचिका में कहा गया है की प्रदेश सरकार कम्पनी द्वारा आपदा पीड़ितों की मदद के लिए स्वीकृत धनराशि को पीड़ितों के बीच बाँटने के बजाय सड़क व पुलों के निर्माण में खर्च करने के लिए जोर दे रही है। बहरहाल, इस याचिका के दाखिल होने से लगातार आपदा की मार झेल रहे  आपदा पीड़ितों में रोशनी की एक किरण जली है।

गुरुवार, 8 जनवरी 2015

गाँव, खेत, खलिहान के बदले एक-एक नौकरी!

उत्तराखंड की कैबिनेट बैठक में लिये गये सूक्ष्म एवं अति लघु विधुत परियोजनाओं तथा ईको सेंसिटिव जोन संबंधी निर्णय से तो यही होगा
गाँव, खेत, खलिहान के बदले एक-एक नौकरी!


राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों में, जहाँ लगभग 7 प्रतिशत भूमि ही खेती के लिए बची है। उसमें भी जंगल की जमीन के साथ खेती की बेशकीमती जमीन आपात्कालीन धारायें लगा कर इन परियोजनाओं के लिये अधिग्रहीत की जा रही है। टिहरी बाँध के बाद तमाम दूसरे छोटे-बड़े बाँधों से विस्थापित होने वालों को जमीन के बदले जमीन देने का प्रश्न ही सरकारों ने नकार दिया है। दूसरी तरफ विशेष आर्थिक क्षेत्र ;सेजद्ध के लिए 100-100 हैक्टेयर जमीनें विशेष छूट दरों पर उपलब्ध करायी जा रही हैं। खेती की जमीन व सिकुड़ते जंगलों पर दबाव बढ़ रहा है। औद्योगिक शिक्षा संस्थानों की कमी के चलते आम उत्तराखण्डी के पास इन क्षेत्रों में रोजगार के अवसर वैसे ही बहुत कम है, परिणामस्वरूप अकुशल मजदूरी या पलायन ही परियोजना प्रभावितों के हिस्से में आता है। हाल ही में उत्तराखंड सरकार की कैबिनेट में लिये गए निर्णय और राज्य में बाधों से होने वाले नुकसान पर केंद्रित संतोष बेंजवाल की यह खास रिपोर्ट।
जल-विद्युत परियोजनाओं से बाढ़ें, भूस्खलन, बंद रास्ते, सूखते जल स्रोत, कांपती धरती, कम होती खेती की जमीन, ट्रांस्मीशन लाइनों के खतरे, कम होता खेती उत्पादन और अपने ही क्षेत्र में खोती राजनैतिक शक्ति और लाखों का विस्थापन यानी ये उपहार हमें उत्तराखण्ड में बनी अब तक की जल-विद्युत परियोजनाओं से मिले हैं और मिलेंगे। इन सबके बावजूद बिना कोई सबक सीखे बाँध पर बाँध बनाने की बदहवास दौड़ जारी है। 28 दिसंबर 2014 को उत्तराखंड की कैबिनेट बैठक में लिये गये सूक्ष्म एवं अति लघु विधुत परियोजनाओं तथा ईको सेंसिटिव जोन संबंधी निर्णय हैं। निर्णय के अनुसार उत्तराखण्ड के अधिकांश गाड़-गधेरों पर छोटे-बड़े बाँध बनाने की तैयारी है। देशी-विदेशी कम्पनियों को परियोजनायें लगाने का न्यौता दिया जा रहा है। निजी कम्पनियों के आने से लोगों का सरकार पर दबाव कम हो जाता है, लेकिन कम्पनी का लोगों पर दबाव बढ़ जाता है। दूसरी तरफ कम्पनी के पक्ष में स्थानीय प्रशासन व सत्ता भी खड़े हो जाते हैं। साम, दाम, दंड, भेद, झूठे आँकड़े व अधूरी, भ्रामक जानकारी वाली पर्यावरण प्रभाव आँकलन रिपोर्ट, जनता को उसकी जानकारी भी नहीं मिलना। ऐसी परियोजनाओं में ऐसा ही होता है। फिर से वही कहानी कि  परियोजना वाले कहेंगे कि वह लोगों को नौकरियाँ देंगे। गाँव, खेत, खलिहान के बदले एक-एक नौकरी! कितनी नौकरियाँ मिलीं अभी तक और कितनी मिलेंगी? यह तो राम ही जाने।
यहां सबसे पहले सूबे के सीएम हरीश रावत की बात करते हैं। 28 दिसंबर 2014 को कैबिनटे बठैक के बाद मुख्यमंत्री हरीश रावत अब पूरी तरह बनेकाब हो गये हैं। वैसे भी एक साल से अधिक किसी मंत्री या मुख्यमंत्री को अपनी क्षमता दिखाने के लिए नहीं दिए जा सकते। हरीश रावत को लेकर सब को मुगालता था कि ग्रामीण पृष्ठभूमि, तूणमूल स्तर से राजनीति करने, अपनी पार्टी के भीतर विभिन्न पदों पर रहने और केंद्र सरकार में एकाधिक मंत्रालयों में काम करने का अनुभव के कारण वे उत्तराखंड के सबसे सफल मुख्यमंत्री साबित होंगे। इससे पहले किसी मुख्यमंत्री में ये सभी योग्यायें  थी तो वे नारायण दत्त तिवाडी थे। मगर शुरू में ही पृथक राज्य के धुर विरोधी रहे तिवारी नये राज्य का निर्माण करने अथवा शासन करने नहीं , रिटायमंट के दिन काटने उत्तराखंड में आए थे।
रावत सरकार के पहले  चार-पांच महीनों के कामकाज पर किसी ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया, क्योकि उन्हें विजय बहुगुणा का छोड़ा हुआ मलबा साफ करना था और उसी बीच लोकसभा या उसके बाद पंचायत चुनावों की आचार संहिता लग गईथी। अपनी सरकार के असंतुष्ट मंत्रियों से भी उन्हें बार-बार दो -चार होना पड़ रहा था। जब तक वे इनसे निपटते उन्हें गंभीर चोट लग गई। आज भी अपनी गर्दन का पट्टा उनके व्यक्त्वि का अभिन्न हिस्सा बना हुआ है। मगर अब उन्हें लेकर मोहभंग की स्थितियां पूरी तरह साफ हो गई हैं। कोई भी व्यक्त उनसे मिल कर बहुत संतुष्ट हो कर लौटता है क्योंकि वे उत्तराखंड की सारी समस्याओं को समझे भी है और उनके सामाधान में रूचि लेते भी दिखाई देते हैं। मगर अन्ततः फैसले वे वही लेते हैं, जो उनकी पार्टी के महिषसुरों अर्थात ठेकेदारों दलालो और माफियाओं के हित में होते है। इसका ताजा उदाहरण 28 दिसंबर की कैबिनेट बैठक में लिये गये सूक्ष्म एवं अति लघु विधुत परियोजनाओं तथा ईको सेंसिटिव जोन संबंधी निर्णय हैं। जल परियोजनओं को लेकर सूक्ष्म स्तर और ग्राम सभाओं तक जाने की बात हर समझदार व्यक्ति करता है। मगर जब इस सि(ांत को जमीन पर उतारने की बात आई तो रात फिर एक बार बड़ी पूजी वालों और ठेकेदारों के पक्ष में झूके। ग्रामीणों और स्थानीय समुदाय के नहीं। कैबिनेट का यह फैसला लागू हुआ तो ग्रामीण एक बार अपना अंगूठा लगा देने के बाद फिर परियोजनाओं से बाहर हो जायेंगे, शायद अपने गांवों से भी बाहर हो जायें। पानी से प्राप्त उर्जा का सारा मजा कंपनियों वाले लेगे। इससे पहाड़ी गांवों में गरीबी और पलायन का तांडव और तेज होगा। चूकि उत्तराखंड की बड़ी जल विद्युत परियोजनाओं पर दुनिया भर में विवाद उठे थे, विशेषकर जून 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद। इसीलिये रावत सरकार ने गांव वालों की आड में बड़ी कंपनियों और ठेकेदारों को उपकृत करने का यह शातिर तरीका निकाला है।
कैबिनेट का दूसरा फैसला ईको सेंसिटिव जोन को वापस लेने के लिए केंद्र सरकार से आग्रह करने के बारे में है। ईको संेसिटिव जाने को लेकर विरोध दो तरह से हो रहा है। पहला अब तक प्रदेश में अभयारण्यों आदि के रूप में जिस तरह स्थानीय मुदाय को वंचित किया गया है, उस अनुभव को देखते हुए वामपंथी सोच के लोग इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि ईको सेंसिटिव जोन को शायद स्थानीय ग्रामीण समुदाय एक बार फिर से विपरीत रूप से प्रभावित होगा । मगर ईको सेंसिटिव जोन को लेकर पूर बातचीत हुई है और न स्थितियों पूरी तरह साफ है।। ईको सेंसिटिव जोन के विरोध को लेकर जो दूसरी लाबी मुखर है, वह कांग्रेस,भाजपा और उत्तराखंड क्रांति दल आदि के भीतर बैठी ठेकेदार लाबी है, जो चाहती है कि निर्माण कार्यों को लेकर चल रही उसकी ठेकेदारी में कोई रोट-टोक न हो। वे धड़ल्ले से तथाकथित विकास कार्य करें, चाहे उसके बाद केदारनाथ जैसे एक नहीं दर्जनों हादसे हो जाये और यह पूरा पर्वतीय प्रदेश मरूभूमि बन जाये। यह ठेकेदार लाबी उत्तराखंड की राजनीति में इतनी मजबूत है कि इस नवजात प्रदेश को मजाक में ठेकेदारखंड भी कहा जाने लगा है। हरीश रावत सरकार ने इस ठेकेदार लाबी के दबाव में ही ईको संसिटिव जोन का मामला इतना अािक चढाया है। स्थानीय और ग्रामीण हितों की पैरोकार वाम ताकतों के पक्ष में नहीं । क्योंकि यदि हरीश रावत ईको संसिटिव जोन को नहीं मानते तो उन्हें यह भी तो बतलाना चाहिये कि फिर ठेकेदार लाबी को उपकृत करने के अतिरिक्त उत्तराखंड के विकास का कौन सा माडल उनके पास है।उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड राज्य में पर्यटन के नाम पर पर्यावरण की दृदृष्टि से संवेदनशील बुग्यालों को स्कीइंग क्षेत्र में तब्दील किया जा रहा है। विकास के नाम पर उपजाऊ जमीन को सीमेंट-कंक्रीट के जंगलों में तब्दील किया सड़कों का चैड़ीकरण का मामला सीधे बाँध परियोजनाओं और पर्यटन से जुड़ा है। इससे भी जंगलों एवं कृकृषि भूमि का विनाश हुआ है। हजारों-लाखों पेड़ों का कटना पर्यावरण की अपूरणीय क्षति है। पचास-साठ मीटर ऊँचे बाँधों को भी छोटे बाँधों की श्रेणी में रखकर सभी नदी-नालों को सुरंगों में डाला जा रहा है। ‘बडे़ बाँधों के अन्तर्राष्ट्रीय आयोग’ व ‘विश्व बाँध आयोग’ की परिभाषा के अनुसार 15 मीटर से ऊँचे बाँध बडे बाँधों में आते हैं। टिहरी बाँध से उपजी समस्याओं पर माननीय मुख्यमंत्री का कथन था कि टिहरी बाँध के विस्थापन को देखते हुए अब उत्तराखण्ड में बडेघ् बाँध नहीं बनेंगे। किन्तु हाल ही में राज्य सरकार द्वारा टिहरी जल-विद्युत निगम से टौंस नदी पर 236 मीटर ऊँचा बाँध बनाने का समझौता किया गया है। यह किस श्रेणी में आता है ? 280 मीटर का पंचे वर बाँध किस श्रेणी में आयेगा ?
देहरादून-दिल्ली जैसे बड़े शहरों में हो रहे पानी व बिजली के दुरुपयोग के लिए इन बाँधों का बनना कितना आवश्यक है ? देश में नई आर्थिक नीति के तहत् 8 प्रतिशत विकास दर रखने के लिए हजारों मेगावाट बिजली की भ्रमपूर्ण माँग की आपूर्ति के लिए इन सौ से अधिक परियोजनाओं का होना कितना आवश्यक है? याद रहे कि भारत का प्रत्येक निवासी लगभग 25 हजार रुपये से ज्यादा के कर्ज से दबा हुआ है। ऐसे में विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक, जापान बैंक आफ इण्टरनेशनल कारपोरेशन, अन्र्तराष्ट्रीय वित्त संस्थान व एक्सपोर्ट क्रेडिट एजेन्सी जैसे भयानक वित्तीय संस्थाओं के कर्ज में दबता जा रहा है। उत्तराखण्डी भी उनसे अलग नहीं हैं।
पहले अंग्रेजों और बाद में आजाद भारत के शासकों ने उत्तराखंड की इस विकसित होती आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था को पूरी तरह ध्वस्त करने का षड़यंत्र किया। अंग्रेजों ने उत्तराखंड के इस पर्वतीय क्षेत्र को वन आधारित कच्चे माल व सस्ते श्रम के लिए इस्तेमाल किया। तब न सिर्फ फैलते रेल लाइनों के जाल के लिए पहाड़ के जंगलों को बड़े पैमाने पर काटा गया, बल्कि सर्दियों में आग सेंकने के लिये पहाड़ के परम्परागत पेड़ों को काट कर उसका कोयला बनाया गया। साथ ही विकसित होते शहरी केन्द्रों व फौज के लिए यहाँ के युवाओं की सस्ते श्रम के रूप में सप्लाई होती रही। यह क्रम आजादी के पच्चीस साल बाद तक जारी रहा।
आज सरकारें और लोग ऊर्जा की जरूरतों का हवाला देकर पहाड़ की नदी-घाटियों को जे.पी., रेड्डी, एल.एनटी., एनटीपीसी आदि के हवाले करने, बिजली उत्पादन के नाम पर पहाड़ों व नदियों से उन्हें मनमानी करने की छूट देने की वकालत करते हैं उन्हें यह याद रखना चाहिए कि जब बिजली का आविष्कार ही नहीं हुआ था, तब पहाड़ के लोगों ने आज से एक हजार साल पहले घट ;पनचक्कीद्ध का आविष्कार कर पानी से ऊर्जा उत्पन्न करने की विधि खोज ली थी। यह विधि नदी और पहाड़ों को छेड़े बिना ही ‘रन आफ रिवर’ प(ति से ज्यादा सफल हुई थीं। पहाड़ के लोगों को यह विधि सिखाने के लिए किसी जेपी, रेड्डी, एलएनटी, एनटीपीसी को लाने की जरूरत नहीं पड़ी थी। यह इको सिस्टम को क्षति पहुँचाए बिना विकास करने का पहाड़ के लोगों का सिंचित परंपरागत ज्ञान था। आज सुरंग आधारित जिन बड़ी-बड़ी विनाशकारी परियोजनाओं को ये कम्पनियाँ बना रही हैं वो रन आफ रिवर प(ति नहीं कहलाती हैं। लोगों के इस संचित ज्ञान के आधार पर यहाँ की कृषि, पशुपालन और ग्रामीण दस्तकारी के साथ ही पनचक्की के लिए विकसित की गई रन आफ रिवर प(ति को ऊर्जा की अन्य जरूरतों के लिए विकसित कर यहाँ की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत किया जा सकता था।
राज्य बनने के बाद जल- जंगल- जमीन पर स्थानीय निवासियों के परम्परागत आधिकार बहाल करने और पारिस्थितिकीय तंत्र से ज्यादा छेड-छाड़ किये बिना विकास का वैकल्पिक ढाँचा खड़ा करने की जो जिम्मेदारी राज्य के नए नेतृत्व के जिम्मे थी, वह अपनी वर्गीय प्रतिब(ता के चलते भाजपा-कांग्रेस की सरकारें उसके विपरीत रास्ता चुनती गई। राज्य की आर्थिकी को मजबूत आधार देने के नाम पर ऊर्जा प्रदेश और पर्यटन प्रदेश के नारे गूँजने लगे। विद्युत कंपनियों की बड़ी-बड़ी मशीनों के निर्वाध आवागमन के लिए सड़कों को चैड़ा कर इन सड़कों और सुरंगों का सारा मलवा पेड़ों सहित नदियों में डाल दिया गया। राज्य में राजस्व वसूली के बड़े लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए शराब के व्यवसाय को मुख्य व्यवसाय का दर्जा दे दिया गया। राज्य के सकल घरेलू उत्पाद और प्रति व्यक्ति औसत आय को बढ़ाने के नाम पर जमीनों की लूट का कारोबार पनपाया गया। नतीजे के तौर पर नदी-घाटियों पर विद्युत कंपनियों का कब्जा और मनमानी बढ़ती गई। पर्यटन व्यवसाय और ‘इको टूरिज्म’ को बढ़ावा देने के नाम पर सड़कों, नदी घाटों और जंगलों पर सत्ता के संरक्षण में कब्जा करने की होड़ में कांग्रेस, भाजपा, बसपा, यूकेडी और सपा जैसी कोई भी पार्टी पीछे नहीं रही। अब तक राज्य में विद्युत कम्पनियाँ 1700 वर्ग किलोमीटर जंगल साफ कर चुकी हैं। विभिन्न योजनाओं के लिये राज्य सरकार 17 हजार वर्ग किलोमीटर वनभूमि को हस्तांतरित कर चुकी है। मगर इसके बदले दोगुने क्षेत्र में वृक्षारोपण की अनिवार्य शर्त की खानापूर्ति के लिए दूसरे राज्यों में दर्शाकर आबंटित धन की जमकर लूट की गई। गंगा नदी के सौ मीटर बाहर तक कोई निर्माण न करने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद हरिद्वार से लेकर गंगोत्री-केदारनाथ तक गंगा व अन्य नदियों के जल को छूते हुए होटल व्यवसायियों, धार्मिक संस्थाओं और सरकारी विभागों द्वारा भवन निर्माण 15 जून 2013 तक बेरोकटोक जारी था। राज्य सरकार को हेलीपैडों के इस्तेमाल का कोई भी शुल्क दिए बिना यात्रा सीजन में निजी कंपनियों के हेलीकॉप्टर रोजाना चार चक्कर उच्च हिमालयी क्षेत्रों का लगा रहे थे, जिन पर रोक लगाने के आदेश 10 मई 2013 को माननीय हाईकोर्ट ने दे दिए थे।
सत्ता द्वारा सत्ता के संरक्षण में इको सिस्टम के साथ किये जा रहे इस विनाशकारी व्यवहार ने ही इको सिस्टम को भारी नुकसान पहुँचाया है। इसी का खामियाजा 16-17 जून की विनाशकारी आपदा के रूप में हमें भुगतने को मजबूर होना पड़ा। पहाड़ के जीवन में अति मुनाफे के लिए जब तक यह बाहरी हस्तक्षेप नहीं था, यहाँ के इको सिस्टम को कोई नुकसान नहीं पहुँचा था। मगर अब अति मुनाफे पर खड़ी प्रकृति के लिए विनाशकारी यह राजनीति ‘इको सैंसिटिव जोन’ के माध्यम से उन पर्वतवासियों को विस्थापन की सजा दे रही है जो हजारों वर्षों से इस इको सिस्टम के मजबूत पहरेदार रहे हैं। ‘इको सैंसिटिव जोन’ इनकी परम्परागत आजीविका पर एक बड़ा हमला है जो इन दुर्गम क्षेत्रों के नौजवानों को भी पलायन के लिए मजबूर कर देगा। इको सिस्टम को बचाए रखने और जैव-विविधता की रक्षा के नाम पर उत्तराखंड के एक बड़े भू-भाग को ‘इको सैंसिटिव जोन’ में तब्दील करने का षडयंत्र चल रहा है। इसके पहले चरण में 18 दिसंबर 2012 से गंगोत्री से उत्तरकाशी तक के एक सौ किमी क्षेत्र को ‘इको सेंसिटिव जोन’ घोषित किया जा चुका है। केंद्र सरकार ने सभी राष्ट्रीय पार्कों और सेंचुरीज के दस किलोमीटर बाहरी क्षेत्र को इको सेंसिटिव जोन घोषित करने का निर्णय लिया है।
उत्तराखंड में पहले से चैदह राष्ट्रीय पार्क और सेंचुरीज मौजूद थे। बावजूद इसके राज्य सरकार ने इनकी संख्या बढ़ाने का प्रस्ताव भेज कर इस साल तीन नए सेंचुरीज क्षेत्रों को स्वीकृति दिला दी है। पहले ही इन राष्ट्रीय पार्कों व सेंचुरीज की सीमा में आये राज्य के हजारों गाँवों पर विस्थापन का खतरा मँडरा रहा है। ऐसे में अगर इनके दस किमी बाहरी क्षेत्र को ‘इको सेंसिटिव जोन’ घोषित कर दिया गया तो उत्तराखंड की आबादी के एक बड़े हिस्से को विस्थापन के लिए मजबूर कर दिया जाएगा। राज्य में ‘इको सेंसिटिव जोन’ का भारी विरोध देख सत्ताधारी कांग्रेस और भाजपा ने भी इसका विरोध किया है। इन दोनों पार्टियों का विरोध सिर्फ दिखावा है। सच तो यह है कि इको सेंसिटिव जोन’ के गठन का निर्णय एनडीए सरकार ने 2002 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल विहारी वाजपेई की अध्यक्षता में हुई बैठक में लिया था। इसी तरह 18 दिसंबर 12 को उत्तरकाशी में इको सेंसिटिव जोन के गठन का निर्णय हो जाने के बाद भी न तो राज्य की कांग्रेस सरकार ने इसके खिलाफ कोई कदम उठाया और न ही पूर्व में भेजे गए नए सेंचुरीज के प्रस्तावों को ही वापस लेने की कोई पहल की। अगर राज्य में निर्धारित सभी क्षेत्रों को इको संसिटिव जोन बना दिया गया तो वहाँ के निवासियों का जीना मुश्किल हो जाएगा। वनों पर निर्भर पशुपालन और खेती छोड़ने के लिए उन्हें मजबूर कर दिया जाएगा, लघु वन उत्पाद जो उनका परम्परागत वनाधिकार है से वे वंचित हो जायेंगे। वे अपनी आबादी का विस्तार नहीं कर पायेंगे और पुराने घरों का पुनर्निर्माण करने के लिए वन एवं पर्यावरण मंत्रालय से इजाजत लेनी होगी। जबकि पूँजीपतियों को होटल व कॉटेज बनाकर अपना व्यवसाय करने की इजाजत होगी। बात साफ है कि सरकार इको सेंसिटिव जोन के नाम पर इको सिस्टम को नुकसान पहुँचाने वाली ताकतों के व्यावसायिक हितों की रक्षा के लिए स्थानीय जनता को उनकी जमीनों व परम्परागत आजीविका से बेदखल करना चाहती है।
राज्य बनने के बाद सत्ताधारी कांग्रेस-भाजपा के नेताओं ने योजनाब( तरीके से उत्तराखंड में बचे इको सिस्टम के बदले राज्य को ग्रीन बोनस देने की मांग शुरू कर दी थी। भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ ने तो आगे बढकर हिमालयी राज्यों की बैठक कराने और राज्य को प्रतिवर्ष चालीस हजार करोड़ रुपये ग्रीन बोनस के रूप में देने की मांग कर डाली। तब यह राशि राज्य के कुल सालाना बजट का दोगुना से भी ज्यादा थी। इस अभियान में वर्तमान मुख्यमंत्री से लेकर कई पर्यावरणविद तथा एनजीओ भी लगे हैं। एनजीओ ने हिमालयी राज्यों का अपना एक नेटवर्क भी स्थापित कर दिया है। दरअसल ग्रीन बोनस के नाम पर यह पूरा अभियान जो पिछले बारह वर्षों से उत्तराखंड में चलाया जा रहा है वह इको सेंसिटिव जोन’ के निर्माण के लिए वातावरण तैयार करने के अभियान का ही हिस्सा था जो साम्र्राज्यवादियों और उनकी हितपोषक फंडिंग एजेंसियों द्वारा वित्त पोषित था। हिमालय और उसके इको सिस्टम को हजारों वर्षों से संरक्षित रखने वाले लोगों को उनकी जमीनों और परम्परागत आजीविका से बेदखल कर आखिर यह ग्रीन बोनस किसके लिए माँगा जा रहा है?
जीवन को समझना जरूरी
ज्ञात हो कि 16-17 जून को उत्तराखंड में आई विनाशकारी आपदा ने पहाड़ पर विकास के माडल और इको सिस्टम ;पारिस्थितिकीय तंत्रद्ध से छेड़छाड़ पर बहस को तेज कर दिया है। इस सवाल पर सारी बहसों को अंततः उत्तराखंड में ‘इको संसिटिव जोन’ बनाने के समर्थन में ले जाया जा रहा है। पर्यावरणविदों के अलावा जल-जंगल-जमीन पर जनता के परंपरागत अधिकारों की वकालत करने वाले कई संगठन व लोग भी इसके समर्थन में खड़े दिखाई दे रहे हैं। पहाड़ में वर्तमान विद्युत परियोजनाओं के समर्थक भी इस तबाही को रोकने के लिए और भी बड़े पैमाने पर बाँधों व सुरंगों के जरिये नदियों के वेग को रोकने की खुलकर वकालत कर रहे हैं। मगर इन सारी बहसों के बीच पहाड़ का वो मानव समाज और उसकी चिंताएं नजर नहीं आ रही हैं जो हजारों वर्षों से पहाड़ को, यहाँ के इको सिस्टम को और यहाँ की आत्मनिर्भर स्थानीय अर्थव्यवस्था को बचाता आया है। पहले पहाड़ पर मानव जीवन को समझना जरूरी है। हजारों वर्षों से कृकृषि-पशुपालन और ग्रामीण दस्तकारी पर आधारित पहाड़ की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार वन रहे हैं। इसलिए पहाड़ के लोगों ने हजारों वर्षों से न सिर्फ वनों को लगाया और उनकी रक्षा की बल्कि इको सिस्टम को समझते हुए अपने रहन-सहन और आजीविका के साधनों का विकास किया। पहाड़ के गाँवों की बनावट देखें तो हर गाँव में ऊपर जंगल, जंगल के नीचे आबादी, आबादी के नीचे खेती, खेती के नीचे नदी। यानी किसी भी गाँव की आबादी नदी से सटी नहीं है। अपने अनुभव से हमारे पुरखों ने नदी तट को आबादी के लिए सुरक्षित नहीं माना था। पहाड़ में कहावत है कि नदी और खेत की मैड़ बारह वर्ष में अपनी पुरानी जगह पर आ जाती है। नदी को लेकर यहाँ के ग्रामीणों के इस परम्परागत ज्ञान को वर्तमान आपदा ने पूरी तरह सही साबित कर दिखाया है। पहाड़ के लोगों ने अपने पानी के स्रोतों को बचाए रखने और चोटियों पर अपने पालतू व जंगली जानवरों को पीने का पानी उपलब्ध कराने के लिए चाल-खाल ;छोटे-छोटे तालाबद्ध बनाने की एक प(ति विकसित की जिसमें बरसात का पानी जमा होता था और वह भूगर्भीय जल को बढ़ाने का काम करता था। आज भी हल-बैल के साथ पहाड़ की खेती व पशुपालन से लेकर कृषि यंत्रों तक वनों पर निर्भरता है। चूँकि वन पहाड़ के लोगों के जीवन का अभिन्न अंग हैं इसीलिए एकमात्र उत्तराखंड के पहाड़ ही हैं जहाँ सरकारी वनों से परम्परागत अधिकार छिन जाने के बाद लगभग 16 हजार राजस्व गाँवों वाले राज्य की जनता ने 12 हजार से ज्यादा गाँवों में वन पंचायतें गठित कर सरकारी वनों से इतर अपने खुद के वनों का निर्माण किया है।

शनिवार, 3 जनवरी 2015

हिंदी मासिक उदय दिनमान का जनवरी 2015 अंक का कबर पेज
इस अंक मे है
‘‘आंदोलन’’  गाँव, खेत, खलिहान के बदले एक-एक नौकरी!     यहां के बुग्यालयों में ऐडी-आछरियों का वास      पीडीएफ पर पलटी कांग्रेस     राजनीतिक उथल-पुथल का साल उत्तर प्रदेश के पंचायत राज
अधिनियम पर निर्भर उत्तराखंड      नौकरशाहों की बादशाहत और
उदासीन जनता       ‘रोशनी की एक किरण’    तो धरती पर प्रकट होंगे केदारघाटी
के पाण्डव             ...पहले एक मुकम्मल इंसान तो बनूं !     भक्त और भगवान का रिश्ता      वरदान साबित होती स्थाई लोक अदालत          नस की यह बंदी ,किसकी बांदी!                   ...तो शुरू हो गया मिशन 2017                  
उत्तराखंड में पाॅव पसार रही है आतंकी संस्कृति      ...दुनिया से धर्म गायब हो जाएगा?       पर्यटन उत्थान योजना से गांवों की बदलेगी तस्वीर          
नीतिगत खामियां बनी हैं शिक्षा की बेहतरी में बाधा        ये वादियां ये फिजाएं बुला रही हैं तुम्हें      

मंगलवार, 23 दिसंबर 2014

‘एक रस्म एक रिवाज’

धियाणी कि विदाई ‘एक रस्म एक रिवाज’


विश्व की सबसे लंबी यात्रा नंदा देवी राजजात अपने आप में एक अनोखी यात्रा है। इस यात्रा में जाने वाले लोगों के अनुभव अगली नंदा देवी राजजात तक स्मरण के तौर पर उनके साथ रहेंगे। यात्रा के दौरान मिले खट्टे-मीठे अनुभव और प्राकृतिक सौंदर्य यात्रा में प्रतिभाग करने वालों के दिलों को छू गया और वह इसे स्मरण के रूप में लिपिब( कर रहे हैं। यात्रा पर गए युवा आचार्य मनोज प्रसाद मलासी की कलम से नंदा देवी राजजात यात्रा का यह खास आलेख।     संपादक
अचानक एक सपने के टूटते ही नींद खुली तो पता चला कि सुबह के साढ़े पाँच बज चुके हैं और माँ जोर-जोर से दरवाजा पीट रही है कि ‘‘नंदा देवी राजजात यात्रा’’ में चलना है कि नहीं? बड़ी मुश्किल से तन्द्रा टूटी और फिर वह सपना जो मुझे हिमालय की चोटियों पर विचरण और पता नहीं किन-किन यादों और बातों के पीछे भ्रमण करवा रहा था, सब भंग हो गया। खैर! सपना बहुत ही बुरा था, पर जब नींद खुली और नन्दा देवी राजजात यात्रा का पूर्व वृतान्त स्मरण हुआ तो सब बुरे सपनों का साया समाप्त हो गया क्योंकि पिछली रात को इस यात्रा पर खूब बहस हुई थी और बड़ा ही उत्साह था मां नन्दा के दर्शन का। आखिर हो भी क्यों नहीं, आखिर मैंने बचपन के उन दिनों भगवती नंदा के जो दर्शन किये थे, जब बच्चे को खाना-पीना और मस्ती ही नजर आती है। उस समय मैं मात्र दस साल का था, जब उस पराम्बा जगद्जननी के दर्शन हुए थे और मेरे साथ मेरे पिता जी और स्वर्गीय दादीजी जो थी, जिनको मैं अत्यधिक स्मरण कर रहा था। परन्तु यह यात्रा भी मेरे लिए किसी खास दिन से ज्यादा नहीं थी, क्योंकि इस बार मैं अपनी माँ और पिताजी के साथ यात्रा पर जा रहा था। पता नहीं यह खास दिन कैसे आया, क्योंकि अभी कुछ ही दिन पूर्व मेरी ताई जी का निधन जो हुआ था और माँ-पिताजी भी यात्रा में जाने के खिलाफ थे परन्तु मेरी जिद और लेक्चर ने उनका मूढ़ बना दिया और वो तैयार                   हो गये।
यात्रा के लिए प्रस्थान-कुछ गाँव की दीदीजी, भाभीजी और उनके अन्य सहयोगियों के साथ सुबह-सुबह ठण्डी हवा में बुक की गयी मैक्स में बैठकर ठंडी हवाओं का कुछ ज्यादा ही आनन्द आ रहा था। चारों ओर से सनसनाती हवा मानों कानों को गिरिराज हिमालय के अधिपति भोलेनाथ और सर्वशक्तिदायिनी माँ नन्दा का सन्देश और आशीष दे रही हो। उस दिन आसमान में बादल छाये हुए थे और बीच-बीच में हल्की बूँदा-बाँदी केदारनाथ यात्रा का स्मरण करवा रही थी परन्तु माँ के दर्शन की अभिलाषा ने बिलकुल भी उत्साह में कमी नहीं आने दी। जैसे ही गाड़ी अपने गन्तव्य की ओर बढ़ी तो पिताजी ने बताया कि वहाँ ठंड हो सकती है, जिसका कि हम लोगों ने बिलकुल भी इन्तजाम नहीं किया था किन्तु मुझे तुरन्त ही आइडिया सूझा। मैंने तुरन्त चाचाजी जो कि रुद्रप्रयाग में रहते थे, उनको फोन किया और एक स्वेटर व एक शाॅल मंगवा लिया। अब हम निश्चिन्त होकर मस्ती के साथ आगे बढ़ने लगे। धीरे-धीरे रुद्रप्रयाम जिले के सीमावर्ती गाँवों को छूकर निकलने लगे तो सामने ही ककोड़ाखाल गाँव सहसा दिखाई देते ही स्वर्गीय श्री अनसूया प्रसाद बहुगुणा जी का स्मरण हो आया, जिन्होंने गढ़वाल में बेगार प्रथा के विरु( अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन किया था और पिताजी उस बेगार प्रथा का उल्लेख करने लगे कि किस प्रकार उस समय के राजा और अंग्रेज मिलकर जनता पर अत्याचार किया करते थे। टिहरी की राजशाही और अंग्रेजों के अत्याचारों का विवरण होते ही मैं भी भावनात्मक रूप से उन लोगों से जुड़ने लगा, जिन्होंने ये अत्याचार सहे थे। मेरी पूरी सिम्पैथी उन निर्दोष लोगों के साथ थी जिन्होंने ये अत्याचार सहे थे और श्री बहुगुणा जी मेरी नजरों में हीरो बनने लगे थे।
संगीतमय हो गई यात्रा-धीरे-धीरे आगे बढ़ते ही यात्रा को रोचक व यादगार बनाने के लिए पिताजी ने गढ़वाल के सुप्रसि( गीतकार नरेन्द्र सिंह नेगी जी के माँ नन्दा देवी का प्रसि( गाना ‘‘जै, जै बोला, जै भगोति नन्दा, नन्दा ऊँचा कैलाश की जय’’ गाना प्रारम्भ कर दिया और फिर मुझसे भी रहा नहीं गया और मैं भी स्वर से स्वर मिलाने लगा। गाने के समाप्त होते ही सभी लोग जिन्होंने मुझे पहली बार सुना था, मेरे गले की   तारीफ करने लगे किन्तु ये बातें मेरे लिए अब पुरानी सी थी, क्योंकि कोई भी फटे बाँस की आवाज वाला भी गाना गाये तो सभी लोग टाइमपास करने के लिए अकसर तारीफों के पुल बांधने लगते हैं।
आपदा के घाव अभी भी हरे-धीरे-धीरे हम अपने गन्तव्य की ओर हिचकोले खाते हुए बढ़ रहे थे। मानों हर गड्डा हमें अपने में समाने के लिए बैठा हो। प्रत्येक गड्डे पर गाड़ी के उछलते ही मंै चिढ़कर पिताजी से उत्तराखण्ड शसन-प्रशासन की बात कर रहा था जो कि पिछले दो-तीन सालों से नन्दादेवी राजजात यात्रा के बारे में टी.वी व समाचार-पत्रों में विज्ञापनों के माध्यम से तैयारियों का डंका पीट रहे थे। रुद्रप्रयाग व चमोली जिले में आयी भीषण आपदा के बाद भी सड़कों की हालत पर तरस आ रहा था परन्तु क्या किया जा सकता था। मैं लगातार गाड़ी के स्पीड मीटर पर देख रहा था जो 25-30 किमी की स्पीड से आगे बढ़ने का प्रयत्न कर रहा था परन्तु बार-बार असफल हो रहा था। रुद्रप्रयाग से 32 किमी. की दूरी तय करते ही महादानी कर्ण के शहर और अलकनंदा-पिण्डर के संगम स्थल कर्णप्रयाग पहुँचे। कर्णप्रयाग में प्रवेश करते ही जोशीमठ के हरे सेब व हिमाचल के लाल सेबों को देखते ही मन ललचा गया। फिर क्या था तुरन्त मोलभाव किये और 2 किलो मीठे सेब व केले खरीद लिये। यही आगे की पूरी यात्रा में कारगर साबित हुए।
पिण्डर घाटी में प्रवेश-धीरे-धीरे नारायणबगड़, थराली से होते हुए देवाल पहुँच गये। रास्ते में आपदा के जख्म साफ दिखाई दे रहे थे। कहीं पुराने पुल के स्थान पर नये ट्राली के डिब्बे तो कहीं पुल के दोनों ओर के खम्भे जो किसी नये पुल का इन्तजार कर रहे थे। कहीं नदी के कटाव से खेतों की दुर्दशा। देवाल पहुँचते ही माँ नन्दा के लिए श्रृँगार का सामान व कुछ समौण के लिए मार्केट में इधर-उधर घूमने लगे। जैसे ही देवाल से मुन्दोली के लिए रवाना हुए तो प्रकृति की उस अनुपम छटा ने मन को मोह लिया। लहराती हरियाली, सीढ़ीदार खेत उन खेतों में तोर, कौणी, झंगोरे की फसल, गाड-गदेरे पहाड़ों से बहते झरने तथा सामने सुन्दर नगाधिराज अपनी मनोहर छटा बिखेरे आने वाले दर्शनार्थियों के स्वागत के लिए हर वक्त खड़ा दिखाई दे रहा था। जैसे ही मुन्दोली के निकट पहंँचते ही दूर से गाड़ियों की पंक्तियाँ दिखाई देने लगी, जो हरे-भरे पहाड़ पर सफेद ओंस की बूँद जैसे चमक रही थी। मुन्दोली से पूर्व ही गाड़ियों की लम्बी कतार होने के कारण हम भी उस भीड़ का हिस्सा बन गये जो पूर्व से ही माँ नन्दा के दर्शनार्थ आये हुए थे। जैसे ही हम मुन्दोली की उस भीड़ में पहुँचे तो पता चला कि माँ नन्दा की डोली वाण गाँव के लिए रवाना हो चुकी है।
माँ नंदा के दर्शनों की जद्दोजहद-हमने यात्रा का साक्षी बनने के लिए एक कैमरे का बन्दोबस्त भी कर रखा था परन्तु एक शाॅट लेते ही सेल डैमेज हो गये। फिर क्या था मैं अपने साथियों को छोड़कर बाजार में सेल ढ़ँूढने के लिए इधर-उधर भटकने लगा। आखिर एक दुकान पर मुझे सेल मिल गये। मैंने कैमरे में सेल चढ़ाये, एक दो शाॅट लिए और साथियों को ढ़ूँढ़ने लगा। मैंने पिताजी को फोन करने की कोशिश की, परन्तु नेटवर्क न होने के कारण किसी से सम्पर्क नहीं हो पाया। फिर मैंने एक पाखला ;एक गढ़वाली परिधानद्ध पहने, नाक से सिर के अन्त तक सिन्दूर लगायी अधेड़ उम्र की एक महिला से पूछा कि मुझे माँ नन्दा की डोली के दर्शन करने हैं, उन्होंने मुझे एक पैदल रास्ता बताया जिससे अभी-अभी माँ की डोली निकली ही थी। उन्होंने मुझसे कहा कि आपको रास्ते मैं ही माँ की डोली के दर्शन हो जायेंगे।
 फिर क्या था, एक हाथ में कैमरा पकड़े व दूसरे हाथ में छोटा सा जंगमवाणी यन्त्र ;मोबाईलद्ध लिये बार-बार पिताजी को व दूसरे अन्य साथियों को फोन कर उसी रास्ते पर निकल पड़ा,  जिस पर कि अभी-अभी माँ की डोली निकली ही थी। मैं बड़ी तेजी से पथ पर बढ़ रहा था तथा जो भी दर्शनार्थी उस रास्ते पर मुझसे मिलते, मैं सभी से डोली के बारे मेें पूछता कि डोली कितनी दूर गयी और वो सभी लोग कहते कि बस थोड़ी दूर मुश्किल से आधा किमी. और मैं बड़े उत्साह से भागने लगता। करीब दो ढ़ाई किमी. पैदल चलने के बाद अचानक 3 लड़कों से मुलाकात हुई, जो राजजात यात्रा को सार्थक बनाने में अपना योगदान दे रहे थे। जैसे ही मैंने उनसे डोली के बारे में पूछा तो वो कहने लगे कि बस कुछ ही दूरी पर जा रही है। मैं भी गप मारते-मारते उनके साथ हो लिया। अचानक पिताजी से सम्पर्क हुआ तो पता चला कि वे सभी गाड़ी से किसी दूसरे स्थान पर पहुँचे चुके हैं।
 मैंने भी अपने कदम तेजी से बढ़ाने शुरू कर दिये तथा उन तीनों सह यात्रियों में से एक लड़का, जिसने अपना नाम प्रमोद पुरोहित बताया, जो कि थराली का रहने वाला था। वह मुझे यात्रा के बारे में विस्तृत से बतला रहा था तथा मैं एक विदेशी यात्री की भांति उसकी हाँ में हाँ मिला रहा था। यद्यपि उन्होंने मेरे सामान्य ज्ञान बढ़ाने में बहुत मदद की तथा मुझे तब पता चला कि माँ नन्दा की डोली चमोली के अन्तिम गाँव वाण के अन्तर वेदनी बुग्याल से होते हुए पाताल नचोणियाँ, रूपकुण्ड, शिलासमुद्र से इस यात्रा का अन्तिम पड़ाव होमकुण्ड, जो त्रिशूल पर्वत की तलहटी पर स्थित है, के विषय में अनेक कहानियाँ सुनाने लगा, जिससे रास्ता जल्दी जल्दी कटने लगा और उन कहानियों को सुनते-सुनते पता ही नहीं चला कि कब हम अपने साथियों छोड़ और उन घने जंगलों, गदेरों को पार कर गये। गपशप में हम लगभग पाँच साढ़े पाँंच किमी. की दूरी तय कर चुके ही थे कि अचानक मोड़ पार करते ही वह दृष्य, जिसके इन्तजार में मैं अपने साथियों को छोड़कर भटक रहा था।
वह माँ नन्दा साक्षात् रक्त वस्त्र में, अपने सहयोगियों, चेलों व भक्तों के साथ हमारे सामने एक संक्षिप्त विश्राम स्थल में प्रकट हो चुकी थी। हम कृतार्थ हो गये, जीवन धन्य महसूस होने लगा। हमारी वह यात्रा, जिसके लिए इतने वर्षों इन्तजार करना पड़ा था, पल भर में मनोवंाक्षित फल की प्राप्ति हो गयी थी। बस मैंने झट से जूते उतारे और माँ की डोली के सामने गिर पड़ा। उसके बाद कुछ फोटो लेने के लिए दोस्त को बोला और अब फिर अपने साथियों की याद आने लगी क्योंकि यहाँ से न तो किसी का फोन मिल रहा था और न ही उस क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति के बारे में मुझे कुछ खास जानकारी थी। फिर भी मैंने साहस किया और यात्रा के साथ हो लिया। कुछ ही दूर पहुँचा था कि मुझे दूर से कुछ लोग दिखाई दिये जो कि माँ के दर्शनार्थ मार्ग में खड़े थे। बस! देखते ही मुझे अपने पिताजी का कुर्ता-पाजामा पहचान में आ गया और मैंने हाथ हिलाने शुरू कर दिये। उधर से भी मुझे इशारा होते ही मन खुश हो गया जैसे ही मैं पिताजी के नजदीक पहुँचा, पिताजी ने खुशी से गले लगा दिया। जैसे पता नहीं कितने सालों से मिलन हुआ हो! पर खुशी तो थी ही क्योंकि मानो बिछड़ा हुआ हंस जो उन्हें मिल गया था।
तकलीफदेह वापसी-अब सभी साथी मुझे मिल चुके थे शारीरिक थकान भी बहुत ज्यादा हो गयी थी और इन्तजार था तो बस घर जाने का। वो ढालदार रास्ता जिसको पार कर इतनी दूर पहुँचे थे, अब खड़ी चढ़ाई के रूप में तब्दील हो चुकी थी और उसको चढ़ना एवरेस्ट फतह करने के बराबर था। खैर, हमने हिम्मत बढ़ाई और पैदल चलने लगे व रेंगते-रेंगते सड़क में आकर अपनी गाड़ी तक पहुँचने के लिए दूसरी गाड़ी मुन्दोली तक किराये पर ली और फिर अपनी गाड़ी तक पहुँचे। सब लोग बुरी तरह से थक चुके थे और अपने आशियाने तक पहंँचने की जद्दोजहद में थे।
 परन्तु अभी साथ में लाया भोजन बाकी था, जिसको हम जल्द से जल्द निपटाकर कुछ शक्ति का पुनर्जागरण करना चाहते थे। मुन्दोली से 10 किमी. की दूरी को पार करते ही एक चाय की दुकान                  ढ़ूंढ़ी और नाश्ता करते ही थोड़ी सी थकान उतरी। पर अभी भी घर जाने की प्रबल इच्छा थी।                         देवाल से आगे बढ़ते ही रात होने लग गयी थी। ड्राईवर ने गाड़ी की लाई आॅन की और तेजी से घर की और बढ़ने लगे। रास्ते में हम सभी मिलकर कभी-कभार भजन व गाने भी गा लिया करते थे परन्तु थकान व सुस्ती ने सबको बुरी तरह से घेर लिया था।
अट्ठारह घंटे बाद-रात को लगभग साढ़े ग्यारह बजे उनींदी आँखों के साथ घर पहुँचे, तो माँ नंदा के दर्शनों का सारा नशा व यात्रा की थकान गायब होकर एक गुस्से में बदल गई, क्योंकि उसी दिन लंगूरों की फौज ने हमारे घर के फलों के बगीचे को तोड़-मरोड़, चीरफाड़ दिया था पर अब क्या किया जा सकता था। मन मसोसकर रात को 12 बजे खाना बनाकर खाया और धम्म से बिस्तर पर लेट गया और पता ही नहीं चला कि कब गुडाकादेवी ने अपना प्रकोप ढा दिया।

बुधवार, 10 दिसंबर 2014

‘एक रस्म एक रिवाज’

धियाणी कि विदाई ‘एक रस्म एक रिवाज’


विश्व की सबसे लंबी यात्रा नंदा देवी राजजात अपने आप में एक अनोखी यात्रा है। इस यात्रा में जाने वाले लोगों के अनुभव अगली नंदा देवी राजजात तक स्मरण के तौर पर उनके साथ रहेंगे। यात्रा के दौरान मिले खट्टे-मीठे अनुभव और प्राकृतिक सौंदर्य यात्रा में प्रतिभाग करने वालों के दिलों को छू गया और वह इसे स्मरण के रूप में लिपिब( कर रहे हैं। यात्रा पर गए युवा आचार्य मनोज प्रसाद मलासी की कलम से नंदा देवी राजजात यात्रा का यह खास आलेख।     संपादक
अचानक एक सपने के टूटते ही नींद खुली तो पता चला कि सुबह के साढ़े पाँच बज चुके हैं और माँ जोर-जोर से दरवाजा पीट रही है कि ‘‘नंदा देवी राजजात यात्रा’’ में चलना है कि नहीं? बड़ी मुश्किल से तन्द्रा टूटी और फिर वह सपना जो मुझे हिमालय की चोटियों पर विचरण और पता नहीं किन-किन यादों और बातों के पीछे भ्रमण करवा रहा था, सब भंग हो गया। खैर! सपना बहुत ही बुरा था, पर जब नींद खुली और नन्दा देवी राजजात यात्रा का पूर्व वृतान्त स्मरण हुआ तो सब बुरे सपनों का साया समाप्त हो गया क्योंकि पिछली रात को इस यात्रा पर खूब बहस हुई थी और बड़ा ही उत्साह था मां नन्दा के दर्शन का। आखिर हो भी क्यों नहीं, आखिर मैंने बचपन के उन दिनों भगवती नंदा के जो दर्शन किये थे, जब बच्चे को खाना-पीना और मस्ती ही नजर आती है। उस समय मैं मात्र दस साल का था, जब उस पराम्बा जगद्जननी के दर्शन हुए थे और मेरे साथ मेरे पिता जी और स्वर्गीय दादीजी जो थी, जिनको मैं अत्यधिक स्मरण कर रहा था। परन्तु यह यात्रा भी मेरे लिए किसी खास दिन से ज्यादा नहीं थी, क्योंकि इस बार मैं अपनी माँ और पिताजी के साथ यात्रा पर जा रहा था। पता नहीं यह खास दिन कैसे आया, क्योंकि अभी कुछ ही दिन पूर्व मेरी ताई जी का निधन जो हुआ था और माँ-पिताजी भी यात्रा में जाने के खिलाफ थे परन्तु मेरी जिद और लेक्चर ने उनका मूढ़ बना दिया और वो तैयार                   हो गये।
यात्रा के लिए प्रस्थान-कुछ गाँव की दीदीजी, भाभीजी और उनके अन्य सहयोगियों के साथ सुबह-सुबह ठण्डी हवा में बुक की गयी मैक्स में बैठकर ठंडी हवाओं का कुछ ज्यादा ही आनन्द आ रहा था। चारों ओर से सनसनाती हवा मानों कानों को गिरिराज हिमालय के अधिपति भोलेनाथ और सर्वशक्तिदायिनी माँ नन्दा का सन्देश और आशीष दे रही हो। उस दिन आसमान में बादल छाये हुए थे और बीच-बीच में हल्की बूँदा-बाँदी केदारनाथ यात्रा का स्मरण करवा रही थी परन्तु माँ के दर्शन की अभिलाषा ने बिलकुल भी उत्साह में कमी नहीं आने दी। जैसे ही गाड़ी अपने गन्तव्य की ओर बढ़ी तो पिताजी ने बताया कि वहाँ ठंड हो सकती है, जिसका कि हम लोगों ने बिलकुल भी इन्तजाम नहीं किया था किन्तु मुझे तुरन्त ही आइडिया सूझा। मैंने तुरन्त चाचाजी जो कि रुद्रप्रयाग में रहते थे, उनको फोन किया और एक स्वेटर व एक शाॅल मंगवा लिया। अब हम निश्चिन्त होकर मस्ती के साथ आगे बढ़ने लगे। धीरे-धीरे रुद्रप्रयाम जिले के सीमावर्ती गाँवों को छूकर निकलने लगे तो सामने ही ककोड़ाखाल गाँव सहसा दिखाई देते ही स्वर्गीय श्री अनसूया प्रसाद बहुगुणा जी का स्मरण हो आया, जिन्होंने गढ़वाल में बेगार प्रथा के विरु( अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन किया था और पिताजी उस बेगार प्रथा का उल्लेख करने लगे कि किस प्रकार उस समय के राजा और अंग्रेज मिलकर जनता पर अत्याचार किया करते थे। टिहरी की राजशाही और अंग्रेजों के अत्याचारों का विवरण होते ही मैं भी भावनात्मक रूप से उन लोगों से जुड़ने लगा, जिन्होंने ये अत्याचार सहे थे। मेरी पूरी सिम्पैथी उन निर्दोष लोगों के साथ थी जिन्होंने ये अत्याचार सहे थे और श्री बहुगुणा जी मेरी नजरों में हीरो बनने लगे थे।
संगीतमय हो गई यात्रा-धीरे-धीरे आगे बढ़ते ही यात्रा को रोचक व यादगार बनाने के लिए पिताजी ने गढ़वाल के सुप्रसि( गीतकार नरेन्द्र सिंह नेगी जी के माँ नन्दा देवी का प्रसि( गाना ‘‘जै, जै बोला, जै भगोति नन्दा, नन्दा ऊँचा कैलाश की जय’’ गाना प्रारम्भ कर दिया और फिर मुझसे भी रहा नहीं गया और मैं भी स्वर से स्वर मिलाने लगा। गाने के समाप्त होते ही सभी लोग जिन्होंने मुझे पहली बार सुना था, मेरे गले की   तारीफ करने लगे किन्तु ये बातें मेरे लिए अब पुरानी सी थी, क्योंकि कोई भी फटे बाँस की आवाज वाला भी गाना गाये तो सभी लोग टाइमपास करने के लिए अकसर तारीफों के पुल बांधने लगते हैं।
आपदा के घाव अभी भी हरे-धीरे-धीरे हम अपने गन्तव्य की ओर हिचकोले खाते हुए बढ़ रहे थे। मानों हर गड्डा हमें अपने में समाने के लिए बैठा हो। प्रत्येक गड्डे पर गाड़ी के उछलते ही मंै चिढ़कर पिताजी से उत्तराखण्ड शसन-प्रशासन की बात कर रहा था जो कि पिछले दो-तीन सालों से नन्दादेवी राजजात यात्रा के बारे में टी.वी व समाचार-पत्रों में विज्ञापनों के माध्यम से तैयारियों का डंका पीट रहे थे। रुद्रप्रयाग व चमोली जिले में आयी भीषण आपदा के बाद भी सड़कों की हालत पर तरस आ रहा था परन्तु क्या किया जा सकता था। मैं लगातार गाड़ी के स्पीड मीटर पर देख रहा था जो 25-30 किमी की स्पीड से आगे बढ़ने का प्रयत्न कर रहा था परन्तु बार-बार असफल हो रहा था। रुद्रप्रयाग से 32 किमी. की दूरी तय करते ही महादानी कर्ण के शहर और अलकनंदा-पिण्डर के संगम स्थल कर्णप्रयाग पहुँचे। कर्णप्रयाग में प्रवेश करते ही जोशीमठ के हरे सेब व हिमाचल के लाल सेबों को देखते ही मन ललचा गया। फिर क्या था तुरन्त मोलभाव किये और 2 किलो मीठे सेब व केले खरीद लिये। यही आगे की पूरी यात्रा में कारगर साबित हुए।
पिण्डर घाटी में प्रवेश-धीरे-धीरे नारायणबगड़, थराली से होते हुए देवाल पहुँच गये। रास्ते में आपदा के जख्म साफ दिखाई दे रहे थे। कहीं पुराने पुल के स्थान पर नये ट्राली के डिब्बे तो कहीं पुल के दोनों ओर के खम्भे जो किसी नये पुल का इन्तजार कर रहे थे। कहीं नदी के कटाव से खेतों की दुर्दशा। देवाल पहुँचते ही माँ नन्दा के लिए श्रृँगार का सामान व कुछ समौण के लिए मार्केट में इधर-उधर घूमने लगे। जैसे ही देवाल से मुन्दोली के लिए रवाना हुए तो प्रकृति की उस अनुपम छटा ने मन को मोह लिया। लहराती हरियाली, सीढ़ीदार खेत उन खेतों में तोर, कौणी, झंगोरे की फसल, गाड-गदेरे पहाड़ों से बहते झरने तथा सामने सुन्दर नगाधिराज अपनी मनोहर छटा बिखेरे आने वाले दर्शनार्थियों के स्वागत के लिए हर वक्त खड़ा दिखाई दे रहा था। जैसे ही मुन्दोली के निकट पहंँचते ही दूर से गाड़ियों की पंक्तियाँ दिखाई देने लगी, जो हरे-भरे पहाड़ पर सफेद ओंस की बूँद जैसे चमक रही थी। मुन्दोली से पूर्व ही गाड़ियों की लम्बी कतार होने के कारण हम भी उस भीड़ का हिस्सा बन गये जो पूर्व से ही माँ नन्दा के दर्शनार्थ आये हुए थे। जैसे ही हम मुन्दोली की उस भीड़ में पहुँचे तो पता चला कि माँ नन्दा की डोली वाण गाँव के लिए रवाना हो चुकी है।
माँ नंदा के दर्शनों की जद्दोजहद-हमने यात्रा का साक्षी बनने के लिए एक कैमरे का बन्दोबस्त भी कर रखा था परन्तु एक शाॅट लेते ही सेल डैमेज हो गये। फिर क्या था मैं अपने साथियों को छोड़कर बाजार में सेल ढ़ँूढने के लिए इधर-उधर भटकने लगा। आखिर एक दुकान पर मुझे सेल मिल गये। मैंने कैमरे में सेल चढ़ाये, एक दो शाॅट लिए और साथियों को ढ़ूँढ़ने लगा। मैंने पिताजी को फोन करने की कोशिश की, परन्तु नेटवर्क न होने के कारण किसी से सम्पर्क नहीं हो पाया। फिर मैंने एक पाखला ;एक गढ़वाली परिधानद्ध पहने, नाक से सिर के अन्त तक सिन्दूर लगायी अधेड़ उम्र की एक महिला से पूछा कि मुझे माँ नन्दा की डोली के दर्शन करने हैं, उन्होंने मुझे एक पैदल रास्ता बताया जिससे अभी-अभी माँ की डोली निकली ही थी। उन्होंने मुझसे कहा कि आपको रास्ते मैं ही माँ की डोली के दर्शन हो जायेंगे।
 फिर क्या था, एक हाथ में कैमरा पकड़े व दूसरे हाथ में छोटा सा जंगमवाणी यन्त्र ;मोबाईलद्ध लिये बार-बार पिताजी को व दूसरे अन्य साथियों को फोन कर उसी रास्ते पर निकल पड़ा,  जिस पर कि अभी-अभी माँ की डोली निकली ही थी। मैं बड़ी तेजी से पथ पर बढ़ रहा था तथा जो भी दर्शनार्थी उस रास्ते पर मुझसे मिलते, मैं सभी से डोली के बारे मेें पूछता कि डोली कितनी दूर गयी और वो सभी लोग कहते कि बस थोड़ी दूर मुश्किल से आधा किमी. और मैं बड़े उत्साह से भागने लगता। करीब दो ढ़ाई किमी. पैदल चलने के बाद अचानक 3 लड़कों से मुलाकात हुई, जो राजजात यात्रा को सार्थक बनाने में अपना योगदान दे रहे थे। जैसे ही मैंने उनसे डोली के बारे में पूछा तो वो कहने लगे कि बस कुछ ही दूरी पर जा रही है। मैं भी गप मारते-मारते उनके साथ हो लिया। अचानक पिताजी से सम्पर्क हुआ तो पता चला कि वे सभी गाड़ी से किसी दूसरे स्थान पर पहुँचे चुके हैं।
 मैंने भी अपने कदम तेजी से बढ़ाने शुरू कर दिये तथा उन तीनों सह यात्रियों में से एक लड़का, जिसने अपना नाम प्रमोद पुरोहित बताया, जो कि थराली का रहने वाला था। वह मुझे यात्रा के बारे में विस्तृत से बतला रहा था तथा मैं एक विदेशी यात्री की भांति उसकी हाँ में हाँ मिला रहा था। यद्यपि उन्होंने मेरे सामान्य ज्ञान बढ़ाने में बहुत मदद की तथा मुझे तब पता चला कि माँ नन्दा की डोली चमोली के अन्तिम गाँव वाण के अन्तर वेदनी बुग्याल से होते हुए पाताल नचोणियाँ, रूपकुण्ड, शिलासमुद्र से इस यात्रा का अन्तिम पड़ाव होमकुण्ड, जो त्रिशूल पर्वत की तलहटी पर स्थित है, के विषय में अनेक कहानियाँ सुनाने लगा, जिससे रास्ता जल्दी जल्दी कटने लगा और उन कहानियों को सुनते-सुनते पता ही नहीं चला कि कब हम अपने साथियों छोड़ और उन घने जंगलों, गदेरों को पार कर गये। गपशप में हम लगभग पाँच साढ़े पाँंच किमी. की दूरी तय कर चुके ही थे कि अचानक मोड़ पार करते ही वह दृष्य, जिसके इन्तजार में मैं अपने साथियों को छोड़कर भटक रहा था।
वह माँ नन्दा साक्षात् रक्त वस्त्र में, अपने सहयोगियों, चेलों व भक्तों के साथ हमारे सामने एक संक्षिप्त विश्राम स्थल में प्रकट हो चुकी थी। हम कृतार्थ हो गये, जीवन धन्य महसूस होने लगा। हमारी वह यात्रा, जिसके लिए इतने वर्षों इन्तजार करना पड़ा था, पल भर में मनोवंाक्षित फल की प्राप्ति हो गयी थी। बस मैंने झट से जूते उतारे और माँ की डोली के सामने गिर पड़ा। उसके बाद कुछ फोटो लेने के लिए दोस्त को बोला और अब फिर अपने साथियों की याद आने लगी क्योंकि यहाँ से न तो किसी का फोन मिल रहा था और न ही उस क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति के बारे में मुझे कुछ खास जानकारी थी। फिर भी मैंने साहस किया और यात्रा के साथ हो लिया। कुछ ही दूर पहुँचा था कि मुझे दूर से कुछ लोग दिखाई दिये जो कि माँ के दर्शनार्थ मार्ग में खड़े थे। बस! देखते ही मुझे अपने पिताजी का कुर्ता-पाजामा पहचान में आ गया और मैंने हाथ हिलाने शुरू कर दिये। उधर से भी मुझे इशारा होते ही मन खुश हो गया जैसे ही मैं पिताजी के नजदीक पहुँचा, पिताजी ने खुशी से गले लगा दिया। जैसे पता नहीं कितने सालों से मिलन हुआ हो! पर खुशी तो थी ही क्योंकि मानो बिछड़ा हुआ हंस जो उन्हें मिल गया था।
तकलीफदेह वापसी-अब सभी साथी मुझे मिल चुके थे शारीरिक थकान भी बहुत ज्यादा हो गयी थी और इन्तजार था तो बस घर जाने का। वो ढालदार रास्ता जिसको पार कर इतनी दूर पहुँचे थे, अब खड़ी चढ़ाई के रूप में तब्दील हो चुकी थी और उसको चढ़ना एवरेस्ट फतह करने के बराबर था। खैर, हमने हिम्मत बढ़ाई और पैदल चलने लगे व रेंगते-रेंगते सड़क में आकर अपनी गाड़ी तक पहुँचने के लिए दूसरी गाड़ी मुन्दोली तक किराये पर ली और फिर अपनी गाड़ी तक पहुँचे। सब लोग बुरी तरह से थक चुके थे और अपने आशियाने तक पहंँचने की जद्दोजहद में थे।
 परन्तु अभी साथ में लाया भोजन बाकी था, जिसको हम जल्द से जल्द निपटाकर कुछ शक्ति का पुनर्जागरण करना चाहते थे। मुन्दोली से 10 किमी. की दूरी को पार करते ही एक चाय की दुकान                  ढ़ूंढ़ी और नाश्ता करते ही थोड़ी सी थकान उतरी। पर अभी भी घर जाने की प्रबल इच्छा थी।                         देवाल से आगे बढ़ते ही रात होने लग गयी थी। ड्राईवर ने गाड़ी की लाई आॅन की और तेजी से घर की और बढ़ने लगे। रास्ते में हम सभी मिलकर कभी-कभार भजन व गाने भी गा लिया करते थे परन्तु थकान व सुस्ती ने सबको बुरी तरह से घेर लिया था।
अट्ठारह घंटे बाद-रात को लगभग साढ़े ग्यारह बजे उनींदी आँखों के साथ घर पहुँचे, तो माँ नंदा के दर्शनों का सारा नशा व यात्रा की थकान गायब होकर एक गुस्से में बदल गई, क्योंकि उसी दिन लंगूरों की फौज ने हमारे घर के फलों के बगीचे को तोड़-मरोड़, चीरफाड़ दिया था पर अब क्या किया जा सकता था। मन मसोसकर रात को 12 बजे खाना बनाकर खाया और धम्म से बिस्तर पर लेट गया और पता ही नहीं चला कि कब गुडाकादेवी ने अपना प्रकोप ढा दिया।

क्वे सुण दु म्येरि खैरि...

क्वे सुण दु म्येरि खैरि...

उत्तराखंड राज्य बने इतना लंबा समय हो गया, लेकिन राज्य की दशा आज भी नहीं बदली। यही कारण है कि राज्य के लेखकों, पत्रकारों, कवियों और गीतकारों के लिए राज्य पर लिखने गाने के लिए हर बार नया अंदाज होता है। राज्य के उभरते हुए लेखक अश्विनी लक्की भी इन्हीं में शामिल हैं। अपनी लेखनी के लिए इन्होंने गढ़वाली को चुना और गढ़वाली में वह अपने मन की पीड़ा और राज्य के वर्तमान हालात को इसी पर केंद्रित कर लिखते हैं। राज्य की वर्तमान हालात पर केंद्रित अश्विनी गौड़ की गढ़वाली में यह टिप्पणी।            संपादक
सन द्वी हजार मा अपडा आस्तित्व की लडै लणी आखिरकार मैंते अपणि पछाण मिलिग्ये छे, अब लगणू छो कि क्वे म्येरी आॅख्यू का आँसु बि पोन्दी द्यूलू। किले कि अब म्येरा अपडे़ यखा नीति निर्धारक बण्या छा। म्येरा हक हकूक, बौण, पाणी, माटी का नौ पर, अर बोली भाषा का नौ पर कै ल्वोखुन धै लगै छै, अर सैरु जू परांण लगै अपडा खून की तक छ्रवोलि लगै छे, म्येरा बाना, म्येरा जन्म मा तौं शहीदूं कू योगदान तें मे कबि बिसिरी नी सकदु। आज मेंतें पन्द्रू साल लगण वोलू च पर जु स्वीणा मैन बालापन मा दयेख्या, जु गांण्यू का कुट्यारा गंठ्येन सबि बांध्या गे रै गिन। शहीदों का नौं पर खूब हो हल्ला होणू, जु कबि कखि नि छा सी स्याणा बण्या छिन, कितला छा जु यखा सि सर्प बण्या छिन। विकाश का नौं पर यख छोटी बडी के परियोजना बण्नी छिन, म्येरी जिकुडि दिन रात बिकाश का नौ पर क्वोर्योण लग्या छिन, पर मैं बि आखिर यी पिरथ्वी कु ही तत्व छू, म्येरी बि क्वे फिक्स आयतन च, धारिता च, नियम छिन, कानून छिन, पारिस्थ्तिक मजबूरी छिन, जौंका बारा मा यखे सरकार शासन बिल्कुल बि नि स्वोचणी च, बस भरदी जाणा छन मैमा बिकाश की ईट बजरी सीमेंट अर सरिया का जंगल? अप़ड़ा स्वारथ का भारा म्येरी पीठी मा घरदी जांणा छिन। मै बि बिकाश कु पक्षधर छू, अपडूं कु बिकाश चान्दू मुल्क कू विकाश चान्दू, पर कन विकाश चान्दू? ये बारा क्वे नि स्वोचणू च, म्येरी पिडा खैरी यू सबु से ऐच, यख आज यु स्वार्थी मनखी अपड़ा ही स्वार्थ का बारा मा रम्यू च, कखि म्येरा हैरि मखमलि लत्ती कपड़यू कि हैर्यालि उतारी म्येरु बदन नांगू कनू च त कखि गाड गदन्यू कु जु गुलबंद म्येरु पैर्यू, तैकि लड्यू तैं तोडणू च। म्येरु मन अर तन का छाल पवित्र मठ मन्दिरु का बिचारुंमा छकण्या दारु का ठैका ख्वोनू च। म्येरा सीदा-सादा, मुल्क्या मैत्यू सणि यख वोट अर चुनौं का नौ पर लूछणू च, यूंकि सच्चैं अर आस तैं पैसौं मा मुल्यौंणू च? बण जंगल जमीन तै सैर का नौं पर खाली करौणू च।रैणा सैंणा पुंगणा पट्टयू भंगुलू जामणू च, गौं तिबार छज्जा गुठ्यार मनख्यं तें सांेचणी च, जागणी च। स्योंन्दा खांदा पुगया पट्टाळा बाॅजा अर यख मनखि सौ पचास रुपया मनरेगा पर मनू च,  मैना खान बी पी एले किड्या राशन तै जागणू च?यु चैदह सालू मा यखै राजनीति का बि बन बन्या रंग द्येखिन, एक हक्को सुलार खेंचणों अर नांगू कनौं खेल यख खूब फौबि, फली, परम्परा बणि, अर सुलार थामण का चक्करु मा अक्सर आचार संहिता का रिकार्ड बणिन। बीजेपी अर का्रगेस पहाड का नौ पर केंद्र बटि खूब दूघ ल्येन अर द्वियुन खूब मलै चाटी, बचि खुचि यूकेडी अर होरुतें बि बंट्ये गै। राजधानी का मुद्दा पर बि मैं दगडी खूब लुका छुपि खिल्ये गे, म्येरु शरील जू परांण डांड़ी कांठ्यू मा ही बसदू, जु अजु तलक राजधानी गेरसैंण का बाना फफडाणू च। आज पन्द्रह साल मा बि म्येरी बुळाण, संस्कुति, रौण-खाण, लाण का ढंग तैं ये देश का संविधान मा मान्यता नि मिलि। खेर देश त छ्वोडा अपड़े  घौर मुल्क मा पछाण नि मिलि। गढ़वालि कुमाऊँनि बत्यांण वोलु तैं गंवार अनपढ समझ्ये जांदू, बाॅंज बुराश कोदू झांगोरु कि बात कन वौलु तें विकाश कु विरोधी सम्झये जांदू?म्येरा विकाश तैं दिल्ली अर देरादून मा योजना बणाये जांदी पर डाडि कांठ्यू कि उकाळ पौंछिदि पौछिदि तौं तें खलों लगी जान्दू। अर जलागम स्वजल पुनर्विस्थापन, हर्यालि योजना, मनरेगा, जन कति योजनौं कि चार यि द्वी दीन मा ही ट्वडगी पौड़ि जांदिनं यख न्येतू तैं उकाळ उन्द्यार हिटण मा छाति थामण पड़दि, पितर कूड़ि याद ए जांदी। जंै जनता का नौ पर सारा भरोंसा पर, सि बोटा मांग्ण्यां बण्दा, चुनौं जीतण पर बुसपट्ट बिसरी जांदन, बस अपडि सुख सुविधांें की ही मांग कर्दा, हेलिकाप्टरु मा बिटि हाथ हलौंदा? यि हाल बालापन मा छिन म्येरा त फ्येर ज्वानी मा क्या होला । तबे त ब्वनू, क्वे सुण दु म्येरी खैरी, क्वे गण दु म्येरा दुख
क्ख होलु सु ख्न दगड्या कख् मिललू यनु गैल्या----------           ;दानकोट- बसुकेदार, अगस्तमुनि, रूद्रप्रयागद्ध

सोमवार, 8 दिसंबर 2014

udaydinmaan: शीतकालीन गद्दीस्थलों में देवदर्शन

udaydinmaan: शीतकालीन गद्दीस्थलों में देवदर्शन: उत्तराखंड के चारधामः शीतकालीन गद्दीस्थलों में देवदर्शन उत्तराखण्ड के सुप्रसि( चारधामों से देव-डोलियाँ शीतकाल के लिए अपने विश्राम स्थलों म...

रविवार, 7 दिसंबर 2014

शीतकालीन गद्दीस्थलों में देवदर्शन

उत्तराखंड के चारधामः शीतकालीन गद्दीस्थलों में देवदर्शन

उत्तराखण्ड के सुप्रसि( चारधामों से देव-डोलियाँ शीतकाल के लिए अपने विश्राम स्थलों में पहुंच गयी है। अब शीतकाल के छः माह इन्हीं धामों में भगवान बद्री विशाल, बाबा केदार, मां गंगा और मां यमुना की विधिवत पूजाएं सम्पादित हो रहीं हैं। प्राचीन धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इन पवित्र धामों की पूजाएं मानव तथा देवताओं द्वारा बारी-बारी से की जाती हैं। इसलिए छः माह के अंतराल के बाद पूजाओं का क्रम परिवर्तित कर दिया जाता है। एक दूसरे के साथ तारतम्य बना रहे इसलिए उत्सव मूर्तियाँ मुख्य मंदिरों से शीतकालीन गद्दीस्थल में लाई जाती है जिससे मानवों को अपने आराध्यों को पूजने और देखने का अवसर प्राप्त होता है। डोलियों के अपने विश्राम स्थलों पर पहुंचने के साथ ही शीतकालीन चार धाम यात्रा की विधिवत शुरूआत हो चुकी है। चारधाम यात्रा के साथ यहां पर्यटन की दृष्टि से भी शीतकालीन यात्रा को बढ़ावा दिया जा रहा है। इसी पर केंद्रित दीपक बेंजवाल का यह विशेष आलेख।                  संपादक





उत्तराखंड के चारधामों के कपाट बंद होने के बाद शीतकालीन गद्दीस्थल भी चारधामों की तरह ही पवित्र और गहरी लोकमान्यताओं से जुड़े हैं। धर्मग्रन्थों में इन शीतकालीन गद्दीस्थलों की महत्ता का सुन्दर वर्णन प्राप्त होता है। छः माह के प्रवास में यही गद्दीस्थल मुख्य मंदिर की तरह आस्था की पवित्र डोर को प्रवाहित करते रहते है।आपदा की दृष्टि से भी शीतकाल में यात्रा बरसात के महीनों से अधिक सुरक्षित माना जा रहा है। अधिकतर गद्दीस्थल उच्च हिमालयी क्षेत्र से पर्याप्त दूरी पर है अंौर पूरे वर्षभर यहाँ मानवीय आबादी निवास करती है। सरकार यातायात तथा आवास की अच्छी व्यवस्था करें तो तीर्थयात्रियों को आकर्षित किया जा सकता है। पर्यटन की दृष्टि से भी यह समय पर्यटकों को खासा आकर्षित करता है। बाबा केदार के शीतकालीन गद्दीस्थल ऊखीमठ को छोड़कर अन्य गद्दीस्थलों में बर्फवारी का आंनद भी लिया जा सकता है।
ऊखीमठ में श्री केदारनाथ-ऊखीमठ बाबा केदार का शीतकालीन गद्दीस्थल है। रूद्रप्रयाग जिला मुख्यालय से महज 30 किमी की दूरी पर स्थित इस स्थान की खूबसूरती देखते ही बनती है। धार्मिक सामाजिक एवं सांस्कृतिक परम्पराओं को अपने आँचल में समेटे केदारघाटी के मध्य हिमालयी भू-भाग में बसा ऊखीमठ अनादिकाल से साधना एवं आस्था का केन्द्र रहा है। यह स्थान जहाँ धर्मिक गाथाओं से ओतप्रोत है, वहीं प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण होने के कारण मनोहारी भी है। ऊखीमठ नागपुर परगने के मल्ला कालीफाट में मन्दाकिनी के बायें तट पर एक ऊँची पहाड़ी की गोद में    1311 मीटर ऊँचाई पर बसा है। बाणासुर की कन्या ऊषा की तपस्थली होने के कारण ही इसे ऊषामठ कहा गया। ऊषा का गढ़वाली भाषा में उच्चारण ऊखा और इसी कारण से ऊषामठ ऊखामठ अर्थात वर्तमान में ऊखीमठ नाम से प्रसि( है। शीतकाल के छः माह भगवान केदारनाथ का पूजा-अर्चना ऊखीमठ के आंेकारेश्वर मन्दिर में की जाती है। यही पर रावलों का भव्य निवासगृह एवं श्री बदरीनाथ केदारनाथ मन्दिर समिति का कार्यालय भी मौजूद है। वैदिक साहित्य में ऊखीमठ का एक नाम मान्धाता भी है। स्कन्द पुराण के केदारखण्ड के 19 वें अध्याय के कुवलाशव के वंश वर्णन के श्लोक संख्या एक से छह में सतयुग के महाप्रतापि राजा कुवलाशव की पांचवी पीढ़ी में यौवनाश्व नाम से मान्धता वर्णन मिलता है। माँ की कोख से पैदा न होने के कारण बालक का नाम    मान्धाता रखा
गया। समय रहते मान्धाता चक्रवती सम्राट बना और सुखपूर्वक गृहस्थ आश्रम के उपरांत हिमालय की गोद में आकर ऊखीमठ में भगवान शंकर की तपस्या में लीन हो गया। राजा मांधता की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उन्हें ओंकारेश्वर रूप में दर्शन दिए और वरदान मांगने को कहा। जिस पर राजा मांधता बोले की प्रभु आपको विश्व कल्याण व भक्तों के उ(ार के लिए यहीं निवास करना होगा। तब से लेकर वर्तमान समय तक भगवान शंकर यहीं पर आंेकारेश्वर रूप में तपस्यारत हंै। इसी कारण इस स्थान को मान्धता नाम से भी जाना गया है। आज भी केदारनाथ की बहियों का प्रारंभ जय मान्धता से होता है।
पूजा व्यवस्था- ओंकारेश्वर मंदिर में प्रातः एवं सांयकालीन पूजाए होती है। प्रातःकाल में भगवान का जलाभिषेक व श्रृगांर किया जाता है। जबकि सायं को आरती की जाती है। मंदिर का पुजारी केदारनाथ के रावल द्वारा नियुक्त दक्षिण भारतीय लिंगायत होता है।
 तीर्थयात्रियों की सुविधा के लिए मंदिर समिति के वेदपाठी व आचार्य भी यहाँ तैनात होते है।
कैसे पहुंचे - देश की राजधानी दिल्ली से ऊखीमठ की दूरी 405 किमी है। दिल्ली से हरिद्वार, )षिकेश, देवप्रयाग,  रूद्रप्रयाग होते हुए ऊखीमठ पहुंचा जा सकता है। नगर से एक छोटी सड़क मुुख्य मंदिर को जाती है।
जाश्षीमठ-पाण्डुकेश्वर में श्री बदरीनाथ-जोशीमठ-पाण्डुकेश्वर भगवान बद्रीविशाल का शीतकालीन गद्दीस्थल है। नवम्बर माह में बदरीनाथ के कपाट बंद होने पर भगवान कुबेर व उ(व जी चलविग्रह मूर्तियाँ शीतकालीन पूजा के लिए पाण्डुकेश्वर लायी जाती है। जबकि शंकराचार्यजी की गद्दी को जोशीमठ के नृसिंह मंदिर में रखा जाता हैं। मंदिरों के हर प्राचीन शहर की तरह जोशीमठ भी ज्ञानपीठ है जहाँ आदि गुरू शंकराचार्य ने भारत के चार मठों के पहले मठ ‘ज्योर्तिमठ’ की स्थापना की। यहीं उन्होंने शंकर भाष्य ग्रंथ की रचना की जो सनातन धर्म के  सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रंथों में से एक   है। पैनखंडा परगना मंे समुद्रतल से साढ़े छह हजार फीट की       ऊँचाई पर स्थित जोशीमठ के कण-कण   में आध्यात्मकिता की छाप मिलती है। भगवान विष्णु से इस नगरी का संबध पुराकल से अनेक दुर्लभ मान्यताए लिए है।   नगर के बीचों-बीच    स्थित नृसिंह मंंिदर         वैष्णव सभ्यता   का प्रमुख तीर्थ  है। नृसिंह       मंदिर में
भगवान विष्णु शालीग्राम शिला में श्यामल व सुखासन में बैठी मुद्रा में है। नृसिंह को विष्णु का अवतार माना जाता है। जिन्हें दूधाधारी नृसिंह के नाम से भी जाना जाता है। पाण्डुकेश्वर अलकनन्दा के पावन तट पर बसा हुआ प्रमुख धार्मिक तीर्थ है। यहाँ भगवान बदरीविशाल साक्षात योगध्यान अवस्था में विराजमान हंै। शीतकाल में भगवान बद्रीनाथ के प्रतिनिधि उ(व जी एवं कुबेर जी                                 चलविग्रह मूर्तियाँ यहाँ लाई जाती हंै, जिससे मंदिर के दर्शनों का फल दुगणित हो जाता है। मंदिर                        सालभर खुला रहता है, यहाँ डिमरी ब्राह्मणों द्वारा नियमित पूजाए की जाती है। तिब्बत-चीन सीमा के कारण यह सीमांत के व्यापार का पुराना                               परम्परागत बाजार होने के साथ-साथ बदरीनाथ, औली तथा नीति घाटी का केन्द्र बिन्दु होने के कारण जोशीमठ एक महत्पूर्ण पर्यटन स्थल है,                                     जहाँ वर्षभर पर्यटकों का जमावाड़ा लगा रहता है। शीतकाल में जोशीमठ के नजदीक स्थित                                           ‘औली’ में अन्र्तराष्ट्रीय स्तर की विंटर गेम्स ‘हिमक्रिड़ाएँ’ आयोजित की जाती हैं।                                             इस दृष्टि से भी जोशीमठ शीतकालीन यात्रा की संभावनाओं में सबसे अधिक आय वाला                        स्थान बन सकता है।
कैसे पहुंचे -जोशीमठ-पाण्डुकेश्वर पहुंचने के लिए दिल्ली से सड़क द्वारा आसानी से पहुंचा जा सकता है। इस स्थान पर रहने, खाने की अच्छी सुविधाए उपलब्ध हैं।
मुखबा ;मुखवासद्ध गांव में माँ गंगा-मुखबा गाँव जिसे मुखवास गांव भी कहते हैं, हिन्दुओं के लिए बड़ा धार्मिक महत्व रखता है। शीतकाल में माँ गंगा की भोगमूर्ति को इस गाँव में लाया जाता है। मुखबा में गंगोत्री मंदिर जैसा ही मंदिर निर्मित है। यह गांव में गंगोत्री धाम के तीर्थपुरोहितों का मूल गांव भी है, और वही इस मंदिर में माँ गंगा की नियमित पूजाए सम्पादित करते है। लंबे समय से तीर्थ पुरोहित मुखबा गांव को शीतकालीन यात्रा से जोड़ने की मांग करते रहे है। लेकिन इस दिशा में कभी ठोस प्रयास हुए ही नहीं है। बीते वर्ष उत्तरकाशी से हर्शिल होते आठ किमी की कच्ची सड़क काटी गई है। जिस पर वाहन चलाना जोखिम भरा है। इस मार्ग के उपयोग के लिए स्थानीय टैक्सी चालकों की मदद लेनी आवश्यक है। दिसम्बर के अंत तक मुखबा को जाने वाली यह सड़क पूरी तरह बर्फ से ढक जाती है। जिससे आवाजाही बिल्कुल ठप्प हो जाती है। गांव में आवास, भोजन, बिजली व संचार जैसी बुनियादी सुविधाए अभी भी कामचलाऊ हालत में है जिन्हें सुधारे जाने की आवश्यकता है। मुखबा के पास धराली और हर्षिल दर्शनीय स्थल है।
कैसे पहुंचे- जिला मुख्यालय उत्तरकाशी से 75 किमी और )षिकेश से 180 किमी0 की दूरी तय कर मुखबा गांव पहुंचा जा सकता है। हर्षिल तक सड़क अच्छी हालत में है। हर्षिल से आठ किमी की कच्ची सड़क मुखबा को जोड़ती है।
खरसाली गांव में माँ यमुना-खरसाली माँ यमुना का शीतकालीन प्रवास है, जिसे ‘खुशीमठ’ भी कहा जाता है। यमुना जी के तट पर बसे खरसाली गांव को माँ यमुना का मायका भी माना जाता है जहाँ उनके भाई शनि देव का मंदिर भी है। यह गांव यमुनाजी के पुरोहितों का गांव है जो यमुनोतरी और खरसाली में माँ यमुना की पूजाए सम्पादित करते हंै। गांव में दो मुख्य मंदिर है पहला शनि देव का है, जो उत्तराखण्ड का इकलौता शनि मंदिर है। किलेनुमा परम्परागत पहाड़ी शिल्प में बने 16 कमरों वाले चार मंजिले मन्दिर में शनि देव की चल मूर्ति की पूजा अर्चना की जाती है। गांव में एक अन्य छत्र शैली का मन्दिर भी है जहाँ शनि देव की डोली रखी जाती है। यहाँ एक शिला के रूप में शनि देव की अचल मूर्ति भी स्थापित है। शनि तीर्थ के पुजारियों तथा शनि अष्टक जैसे प्राचीन ग्रंथों पर विश्वास करें तो यहां तीन दिन पूजा अर्चना करने से शनिदेव भक्तों को कष्टों से छुटकारा दिला देते हैं। दशरथ कृत शनि अष्टक के पांचवे श्लोक में कहा गया है कि ‘प्रयाग कुले यमुना तटे वा सरस्वती पुण्य जले गुहाय, यो योगिनां ध्यान गतो अपि सूक्ष्म तस्मे नमः श्री रवि नन्दनाय’।
 सावन संक्रान्ति को खरसाली में तीन दिवसीय शनि देव मेला लगता है, मन्नत पूरी होने पर श्र(ालु शनि देवता की डोली को चारधाम यात्रा पर भी लेकर जाते है। एक मंदिर माँ यमुना का है जहाँ यमुनाजी की भोग मूर्ति स्थापित की जाती है। जिसके                           पुजारी यमुनोत्री मंदिर के रावल हंै। माँ यमुना के शीतकालीन प्रवास के साथ-साथ राज्य के इकलौते शनि मंदिर के कारण वर्षभर श्र(ालु यहाँ आते रहते है। यमुना जी की घाटी में बसा यह क्षेत्र                           प्राकृतिक सुंदरता का खजाना लिए है। यदि शासन-प्रशासन इसका उचित प्रचार-प्रसार करें तो यात्री और बड़ी संख्या में पर्यटक व श्र(ालु यहां पहुंच सकते हैं।
कैसे पहुंचे - हरिद्वार से बाया )षिकेश होते बड़कोट, जानकीचट्टी होते हुए 222 किमी का सफर कर खरसाली पहुंचा जाता है। एक दूसरा रास्ता देहरादून-मसूरी-नैनबाग-बड़कोट होते हुए भी है। इस मार्ग से विश्वप्रसि( पर्यटक स्थल मसूरी के भी दर्शन किए जा सकते हैं।

पाण्डुकेश्वर में यज्ञोपवीत, त्रियुगीनारायण
में विवाह

 शीतकाल पर्यटन एवं चार धाम यात्रा को बढ़ावा देने के उद्देश्य से उत्तराखण्ड सरकार ने लुभावने धार्मिक पैकेज घोषित करने जा रही है। आॅफ सीजन में भगवान बदरीविशाल के दर्शन को आने वाले यात्रियों के लिए पाण्डुकेश्वर मंदिर में यज्ञोपवीत संस्कार व बाबा केदार के दर पर मत्था टेकने वालों के लिए त्रियुगीनारायण मंदिर में विवाह संस्कार की मुफ्त सुविधा मुहैया करवाई जायेगी। इस धार्मिक पैकेज की खासियत यह है कि ये संस्कार बदरीनाथ व केदारनाथ मंदिर के धर्माधिकारियों व वेदपाठियों की मौजूदगी में होंगे जिनका आयोजन श्री बदरीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति करेगी। इसके अलावा गंगोत्री व यमुनोत्री की शीतकालीन यात्रा के धार्मिक पैकजों पर भी विचार-विमर्श किया जा रहा है ताकि धार्मिक संस्कारों के रियायती पैकेज की डोर भक्तों को देवभूमि की ओर खीच सकें। धर्मशास्त्रों के अनुसार भगवान विष्णु के धाम में यज्ञोपवीत ;जनेऊद्ध संस्कार का काफी महत्व होता है, लिहाजा शीतकाल में बदरीविशाल के दर्शन को आने वाले भक्तों के लिये पाण्डुकेश्वर स्थित योगधाम बदरी मंदिर में इस महत्वपूर्ण संस्कार को मुफ्त करने का प्रस्ताव रहेगा। जबकि बाबा केदार के भक्तों को केदारघाटी में स्थित त्रियुगीनारायण मंदिर में विवाह संस्कार का निशुल्क धार्मिक पैकेज उपलब्ध करवाया जायेगा। दरअसल धार्मिक मान्यता है कि त्रियुगीनारायण मंदिर में ही त्रेतायुग में भगवान शिव और पार्वती का विवाह हुआ था। विवाह के दौरान देवताओं ने अपनी शक्ति से वेदी में विवाह अग्नि पैदा की थी जो आज भी प्रज्जवलित है। इसी कारण मंदिर में विवाह बधंन में बंधना अति शुभ व सौभाग्य माना जाता है।

शनिवार, 6 दिसंबर 2014

उठाणों वक्त ऐगो...

उठा जागा उत्तराखंडियो, सौं उठाणों वक्त ऐगो...


उत्तराखंड राज्य के लिए यह गौरव की बात है कि उत्तराखण्डी लोकगीतों के सर्वशिरोमणि श्री नरेन्द्र सिंह नेगी पद्म पुरस्कार के लिए चयनित नहीं हुआ यह क्यों आज कोई बता दे क्या उनकी साधना में कोई कमी रह गई यहा फिर कुछ ओर?
उत्तराखंड के लिए उनके योगदान को आज भूला नहीं जा सकता है क्योंकि उन्होंने सामाज में व्याप्त कुरीतियों जैसे शराब, भ्रष्टाचार, बलिप्रथा, अंधविश्वास जैसे मुद्दों पर कई गीत लिखे और इनको समाज से समूल उखाड़ फेंकने का प्रयत्न किया। पर्वतीय प्रदेश होने के नाते उत्तराखण्ड में प्राकृतिक संसाधनों का अनावश्यक दोहन और जल, जंगल और जमीन की रक्षा हेतु नेगी जी ने अपने विभिन्न गीतों के माध्यम से समय समय पर लोगों तक सदेंश पहुंचाया। उत्तराखण्ड की सबसे बड़ी समस्या ष्पलायनष् और उससे होने वाले दर्द को नेगी जी ने जिस आत्मीयता और भावों से अपने गीतों के माध्यम से उकेरा और लोगों तक पहुंचाया उसे कोई विरला ही कर सकता है। अलग प्रांत उत्तराखण्ड की मांग में उठा उत्तराखण्ड आंदोलन भी नेगी जी के गीतों से अछूता नहीं रहा.. क्यों भूल गये क्या ष्उठा जागा उत्तराखंडियो, सौं उठाणों वक्त ऐगो...ष् और ष्भैजी कख जाणा छा तुम लोग, उत्तराखंड आंदोलन मा...ष् गीतों को जो उस दौरान बच्चों बच्चों की जुबान पर रहते थे। इतना ही नहीं उस समय उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा आदोंलनकारियों के दमन और बर्बरता के विरोध में नेगी जी ने हर उत्तराखण्डी की भावनाओं और दुख को ष्तेरा जुल्मों कौ हिसाब चुकौंल एक दिन...ष् गीत के माध्यम से लोगों तक पहुंचाया।
बता दें कि उत्तराखण्डी लोकगीतों के सर्वशिरोमणि नरेन्द्र सिंह नेगी जिनका नाम लिये बिना आज उत्तराखण्डी गीत और संगीत का परिचय अधूरा है, ने सन् 1974 में गढ़वाली लोकगीत और स्वरचित गीत गायन प्रारंभ किया था। वर्ष 1978 में उनकी गीतयात्रा आगे बढ़कर आकाशवाणी लखनऊ और आकाशवाणी नजीबाबाद के माध्यम से लोगों के दिलों तक पहुंचने लगी। ये वो समय था जब रेडियो ट्रांजिस्टर का प्रयोग अपने चरम पर था और उत्तरप्रदेश का यह पर्वतीय क्षेत्र अपनी कई समस्याओं से जूझ रहा था। ऐसे में श्री नेगी जी ही थे जिन्होने सामाजिक मुद्दों को उठाकर हम पहाड़ी लोगों के अन्दर सोये हुये उदासीनता के पहाड़ को जगाना शुरु किया।
नेगी जी ने सामाज में व्याप्त कुरीतियों जैसे शराब, भ्रष्टाचार, बलिप्रथा, अंधविश्वास जैसे मुद्दों पर कई गीत लिखे और इनको समाज से समूल उखाड़ फेंकने का प्रयत्न किया। पर्वतीय प्रदेश होने के नाते उत्तराखण्ड में प्राकृतिक संसाधनों का अनावश्यक दोहन और जल, जंगल और जमीन की रक्षा हेतु नेगी जी ने अपने विभिन्न गीतों के माध्यम से समय समय पर लोगों तक सदेंश पहुंचाया। उत्तराखण्ड की सबसे बड़ी समस्या ष्पलायनष् और उससे होने वाले दर्द को नेगी जी ने जिस आत्मीयता और भावों से अपने गीतों के माध्यम से उकेरा और लोगों तक पहुंचाया उसे कोई विरला ही कर सकता है। अलग प्रांत उत्तराखण्ड की मांग में उठा उत्तराखण्ड आंदोलन भी नेगी जी के गीतों से अछूता नहीं रहा.. क्यों भूल गये क्या ष्उठा जागा उत्तराखंडियो, सौं उठाणों वक्त ऐगो...ष् और ष्भैजी कख जाणा छा तुम लोग, उत्तराखंड आंदोलन मा...ष् गीतों को जो उस दौरान बच्चों बच्चों की जुबान पर रहते थे। इतना ही नहीं उस समय उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा आदोंलनकारियों के दमन और बर्बरता के विरोध में नेगी जी ने हर उत्तराखण्डी की भावनाओं और दुख को ष्तेरा जुल्मों कौ हिसाब चुकौंल एक दिन...ष् गीत के माध्यम से लोगों तक पहुंचाया। होते करते उत्तराखण्ड बना, नये राज्य के निर्माण के बाद नेगी जी ने पुनरू उत्तराखण्डियों को जागृत किया और अपने गीतों के माध्यम से सभी पहाड़ी भाई-बन्धुओं को मिलजुल कर भाईचारे और एकता से रहने का संदेश दिया।
नेगी जी ने जब देखा कि विकास के जिन स्वर्णिम स्वप्नों के साथ नये राज्य का सृजन किया गया था वे भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद के पाटों के बीच पिसती जा रहें हैं, तो उन्होने अपने गीतों के माध्यम से हमें सत्ता और राजनैतिक गलियारों के अन्दर की वास्तविकता और कई अपसंस्कृतियों से अवगत कराया.. और फिर उसके बाद पर्वतीय क्षेत्रों की उपेक्षा ष्सब्बि धाणि देहरादूण..ष्, चुनाव के समय मतदाताओं से सचेत रहने की अपील ष्हाथन हुसकी पिलाई, फूलन पिलाई रम..ष्, नेताओं की महत्वाकांक्षांयें ष्नेता बणि दिखोलू रे.. ष् और उसके बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री पर व्यंग्य ष्कलजुगी औतारी रे नौछमी नारैणा...ष्, योजनाओं में भ्रष्टाचार और कमीशन का खेल ष्अब कतगा खैल्योष् जैसे गीतों से कई बार जनता-जनार्दन को कुंभकरणी नींद से जगाने का प्रयास किया.लेकिन उनके प्रयासों में कमी रह गई.. हमने उनके गीतों पर सीटियां और तालियां तो बहुत बजायी.. डांस भी बहुत किया... लेकिन हम उत्तराखण्डी ना तो उनके गीतों का मर्म समझ सके और ना उन गीतों की वेदना.. ना तो पलायन रूका ना गलियों मुहल्लों मे पनपती राजनीति और उससे होने वाले आपसी द्वेष... ना शराबखोरी, ना भ्रष्टाचार, ना लोगों में प्रेम भाईचारा स्थापित हो पाया और ना हक-हकूक की लड़ाई के लिये आवाज बुलंद करने की हिम्मत..
26 जनवरी पर दिये जाने वाले पद्म सम्मान के लिये इस बार जो सात नाम भारत सरकार को भेजे गये हैं, उनमें पहाड़ के सबसे बड़े गायक नरेंद्र सिंह नेगी जी का नाम नहीं है। इस सूची में ऐसे-ऐसे नाम हैं जिनकी संस्तुति पहले भी कई-कई बार की जा चुकी है। अब पद्म पुरस्कार की बात चली है तो एक बात और बता दूं की वर्ष 1970 में जन्मे नवाब साहब उस समय ए, बी, सी, डी सीख रहे थे जब नेगी जी ने सन् 1974 में गढ़वाली लोकगीत गाना प्रारंभ किया था... जब नवाब साहब की कई फिल्में एक के बाद एक करके पिट रही थी उस समय श्री नेगी जी अपने गीतों से लोगों को जागृत कर रहे थे... बात केवल नवाब साहब की नहीं है फेहरिस्त बहुत लम्बी है.. नेगी जी के व्यक्तित्व और उनकी पहचान के आगे सभी पुरस्कार बहुत छोटे हैं और ऐसा नहीं है कि पद्म पुरस्कार से नेगी जी का कद बहुत ऊंचा हो जायेगा, लेकिन नेगी जी उन लोगों में से हैं जिनके हाथों में पहुंचने के लिये पद्मश्री, पद्मभूषण एवं पद्म विभूषण जैसे पुरस्कार बनाये जाते हैं।
हालांकि नरेंद्र सिंह नेगी जी ने पहाड़ की संस्कृति के लिये इतना काम किया है ।
Vinay KD, Dehradun
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चित्र साभार : श्री कुम्मी घिल्डियाल जी, नई टिहरी
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उत्तराखंड सरकार और हड़ताल

क्या होगा हमारे राज्य का?

राज्य के कर्मचारियों की हैं बेहद अजीबो-गरीब मांगें
राज्य के बनने से व्यक्तिगत और सामूहिक लाभ के हकदार कर्मचारी
फिर हफ्ते में एक दिन अधिक काम करने पर आक्रोश कैसा?
सबको रोगमुक्त करने वाले डाक्टर पहाड़ चढ़ने के नाम पर हो रहे हैं स्वयं रोगी
14 सालों में शिक्षकों के ट्रान्सफर की नीति तक फाइनल नहीं
कलेक्ट्रेट में नौकरी करने के आधार पर कुछ लोग नायब तहसीलदार बनना चाहते हैं !
फिर परीक्षा की तैयारी के बजाय कलेक्ट्रेट में नौकरी की जुगत लगाना ज्यादा मुफीद कदम है!

उत्तराखंड राज्य बनने से लेकर अब तक राज्य में यह क्या हो रहा है यहां के आम उत्तराखंडियों के समझ से शायद परे है। इसके पीछे कारण स्पष्ट है कि राज्य के लिए आंदोलन सभी ने किया और इसका फायदा लेने वालों की लिस्ट कुछ खास लोगों की। अन्य आंदोलनकारी कहां गए और वह क्यो लिस्ट में अपना नाम दर्ज नहीं करवाना चाहते हैं। जबकि राज्य के सभी विभागों के कर्मी आज जब भी आंदोलन करते हैं तो खुद को सार्वजनिक मंचों से राज्य आंदोलनकारी बताते हैं। सरकार भी उनके सामने घुटने टेक देती है और उनकी अजीबो-गरीब मांगों को मांग लेती है। फिर प्रश्न आता है कि आम उत्तराखंडी कहां है और वह क्यों चुप हैं। शायद वह इसलिए कि राज्य बनने के इतने वर्षों बाद भी जब राज्य के निर्माण के पीछे का उद्देश्य पूरा नहीं हुआ तो चुप्पी साधने में ही भलाई है। क्योंकि राजनीति के कुचक्र में वह पीसना नहीं चाहते हैं? राज्य के कर्मचारियों की बेतुकी और अजीबो-गरीब मांगों और वर्तमान सरकार की नीतियों पर इंद्रेश मैखुरी का यह विशेष आलेख।     संपादक 
गलत आदमी की सही बात को मानना लोगों के लिए उतना ही मुश्किल होता है, जितना सही आदमी की गलत बात को हजम करना। उत्तराखंड में कर्मचारियों की हड़ताल के मामले में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हरीश रावत की स्थिति भी ऐसी ही है, जैसी गलत आदमी की सही बात कहने पर होती है। यह सही बात है कि आये दिन होने वाली कर्मचारियों की हडतालों में जो मांगें हैं, वे बेहद विचित्र हैं। पर हरीश रावत उन पर ऊँगली उठाने के लिए सही व्यक्ति नहीं हैं। अब देखिये सचिवालय के कर्मचारी इसलिए हड़ताल पर उतर आये हैं क्यूंकि राज्य सरकार ने सचिवालय में 5 दिन के कार्यदिवस के बजाय 6 दिन का कार्यदिवस कर दिया। इस आदेश के खिलाफ सचिवालय के कर्मचारियों का हड़ताल पर उतरना बेहद विचित्र है। जब पूरे प्रदेश में कर्मचारी हफ्ते में 6 दिन काम करते हैं तो सचिवालय में ही कर्मचारियों को 5 दिन क्यूँ काम करना चाहिए?और यदि कार्यदिवस 5 दिन के बजाय 6 हो गए तो ऐसा होना कर्मचारी विरोधी कैसे है?आम तौर पर ऐसे मौकों पर कर्मचारी लोग उत्तर प्रदेश का उदाहरण देने लगते हैं। लेकिन यदि उत्तर प्रदेश ही नजीर है तो अलग राज्य की जरुरत ही क्या थी?उत्तराखंड यदि उत्तर प्रदेश का ही हिस्सा होता तो अपने निजी वाहनों पर ‘सचिवालय’ लिखवाने वालों और सचिवालय कर्मी होने के नाते स्वयं को विशेषाधिकार संपन्न समझने वालों में से कितने इस स्थिति में होते?यह अलग राज्य बनने का ही प्रतिफल है कि कर्मचारियों की अच्छी-भली संख्या राज्य सचिवालय में पहुँच सकी। बेशक राज्य बनने में कर्मचारियों का भी योगदान है, परन्तु राज्य बनने का लाभ भी तो उनके हिस्से में आया है। तो फिर जिस राज्य के बनने से व्यक्तिगत और सामूहिक लाभ के हकदार कर्मचारी हुए, उस राज्य के लिए हफ्ते में एक दिन अधिक काम करने पर आक्रोश कैसा?
ऐसा नहीं है कि ऐसी विचित्र मांग,सिर्फ सचिवालय कर्मियों की ही है। इससे पहले कलेक्ट्रेट के मिनिस्टीरियल कर्मचारियों ने 50 दिन के करीब हड़ताल की। उनकी प्रमुख मांगों में से एक मांग यह थी कि कलक्ट्रेट के मिनिस्टीरियल कर्मचारियों को नायब तहसीलदार के पदों पर दस प्रतिशत पदोन्नति दी जाए। यह बेहद अजीबो-गरीब है। एक तरफ युवा बेरोजगार रात-दिन एक करके लोकसेवा आयोग की परीक्षा पास करके नायब तहसीलदार के पदों पर नियुक्ति के योग्य हो पायेंगे और दूसरी तरफ बिना कोई परीक्षा दिए सिर्फ कलेक्ट्रेट में नौकरी करने के आधार पर कुछ लोग नायब तहसीलदार बनना चाहते हैं ! उत्तराखंड राज्य बनने के बाद नायब तहसीलदार नियुक्त होने वाले तमाम लोग आज एस.डी.एम. और ए.डी.एम.जैसे पदों तक पहुँच चुके हैं। यह अलग तरह का सरकारी गोरखधंधा है तो इस तरह देखें मिनिस्टीरियल कर्मचारी नायब तहसीलदार होकर एस.डी.एम.,ए.डी.एम. भी हो जायेंगे। तो फिर प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी के बजाय कलेक्ट्रेट में नौकरी की जुगत लगाना ज्यादा मुफीद कदम है! उक्त दोनों ही हड़तालें उत्तराखंड उच्च न्यायालय द्वारा सरकार को हड़ताली कर्मचारियों पर एस्मा ;म्ेेमदजपंस ेमतअपबमे उंपदजंपदमदबम ंबजद्ध लगाने के निर्देश के बाद ही वापस हुई।
उत्तराखंड में राज्य कर्मियों की बात हो तो वह शिक्षकों की चर्चा के बिना अधूरी रहती है। राज्य में शिक्षा महकमे की सर्वाधिक चर्चा ट्रान्सफर को लेकर रहती है। शिक्षा महकमें में ट्रान्सफर कितना दुष्कर कार्य है, इसका अंदाजा इस बात से लगता है कि 14 सालों में शिक्षकों के ट्रान्सफर की नीति तक फाइनल नहीं हो सकी है। पिछले दिनों देहरादून में राजकीय शिक्षक संघ के जिला अधिवेशन में शिक्षकों ने मांग की कि उन्हें दुर्गम भत्ता दिया जाए। यह विडम्बना ही कही जायेगी कि जिस राज्य की मांग ही दुर्गम पर्वतीय क्षेत्रों की दिक्कतों को सुगम करने के लिए हुई हो,उस राज्य के निवासी, शिक्षक होकर,उस राज्य के दुर्गम क्षेत्रों में सेवा करने के लिए अतिरिक्त भत्ते की मांग करें। जिन क्षेत्रों को सरकारी भाषा में दुर्गम करार दिया जा रहा है, क्या वहां के वाशिंदों को भी इसी तरह के अलग भत्ते की मांग करनी चाहिए? डाक्टरों की हालत तो शिक्षकों से भी चार हाथ आगे है। सबको रोगमुक्त करने का जिम्मा सँभालने वाले डाक्टर पहाड़ चढ़ने के नाम पर स्वयं रोगी हो जा रहे हैं।
तो क्या मैं उत्तराखंड सरकार और उसके मुखिया हरीश रावत के टाईप की बात कह रहा हूँ। जी नहीं, मैं तो कह रहा हूँ कि हरीश रावत यह बात कहने के लिए गलत आदमी हैं। स्कूल के दिनों में चाँद को खिलौने के रूप में मांग रहे बच्चे वाली कविता,याददाश्त में थोड़े धुंधले रूप में है। राज्य बनने के बाद के तेरह साल में हरीश रावत की स्थिति भी उस बच्चे जैसी ही है, बस उन्हें चाँद नहीं मुख्यमंत्री की कुर्सी चाहिए थी, हर हाल में,किसी भी कीमत पर। राज्य आन्दोलन के जमाने में वे आन्दोलनकारियों से कह रहे थे,राज्य नहीं हिल काउन्सिल होनी चाहिए। राज्य बन गया तो,वे कहने लगे-मुझे मुख्यमंत्री होना चाहिए। राज्य बनने के बाद उन्होंने मुख्यमंत्री बनने के लिए क्या-क्या न किया। अब ऐसा आदमी कर्मचारियों से कह भी दे कि तुम राज्य की सोचो तो वह नैतिक ताकत उसके शब्दों में कहाँ से आएगी जो असर कर सके?और बात सिर्फ हरीश रावत की ही नहीं है,कांग्रेस और भाजपा दोनों की ही यही स्थिति है। याद करिए भाजपा राज में मुख्यमंत्री पद से हटाये गए भुवन चन्द्र खंडूड़ी 2011 में इस बात के लिए अड़ गए कि चाहे 6 महीने के लिए बनाओ पर हर हाल में, मुख्यमंत्री बनाओ,नहीं तो पार्टी छोड़ता हूँ और भाजपा को उनकी इस कुर्सी हट के सामने समर्पण करना पड़ा था। कांग्रेस सत्ता में आये या भाजपा,सरकार बनते ही कार्यकर्ताओं को सरकार में एडजस्ट करने की बात ऐसे चलने लगती है जैसे यह उनका संवैधानिक हक हो और सरकार का सबसे जरुरी उत्तरदायित्व यही हो! कांग्रेस सरकार के एक मंत्री आये दिन कोप भवन में जाने के लिए सुर्खियों में होते हैं और हर बार उनके कोपभवन के पीछे खनन के कारोबार की चर्चा चल पड़ती है।
जो सरकार में हैं, वे अपनी सत्ता के लिए किसी भी हद को पार करने को तैयार रहेंगे और अपने मातहतों को नैतिकता,कर्तव्यपरायणता की घुट्टी पिलायेंगे तो यह हमेशा गलत आदमी के मुंह से कही गयी सही बात साबित होगी,जो किसी को हजम नहीं होगी पर इस सब की कीमत तो चुकानी पड़ेगी राज्य को, राज्य के आम लोगों को आखिर कब तक?

देवभूमि में आंदोलन-आंदोलन

पुराणों-वेदों में उत्तराखंड को देवभूमि कहा जाता है। देवभूमि शब्द का अर्थ देवताओं का वास है। कहते है कि देवभूमि के कण-कण में भगवान शंकर का वास है इसलिए भगवान शंकर के साथ असंख्य देवता भी यहां वास करते है। जहां भगवान शंकर के वास के बात आती है तो वहां स्वाभाविक रूप से राक्षसों का रहना भी स्वाभाविक है। यही कारण है कि यहां दंतकथाओं में कई कथाएं प्रचलित है। उत्तराखंड राज्य बनने से पहले यह भू-भाग उ.प्र. राज्य का अंग था, लेकिन यहां की हमेशा से ही उपेक्षा होती थी। यही कारण रहा कि इस भू-भाग के लोगों ने पृथक राज्य के लिए एक लंबा आंदोलन किया। उसी आंदोलन का परिणाम था कि 2000 में इसे पृथक राज्य का दर्जा मिला। आंदोलनों के इतिहास में राज्यवासियों को दुःख-दर्द और जो वेदनाएं सहनी पड़ी उसका दर्द वह आज भी महसूस कर रहे हैं। यहां इस बात का जिक्र इसलिए किया जा रहा है कि राज्य गठन से लेकर अब तक देश के इतिहास में शायद ऐसा कहीं नहीं होता है कि जहां आंदोलनों का दौर नहीं थमा। आखिर इसके पीछे क्या कारण है। इन पर चर्चा करने के लिए ही उक्त पक्ंितयों को लिखने पर मजबूर हुआ। उत्तराखंड राज्य निर्माण से लेकर इससे पहले से राज्य के हालातों पर नजर रखने के बाद यह बात स्पष्ट होती है कि राज्य के नीति-निर्माता राज्य के निर्माण की मूल भावना को समझ ही नहीं पाए। यही कारण है कि आंदोलनों का दौर आज दिन तक नहीं थमा। आंदोलनों का दौर तो देश के विभिन्न राज्य में या तो किसी बड़ी समस्या के समय उत्पन्न होते हैं या फिर राज्यों के विधानसभा सत्र के दौरान। वहीं उत्तराखंड राज्य में तो नित्य ही आंदोलनों का दौर रहता है। इसके पीछे असल कारण क्या है यह एक यक्ष प्रश्न है और इस पर सोचने विचारने की आवश्यकता है। इस मामले में जब कई लोगों से वार्ता की गई तो लोगों का कहना था कि देश के अन्य राज्यों में भी आंदोलन होते हैं पर वह उत्तराखंड राज्य जैसे नहीं यहां तो नित्य आंदोलन होते हैं और हमारे भाग्यविधाता सोये रहते है। हमारे भाग्यविधाताओं को तो सिफ अपनी जेबे भरने और एक दूसरे को नीचा दिखाने की होड लगी रहती है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण राज्य में अभी तक के मुख्यमंत्रियों का बदलना है। जानकारों की माने तो राज्य के भाग्यविधाता चाहे तो राज्य में हो रहे आंदोलनों को एक दिन में समाप्त करवा सकते हें लेकिन वह ऐसा जनबूझकर नहीं करवाना चाहते है। उन्हे तो राज्य की जनता को परेशानी में दिखना अच्छा लगता है।