बुधवार, 18 फ़रवरी 2015

मुख्यमंत्री हरीश रावत ने बगैर किसी सुरक्षा घेरे को साथ

मुख्यमंत्री हरीश रावत ने बगैर किसी सुरक्षा घेरे को साथ  

बुधवार को मुख्यमंत्री हरीश रावत ने बगैर किसी सुरक्षा घेरे को साथ लिए निजी वाहन से देहरादून के शहर व बाहरी क्षेत्र का भ्रमण कर विशेष रूप से सफाई व्यवस्था का जायजा लिया। प्रातः लगभग 7ः30 बजे मुख्यमंत्री अपने कक्ष से बाहर निकले और अपने निजी वाहन में बैठ गए। उनके साथ सलाहकार संजय चैधरी व मीडिया समन्वयक राजीव जैन थे। मुख्यमंत्री ने अन्य किसी भी स्टाफ को साथ आने से मना कर दिया। वे पहले तिलक रोड़ और फिर धामावाला गए। धामावाला में मुख्यमंत्री ने डीएम देहरादून रविनाथ रमन को बुला लिया। वहां से फिर डिस्पेंसरी रोड़, तहसील चैक, रामुला बिल्डिंग, मुस्लिम कालोनी, कारगी चैक, माजरा, निरंजनपुर मंडी में सड़कों, नालियों की साफ-सफाई व्यवस्था का निरीक्षण किया। सीएम ने आईएसबीटी, बल्लीवाला चैक व बल्लुपुर चैक में निर्माणाधीन फ्लाईओवर के काम को भी देखा। माजरा में सीवर लाईन के लिए खुदी सड़कों से लोगों को हो रही दिक्कतों को देखते हुए एडीबी के अधिकारियों को जल्द सुधार करने के निर्देश दिए। मुख्यमंत्री ने कारगी में राशन की दुकान पर राशन के लिए खड़े लोगों से भी बातचीत की। सीएम ने अपने शहर भ्रमण के दौरान जगह-जगह काम कर रहे सफाई कमिर्यों से भी बातचीत कर उनकी समस्याओं के बारे में जानकारी ली। 
मुख्यमंत्री ने देहरादून शहर व इसके बाहरी क्षेत्रों का औचक निरीक्षण करने के बाद बीजापुर में संबंधित अधिकारियों के साथ फाॅलोअप बैठक की। इसमें नगर निगम देहरादून के मेयर विनोद चमोली, नगर निगम में नेता प्रतिपक्ष नीलू सहगल, सचिव शहरी विकास डीएस गब्र्याल, डीएम देहरादून रविनाथ रमन, वीसी एमडीडीए मीनाक्षी सुंदरम, अपर सचिव सूचना व खाद्य नागरिक आपूर्ति चंदे्रश कुमार, नगर निगम के एमएनए नितिन भदौरिया शामिल हुए। मुख्यमंत्री ने कहा कि नगर निगम में सम्मिलित देहरादून के बाहरी क्षेत्रों में समुचित सफाई व्यवस्था के लिए शासन स्तर से नगर निगम की सहायता करनी होगी। उन्होंने सचिव शहरी विकास को इसके लिए आवश्यक कार्यवाही करने के निर्देश दिए। सीएम ने कहा कि वैसे तो देहरादून को लेकर अनेक योजनाएं प्रस्तावित हैं परंतु तात्कालिक सुधार के काम पर विशेष फोकस करना होगा। नगर निगम को कूड़ा उठाने की आवश्यकतानुसार संख्या में आधुनिक गाडि़यां उपलब्ध करवाई जाए। मुख्य मार्गों के लिए बड़ी गाडि़यां व छोटे मार्गों के लिए रिक्शा दिए जाएं। नगर निगम को सेनेटरी इंस्पेक्टर, पूर्णकालिक चिकित्सक, सफाई कर्मचारी उपलब्ध करवाने की व्यवस्था की जाए। 
मुख्यमंत्री ने कहा कि सरकार के लिए प्रत्येक व्यक्ति समान रूप से महत्वपूर्ण है। मुख्य मार्गों के साथ ही आंतरिक व छोटे मार्गों की भी समुचित सफाई पर ध्यान दिया जाए। जगह-जगह निजी प्लाटों में कचरा फेंके जाने पर रोक लगे। पर्याप्त संख्या में कचरापात्र उपलब्ध हों ताकि लोग कचरा इधर उधर न फेंके। शहर के आंतरिक ड्रेनेज की व्यवस्था भी सुधारी जाए। इसके लिए अगले बजट में अलग से प्राविधान रखा जाए। यातायात में बाधा बन रहे व लोगों की सुरक्षा को खतरा बन रहे बिजली के खम्भों को तुरंत हटाया जाए। सुरक्षित ट्रांसफार्मरों के लिए स्मार्ट तरीका विकसित किया जाए। सीएम ने सख्त शब्दों में कहा कि यह एसएसपी की जिम्मेवारी होगी कि नदियों के किनारे बनाए जा रहे पुश्तों पर अतिक्रमण न हो। साथ ही कहीं पर कोई नया अतिक्रमणन न होने पाए। जिलाधिकारी सुनिश्चित करें कि विभिन्न विभागों द्वारा काम कराए जाने के बाद सड़कों पर मलबा न छोड़ा जाए।
santosh

मंगलवार, 17 फ़रवरी 2015

चार धाम की रौनक

इस साल लौटेगी चार धाम की रौनक


जून 2013 की जलप्रलय के बाद से उत्तराखंड के पर्यटन और तीर्थाटन पर बुरा असर पड़ा है. इसमें चार धामों की यात्रा पर संकट खड़ा हो गया था, लेकिन आगामी वर्ष में बदरीनाथ यात्रा बेहतर चलने के संकेत मिलने लगे हैं. राज्य में सरकार ने खस्ता हाल मार्गों की मरमत पर ध्यान दिया तो अगले साल से उत्तराखंड का पर्यटन-तीर्थाटन पटरी पर दौड़ने लगेगा. उत्तराखंड के प्रतिष्ठित अखबार अमर उजाला के अनुसार, आगामी वर्ष में धाम में दर्शनों के बाद रहने के लिए तीर्थयात्रियों की ओर से यहां होटल और लॉज मालिकों को एडवांस बुकिंग मिलने लगी हैं. बताया जा रहा है कि अभी तक धाम के होटल, लॉज व्यवसायियों को करीब दस हजार तीर्थयात्रियों के ठहरने और खाने की बुकिंग मिल गई हैं. बदरीनाथ में मई २०१५ माह में कपाट खुलने के तुरंत बाद दो श्रीमद्देवी भागवत और यज्ञ भी प्रस्तावित हैं. बदरीनाथ में होटल व्यवसायी डा. जमुना प्रसाद रैवानी का कहना है कि आगामी वर्ष की तीर्थयात्रा के लिए दिल्ली के करीब तीन हजार तीर्थयात्रियों के बदरीनाथ धाम आने की बुकिंग मिली हैं. इस वर्ष कुछ तीर्थयात्री बदरीनाथ धाम की तीर्थयात्रा पर आए थे, जो होटल में बुकिंग करके चले गए हैं. धाम में जैन धर्मशाला, सरोवर पोर्टिको, स्नो क्रेस्ट, नारायण पैलेस, बदरी बिला और शंकर श्री में तीर्थयात्रियों ने मई से जून माह तक की बुकिंग कराई हैं. बदरीनाथ में होटल व्यवसायी शंकर श्री, अमित त्रिपाठी और सरोवर पोर्टिको के मैनेजर हरि बल्लभ सकलानी का कहना है कि एडवांस बुकिंग मिलने से आगामी वर्ष की तीर्थयात्रा बेहतर चलने की उम्मीद जगी है. कोलकाता के श्रद्धालु मनोज सराफ ने बदरीनाथ धाम की आगामी दस साल तक की अभिषेक पूजा और केदारनाथ में रुद्राभिषेक पूजा के लिए एडवांस बुकिंग कर ली है. इसके लिए श्रद्धालु ने बदरीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति को दस लाख रुपये नगद भुगतान भी कर दिया है. एक श्रद्धालु के सोजन्य से तो आगामी दस वर्ष तक बदरीनाथ की अभिषेक और केदारनाथ की रुद्राभिषेक पूजा संपन्न कराई जाएगी. बदरीनाथ धाम की तीर्थयात्रा के आगामी वर्ष बेहतर चलने की उम्मीद है. उम्मीद है कि यात्रा शुरू होने से पहले बदरीनाथ हाईवे भी चाक-चौबंद हो जाएगा. धाम में पहुंचने वाले तीर्थयात्रियों को पूरी सुविधाएं दी जा रही हैं. केदारनाथ धाम की तीर्थयात्रा भी आगामी वर्ष पटरी पर लौट जाएगी.
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santoshbanjwal

सोमवार, 16 फ़रवरी 2015

अप्रैल में खुलेंगे आस्था और श्रद्वा के द्वार

                               अप्रैल में खुलेंगे आस्था और श्रद्वा के द्वार


24 अप्रैल को खुलेंगे केदारबाबा के कपाट
26 अप्रैल को खुलेंगे बदरीनाथ धम के कपाट, 9 अप्रैल को निकाला जाएगा तिलों का तेल, 21 अप्रैल को खुलेंगे गंगोत्राी-यमुनोत्राी के कपाट


19 अप्रैल को उखीमठ स्थित ओंकारेश्वर मंदिर प्रांगण में होगी भैरव पूजा, 20 अप्रैल को केदारबाबा की डोली जाएगी गुप्तकाशी, 21 अप्रैल को पफाटा, 22 अप्रैल को गौरीकुंड, 23 को रात्रि विश्राम के लिए केदारनाथ और 24 अप्रैल को सुबह 8 बजकर 50 मिनट पर खुलेंगे केदार बाबा के कपाट 

प्राचीन मान्यताओं और परंपराओं के अनुसार इस साल उत्तराखंड के चारधामों के कपाट अप्रैल माह के अंतिम सप्ताह में श्र(ालुओं के लिए खोल दिए जाएंगे। भारत के चारधमों में से सर्वश्रेष्ठ धाम श्री बदरीनाथ के कपाट 26 अप्रैल, श्री केदारनाथ के 24 अप्रैल और गंगोत्राी-यमुनोत्राी के कपाट अक्षय तृतीया को 21 अप्रैल को श्र(ालुओं के दर्शनार्थ खोल दिए जाएंगे। उत्तराखंड के चार धामों के कपाट खुलने की तिथि घोषित होने के साथ ही यहां भक्ति की बयार अभी से बहने लग गई है। चारधम यात्रा की तैयारियों के लिए शासन-प्रशासन जहां तैयारियों में जुट गया है वहीं स्थानीय लोग भी तैयारियों में लग गये हैं। वर्ष 2013 में आयी हिमालयी सुनामी के बाद उत्तराखंड के चारधमों में तीर्थयात्रियों की आमद कम होने से स्थानीय व्यापार पर भारी असर पड़ा था। लेकिन इस साल यात्रा को लेकर उम्मीद जताई जा रही है कि यात्रा अपने उत्कर्ष पर रहेगी।
आज महाशिवरात्रि के पावन पर्व पर प्राचीन मान्यताओं और परंपराओं का निर्वहन करते हुए पंच केदार के गद्दीस्थल उफखीमठ स्थित ओंकारेश्वर मंदिर परिसर में केदारबाबा के कपाट खुलने की तिथि घोषित की गयी। तिथि के अनुसार इस साल केदारबाबा के कपाट 24 अप्रैल को प्रातः 8 बजकर 50 मिनट पर श्र(ालुओं के लिए खोले दिये जाएंगे। श्री बदरीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति के कार्याध्किारी सुनील तिवाडी ने बताया कि ओंकारेश्वर मंदिर में आज महाशिवरात्रि के पर्व प्राचीन परंपराओं का निर्वहन करते हुए विध्-िविधन के साथ केदानाथ के रावल भीमाशंकर लिंग श्री बदरीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति के मुख्य कार्याध्किारी अनिल शर्मा, वेद पाठियों, तीर्थपुरोहितों की उपस्थिति में केदारनाथ के कपाट खुलने की तिथि तय की गई। इसके साथ की केदारबाबा की डोली प्रस्थान के लिए भी तिथि तय की गई। केदारबाबा की डोली प्रस्थान से पूर्व 19 अप्रैल को उफखीमठ स्थित ओंकारेश्वर मंदिर प्रांगण में भैरव पूजा के साथ कपाट खुलने की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाएगी। 20 अप्रैल को केदारबाबा की डोली ओंकारेश्वर मंदिर उफखीमठ से प्रस्थान कर गुप्तकाशी के विश्वनाथ मंदिर में रात्रि विश्राम करेगी। 21 अप्रैल को गुप्तकाशी से चलकर पफाटा में और 22 अप्रैल को गौरीकुंड में रात्रि विश्राम के बाद 23 को रात्रि विश्राम के लिए केदारबाब की डोली केदारनाथ पहुंचेगी। 24 अप्रैल को सुबह 8 बजकर 50 मिनट पर केदार बाबा के कपाट श्र(ालुओं के लिए खोल दिए जाएंगे।
महाशिवरात्रि पर्व पर उफखीमठ स्थित ओंकारेश्वर मंदिर में आयोजित धर्मिक कार्यक्रम का आयोजन किया गया। प्राचीन परंपराओं का निर्वहन करते हुए केदारनाथ के कपाट खुलने की तिथि तय की गई। इस अवर पर केदारनाथ मंदिर के रावल श्री भीमाशंकर लिंग, केदारनाथ मंदिर के पुजारी राजशेखर लिंग, शंकर लिंग, श्री बदरीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति के मुख्य कार्याध्किारी अनिल शर्मा, कार्याधिकारी सुनील तिवाडी, वेदपाठी स्वयंबर प्रसाद, विधयक केदारनाथ शैला रानी रावत, पूर्व विधयक आशा नौटियाल,  मंदिर समिति के आर.सी. तिवाड़ी, मंदिर समिति के अभियंता गिरीश देवली,श्री गौड़ सहित कई लोग उपस्थित थे।
उल्लेखनीय है कि भारत के चारधामों में से सर्वश्रेष्ठ धम श्री बदरीनाथ के कपाट इस साल 26 अप्रैल को ब्रहममुहुर्त में खोले जाएंगे। बसंतोत्सव के मौके पर टिहरी राजदरबार में भगवान बदरीविशाल के कपाट खुलने की तिथि घोषित की गई। भगवान बदरीविशाल के कपाट खुलने की तिथि घोषित करने के साथ ही तिलों का तेल निकालने की तिथि भी निकाली गई। तिलों का तेल 9 अप्रैल को टिहरी राज दरबार में निकाला जाएगा। आज टिहरी नरेश महाराजा मनुजेंद्र शाह ने कपाट खुलने की तिथि की घोषणा की।
टिहरी राज दरबार में बसंतोत्सव पर भगवान बदरीविशाल का तेल कलश ‘गाडू घड़ा’  डिमरी धर्मिक पंचायत के प्रतिनिध्यिों द्वारा पहुंचाया गया। भगवान बदरी विशाल की पूजा के लिए प्रयुक्त होने वाले तिलो के तेल को पिरोने की भी तिथि 9 अप्रैल को निश्चित की गई।  निश्चित तिथि पर टिहरी की राजरानी व क्षेत्रा की अन्य सुहागिन महिलाओं के द्वारा तिलों को पिरोकर तेल निकाला जाएगा। यही तेल ‘गाडू घड़ा’ में भरकर बदरीनाथ के लिए प्रस्थान करेगा।
महत्वपूर्ण बात यह है कि इसी ‘गाडू घड़ा’ में भरे हुए तिल के तेल से छह माह यात्रा काल के दौरान भगवान बदरी विशाल की महाभिषेक पूजा संपन्न की जाएगी। दूसरी ओर, कपाट खुलने की तिथि साथ ही अन्य परंपराएं भी प्राचीन काल से जुड़ी हुई हैं। जहाॅ एक   ओर टिहरी नरेश के दरबार में बदरीनाथ के कपाट खुलने की तिथि घोषित   की गयी।
वहीं दूसरी ओर, उत्तराखंड के चारधमों में गंगोत्राी-यमुनोत्राी के कपाट अक्षय तृतीया पर 21 अप्रैल को खोले जाएंगे। इन दोनों धमों के कपाट प्रत्येक वर्ष अक्षय तृतीया को खोले जाते हैं।

आज होगी केदारनाथ के कपाट खुलने की तिथि घोषित

आज होगी केदारनाथ के कपाट खुलने की तिथि घोषित



कल (आज) महाशिवरात्रि के पावन पर्व पर पंच केदार के गद्दीस्थल उफखीमठ स्थित ओंकेारेश्वर मंदिर परिसर में केदारबाबा के कपाट खुलने की तिथि घोषित की जाएगी। यह जानकारी देते हुए श्री बदरीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति के कार्याध्किारी सुनील तिवाडी ने बताया कि ओंकारेश्वर मंदिर में महाशिवरात्रि के पर्व पर विध्-िविधन के साथ केदारनाथ के कपाट खुलने की तिथि तय की जाएगी। प्रतिवर्ष महाशिवरात्रि पर ओंकेरेश्वर मंदिर में यह तिथि तय की जाती है। इस कार्यक्रम में केदानाथ के रावल भीमाशंकर लिंग श्री बदरीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति के मुख्य कार्याध्किारी अनिल शर्मा सहित अन्य लोग मौजूद रहेंगे। 2013 में केदार त्रासदी के बाद इस वर्ष तीर्थयात्रियों के अध्कि मात्रा में आने की उम्मीद जताई जा रही है। इसके लिए मंदिर समिति अभी से तैयारियों में लग गई है। यात्रा शुरू होने से पूर्व सभी तैयारियों को पूरा कर लिया जाएगा। उल्लेखनीय है कि बसंत पंचमी के मौके पर टिहरी राजदरवार में बदरीनाथ के कपाट खुलने की तिथि तय की गई। इस साल 26 अप्रैल बदरीनाथ धम के कपाट खुलेंगे। उत्तराखंड के चारधमों में से गंगोत्राी और यमुनोत्राी के कपाट 21 अप्रैल को अक्षय तृतीया के दिन परंपराओं के अनुसार खुलेंगे।

शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2015

आखिर कहां हैं इन दिनों रावल

आखिर कहां हैं इन दिनों रावल

शीतकाल में जोशीमठ रहने के लिए हुआ था प्रस्ताव पारित ?

विश्व प्रसि( धम बदरीनाथ के मुख्य पुजारी रावल के शीतकाल में जोशीमठ या पांडुकेश्वर में रहने के लिए बदरीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति के पारित प्रस्ताव के अमल में नहीं आने से एक बार रावल को लेकर सवाल खड़े होने लगे हैं। बीते साल दिल्ली में एक होटल में मुख्य पुजारी रावल द्वारा एक युवती के साथ यौन उत्पीड़न का मामला सुर्खियों में आने से बदरीनाथ धम की मर्यादा को शर्मशार होना पड़ा था। यही वजह रही कि इस घटना के बाद मंदिर समिति ने रावलों के इतिहास को खंगालते हुए 6 माह कपाट बंद होने के बाद रावल को जोषीमठ में रहने के लिए प्रस्ताव पारित किया था। लेकिन बीते साल 27 नवंबर को बदरीनाथ धम के कपाट शीतकाल के लिए बंद हो गए। कपाट बंद होने के साथ ही बदरीनाथ के रावल समिति के प्रस्ताव को ठेंगा दिखाते हुए जोशीमठ से रपफप्फू चक्कर हो गए थे। शीतकाल में रावल कहां हैं और क्या कर रहे हैं। इसको लेकर ध्र्म क्षेत्रा के लोगों में संशय बरकरार है। अलबत्ता बीते 24 जनवरी को बसंत पंचमी के मौके पर रावल अचानक टिहरी नरेश के राज दरवार में प्रकट हो गए। और पिफर कुछ बहाना तलाश कर  एक बार परिदृष्य हो गए हैं। पिछले रावलों के इतिहास पर नजर दौड़ाई जाए तो कई बार रावलों के आचरण को लेकर उंगली उठती रही है। इतिहास इस बात का भी साक्षी है कि समय-समय पर रावल इतने निरंकुश रहे कि उनकी वजह से बदरीनाथ धम की महत्ता को भी ठेस पंहुचती रही। बीते कुछ दशकों से रावल का पद पूरी तरीके से व्यवसायिक होता चला जा रहा है। मान्यता है कि दक्षिण भारत के केरल प्रांत के नंबूदरी पाद ब्राह्मणों में से आजीवन ब्रह्मश्चर्य का व्रत धरण करने वाले युवक को ही रावल पद पर नियुक्त किए जाने की परंपरा है लेकिन बीते कुछ समय से करोड़ों लोगों के आस्था और विश्वास का यह पद महज कमाई के जरिए तक सिमट कर रह गया है। रावल के शीतकाल प्रवास को लेकर समय-समय पर सवाल खड़ें होते रहे हैं। इस मामले पर जब बदरीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति के अध्यक्ष गणेश गोदियाल से जानकारी चाही गई तो उनका कहना था कि रावल के घर में कोई गंभीर रूप से अस्वस्थ है और रावल का दायित्व निभा रहे नायब रावल ईश्वरी प्रसाद नंबूदरी अनुमति लेकर अपने घर गए हैं। गोदियाल का कहना है कि दिल्ली में रावल पर लगे आरोपों का मामला अभी न्यायालय के विचाराध्ीन है इसलिए रावल की नियुक्ति में तकनीकि अड़चने आ रही हैं। लेकिन जल्दी ही रावल को लेकर कोई उपयुक्त समाधन निकाल लिया जाएगा। इस मामले में जानने के लिए मंदिर समिति के मुख्य कार्याधिकारी से संपर्क साधने की कई बार कोशिश की गई लेकिन उनसे संपर्क नहीं पाया। कुल मिलाकर करोड़ों लोगों के श्र(ा व विश्वास के इस पद पर बैठे लोग किस ढंग से ध्र्म जगत पर कुठाराघात करने पर उतारू हैं इसका अंदाजा सहज ढंग से लगाया जा सकता है।

साभार हिंदी दैनिक जन आगाज गोपेश्वर चमोली 

युवाओं का पलायन,गांव खाली


युवाओं का पलायन,गांव खाली

नन्दन बिष्ट
उत्तराखंड राज्य का सत्तर प्रतिशत भाग पर्वतीय है, 80 प्रतिशत जनसंख्या गांवों में निवास करती है। पर्वतीय भूभाग में अधिकांश कृषि भूमि विखरी हुई तथा सीढ़ीनुमा खेतों पर की जाती है। बिखरे खेतों के कारण यहां का किसान खेतों पर खेती नहीं कर पाता है। जिससे अधिकांश भूमि बजंर होती नजर आ रही है। कृषि की ठोस नीति न होने के कारण युवाओं में पलायन का बुखार चढ़ा हुआ है जिससे आए दिन गांव के गांव खाली होते जा रहे है। यदि सरकार द्वारा गंभीरता से कृषि पर पहाड़ को ठोस नीति बनाकर आत्मर्भिर नहीं बनाया जाता है तो गांव के गांव खाली होते जाएंगें और पहाड़ पर पलायन के कारण गंभीर संकट के बादल छा सकते हैं।
उत्तराखंड राज्य को बने 14 साल हो गए हैं लेकिन आई गई सरकारों द्वारा कृषि पर कोई ठोस नीति तैयार नहीं की गई। हांलाकि उत्तराखंड बनने के बाद भूमि सुधार व चकबंदी की बातें तो की गई तथा भूमि सुधार को लेकर उच्च स्तरीय समिति का गठन भी किया गया था लेकिन इस दिशा में कोई ठोस नीति नहींे बन पाई। हांलाकि 2004 में सरकार ने चकबंदी एवं भमि सुधार का गठन भी किया गया था लेकिन उस पर भी कोई अमल नहींे हो पाया। उत्तराखंड राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों में छितरी खेती होने के कारण किसानों को कई समस्याओं से जूझना पड़ता है। एक ही स्थान पर खेती न होने से किसानों को कृषि करने का लाभ नहीं मिल पाता है। हमारा पड़ोसी राज्य शिमला में किसानों के लिए ठोस नीति बनी हुई है ओर चकबंदी से किसानों को काफी लाभ पहुंचा है। अधिकत्तर लोग खेती पर ही निर्भर हैं और उत्तराखंड की तरह पलायन की मार नहीं झेल रहा है। उत्तराखंड के विकास में यदि हम बाधा की बात करते हैं तो सबसे बड़ी बाधा चकबंदी न होना है। यदि उत्तराखंड में कृषि बागवानी की ठोस नीति बनाकर चकबंदी के माध्यम से किसानों को जागरूक किया जाता है तो हम विकास की बात कर सकते है। अन्यथा विकास की बात करना नामुमकिन है। पूरा पहाड़ आज अनाज व बागवानी के लिए मैदानी भाग पर निर्भर है। यहां पर कृषि बागवानी, जड़ी-बूटी, कृषि आधारित लघु उद्योग के साथ ही पशुपालन की योजनाओं के लिए ठोस नीति होनी चाहिए तथा प्रत्येक किसान को सरकार की लाभकारी योजनाओं से सीधे-सीधे जोड़ देना होगा तभी हम पहाड़ के विकास की बात कर सकते हैं। यदि आज हम छितरी हुई कृषि योग्य भूमि को चकबंदी कराकर कृषि व बागवानी के क्षेत्र में विकसित करने में कामयाब हो सके तो पलायन पर अंकुश तो लगेगा ही साथ ही जैविक उत्पादन को बढा़वा देकर कृषि के क्षेत्र में नया आयाम पैदा कर सकते हैं। सरकार को गंभीर होर इस विषय पर पहल करनी होगी।यूं तो उत्तराखंड राज्य बने 14 साल हो गए हैं लेकिन अभी तक भी इस राज्य का अपना भूमि सुधार कानून नहीं बन पाया है। रानैतिक दल तो अपनी रोटी सेंकने के जुगत में लगे रहते हैं लेकिन किसी का ध्यान भी उत्तराखंड के भूमि सुधार कानून को बनाने में नहीं गया। सभी राज्यों का अपना-अपना भूमि सुधार कानून है लेकिन हम आज भी उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार कानून पर ही टिके हैं। हांलाकि 1960 में उत्तर प्रदेश में रहते हुए कुमाउं उत्तराखंड जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार कानून ;कूजा एक्टद्ध लागू हुआ है। लेकिन इस पर भी कोई अमल नहीं हो रहा है। हांलाकि तत्कालीन इस कानून से पहाड़ और मैदानी के लिए अलग-अलग भूमि सुधार कानून लागू है। पहाड़ का दुर्भाग्य ही कहें या भौगोलिक संरचना से आए दिन प्राकृतिक आपदाओं ने समय-समय पर झकझोरा है। पहाड़ के कई गांव आज भी पर्नवास की वाट जोह रहे हैं और आपदाओं के कारण विकास में बाधक पहुंची है लेकिन आपदाओं के कारण ही हम कृषि नीति व भूमि सुधार पर काम नहीं कर पा रहे हैं यह सोचना गलत है। हमें यदि पहाड़ का विकास चाहिए तो सरकार को कृषि आधारित एक ठोस नीति को बनाना होगा और पलायन के इस दंश को रोकना चाहें तो चकबंदी जैसे कानून पर कार्य करना होगा। आज जरूरत है तो राज्य में कृषि आधारित उद्योगों को लगाने की पहाड़ के कच्चे माल पर शोध कर छोटे-छोटे लघुउद्यम लगाने की ताकि युवाओं को यहीं पर रोजगार मिल सके और युवा राज्य के विकास में योगदान दे सके। हालांकि पहाड़ में कुछ लोगों ने चकबंदी का प्रयास भी किया है ओर सफलता भी मिली है। लेकिन इस पर सरकार ने अभी तक ठोस कार्य नहीं किया है।

बुधवार, 11 फ़रवरी 2015

हरे-भरे खेतों के बीच बसंत की आहट


हरे-भरे खेतों के बीच बसंत की आहट

पहाड़ में बसंत पंचमी की धूम, लोग जौ को अपने घरों की चैखट पर लगते हैं, और यह दिन होता है हल लगाने का, क्योंकि ठण्ड के मौसम के बाद पहाडी महिलाएं खेतों में काम करने के लिए जाती हैं और बसंत पंचमी से यह सिलसिला शुरू होता है। ये शुभ मन जाता है पहाड़ में हल के लिए और फिर आती है, पूरे संगीत का सामन साथ लेकर होली के रंगों को संगीत के साथ सजाकर पहाड़ को रंगीन कर देते हैं। चैत के महीने में औजी के गीत और फुलेर्यों के फूल, बड़ा ही मद्मोहक समां बंधती हैं। हर घर में कन्यायें सुबह सुबह ताजे फूलों को चैखट में डाल आती हैं, जिनकी खुशबू से पूरा घर दिन भर भरा भरा रहता है। चैत के महीने में पहाड़ की बेटियाँ मैत या मायके आ जाती हैं और वह भी देखती हैं अपने घर के उन पेड़ों को फिर से नए कोंपलों से सजती हुई और धन्य होती हैं इस धारा के सृजन को देखकर। उत्तराखंड में बसंत के आगमन पर बीना बेंजवाल का यह खास आलेख। संपादक


पहाड़ी जंगल में तो अलग अलग रंग के पेड़ों की पट्टियां सी बन गयी हैं। नींचे साल और शीशम के पेड़ों की पट्टी है, तो कुछ ज्यादा ऊंचाई पर चीड़ के पेड़ों की लाइन शुरू हो जाती है। सबकी अपनी-अपनी जमात है। जैसे अपने तिरंगे में अलग-अलग रंग की पट्टियाँ होती हैं, उसी तरह जंगल में भी फूलों की पट्टियाँ बन गयी हैं। सबसे नीचे पीली पट्टी है तो उसके ऊपर ताम्रवर्णी पट्टी है, कहीं कहीं कुछ लाल और धूसर पट्टी भी दिखाई देती है। कुछ ही दिनों में कुछ और ऊंचाई वाले पहाड़ों में बुरांस के लाल फूलों से पूरा का पूरा जंगल आच्छादित हो जाएगा और तब सारे रंग फीके पड़ जायेंगे। दूर से यह जंगल नहीं, कोई बड़ी सी रंग-विरंगी धारीदार चादर नजर आती है। प्रकृति ने सचमुच वसंत की 
दस्तक दे दी है, मगर हमारे भीतर का वसंत अभी निद्रा की ही अवस्था में है। महानगरीय भागमभाग में हम प्रकृति की इस लय को 
पहचानना ही भूल गए हैं। उत्तराखंड! यूँ तो सर्वोतम सुन्दरता से परिपूर्ण है, पर बसंत )तू में इसकी सुन्दरता में निखार आ जाता है। 
और उत्तराखंडी भी इस परदेश की सुन्दरता में सरीक होते हैं। )तुराज बसंत, जब यहाँ दस्तक देता है तो समां मनो रंगीन से भी 
रंगीन हो जाता है,चरों तरफ हरियाली, बर्फ की ठंडक कम होते हुए, बर्फ के कारण हुए पतझड़ वाले पर्दों में फिर से नई कोंपले 
आ जाती हैं और तरफ तरह के वनफूलों से सारी धारा अलंकृत हो जाती है। बुरांस! उत्तराखंड का राज्य पुष्प, सरे जंगल 
को रक्त वर्ण से सुसज्जित करता है तो दूसरी तरफ फ्योंली के फूल पीत वर्ण से घाटियों को सजाते हैं।सरसों के पीतवर्ण से 
सजे खेत और, वनों में कई अन्य तरह के फूलों से सजी धारा को देखा जा सकता है इस )तुराज बसंत में।और तो और 
फागुन का सौन्दर्य देखते ही बनता है, रंगीलो बैसाख, काट भागुली ग्यूं!! कुमाऊंनी लोकगीत की यह पंक्ति जैसे बैसाख की मस्ती
को बयान करने को काफी है। चारों तरफ एक अजीब सी गंध पसरने लगी है। गेहूं के खेतों के किनारे-किनारे सरसों के पीले 
फूल खिल रहे हैं। अमराइयों में बौर फूट चुकी हैं। आम की ही तरह लीची में भी बौर आ चुकी हैं। हालांकि आम क बौर की 
तुलना में लीची की बौर जैसे दबे-छिपे ही आ रही है। वह अपने आने का एहसास नहीं करवाती। सेमल के पेड़ अपने को 
अनावृत कर चुके हैं। उनमें नन्हीं-नन्हीं लाल कलियाँ दिखने लगी हैं। पखवाड़े भर में ये पूरे के पूरे लाल हो चुके होंगे। कभी
आप गेहूं के हरे-भरे खेतों के बीच से होते हुए गुजरे हैं? जब गेहूं के पौंधे एक-डेढ़ फुट के हो जाते हैं, तब गहरे हरे 
रंग के खेतों के बीच से सुबह-सवेरे निकलिए, आपको हजारों-हजार मोती टिमटिमाते हुए दिखेंगे। पिछले डेढ़-दो महीनों
से मैं अपने आस-पास के खेतों में गेहूं के पौंधों को पल-पल बढ़ते हुए देख रहा हूँ। जब वे नन्हे कोंपल थे, तब 
उन पर बरबस स्नेह उमड़ आता था। जमीन की सतह को फोड़ कर ऊपर उठने की जद्दोजहद से भरे हुए। जब 
वे आधे फुट के हो गए, तब उनकी रौनक अलग थी। जैसे बच्चा शैशव की दीवार को पार कर चलने-फिरने लगा हो, 
तेज दौड़ने की चाह में बार बार गिर पड़ता हो। जब वे डेढ़ फुट के हो गए, तो उनका सौंदर्य अनुपमेय हो गया। गहरे हरे रंग के घने खेत में तब्दील हो गए। पूरी तरह से आच्छादित। और कुछ भी नहीं। जब मंद-मंद बयार चलती, तो सारे पौंधे एक साथ हिलते दिखाई 
देते जैसे कि छब्बीस जनवरी की परेड लेफ्ट-राईट करती हुई चल रही हो। सुबह जब उनके ऊपर विखरी ओस की बूंदों पर
सूर्य की पहली किरण पड़ती है, तब इनकी छटा देखते ही बनती है। मन करता है, बस, इन्हें ही देखते रहो। इन्हें देखते हुए मैं 
अक्सर अपने बचपन के गाँव में लौट जाता हूँ। नाक और कान छिदवाई हुई मेरे साथ की छोटी-छोटी लड़कियां सुबह-सवेरे 
ओस की इन बूंदों को बटोर कर नाक और कान के छिदे हुए घावों पर डाल रही होतीं। इन मोतियों को बटोरने को लेकर 
उनके मन में अद्भुत उत्साह होता था। सुबकते हुए घावों में मोतियों की ठंडक का एहसास पाने का उत्साह. साथ ही हरे-हरे 
पौंधों को छूने का एहसास। इधर कुछ दिनों से गेहूं में बालियाँ निकलने लगी हैं। कई-कई खेत तो बालियों से लबालब भर गए
हैं। जैसे किशोर युवाओं के शरीर में बेतरतीब ढंग से परिवर्तन आने लगते हैं, लड़कों के चेहरे पर दाढी-मूंछ उग आती है, 
लड़कियों के शरीर में भी परिवर्तन दीखते हैं, उसी तरह गेहूं के खेत भी इन दिनों अपना रंग बदल रहे हैं। गहरा हरा रंग
अब तनिक गायब हो गया है। अब उनकी खूबसूरती भी अंगड़ाई ले रही है। कहीं-कहीं बालियाँ पूरी आ चुकी हैं तो कहीं 
एकाध कलगी ही दिख रही है। बीच बीच में एकाध पैच ऐसा भी दिख जाता है, जो अभी अपने बचपन में ही हो।एक दिन 
सुबह टहलते हुए मुझे धनिया का बड़ा-सा खेत दिखाई पड़ा, जो पूरी तरह से खिला हुआ था। धनिया की कुछ क्यारियां 
तो बचपन में देखी थीं, लेकिन इस तरह पूरे शबाब में कभी न देखा था। सरसों के चटख पीले फूलों की बहुत चर्चा 
होती है, लेकिन सच पूछिए तो मैं धनिया के फूलों भरे खेत को देखता ही रह गया। हलके गुलाबी और सफेद रंग के 
फूल अद्भुत दृदृश्य उत्पन्न करते हैं और उनकी हलकी हलकी खुशबू भी अलग ही समां बांधती है।प्रकृति की ये 
सारी छटाएं वसंत के आगमन की सूचना दे रही हैं। वसंत दस्तक दे चुका है, हलकी-हलकी बयार चल रही है। 
लेकिन अभी मादकता आनी बाकी है। अगले महीने जब गेहूं की इन बालियों में दाने भर जायेंगे, वे ठोस आकार 
ले चुके होंगे और बाल, जो अभी मुलायम हैं, वे काँटों की तरह नुकीले हो जाएँगे, हवा में एक भुरभुरी सी 
गंध पसरने लगेगी, रंग भी हरे के बजाय पीताभ हो जाएगा, तब गेहूं के खेतों में मादकता बरसेगी।

पहाड़ी जंगल में तो अलग अलग रंग के पेड़ों की पट्टियां सी बन गयी हैं। नींचे साल और शीशम के पेड़ों की पट्टी है, तो कुछ ज्यादा ऊंचाई पर चीड़ के पेड़ों की लाइन शुरू हो जाती है। सबकी अपनी-अपनी जमात है। जैसे अपने तिरंगे में अलग-अलग रंग की पट्टियाँ होती हैं, उसी तरह जंगल में भी फूलों की पट्टियाँ बन गयी हैं। सबसे नीचे पीली पट्टी है तो उसके ऊपर ताम्रवर्णी पट्टी है, कहीं कहीं कुछ लाल और धूसर पट्टी भी दिखाई देती है। कुछ ही दिनों में कुछ और ऊंचाई वाले पहाड़ों में बुरांस के लाल फूलों से पूरा का पूरा जंगल आच्छादित हो जाएगा और तब सारे रंग फीके पड़ जायेंगे। दूर से यह जंगल नहीं, कोई बड़ी सी रंग-विरंगी धारीदार चादर नजर आती है। प्रकृति ने सचमुच वसंत की
दस्तक दे दी है, मगर हमारे भीतर का वसंत अभी निद्रा की ही अवस्था में है। महानगरीय भागमभाग में हम प्रकृति की इस लय को
पहचानना ही भूल गए हैं। उत्तराखंड! यूँ तो सर्वोतम सुन्दरता से परिपूर्ण है, पर बसंत )तू में इसकी सुन्दरता में निखार आ जाता है।
और उत्तराखंडी भी इस परदेश की सुन्दरता में सरीक होते हैं। )तुराज बसंत, जब यहाँ दस्तक देता है तो समां मनो रंगीन से भी
रंगीन हो जाता है,चरों तरफ हरियाली, बर्फ की ठंडक कम होते हुए, बर्फ के कारण हुए पतझड़ वाले पर्दों में फिर से नई कोंपले
आ जाती हैं और तरफ तरह के वनफूलों से सारी धारा अलंकृत हो जाती है। बुरांस! उत्तराखंड का राज्य पुष्प, सरे जंगल
को रक्त वर्ण से सुसज्जित करता है तो दूसरी तरफ फ्योंली के फूल पीत वर्ण से घाटियों को सजाते हैं।सरसों के पीतवर्ण से
सजे खेत और, वनों में कई अन्य तरह के फूलों से सजी धारा को देखा जा सकता है इस )तुराज बसंत में।और तो और
फागुन का सौन्दर्य देखते ही बनता है, रंगीलो बैसाख, काट भागुली ग्यूं!! कुमाऊंनी लोकगीत की यह पंक्ति जैसे बैसाख की मस्ती
को बयान करने को काफी है। चारों तरफ एक अजीब सी गंध पसरने लगी है। गेहूं के खेतों के किनारे-किनारे सरसों के पीले
फूल खिल रहे हैं। अमराइयों में बौर फूट चुकी हैं। आम की ही तरह लीची में भी बौर आ चुकी हैं। हालांकि आम क बौर की
तुलना में लीची की बौर जैसे दबे-छिपे ही आ रही है। वह अपने आने का एहसास नहीं करवाती। सेमल के पेड़ अपने को
अनावृत कर चुके हैं। उनमें नन्हीं-नन्हीं लाल कलियाँ दिखने लगी हैं। पखवाड़े भर में ये पूरे के पूरे लाल हो चुके होंगे। कभी
आप गेहूं के हरे-भरे खेतों के बीच से होते हुए गुजरे हैं? जब गेहूं के पौंधे एक-डेढ़ फुट के हो जाते हैं, तब गहरे हरे
रंग के खेतों के बीच से सुबह-सवेरे निकलिए, आपको हजारों-हजार मोती टिमटिमाते हुए दिखेंगे। पिछले डेढ़-दो महीनों
से मैं अपने आस-पास के खेतों में गेहूं के पौंधों को पल-पल बढ़ते हुए देख रहा हूँ। जब वे नन्हे कोंपल थे, तब
उन पर बरबस स्नेह उमड़ आता था। जमीन की सतह को फोड़ कर ऊपर उठने की जद्दोजहद से भरे हुए। जब
वे आधे फुट के हो गए, तब उनकी रौनक अलग थी। जैसे बच्चा शैशव की दीवार को पार कर चलने-फिरने लगा हो,
तेज दौड़ने की चाह में बार बार गिर पड़ता हो। जब वे डेढ़ फुट के हो गए, तो उनका सौंदर्य अनुपमेय हो गया। गहरे हरे रंग के घने खेत में तब्दील हो गए। पूरी तरह से आच्छादित। और कुछ भी नहीं। जब मंद-मंद बयार चलती, तो सारे पौंधे एक साथ हिलते दिखाई
देते जैसे कि छब्बीस जनवरी की परेड लेफ्ट-राईट करती हुई चल रही हो। सुबह जब उनके ऊपर विखरी ओस की बूंदों पर
सूर्य की पहली किरण पड़ती है, तब इनकी छटा देखते ही बनती है। मन करता है, बस, इन्हें ही देखते रहो। इन्हें देखते हुए मैं
अक्सर अपने बचपन के गाँव में लौट जाता हूँ। नाक और कान छिदवाई हुई मेरे साथ की छोटी-छोटी लड़कियां सुबह-सवेरे
ओस की इन बूंदों को बटोर कर नाक और कान के छिदे हुए घावों पर डाल रही होतीं। इन मोतियों को बटोरने को लेकर
उनके मन में अद्भुत उत्साह होता था। सुबकते हुए घावों में मोतियों की ठंडक का एहसास पाने का उत्साह. साथ ही हरे-हरे
पौंधों को छूने का एहसास। इधर कुछ दिनों से गेहूं में बालियाँ निकलने लगी हैं। कई-कई खेत तो बालियों से लबालब भर गए
हैं। जैसे किशोर युवाओं के शरीर में बेतरतीब ढंग से परिवर्तन आने लगते हैं, लड़कों के चेहरे पर दाढी-मूंछ उग आती है,
लड़कियों के शरीर में भी परिवर्तन दीखते हैं, उसी तरह गेहूं के खेत भी इन दिनों अपना रंग बदल रहे हैं। गहरा हरा रंग
अब तनिक गायब हो गया है। अब उनकी खूबसूरती भी अंगड़ाई ले रही है। कहीं-कहीं बालियाँ पूरी आ चुकी हैं तो कहीं
एकाध कलगी ही दिख रही है। बीच बीच में एकाध पैच ऐसा भी दिख जाता है, जो अभी अपने बचपन में ही हो।एक दिन
सुबह टहलते हुए मुझे धनिया का बड़ा-सा खेत दिखाई पड़ा, जो पूरी तरह से खिला हुआ था। धनिया की कुछ क्यारियां
तो बचपन में देखी थीं, लेकिन इस तरह पूरे शबाब में कभी न देखा था। सरसों के चटख पीले फूलों की बहुत चर्चा
होती है, लेकिन सच पूछिए तो मैं धनिया के फूलों भरे खेत को देखता ही रह गया। हलके गुलाबी और सफेद रंग के
फूल अद्भुत दृदृश्य उत्पन्न करते हैं और उनकी हलकी हलकी खुशबू भी अलग ही समां बांधती है।प्रकृति की ये
सारी छटाएं वसंत के आगमन की सूचना दे रही हैं। वसंत दस्तक दे चुका है, हलकी-हलकी बयार चल रही है।
लेकिन अभी मादकता आनी बाकी है। अगले महीने जब गेहूं की इन बालियों में दाने भर जायेंगे, वे ठोस आकार
ले चुके होंगे और बाल, जो अभी मुलायम हैं, वे काँटों की तरह नुकीले हो जाएँगे, हवा में एक भुरभुरी सी
गंध पसरने लगेगी, रंग भी हरे के बजाय पीताभ हो जाएगा, तब गेहूं के खेतों में मादकता बरसेगी।

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2015

‘सियासी कीचड़’

‘सियासी कीचड़’
में लापता हुआ गाड-गदेरों का बेटा


एक साल पहले जब प्रदेश की कमान हरीश रावत को सौंपी गयी थी तो उस समय उत्तराखंड की जनता को लगा था कि पहाड़ का विकास होगा क्योंकि इस पहाड़ी प्रदेश की कमान पहाड़ के बेटे के हाथों में आ गयी है। लेकिन 
ऐसा कुछ नहीं हुआ। हरीश रावत के एक साल के कार्यकाल में जनोपयोगी कार्य कम हुए और राज्य
 की जनता का हरीश रावत से विश्वास उठ गया है। कुल मिलाकर एक साल के कार्यकाल में हरीश 
रावत मात्र 10 प्रतिशत सफल रहे। हरीश रावत की संवेदनहीनता की ही हद है कि वे बेझिझक मुख्यमंत्री विवेकाधीन कोष का मुंह गरीबों के लिए तो बंद करने का ऐलान कर देते हैं, लेकिन खुद अपने इर्द-गिर्द चाटुकारों की फौज भर्ती कर जनता का करोड़ों रूपया हर महीना बहा देते हैं। यही नहीं, हरीश रावत कांग्रेसियों को खुश करने के लिए जिस तरह थोक के भाव दायत्विधारियों की भर्ती करने में जुटे पड़े हैं, वह यह दिखाता है कि हरीश रावत को जनता की बजाय कांग्रेसियों की ही ज्यादा चिंता है। अगर ऐसा न होता तो वे इस तरह के विरोधाभासी फैसले न लेते। इस एक साल के कार्यकाल में अब तक जिस तरह हरीश रावत भ्रष्ट नौकरशाहों को संरक्षण देते आ रहे हैं, वह उनकी नीयत पर ही सवाल उठाता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ कानून बनने के बाद भी जिस तरह एक साल से हरीश रावत लोकायुक्त की चयन प्रक्रिया तक शुरू नहीं कर पाए हैं, वह बताता है कि सरकार के दिखाने के दांत और, खाने के दांत कुछ और हैं। सरकार की छत्रछाया में पिछले एक साल से इस राज्य में माफिया और भष्टों की ही खूब पौ बारह हो रही है। राज्य के विकास के लिहाज से उनका यह पहला साल कोरी बयानबाजी व शह-मात के खेल तक ही सीमित रहा। कुल मिलाकर हरीश रावत का अब तक का कार्यकाल निराशा ही पैदा करता है। सीएम हरीश रावत के एक साल के कार्यकाल पर केंद्रित यह खास आलेख। संपादक

रावत का पहला साल बीता भाजपाइयों को गरियाने और अपनी कुर्सी बचाने में 


एक साल पूर्व जब प्रदेश की कमान हरीश रावत को सौंपी गयी थी तो उस समय यहां के लोगों ने जो उम्मीदें पाली थी और जो उत्साह लोगों में देखने को मिला था आज वह सब गायब है। क्योंकि अपने एक साल के कार्यकाल में सीएम हरीश रावत फिसड्डी साबित हुए। आज की स्थिति ऐसी है कि राज्य के लोग फिर से खुद को कोसते हुए ठगा महसूस कर रहे हैं। आपदा और कुशासन को मुद्दा बनाते हुए सीएम की कुर्सी तक पहुंचे हरीश रावत अब तक के अपने एक साल के कार्यकाल में फिसड्डी ही साबित हुए हैं। खुद को गाड-गदेरों का बेटा घोषित करने वाले हरीश रावत जिस तरह से शासन कर रहे हैं,  उससे लगता है कि वे कुशासन के मामले में अपने पूर्ववर्तियों को भी पीछे छोड़ते जा रहे हैं। हरीश रावत के मुख्यमंत्री बनने पर उत्तराखंड के लोगों को प्रारंभिक तौर पर विश्वास था कि वे कुछ ऐसा करेंगे, जिससे उत्तराखंड का भला होगा। किंतु एक साल का कार्यकाल पूरा होने के बाद स्पष्ट हो गया कि यह पूरा साल हरीश रावत की असफलता के कारण उत्तराखंड के लोगों के लिए दुःस्वप्न से कम नहीं रहा। उत्तराखंड के उन लोगों ने अपने को ठगा सा महसूस किया, जिन्होंने हरीश रावत के मुख्यमंत्री बनते ही आशाओं और उम्मीदों के सपने देखने शुरु कर दिए थे कि अब उत्तराखंड को दशा और दिशा देने वाला गाड गदेरों का बेटा राज्य को मिल गया है। हरीश रावत का यह पहला साल आधा तो भाजपाइयों को गरियाने में और आधा अपनी कुर्सी बचाने में ही लग गया। सुदूर धरचूला का वह व्यक्ति आज भी उसी मुफलिसी में जी रहा है, जिसमें वह साल भर पहले था। हरीश रावत ने एक साल का कार्यकाल पूरा होने से पहले एक और ऐसा फैसला लिया, जिससे स्पष्ट हो जाता है कि हरीश रावत को अब असहाय, दुर्बल, विकलांग, गरीब लोगों की कोई चिंता नहीं है। इस दिन सरकार की ओर से आदेश जारी करवाया गया कि अगले छह माह तक गरीबों को मिलने वाली वह आर्थिक सहायता बंद कर दी गई है, जिसके तहत पहले किसी गरीब को अपनी बेटी की शादी के लिए तो किसी को अपने जीवनयापन के लिए दो-चार हजार रुपए मिल जाया करते थे। इससे पहले बीपीएल परिवार के उन लोगों को सहायता का प्रावधान था, जिनके बच्चे उच्च शिक्षा ग्रहण करना चाहते थे। साथ ही साथ जिन बीपीएल परिवारों को समाज कल्याण की योजनाओं से लाभ नहीं मिल पाता था, उन्हें मुख्यमंत्री विवेकाधीन कोष से मदद मिल जाया करती थी। हरीश रावत के इस तुगलकी फरमान से अब अगले छह माह तक असहाय, दुर्बल, विकलांग, अग्निकांड, दुर्घटना, किसी भी प्रकार की दैवीय आपदा से पीड़ितों को किसी प्रकार की आर्थिक सहायता नहीं मिलेगी। हरीश रावत द्वारा इस आदेश के पीछे का कारण राज्य की डांवाडोल आर्थिक स्थिति बताई जा रही है, किंतु जिस प्रकार का प्रतिबंध गरीब, मजलूमों की मदद रोकने के लिए लगाया गया है, यदि हरीश रावत इसी प्रकार का निर्णय कर अपने महिमा मंडन पर होने वाले करोड़ों रुपए के विज्ञापनों पर प्रतिबंध लगाते तो बात समझ में आ सकती थी। यदि उत्तराखंड सरकार के पास गरीबों को देने के लिए दो-चार हजार रुपए भी नहीं हैं तो फिर अपने महिमा मंडन पर करोड़ों रुपए खर्च करने के लिए कहां से आ रहे हैं? सवाल नीति और नीयत दोनों का है। यदि सरकार की नीयत साफ होती तो वह पहले अपने गुणगान पर हो रहे अनावश्यक खर्चे को रोकती।  एक ओर लग्जरी गाड़ी में बैठकर आने वाले वे मीडिया हाउस हैं, जो शानदार जीवनयापन कर रहे हैं, जिनके पास आलीशान भवन हैं, जिनके बच्चे सबसे महंगे स्कूलों में पढ़ रहे हैं। ऐसे मीडिया हाउसों पर हरीश रावत करोड़ों उड़ा रहे हैं तो दूसरी ओर दो जून की रोटी को तरसते गरीब को मिलने वाली आर्थिक सहायता बंद करने से समझा जा सकता है कि हरीश रावत की नीति और नीयत किसके पक्ष में है? हरीश रावत के मुख्यमंत्री बनने के एक साल के कार्यकाल का यदि पूरी ईमानदारी से आंकलन किया जाए तो फर्क सिर्फ इतना दिखाई देता है कि हरीश रावत उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हो गए हैं। उत्तराखंड में आज भी लगातार अबोध बच्चियों से बलात्कार की घटनाएं हो रही हैं, सरकारी विभागों में लिया जाने वाला कमीशन 25 से लेकर 40 प्रतिशत तक हो गया है। योग्यता की बजाय भाई-भतीजावाद और सिफारिश जोरों पर है। प्रदेश में कानून व्यवस्था की हालत इतनी बदतर हो चुकी है कि अपराध्ी अब उत्तराखंड पुलिस को चांटे मारकर भाग रहे हैं। मंत्री मुख्यमंत्री के विरु( बयान दे रहे हैं तो मुख्यमंत्री भ्रष्ट अफसरों के बगलगीर होकर कह रहे हैं कि भ्रष्ट अफसरों का नाम तो बताओ, मुंडी मरोड़ दूंगा। इस पूरे एक साल में कभी भी आशा की किरण देखने को नहीं मिली। 1 फरवरी 2014 को कांग्रेस ने विजय बहुगुणा को हटाकर हरीश रावत को इसलिए उत्तराखंड के मुख्यमंत्री की कमान सौंपी कि इसके ठीक तीन महीने बाद मई में देश में आम चुनाव प्रस्तावित थे। कांग्रेस पार्टी को उम्मीद थी कि यूपीए-2 के दौरान केन्द्रीय मंत्री रहे हरीश रावत उत्तराखंड से कांग्रेस को सीटें दिलाने में कामयाब रहेंगे। हरीश रावत को तमाम अस्त्र-शस्त्रों के साथ चुनाव मैदान में उतारा गया, किंतु हरीश रावत उत्तराखंड की जनता के साथ-साथ कांग्रेस हाईकमान के विश्वास को अर्जित करने में पूरी तरह नाकाम रहे और उत्तराखंड से कांग्रेस का 5-0 के रूप में सफाया हो गया। इस लोकसभा चुनाव में खास बात यह रही कि 70 विधानसभाओं में से कांग्रेस मात्र सात विधानसभाओं में बहुत कम अंतर से आगे रही। कुल मिलाकर हरीश रावत का सफलता का प्रतिशत 10 और हार का प्रतिशत 90 रहा। हरीश रावत ने मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद सबसे पहले विधायक निधि की लूटपाट का रास्ता खोला, जिसमें उन्होंने विधायकों को मिलने वाली प्रत्येक वर्ष की विधायक निधि को हर वर्ष खर्च करने की बाध्यता खत्म कर आदेश करवा दिया कि यह धनराशि प्रत्येक वर्ष खर्च न करने के बाद भी लैप्स नहीं होगी और विधयक पांच साल में कभी भी विधायक निधि खर्च कर सकते हैं। हरीश रावत द्वारा लूट की छूट मिलने का असर यह हुआ कि आगे चलकर न सिर्फ मंत्रियों, विधायकों ने उत्तराखंड को ठगना शुरु कर दिया, बल्कि नौकरशाह इसमें दो कदम आगे रहे। मुख्यमंत्री के रूप में हरीश रावत ने दूसरा बड़ा फैसला यह लिया कि उनके राज में भी जनता की गाढ़ी कमाई को उनकी ‘इमेज बिल्डिंग’ पर जमकर बरसाया जाए और एक वर्ष के कार्यकाल में हरीश रावत ने इसी इमेज बिल्डिंग पर पेड न्यूज और विज्ञापनों के माध्यम से तकरीबन 40 करोड़ रुपए लुटा दिए। जिस आपदा के कारण हरीश रावत को उत्तराखंड के मुख्यमंत्री की कुर्सी नसीब हुई, उन आपदा पीड़ितों को मिलने वाली राहत के मानकों को घटाकर हरीश रावत ने न सिर्फ आपदा पीड़ितों के जख्मों पर नमक छिड़का, बल्कि स्पष्ट कर दिया कि उनकी आपदा पीड़ितों से कोई सहानुभूति नहीं है। इस पूरे साल में नियम-कायदों को ठेंगा दिखाते हुए हरीश रावत ने ट्रांसपफर-पोस्टिंग में जो मनमानी की, उसने उनके पूर्ववर्तियों के सारे रिकार्ड ध्वस्त कर दिए। बेलगाम नौकरशाही पर लगाम कसने में हरीश रावत पूरी तरह नाकाम रहे। एक भी भ्रष्ट कर्मचारी, अधिकारी के विरु( पूरे साल भर में कोई कार्रवाई नहीं हुई, बल्कि ऐसे भ्रष्ट अधिकारी, कर्मचारियों को कई बार हरीश रावत ने महत्वपूर्ण जिम्मेदारी देकर ईमानदार अधिकारी, कर्मचारियों को हतोत्साहित करने वाला काम भी किया।
जमीनों के खेल भी इस पूरे एक साल में खूब खेले गए। सरकार की कृपा से हरिद्वार स्थित सिडकुल की भूमि के खरीदार बिल्डर को 266 करोड़ रुपए का फायदा हुआ और आज तक हरीश रावत यह जवाब नहीं दे पाए कि उनकी सरकार ने बिल्डर पर ऐसी कृपा क्यों बरसाई?इस सरकार के पहले साल के कार्यकाल में खनन माफियाओं, शराब माफियाओं और भू माफियाओं की मौज रही। हरीश रावत के मुख्यमंत्री बनने के पहले ही महीने में शराब माफियाओं के पक्ष में सरकार के उस बड़े निर्णय की खूब आलोचना हुई, जिसके तहत उन्होंने अपने अधिकारियों, अधीनस्थों की टिप्पणी के बावजूद पूरे प्रदेश के होलसेल शराब के कारोबार को ‘लिकर किंग’ रहे पोंटी चड्ढ़ा के बेटे मोंटी को सौंप दिया।मुख्यमंत्री बनते ही हरीश रावत ने जमीनों के हो रहे अंधाध्ुांध दोहन को रोकने के लिए एसआईटी गठन की बात की थी। हरीश रावत के मुख्यमंत्री बनने के बाद राज्य सरकार द्वारा ऐसा कोई आदेश जारी नहीं हुआ, जिसमें कहा गया हो कि अब भवनों की उंचाई सात मंजिल से अधिक की जा सकती है, किंतु भूमाफियाओं पर हरीश रावत की इतनी बड़ी कृपा रही कि अब प्रदेश में दस से लेकर चैदह मंजिला बिल्डिंगें नियम विरु( बन रही हैं। हरीश रावत के इस एक साल के कार्यकाल में हजारों नए शासनादेशों की खबरें हैं और खर्चे का औसत 25 प्रतिशत मात्रा। अर्थात सरकार के पास जो बजट है, उसका जनवरी के आखिरी सप्ताह तक सिर्फ 25 प्रतिशत ही सरकार खर्च कर पाई है, जिससे समझा जा सकता है कि शेष 75 प्रतिशत धनराशि को इस सरकार की कृपा से अधिकारियों ने मार्च फाइनल के नाम पर ठिकाने लगाने के लिए रखा हुआ है।
जब बजट खर्च की स्थिति यह है तो समझा जा सकता है कि हरीश रावत ने जो हजारों शासनादेश करवाए, उन पर किस प्रकार अमल हो रहा होगा। सरकार के आंकड़े बता रहे हैं कि विगत एक वर्ष से उत्तराखंड में पहाड़ से न सिर्फ पलायन में भारी तेजी आई है, बल्कि अब पहाड़ों में पहले की अपेक्षा अध्यापक और डाक्टर दोनों घट गए हैं, जो हरीश रावत की प्रशासनिक क्षमता पर सवालिया निशान लगाते हैं। हरीश रावत ने इस एक साल के अंतर्गत करोड़ों रुपए फूंककर रिकार्ड कैबिनेट की बैठकें देहरादून से लेकर अल्मोड़ा और गैरसैंण में आयोजित कीं। जिन कैबिनेट की बैठकों पर पांच सौ रुपए का खर्चा आना था, उन पर इतनी भारी-भरकम धनराशि लुटाने का जवाब हरीश रावत नहीं दे पाए। तीन दिन तक गैरसैंण में चलाए गए विधानसभा सत्र के बाद आज गैरसैंण में वही हालात हैं, जो उस विधानसभा सत्र से पहले थे। जिस उत्तराखंड की आज तक राजधानी तय नहीं है और उसका विधानसभा भवन देहरादून में स्थित है, उसी का गैरसैंण में एक नया विधानसभा भवन बनने जा रहा है तो देहरादून के रायपुर में भी नया विधानसभा भवन प्रस्तावित है। इसे इच्छाशक्ति का अभाव ही कहा जाएगा कि हरीश रावत पूर्ण बहुमत की सरकार का दंभ तो भरते हैं, किंतु उन्होंने राजधानी के मसले पर आज तक अपना रुख स्पष्ट नहीं किया है। इस एक साल को उत्तराखंड के लोग इसलिए भी याद नहीं करना चाहेंगे, क्योंकि इसी दौरान हरीश रावत ने अपने पूर्व मुख्यमंत्राी होने की स्थिति में देहरादून में अपने लिए सरकारी खर्चे से 40 करोड़ रुपए के एक भवन निर्माण की इजाजत दे दी। इससे समझा जा सकता है कि हरीश रावत की चिंता सिर्फ और सिर्फ अपनों के लिए ही है। हरीश रावत के परिजनों द्वारा सत्ता में सीधी दखलअंदाजी की बातें अब सामान्य लगने लगी हैं। अधिकारी परेशान हैं कि हरीश रावत की मानें या उनके परिजनों की। हरीश रावत के मुख्यमंत्री बनने के बाद उत्तराखंड की कार्यदायी संस्थाएं तो फाके में हैं, किंतु उत्तराखंड से बाहर की कार्यदायी संस्थाओं को लूट की खुली छूट दे दी गई है। 4 मार्च 2014 को बाहरी एजेंसियों पर कृपा बरसाने के लिए ऐसा शासनादेश जारी कर दिया गया, जिसमें स्पष्ट रूप से लिखा गया कि इन बाहरी एजेंसियों द्वारा कराए जा रहे निर्माण कार्यों में डीएसआर ;दिल्ली शिड्यूल्स आॅफ रेट्सद्ध के मानक लागू होंगे और ये संस्थाएं अपने नियमों के अंतर्गत कार्य करंेगी, अर्थात इन पर उत्तराखंड सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होगा। यह हरीश रावत के कौशल का ही परिणाम है कि आज पूरे प्रदेश में सारे महत्वपूर्ण और बड़े काम उत्तराखंड से बाहर की एजेंसियां अपनी मर्जी से कर रही हैं। एक ओर उत्तराखंड के आपदा पीड़ित आत्महत्या जैसे कठोर कदम उठाने को इसलिए मजबूर हैं कि सरकार उनकी नहीं सुन रही तो दूसरी ओर हरीश रावत ने अपनी कुर्सी की सलामती के लिए कैबिनेट के समकक्ष एक और ‘शैडो कैबिनेट’ बनाकर उत्तराखंड को गर्त में डालने का इंतजाम किया है। इस शैडो कैबिनेट पर उतने ही करोड़ों रुपए खर्च किए जा रहे हैं, जितने कि वास्तविक मंत्रिमंडल पर।
विधानसभा में अवैध, अनैतिक भर्तियों पर हरीश रावत की चुप्पी से साफ हो जाता है कि उनके लिए उत्तराखंड के बेरोजगारों से अधिक उनके रिश्तेदार विधानसभा अध्यक्ष गोविंद सिंह कुंजवाल हैं और उन्होंने कुंजवाल को ही मनमानी करने की खुली छूट दे रखी है। करोड़ों के घोटालों की जांच पर आज तक आंच नहीं आ सकी। पूरे साल भर शोर मचने के बावजूद स्वास्थ्य विभाग के टैक्सी बिल घोटाले में आज तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है। श्रीनगर में ध्वस्त हुआ चैरास पुल आज भी प्रदेश की जनता को इसलिए मुंह चिढ़ा रहा है, क्योंकि इसके दोषी अफसरों को हरीश रावत की शह प्राप्त है।यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि जब हरीश रावत मुख्यमंत्री बनें, तो कुमाऊं में उनके गांव मोहनरी में उनकी जयजयकार हो रही थी। किसी जमाने में ब्लाक प्रमुख रहे रावत केंद्र में कैबिनेट रैंक का मंत्री हासिल करने के बाद उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बने हैं। और ये कुर्सी हरीश रावत को 12 साल के इंतजार के बाद मिली है। जनता के बीच अपनी पकड़ के चलते शायद इन्हें यह पद मिला। 2002 में पार्टी ने एक तरह से उन्हीं की अगुवाई में उत्तराखंड का चुनाव लड़ा था और उनका मुख्यमंत्री बनना तय था लेकिन ऐन वक्त पर न जाने एनडी तिवारी कैसे कुर्सी पर बैठा दिए गए। हरीश रावत की उम्मीदों को झटका लगा उनके चाहने वालों को सदमा। हरीश को उबरने में वक्त लगा। तिवारी शासनकाल में कोई दिन ऐसा न होता था जब कयास न लगते हों कि तिवारी इस्तीफा दे रहे हैं।
by santosh banjwal
udaydinmaan

सोमवार, 19 जनवरी 2015

दो वक्त की रोटी के पड़े हैं लाले

पैरों पर खड़े नहीं हो पाते माता-पिता, बच्चे मजदूरी करने को मजबूरउपचार पर लाखों रुपए खर्च के बावजूद स्थिति नहीं हुई सामान्यदो वक्त की रोटी के पड़े हैं लाले


 जिला मुख्यालय से सटे तिलणी गांव के गजेन्द्र सिंह का परिवार दुखों के पहाड़ के तले दबा हुआ है। उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि एक दिन उसका परिवार अनाज के एक-एक दाने के लिए मोहताज होगा। अस्थमा की बीमारी घर कर जाने के बाद पत्नी आशा देवी के कंधों पर परिवार की जिम्मेदारी आ गई। लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। एक दुर्घटना में पत्नी की रीढ़ की हड्डी टूट गई। हालिया स्थिति यह है कि पति-पत्नी चल-फिर नहीं सकते हैं। परिवार के खातिर बच्चों ने स्कूल छोड़कर मजदूरी शुरू कर दी है।
रुद्रप्रयाग शहर से महज तीन किमी दूर तिलणी गांव में आज से कुछ वर्ष पूर्व गजेन्द्र सिंह (48) का परिवार खुशहाल था। हंसते-खेलते परिवार चल रहा था। गजेन्द्र एक छोटी सी दुकान चलाकर अपने परिवार का भरण-पोषण करता था। अचानक गजेन्द्र की तबीयत बिगड़ गई। डाॅक्टरों ने बताया कि उसे अस्थमा हो गया है। रुद्रप्रयाग और श्रीनगर में उपचार के बावजूद उसकी स्थिति में सुधार नहीं हो पाया। आज गजेन्द्र जिंदगी और मौत से जंग लड़ रहा है। अब परिवार का पूरा भार पत्नी आशा देवी ने ऊपर आ गया। खेती-बाड़ी और दूध बेचकर वह किसी तरह परिवार को पटरी पर लाई। पति तो बीमार थे, लेकिन परिवार का गुजारा चल रहा था। लेकिन एक घटना ने इस परिवार की खुशियां पूरी तरह काफूर कर दी। पिछले वर्ष फरवरी माह में आशा देवी (44) छत से नीचे गिर गई और उनकी रीढ़ की हड्डी टूट गई।
इस घटना से पूरा परिवार स्तब्ध रह गया। ग्रामीणों ने चंदा कर आशा को उपचार के लिए देहरादून के इंद्रेश हास्पिटल में भर्ती कराया गया। जहां उनका लंबा उपचार चला। डाॅक्टरों ने आशा को हास्पिटल में बेड रेस्ट की सलाह दी। आर्थिक तंगी के कारण तीमारदार उन्हें घर ले आए। लेकिन घर में देखरेख और समय-समय पर जांच न होने के कारण उनके पिछले हिस्से में घाव (बेड शोर) हो गए। स्किन गल गई। एक बार फिर ग्रामीणों ने पैसा एकत्रित कर उसे हास्पिटल में भर्ती कराया। डाॅक्टरों ने उसकी प्लास्टिक सर्जरी की। लेकिन हालत में सुधार नहीं हुआ। अब स्थिति यह है कि उनके शरीर के निचले हिस्से में पैरालाइज हो गया है। आशा के उपचार पर परिजन ग्रामीणों की सहायता से सात लाख रुपए से अधिक खर्च कर चुके हैं। अब तो उपचार के लिए उनके पास फूटी कौड़ी भी नहीं है। दोनों पति-पत्नी अपने पैरों के बल खड़े भी नहीं हो पाते हैं।
गजेन्द्र और आशा की दो बेटी और दो बेटे हैं। अपने माता-पिता की देखभाल और परिवार चलाने के लिए दो बच्चों ने पढ़ाई छोड़ दी है। सबसे बड़ी बेटी 24 वर्षीय पिंकी की शादी हो चुकी है। दूसरी बेटी ऋचा 18 वर्ष की है। ऋचा 12वीं पास कर चुकी है। परिवार की जिम्मेदारी उसके कंधे पर आने के बाद वह ग्रेजुएशन नहीं कर पा रही है। ऐसी ही स्थिति 16 वर्षीय योगेन्द्र की है। हाईस्कूल की परीक्षा पास करने के बाद उसकी पढ़ाई छूट गई है। सबसे छोटा बेटा 13 वर्षीय योगेश अभी कक्षा नौ में पढ़ रहा है। दोनों भाई-बहिन मजदूरी और दूध बेचकर अपने भाई को पढ़ाने के साथ ही अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी की व्यवस्था कर रहे हैं। ऋचा और योगेन्द्र बताते हैं कि कई बार घर में अनाज का एक भी दाना नहीं रहता। गांव वाले मदद कर रहे हैं। मां के उपचार में भी गांव के लोगों ने काफी मदद की। गांव वाले भी कब तक मदद करेंगे। आशा देवी के चेहरे पर भविष्य की चिंता साफ देखी जा सकती है। रूंधे गले से वह कहती हैं कि उनके परिवार पर न जाने किसकी नजर लग गई। बच्चे पढ़ाई करने के बजाय मजदूरी कर रहे हैं। हम पति-पत्नी अपने बच्चों पर बोझ बन गए हैं। गजेन्द्र के भाई रघुवीर कठैत का कहना है कि ग्रामीणों और हम लोगों से जो कुछ भी संभव था, हमने किया। उन्होंने स्वयं सेवी संस्थाओं से मदद की गुहार लगाई है।
रुद्रप्रयाग शहर से महज तीन किमी दूर तिलणी गांव में आज से कुछ वर्ष पूर्व गजेन्द्र सिंह (48) का परिवार खुशहाल था। हंसते-खेलते परिवार चल रहा था। गजेन्द्र एक छोटी सी दुकान चलाकर अपने परिवार का भरण-पोषण करता था। अचानक गजेन्द्र की तबीयत बिगड़ गई। डाॅक्टरों ने बताया कि उसे अस्थमा हो गया है। रुद्रप्रयाग और श्रीनगर में उपचार के बावजूद उसकी स्थिति में सुधार नहीं हो पाया। आज गजेन्द्र जिंदगी और मौत से जंग लड़ रहा है। अब परिवार का पूरा भार पत्नी आशा देवी ने ऊपर आ गया। खेती-बाड़ी और दूध बेचकर वह किसी तरह परिवार को पटरी पर लाई। पति तो बीमार थे, लेकिन परिवार का गुजारा चल रहा था। लेकिन एक घटना ने इस परिवार की खुशियां पूरी तरह काफूर कर दी। पिछले वर्ष फरवरी माह में आशा देवी (44) छत से नीचे गिर गई और उनकी रीढ़ की हड्डी टूट गई। इस घटना से पूरा परिवार स्तब्ध रह गया। ग्रामीणों ने चंदा कर आशा को उपचार के लिए देहरादून के इंद्रेश हास्पिटल में भर्ती कराया गया। जहां उनका लंबा उपचार चला। डाॅक्टरों ने आशा को हास्पिटल में बेड रेस्ट की सलाह दी। आर्थिक तंगी के कारण तीमारदार उन्हें घर ले आए। लेकिन घर में देखरेख और समय-समय पर जांच न होने के कारण उनके पिछले हिस्से में घाव (बेड शोर) हो गए। स्किन गल गई। एक बार फिर ग्रामीणों ने पैसा एकत्रित कर उसे हास्पिटल में भर्ती कराया। डाॅक्टरों ने उसकी प्लास्टिक सर्जरी की। लेकिन हालत में सुधार नहीं हुआ। अब स्थिति यह है कि उनके शरीर के निचले हिस्से में पैरालाइज हो गया है। आशा के उपचार पर परिजन ग्रामीणों की सहायता से सात लाख रुपए से अधिक खर्च कर चुके हैं। अब तो उपचार के लिए उनके पास फूटी कौड़ी भी नहीं है। दोनों पति-पत्नी अपने पैरों के बल खड़े भी नहीं हो पाते हैं। गजेन्द्र और आशा की दो बेटी और दो बेटे हैं। अपने माता-पिता की देखभाल और परिवार चलाने के लिए दो बच्चों ने पढ़ाई छोड़ दी है। सबसे बड़ी बेटी 24 वर्षीय पिंकी की शादी हो चुकी है। दूसरी बेटी ऋचा 18 वर्ष की है। ऋचा 12वीं पास कर चुकी है। परिवार की जिम्मेदारी उसके कंधे पर आने के बाद वह ग्रेजुएशन नहीं कर पा रही है। ऐसी ही स्थिति 16 वर्षीय योगेन्द्र की है। हाईस्कूल की परीक्षा पास करने के बाद उसकी पढ़ाई छूट गई है। सबसे छोटा बेटा 13 वर्षीय योगेश अभी कक्षा नौ में पढ़ रहा है। दोनों भाई-बहिन मजदूरी और दूध बेचकर अपने भाई को पढ़ाने के साथ ही अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी की व्यवस्था कर रहे हैं। ऋचा और योगेन्द्र बताते हैं कि कई बार घर में अनाज का एक भी दाना नहीं रहता। गांव वाले मदद कर रहे हैं। मां के उपचार में भी गांव के लोगों ने काफी मदद की। गांव वाले भी कब तक मदद करेंगे। आशा देवी के चेहरे पर भविष्य की चिंता साफ देखी जा सकती है। रूंधे गले से वह कहती हैं कि उनके परिवार पर न जाने किसकी नजर लग गई। बच्चे पढ़ाई करने के बजाय मजदूरी कर रहे हैं। हम पति-पत्नी अपने बच्चों पर बोझ बन गए हैं। गजेन्द्र के भाई रघुवीर कठैत का कहना है कि ग्रामीणों और हम लोगों से जो कुछ भी संभव था, हमने किया। उन्होंने स्वयं सेवी संस्थाओं से मदद की गुहार लगाई है।

शुक्रवार, 16 जनवरी 2015

तो धरती पर प्रकट होंगे केदारघाटी के पाण्डव

तो धरती पर प्रकट होंगे केदारघाटी के पाण्डव


देवभूमि के रूप में विख्यात केदारघाटी के गावांे में पौराणिक पाण्डव नृत्य का आयोजन प्रारंभ हो गया है। और संयोगवश विश्व धरोहर दिवस का आगाज भी हो रहा है। देश और दुनिया में प्राचीन और ऐतिहासिक विरासतों को संरक्षित करने के उद्देश्य से यूनस्को प्रतिवर्ष ‘ विश्व धरोहर ’ का चयन करता है। ऐसे में विश्व विरासत सूची में केदारघाटी के पाण्डव नृत्य को शामिल किया जाए तो देश और दुनिया को उत्तराखण्ड की एक महान प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर के दर्शन होंगे साथ ही केदारघाटी के सैकड़ों गांवों के लिए भी यह संरक्षण का कार्य करेगी। केदारघाटी में यह आयोजन प्राचीन समय से लोक परम्पराओं के साथ स्थानीय जनमानस की श्रुति परम्पराओं को भी सहेज रहा है।  इसी पर केंद्रित दीपक बेजवाल का यह विस्तृत आलेख। संपादक
पौराणिक मान्यता के अनुसार स्वार्गारोहण यात्रा पर जाते समय पाण्डव केदार घाटी की सुन्दरता पर मोहित हो गये थे तब पाण्डवों द्वारा अपने बाण अर्थात शस्त्रों को केदारघाटी में फेंक दिया गया था और घोषणा की मोक्षप्राप्ति के बाद भी हम सूक्ष्म रूप में प्रतिवर्ष यहां आकर अपने भक्तों की कुशलक्षेम पूछगे, इसी मान्यता के कारण साल दर साल केदारघाटी के गांवों में पाण्डव अवतरित होते है, उनके उन सूक्ष्म अवतारों के वाहक व्यक्ति नौर या पश्वा कहलाते है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी नियत होते रहते है। मान्यता है कि ये कही भी रहें पाण्डव अपनी पूजा के अवसर पर इन्हें अपने गांवों में खींच लाते है। यही कारण है कि इन दिनों प्रवासियों के ढेरों परिवार गांवों में आकर पाण्डव नृत्य पूजा में भाग लेते है। गढ़वाल में दीपावली के ग्यारह दिन बाद मनायी जाने वाली एगास बग्वाल के दिन से पाण्डवों का दिया लगना शुरू हो जाता है, और उन्हें बुलाने की स्थानीय रस्मे प्रारम्भ हो जाती है। पाण्डवों की वीरता और उनका चरित्र इस जनपद के निवासियों का आदर्श रहा है, इन आलौकिक देवताओं की गाथाऐ ढोल दमौ के साथ गायी जाती है, जिनमें पाण्डवों का जन्म, दुर्योधन द्वारा निकाला जाना, पांचाल देश पहुंचकर द्रोपदी स्वयम्वर, नागकन्या से विवाह, महाभारत युद्व, बावन व्यूह की रचना चक्रव्यूह, राज्यभिषेक, स्वार्गारोहण आदि सभी लोककथाओं के हिसाब से गायी सुनायी जाती है, यहां प्रत्येक पाण्डव या पात्र को अवतरित करने की अलग अलग थाप अथवा ताल होती है, वास्तव में ढोली इसमें सबसे अहम भूमिका निभाती है जिसकी थापों पर ही मानवों पर पाण्डव देवताओं का अवतरण होता है। पाण्डवों के जन्म के जागर गाये जाते है, जिसमें एक एक कर कुन्ती माता, पांच भाई पंडऊ, राणी द्रोपदी को बुलाया जाता है, उनके हाथों में निशान ‘बाण’ होते है, ढोल पर बजती थापों पर ही वे सभी क्रमशः आवेशित होकर गोल घेरे में नृत्य करते है।पाण्डवों के प्रति लोक में असीम आस्थाये प्रकट की जाती है, मान्यता है कि ये अत्यन्त वीर और श्क्ति प्रदाता है और मानवमात्र के दुख कष्ट को हरने के लिए पृथ्वी पर अवतरित हुऐ है। पाडंव नृत्य का आरम्भ होने की रस्में सालभर पहले से ही शुरू कर दी जाती है इस दौरान दिये का लगाये जाने के साथ पाण्डवों के नये पात्रों को नृत्य की सीख पुराने जानकार बुजर्ग देतेे है। विशेष पूजा अर्चना के साथ गांववासी एकत्रित होकर पाण्डवों के पश्वाओं के साथ अपने पुराने पाण्डव बाणों को निकालते है। जिसके बाद पवित्र स्थानों पर देवताओं और बाणों को स्नान कराया जाता है। इसके साथ ही नृत्य लीला प्रारम्भ हो जाती है, तब से लीला के दौरान ये अपने गांवों का भम्रण कर अपने थात का स्पर्श आमजनमानस, खेत खलिहानो और पशु प्राणिमात्र को देते है। इसे मौपूज कहते है इस यात्रा के स्वागत में गांवभर में ओखलियों में भूजे हुऐ धान को कूटकर चूड़े व भूजले का प्रसाद तैयार किया जाता है जिसे पाण्डवो को भेट स्वरूप अर्पित किया जाता है, पाण्डव अपने आरक्षित चैक में सर्वप्रथम नृत्य करते हुऐ सभी ग्रामीणो को आशीर्वाद देते है, उनके निशानो को पंचगव्य से स्नान कराकर उसके जल को गांवभर में छिड़का जाता है मान्यता है कि ऐसा करने से पशुओ में खुरपका रोग नहीं होता है। इसके साथ ही छाका परम्परा भी प्रारम्भ होती है जिसमें गंावों के सयंुक्त परिवार बारी बारी से पाण्डवों को अर्घ देते है, और पाण्डवों को सामुहिक भोज का निमंत्रण देते है। इसके उपरांत महीने भर तक विभिन्न घटनाओं का वर्णन नृत्य द्वारा किया जाता है। महीने भर तक गांवों में बारी बारी से बावन व्यूहों की रचना भी की जाती है।केदारघाटी में पाण्डवाणी गीतों के जानकारों और ढोलसागर के मर्मज्ञ लोकलावंतों की जुगलबंदी गढ़वाली संस्कृति को जानने वाले के लिए एक बेहतर निमत्रंण की प्रतीक बनती जा रही है। कई विदेशी मेहमान और शोधार्थीयों को पण्डव चैकों में देर रात तक असानी से बैठा देखा जा रहा है। केदारघाटी के वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी डा0 डी आर पुरोहित, कृष्णानंद नौटियाल, राकेश भट्ट, राजीवलोचन भण्डारी,  के सफल निर्देशन में प्राचीन पाण्डवाणी पंरपराओं को जीवंत करने का सफल प्रयास भी कर चुकी है। श्री विधाधर श्रीकला, उत्सव ग्रुप एवं पंचकेदार लोककला मंच द्वारा ठेठ और पारम्परिक अंदाज में दिल्ली, मुम्बई के अनेक अन्र्तराष्ट्रीय आयोजनों में केदारघाटी की इस विरासत का प्रदर्शन किया गया है।
केदारघाटी की पण्डवाणी
पण्डवाणी मण्डाण केदारघाटी की प्राचीन परम्परा है, यही से राज्य के कोने कोने में इसका प्रसार हुआ है। पाण्डवो को अवतरित कराने और नृत्यलीला के दौरान में लोकवाद्यय ढोल की अहम भूमिका रहती है। तकरीबन 16 छोप नृत्यशैलीयाँ में पाण्डव नष्त्य पूरा होता है। इसके साथ प्रत्येक गांव में पाण्डव नृत्य के अपनी-अपनी परंपराए भी होती है।
सबसे पुराने कण्डारा गांव के पाण्डव
केदारघाटी में सबसे पुराने पाण्डव गढ़वाल के ऐतिहासिक बावनगढ़ों में सबसे प्राचीन कण्डारागढ़ के है। आज भी सम्पूर्ण गढ़वाल में पाण्डव नृत्यों के सर्वाधिक पच्चीस छोप ;नृत्यशैलीयाँद्ध कण्डारा में ही आयोजित होती है।
क्या कहते संस्कृतिकर्मीकृकृ
केदारघाटी के पाण्डव उत्तराखण्ड की समृ( सांस्कृतिक विरासत है। गोत्र हत्या से मुक्ति हेतु भगवान शिव के दर्शन के लिए पाण्डवों का केदारघाटी आगमन इस परम्परा की प्राचीनता को स्वंय प्रमाणित करता है। केदारघाटी में यह आयोजन प्राचीन समय से लोकपरम्पराओं के साथ स्थानीय जनमानस की श्रुति परम्पराओं को भी सहेज रहा है। विश्व विरासत सूची में केदारघाटी के पाण्डव नष्त्य को शामिल होने से देश और दुनिया को एक महान प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर के दर्शन होंगे साथ ही केदारघाटी के सैकड़ों गांवों के लिए भी यह संरक्षण का कार्य करेगी।
देवानंद गैरोला, कण्डारा गांव
केदारघाटी में पाण्डव नृत्य और चक्रव्यूह मंचन का अनुष्ठानिक महत्व है, सदियों से यहां इसका भावपूर्ण आयोजन किया जाता रहा है। लोकधुन और लोकभाषा के साथ पाण्डवाणी की वार्ता शैली केदारघाटी की पहचान है। यदि विश्व विरासत सूची में ‘केदारघाटी का पाण्डव नृत्य’ चयन होता है तो यह विश्व की एक महान सांस्कृतिक विरासत को सम्मान देने जैसा सराहनीय कार्य होगा।
राकेश भट्ट
पाण्डव नृत्य के आयोजक

गुरुवार, 15 जनवरी 2015

मोहित ने किया उत्तराखंड का नाम रोशन

युवा सम्मानः मोहित ने किया उत्तराखंड का नाम रोशन

राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता में बेस्ट फोटोग्राफर चुने गए मोहित
गुवाहाटी में आयोजित यूथ फेस्टिवल में लिया हिस्सा
एनवाईकेएस की पत्रिका में भी छपी मोहित की फोटो

युवा कार्यक्रम एवं खेल मंत्रालय भारत सरकार और खेल एवं युवा कल्याण विभाग असम सरकार की ओर से गुवाहाटी (असम) में आयोजित 19वें यूथ फेस्टिवल में रुद्रप्रयाग जिले के युवा फोटोग्राफर मोहित डिमरी ने उत्तराखंड का नाम रोशन किया है। फोटोग्राफी में बेस्ट आॅफ थ्री प्रतियोगिता में उनका चयन होने पर उन्हें पुरस्कृत किया गया। यूथ फेस्टिवल में पूरे देशभर के अलग-अलग राज्यों से 21 फोटोग्राफर पहुंचे हुए थे। मोहित को पुरस्कार मिलने पर विभिन्न संगठनों ने इसे युवाओं के प्रेरणास्रोत बताते हुए उन्हें बधाई दी है।
दरअसल, नेहरू युवा केन्द्र संगठन की ओर से प्रत्येक वर्ष नेशनल यूथ फेस्टिवल का आयोजन किया जाता है। इस बार गुवाहाटी में यह फेस्टिवल आयोजित हुआ। जिसमें देश भर के अलग-अलग राज्यों से युवाओं ने प्रतिभाग किया। फोटोग्राफी में उत्तराखंड से मोहित डिमरी का चयन हुआ था। फोटोग्राफी प्रतियोगिता के लिए देश भर से कुल 21 युवा फोटोग्राफरों ने हिस्सा लिया। प्रतियोगिता के तहत फोटोग्राॅफरों को अनेकता में एकता की थीम दी गई। नियमानुसार प्रत्येक फोटोग्राॅफरों ने अपनी तीन बेस्ट फोटो निर्णायक मंडल को उपलब्ध कराई। मोहित की फोटो बेस्ट फोटो के रूप में चयनित की गई। इस फोटो की आयोजक मंडल ने भी प्रशंसा की और इसे अपनी पत्रिका में प्रकाशित किया। गुवाहाटी से वापस लौटने के बाद मोहित ने बताया कि यूथ फेस्टिवल में प्रतिभाग करना उनके जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा। फेस्टिवल के दौरान काफी कुछ सीखने को मिला। अन्य राज्यों के युवा फोटोग्राॅफरों ने उनका पूरा सहयोग किया। उन्होंने बताया कि फोटोग्राफी के फील्ड में युवा अपना करियर बना सकते हैं। जल्द ही राष्ट्रीय स्तर पर एक फोटोग्राफी ग्रुप तैयार कर दिया जाएगा। इसमें नए-नए फोटोग्राफरों को जोड़कर उन्हें फोटोग्राफी की विधाएं सिखाई जाएंगी।
नेहरू युवा केन्द्र के जिला समन्वयक डाॅ मुकेश डिमरी ने बताया कि मोहित ने राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता में अपना बेस्ट देकर उत्तराखंड को पहचान दिलाई है। अन्य युवाआंे को भी उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए। उन्होंने कहा कि अच्छा वातावरण और दिशा-निर्देशन से ही जीवन में सफलता मिलती है। उत्तराखंड में प्रतिभाओं की कमी नहीं है। जरूरत है उनको तलाशने की। 

बुधवार, 14 जनवरी 2015

नेगी को सौंपी गई कांग्रेस प्रदेश प्रवक्ता की कमान

नेगी को सौंपी गई कांग्रेस प्रदेश प्रवक्ता की कमान 


कांग्रेस वरिष्ठ नेता सूरज नेगी को मीडिया में संगठन की बात मजबूती से रखने के लिए कांग्रेस प्रदेश प्रवक्ता की कमान सौंपी गई है। इससे पूर्व श्री नेगी युवा कांग्रेस प्रवक्ता की बागडोर संभाल चुके हैं। उनके कार्यकाल से खुश होकर प्रदेश हाईकमान ने उन्हें ये जिम्मेदारी सौंपी है।
प्रदेश कांग्रेस कमेटी के कार्यक्रम प्रभारी राजेन्द्र शाह ने बताया कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष किशोर उपाध्याय ने मीडिया में पार्टी का पक्ष रखने के लिए प्रवक्ताओं के पैनल की नियुक्ति की है, जिसका विस्तार करते हुए वरिष्ठ कांग्रेस नेता सूरज नेगी के नाम को सम्मिलित किया गया है। उन्होंने अपेक्षा की कि श्री नेगी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के दिशा-निर्देशों के अनुरूप मीडिया में पार्टी का पक्ष मजबूती से रखने का कार्य करेंगे। श्री नेगी पार्टी में छात्र जीवन से लेकर युवा कांग्रेस एवं जिला स्तर पर भी पार्टी में विभिन्न पदों पर रहकर पार्टी की नितियों को जन-जन तक पहुंचाते रहें हैं। जिसके उपरान्त प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष किशोर उपाध्याय द्वारा सूरज नेगी को प्रदेश प्रवक्ताओं के पैनल में नियुक्ति किया गया है। श्री नेगी को प्रदेश प्रवक्ता की कमान सौंपे जाने पर पार्टी कार्यकर्ताओं में खासा उत्साह बना हुआ है। कांग्रेस प्रदेश प्रवक्ता सूरज नेगी ने कहा कि जो जिम्मेदारी संगठन ने उन्हें सौंपी है, उसका वह ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा व सहजता से निर्वहन करेंगे। पार्टी की रीति-नीतियों को जन-जन तक पहुंचाने के साथ ही मीडिया में पार्टी का पक्ष भी मजबूती के साथ रखा जायेगा। उनके प्रदेश प्रवक्ता बनने पर जिले के कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने खुशी व्यक्त कर प्रदेश हाईकमान का आभार जताया है।
प्रदेश कांग्रेस कमेटी के कार्यक्रम प्रभारी राजेन्द्र शाह ने बताया कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष किशोर उपाध्याय ने मीडिया में पार्टी का पक्ष रखने के लिए प्रवक्ताओं के पैनल की नियुक्ति की है, जिसका विस्तार करते हुए वरिष्ठ कांग्रेस नेता सूरज नेगी के नाम को सम्मिलित किया गया है। उन्होंने अपेक्षा की कि श्री नेगी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के दिशा-निर्देशों के अनुरूप मीडिया में पार्टी का पक्ष मजबूती से रखने का कार्य करेंगे। श्री नेगी पार्टी में छात्र जीवन से लेकर युवा कांग्रेस एवं जिला स्तर पर भी पार्टी में विभिन्न पदों पर रहकर पार्टी की नितियों को जन-जन तक पहुंचाते रहें हैं। जिसके उपरान्त प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष किशोर उपाध्याय द्वारा सूरज नेगी को प्रदेश प्रवक्ताओं के पैनल में नियुक्ति किया गया है। श्री नेगी को प्रदेश प्रवक्ता की कमान सौंपे जाने पर पार्टी कार्यकर्ताओं में खासा उत्साह बना हुआ है। कांग्रेस प्रदेश प्रवक्ता सूरज नेगी ने कहा कि जो जिम्मेदारी संगठन ने उन्हें सौंपी है, उसका वह ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा व सहजता से निर्वहन करेंगे। पार्टी की रीति-नीतियों को जन-जन तक पहुंचाने के साथ ही मीडिया में पार्टी का पक्ष भी मजबूती के साथ रखा जायेगा। उनके प्रदेश प्रवक्ता बनने पर जिले के कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने खुशी व्यक्त कर प्रदेश हाईकमान का आभार जताया है।

शुक्रवार, 9 जनवरी 2015

एक किरण’

‘रोशनी की एक किरण’
विस्थापन व पुनर्वास के लिए बने ठोस नीतिः अजेंद्र


लगातार प्राकृतिक आपदाओं के संकट से जूझने वाले उत्तराखंड के आपदा पीड़ितों के विस्थापन व पुनर्वास की लड़ाई आखिरकार हाई कोर्ट तक पहुंच गयी है। आपदा पीड़ितों के विस्थापन व पुनर्वास के लिए लम्बे समय से संघर्घरत केदारघाटी विस्थापन व पुनर्वास संघर्ष समिति के अध्यक्ष अजेन्द्र अजय ने प्रदेश सरकार पर आपदा पीड़ितों के प्रति संवेदनहीन रुख अपनाने का आरोप लगाते हुए प्रभावितों के विस्थापन व पुनर्वास के लिए ठोस नीति बनाये जाने की मांग की है। हाईकोर्ट के कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश वीके बिष्ट व न्यायमूर्ति यूसी ध्यानी की संयुक्त खंडपीठ ने याचिका को स्वीकारते हुए प्रदेश सरकार को इस मसले पर चार हफ्ते में अपना जबाब दाखिल करने के निर्देश दिए हैं। उल्लेखनीय है की उत्तराखंड में प्रतिवर्ष दैवीय आपदा में बड़ी भारी संख्या में जनहानि होती है। सैकड़ों लोग बेघर होते हैं और तमाम लोगों का रोजगार नष्ट हो जाता है। प्रदेश सरकार नाममात्र का मुआवजा वितरित कर पीड़ितों की तरफ से मुंह मोड़ देती है। लिहाजा, आपदा पीड़ित दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हो जाते हैं और उन्हें शरणार्थियों सा जीवन जीने को मजबूर होना पड़ता है। वर्ष 2013 के जून माह में उत्तराखंड की केदारघाटी समेत अन्य हिस्सों में आई हिमालयी सुनामी ने यहाँ के जनमानस को हिला कर रख दिया। आपदा के बाद प्रदेश सरकार के साथ ही तमाम संस्थाओं आदि ने पीड़ितों के विस्थापन व पुनर्वास को लेकर कई बड़ी-बड़ी बातें और दावे किये। पीड़ितों को कई हवाई सपने दिखाए गए। मगर वास्तविक धरातल पर विस्थापन व पुनर्वास का मसला सपना ही बन कर रह गया। आपदा पीड़ितों के संगठन केदारघाटी विस्थापन व पुनर्वास संघर्ष समिति द्वारा इस मसले को लेकर लगातार आंदोलन आदि भी किये जाते रहे। पर, सरकार के स्तर से हर बार पीड़ितों को आश्वासन की घुट्टी ही पिलाई जाती रही। आखिरकार केदारघाटी विस्थापन व पुनर्वास संघर्ष समिति के अध्यक्ष अजेन्द्र अजय ने पिछले दिनों इस मामले में नैनीताल हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर कर प्रदेश में आपदा पीड़ितों के विस्थापन व पुनर्वास के लिए एक ठोस नीति बनाये जाने की गुहार लगायी है। अपनी याचिका में अजेन्द्र ने उत्तराखंड में प्रतिवर्ष हो रही भीषण प्राकृतिक आपदाओं का हवाला देते हुए सरकार पर पीड़ितों की अनदेखी करने का आरोप लगाया है। याचिका में कहा गया है की आपदा के पश्चात सरकार खानापूर्ति के अंदाज में पीड़ितों को नाममात्र की राहत राशि वितरित करती है और फिर उन्हें उनके भाग्य भरोसे छोड़ दिया जाता है। प्रदेश सरकार द्वारा जारी शासनादेशों का हवाला देते हुए याचिका में राहत के मानकों पर भी सवाल उठाया गया है। सरकार द्वारा राहत के मानक हर साल मनमाफिक तरीके से बदल दिए जाते हैं। आरोप लगाया गया है की सरकार के मुआवजा वितरण के मानक भेदभावपूर्ण हैं, जो की पीड़ितों के साथ घोर अन्याय है।  याचिका में अजेन्द्र ने सूचना के अधिकार के तहत ली गयी जानकारी का हवाला देते हुए कहा है की वर्तमान में प्रदेश में तीन सौ से भी अधिक गावं विस्थापन की कगार पर खड़े हैं, किन्तु सरकार अभी तक इन गावों का ठीक से सर्वेक्षण तक नहीं करा सकी है। कई गांव वर्षों से पुनर्वास की बाट जोह रहे हैं। याचिका में विस्थापन व पुनर्वास के मुद्दे पर प्रदेष सरकार की मंशा पर सवाल उठाते हुए कहा गया है की लगातार आपदाओं के बावजूद सरकार पीड़ितों के विस्थापन के लिए ना ही खुद कोई योजना बना सकी है और ना ही प्रदेश सरकार ने इस मामले में केंद्र सरकार को कोई तकनीकी प्रस्ताव भेजा है। विस्थापन व पुनर्वास के नाम पर वर्श 2012 में तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने एक पत्र तत्कालीन प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह को भेजा था। इसी प्रकार एक पत्र जून 2014 में वर्तमान मुख्यमंत्री हरीश रावत ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रेषित किया है। तकनीकी प्रस्ताव भेजने के बजाय केवल पत्र लिख कर प्रदेश सरकार ने आपदा पीड़ितों के प्रति अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली। याचिकाकर्ता ने न्यायालय से टीएचडीसी, हरियाणा सरकार व केंद्र सरकार की विस्थापन व पुनर्वास नीति का हवाला देते हुए उत्तराखंड सरकार को इसी तर्ज पर विस्थापन व पुनर्वास नीति बनाने के निर्देश देने की मांग की है। इसके साथ वर्ष 2013 में आयी आपदा में बेघर हुए लोगों के लिए विश्व बैंक सहायतित आवास नीति को भी चुनौती दी है। याचिका में कहा गया है की 2013 के पीड़ितों के लिए प्रदेश सरकार ने चार किश्तों में पांच लाख रूपये देने की योजना बनायीं है। पहली किश्त के रूप में पीड़ितों को डेढ़ लाख रूपये की किश्त जारी कर दी गयी है। बाकी किश्त जारी करने से पहले पीड़ितों को प्रस्तावित आवास निर्माण की भूमि की रजिस्ट्री आदि जैसी शर्तें रखी गयी हैं। ऐसे में उन पीड़ितों के सामने समस्या खड़ी हो गयी है, जिनके पास आपदा के बाद एक इंच भूमि भी नहीं बची है। पीड़ितों को अब प्रशासन द्वारा नोटिस जारी किये जा रहे हैं और उनसे सहायता राशि की वसूली की धमकी दी जा रही है। अपनी याचिका में अजेन्द्र ने केदारघाटी में जल विद्युत परियोजना का निर्माण कर रही एलएनटी कम्पनी से पीड़ितों को मुआवजा दिलाये जाने की मांग भी उठाई है। याचिका में कहा गया है की प्रदेश सरकार कम्पनी द्वारा आपदा पीड़ितों की मदद के लिए स्वीकृत धनराशि को पीड़ितों के बीच बाँटने के बजाय सड़क व पुलों के निर्माण में खर्च करने के लिए जोर दे रही है। बहरहाल, इस याचिका के दाखिल होने से लगातार आपदा की मार झेल रहे  आपदा पीड़ितों में रोशनी की एक किरण जली है।

गुरुवार, 8 जनवरी 2015

गाँव, खेत, खलिहान के बदले एक-एक नौकरी!

उत्तराखंड की कैबिनेट बैठक में लिये गये सूक्ष्म एवं अति लघु विधुत परियोजनाओं तथा ईको सेंसिटिव जोन संबंधी निर्णय से तो यही होगा
गाँव, खेत, खलिहान के बदले एक-एक नौकरी!


राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों में, जहाँ लगभग 7 प्रतिशत भूमि ही खेती के लिए बची है। उसमें भी जंगल की जमीन के साथ खेती की बेशकीमती जमीन आपात्कालीन धारायें लगा कर इन परियोजनाओं के लिये अधिग्रहीत की जा रही है। टिहरी बाँध के बाद तमाम दूसरे छोटे-बड़े बाँधों से विस्थापित होने वालों को जमीन के बदले जमीन देने का प्रश्न ही सरकारों ने नकार दिया है। दूसरी तरफ विशेष आर्थिक क्षेत्र ;सेजद्ध के लिए 100-100 हैक्टेयर जमीनें विशेष छूट दरों पर उपलब्ध करायी जा रही हैं। खेती की जमीन व सिकुड़ते जंगलों पर दबाव बढ़ रहा है। औद्योगिक शिक्षा संस्थानों की कमी के चलते आम उत्तराखण्डी के पास इन क्षेत्रों में रोजगार के अवसर वैसे ही बहुत कम है, परिणामस्वरूप अकुशल मजदूरी या पलायन ही परियोजना प्रभावितों के हिस्से में आता है। हाल ही में उत्तराखंड सरकार की कैबिनेट में लिये गए निर्णय और राज्य में बाधों से होने वाले नुकसान पर केंद्रित संतोष बेंजवाल की यह खास रिपोर्ट।
जल-विद्युत परियोजनाओं से बाढ़ें, भूस्खलन, बंद रास्ते, सूखते जल स्रोत, कांपती धरती, कम होती खेती की जमीन, ट्रांस्मीशन लाइनों के खतरे, कम होता खेती उत्पादन और अपने ही क्षेत्र में खोती राजनैतिक शक्ति और लाखों का विस्थापन यानी ये उपहार हमें उत्तराखण्ड में बनी अब तक की जल-विद्युत परियोजनाओं से मिले हैं और मिलेंगे। इन सबके बावजूद बिना कोई सबक सीखे बाँध पर बाँध बनाने की बदहवास दौड़ जारी है। 28 दिसंबर 2014 को उत्तराखंड की कैबिनेट बैठक में लिये गये सूक्ष्म एवं अति लघु विधुत परियोजनाओं तथा ईको सेंसिटिव जोन संबंधी निर्णय हैं। निर्णय के अनुसार उत्तराखण्ड के अधिकांश गाड़-गधेरों पर छोटे-बड़े बाँध बनाने की तैयारी है। देशी-विदेशी कम्पनियों को परियोजनायें लगाने का न्यौता दिया जा रहा है। निजी कम्पनियों के आने से लोगों का सरकार पर दबाव कम हो जाता है, लेकिन कम्पनी का लोगों पर दबाव बढ़ जाता है। दूसरी तरफ कम्पनी के पक्ष में स्थानीय प्रशासन व सत्ता भी खड़े हो जाते हैं। साम, दाम, दंड, भेद, झूठे आँकड़े व अधूरी, भ्रामक जानकारी वाली पर्यावरण प्रभाव आँकलन रिपोर्ट, जनता को उसकी जानकारी भी नहीं मिलना। ऐसी परियोजनाओं में ऐसा ही होता है। फिर से वही कहानी कि  परियोजना वाले कहेंगे कि वह लोगों को नौकरियाँ देंगे। गाँव, खेत, खलिहान के बदले एक-एक नौकरी! कितनी नौकरियाँ मिलीं अभी तक और कितनी मिलेंगी? यह तो राम ही जाने।
यहां सबसे पहले सूबे के सीएम हरीश रावत की बात करते हैं। 28 दिसंबर 2014 को कैबिनटे बठैक के बाद मुख्यमंत्री हरीश रावत अब पूरी तरह बनेकाब हो गये हैं। वैसे भी एक साल से अधिक किसी मंत्री या मुख्यमंत्री को अपनी क्षमता दिखाने के लिए नहीं दिए जा सकते। हरीश रावत को लेकर सब को मुगालता था कि ग्रामीण पृष्ठभूमि, तूणमूल स्तर से राजनीति करने, अपनी पार्टी के भीतर विभिन्न पदों पर रहने और केंद्र सरकार में एकाधिक मंत्रालयों में काम करने का अनुभव के कारण वे उत्तराखंड के सबसे सफल मुख्यमंत्री साबित होंगे। इससे पहले किसी मुख्यमंत्री में ये सभी योग्यायें  थी तो वे नारायण दत्त तिवाडी थे। मगर शुरू में ही पृथक राज्य के धुर विरोधी रहे तिवारी नये राज्य का निर्माण करने अथवा शासन करने नहीं , रिटायमंट के दिन काटने उत्तराखंड में आए थे।
रावत सरकार के पहले  चार-पांच महीनों के कामकाज पर किसी ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया, क्योकि उन्हें विजय बहुगुणा का छोड़ा हुआ मलबा साफ करना था और उसी बीच लोकसभा या उसके बाद पंचायत चुनावों की आचार संहिता लग गईथी। अपनी सरकार के असंतुष्ट मंत्रियों से भी उन्हें बार-बार दो -चार होना पड़ रहा था। जब तक वे इनसे निपटते उन्हें गंभीर चोट लग गई। आज भी अपनी गर्दन का पट्टा उनके व्यक्त्वि का अभिन्न हिस्सा बना हुआ है। मगर अब उन्हें लेकर मोहभंग की स्थितियां पूरी तरह साफ हो गई हैं। कोई भी व्यक्त उनसे मिल कर बहुत संतुष्ट हो कर लौटता है क्योंकि वे उत्तराखंड की सारी समस्याओं को समझे भी है और उनके सामाधान में रूचि लेते भी दिखाई देते हैं। मगर अन्ततः फैसले वे वही लेते हैं, जो उनकी पार्टी के महिषसुरों अर्थात ठेकेदारों दलालो और माफियाओं के हित में होते है। इसका ताजा उदाहरण 28 दिसंबर की कैबिनेट बैठक में लिये गये सूक्ष्म एवं अति लघु विधुत परियोजनाओं तथा ईको सेंसिटिव जोन संबंधी निर्णय हैं। जल परियोजनओं को लेकर सूक्ष्म स्तर और ग्राम सभाओं तक जाने की बात हर समझदार व्यक्ति करता है। मगर जब इस सि(ांत को जमीन पर उतारने की बात आई तो रात फिर एक बार बड़ी पूजी वालों और ठेकेदारों के पक्ष में झूके। ग्रामीणों और स्थानीय समुदाय के नहीं। कैबिनेट का यह फैसला लागू हुआ तो ग्रामीण एक बार अपना अंगूठा लगा देने के बाद फिर परियोजनाओं से बाहर हो जायेंगे, शायद अपने गांवों से भी बाहर हो जायें। पानी से प्राप्त उर्जा का सारा मजा कंपनियों वाले लेगे। इससे पहाड़ी गांवों में गरीबी और पलायन का तांडव और तेज होगा। चूकि उत्तराखंड की बड़ी जल विद्युत परियोजनाओं पर दुनिया भर में विवाद उठे थे, विशेषकर जून 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद। इसीलिये रावत सरकार ने गांव वालों की आड में बड़ी कंपनियों और ठेकेदारों को उपकृत करने का यह शातिर तरीका निकाला है।
कैबिनेट का दूसरा फैसला ईको सेंसिटिव जोन को वापस लेने के लिए केंद्र सरकार से आग्रह करने के बारे में है। ईको संेसिटिव जाने को लेकर विरोध दो तरह से हो रहा है। पहला अब तक प्रदेश में अभयारण्यों आदि के रूप में जिस तरह स्थानीय मुदाय को वंचित किया गया है, उस अनुभव को देखते हुए वामपंथी सोच के लोग इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि ईको सेंसिटिव जोन को शायद स्थानीय ग्रामीण समुदाय एक बार फिर से विपरीत रूप से प्रभावित होगा । मगर ईको सेंसिटिव जोन को लेकर पूर बातचीत हुई है और न स्थितियों पूरी तरह साफ है।। ईको सेंसिटिव जोन के विरोध को लेकर जो दूसरी लाबी मुखर है, वह कांग्रेस,भाजपा और उत्तराखंड क्रांति दल आदि के भीतर बैठी ठेकेदार लाबी है, जो चाहती है कि निर्माण कार्यों को लेकर चल रही उसकी ठेकेदारी में कोई रोट-टोक न हो। वे धड़ल्ले से तथाकथित विकास कार्य करें, चाहे उसके बाद केदारनाथ जैसे एक नहीं दर्जनों हादसे हो जाये और यह पूरा पर्वतीय प्रदेश मरूभूमि बन जाये। यह ठेकेदार लाबी उत्तराखंड की राजनीति में इतनी मजबूत है कि इस नवजात प्रदेश को मजाक में ठेकेदारखंड भी कहा जाने लगा है। हरीश रावत सरकार ने इस ठेकेदार लाबी के दबाव में ही ईको संसिटिव जोन का मामला इतना अािक चढाया है। स्थानीय और ग्रामीण हितों की पैरोकार वाम ताकतों के पक्ष में नहीं । क्योंकि यदि हरीश रावत ईको संसिटिव जोन को नहीं मानते तो उन्हें यह भी तो बतलाना चाहिये कि फिर ठेकेदार लाबी को उपकृत करने के अतिरिक्त उत्तराखंड के विकास का कौन सा माडल उनके पास है।उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड राज्य में पर्यटन के नाम पर पर्यावरण की दृदृष्टि से संवेदनशील बुग्यालों को स्कीइंग क्षेत्र में तब्दील किया जा रहा है। विकास के नाम पर उपजाऊ जमीन को सीमेंट-कंक्रीट के जंगलों में तब्दील किया सड़कों का चैड़ीकरण का मामला सीधे बाँध परियोजनाओं और पर्यटन से जुड़ा है। इससे भी जंगलों एवं कृकृषि भूमि का विनाश हुआ है। हजारों-लाखों पेड़ों का कटना पर्यावरण की अपूरणीय क्षति है। पचास-साठ मीटर ऊँचे बाँधों को भी छोटे बाँधों की श्रेणी में रखकर सभी नदी-नालों को सुरंगों में डाला जा रहा है। ‘बडे़ बाँधों के अन्तर्राष्ट्रीय आयोग’ व ‘विश्व बाँध आयोग’ की परिभाषा के अनुसार 15 मीटर से ऊँचे बाँध बडे बाँधों में आते हैं। टिहरी बाँध से उपजी समस्याओं पर माननीय मुख्यमंत्री का कथन था कि टिहरी बाँध के विस्थापन को देखते हुए अब उत्तराखण्ड में बडेघ् बाँध नहीं बनेंगे। किन्तु हाल ही में राज्य सरकार द्वारा टिहरी जल-विद्युत निगम से टौंस नदी पर 236 मीटर ऊँचा बाँध बनाने का समझौता किया गया है। यह किस श्रेणी में आता है ? 280 मीटर का पंचे वर बाँध किस श्रेणी में आयेगा ?
देहरादून-दिल्ली जैसे बड़े शहरों में हो रहे पानी व बिजली के दुरुपयोग के लिए इन बाँधों का बनना कितना आवश्यक है ? देश में नई आर्थिक नीति के तहत् 8 प्रतिशत विकास दर रखने के लिए हजारों मेगावाट बिजली की भ्रमपूर्ण माँग की आपूर्ति के लिए इन सौ से अधिक परियोजनाओं का होना कितना आवश्यक है? याद रहे कि भारत का प्रत्येक निवासी लगभग 25 हजार रुपये से ज्यादा के कर्ज से दबा हुआ है। ऐसे में विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक, जापान बैंक आफ इण्टरनेशनल कारपोरेशन, अन्र्तराष्ट्रीय वित्त संस्थान व एक्सपोर्ट क्रेडिट एजेन्सी जैसे भयानक वित्तीय संस्थाओं के कर्ज में दबता जा रहा है। उत्तराखण्डी भी उनसे अलग नहीं हैं।
पहले अंग्रेजों और बाद में आजाद भारत के शासकों ने उत्तराखंड की इस विकसित होती आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था को पूरी तरह ध्वस्त करने का षड़यंत्र किया। अंग्रेजों ने उत्तराखंड के इस पर्वतीय क्षेत्र को वन आधारित कच्चे माल व सस्ते श्रम के लिए इस्तेमाल किया। तब न सिर्फ फैलते रेल लाइनों के जाल के लिए पहाड़ के जंगलों को बड़े पैमाने पर काटा गया, बल्कि सर्दियों में आग सेंकने के लिये पहाड़ के परम्परागत पेड़ों को काट कर उसका कोयला बनाया गया। साथ ही विकसित होते शहरी केन्द्रों व फौज के लिए यहाँ के युवाओं की सस्ते श्रम के रूप में सप्लाई होती रही। यह क्रम आजादी के पच्चीस साल बाद तक जारी रहा।
आज सरकारें और लोग ऊर्जा की जरूरतों का हवाला देकर पहाड़ की नदी-घाटियों को जे.पी., रेड्डी, एल.एनटी., एनटीपीसी आदि के हवाले करने, बिजली उत्पादन के नाम पर पहाड़ों व नदियों से उन्हें मनमानी करने की छूट देने की वकालत करते हैं उन्हें यह याद रखना चाहिए कि जब बिजली का आविष्कार ही नहीं हुआ था, तब पहाड़ के लोगों ने आज से एक हजार साल पहले घट ;पनचक्कीद्ध का आविष्कार कर पानी से ऊर्जा उत्पन्न करने की विधि खोज ली थी। यह विधि नदी और पहाड़ों को छेड़े बिना ही ‘रन आफ रिवर’ प(ति से ज्यादा सफल हुई थीं। पहाड़ के लोगों को यह विधि सिखाने के लिए किसी जेपी, रेड्डी, एलएनटी, एनटीपीसी को लाने की जरूरत नहीं पड़ी थी। यह इको सिस्टम को क्षति पहुँचाए बिना विकास करने का पहाड़ के लोगों का सिंचित परंपरागत ज्ञान था। आज सुरंग आधारित जिन बड़ी-बड़ी विनाशकारी परियोजनाओं को ये कम्पनियाँ बना रही हैं वो रन आफ रिवर प(ति नहीं कहलाती हैं। लोगों के इस संचित ज्ञान के आधार पर यहाँ की कृषि, पशुपालन और ग्रामीण दस्तकारी के साथ ही पनचक्की के लिए विकसित की गई रन आफ रिवर प(ति को ऊर्जा की अन्य जरूरतों के लिए विकसित कर यहाँ की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत किया जा सकता था।
राज्य बनने के बाद जल- जंगल- जमीन पर स्थानीय निवासियों के परम्परागत आधिकार बहाल करने और पारिस्थितिकीय तंत्र से ज्यादा छेड-छाड़ किये बिना विकास का वैकल्पिक ढाँचा खड़ा करने की जो जिम्मेदारी राज्य के नए नेतृत्व के जिम्मे थी, वह अपनी वर्गीय प्रतिब(ता के चलते भाजपा-कांग्रेस की सरकारें उसके विपरीत रास्ता चुनती गई। राज्य की आर्थिकी को मजबूत आधार देने के नाम पर ऊर्जा प्रदेश और पर्यटन प्रदेश के नारे गूँजने लगे। विद्युत कंपनियों की बड़ी-बड़ी मशीनों के निर्वाध आवागमन के लिए सड़कों को चैड़ा कर इन सड़कों और सुरंगों का सारा मलवा पेड़ों सहित नदियों में डाल दिया गया। राज्य में राजस्व वसूली के बड़े लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए शराब के व्यवसाय को मुख्य व्यवसाय का दर्जा दे दिया गया। राज्य के सकल घरेलू उत्पाद और प्रति व्यक्ति औसत आय को बढ़ाने के नाम पर जमीनों की लूट का कारोबार पनपाया गया। नतीजे के तौर पर नदी-घाटियों पर विद्युत कंपनियों का कब्जा और मनमानी बढ़ती गई। पर्यटन व्यवसाय और ‘इको टूरिज्म’ को बढ़ावा देने के नाम पर सड़कों, नदी घाटों और जंगलों पर सत्ता के संरक्षण में कब्जा करने की होड़ में कांग्रेस, भाजपा, बसपा, यूकेडी और सपा जैसी कोई भी पार्टी पीछे नहीं रही। अब तक राज्य में विद्युत कम्पनियाँ 1700 वर्ग किलोमीटर जंगल साफ कर चुकी हैं। विभिन्न योजनाओं के लिये राज्य सरकार 17 हजार वर्ग किलोमीटर वनभूमि को हस्तांतरित कर चुकी है। मगर इसके बदले दोगुने क्षेत्र में वृक्षारोपण की अनिवार्य शर्त की खानापूर्ति के लिए दूसरे राज्यों में दर्शाकर आबंटित धन की जमकर लूट की गई। गंगा नदी के सौ मीटर बाहर तक कोई निर्माण न करने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद हरिद्वार से लेकर गंगोत्री-केदारनाथ तक गंगा व अन्य नदियों के जल को छूते हुए होटल व्यवसायियों, धार्मिक संस्थाओं और सरकारी विभागों द्वारा भवन निर्माण 15 जून 2013 तक बेरोकटोक जारी था। राज्य सरकार को हेलीपैडों के इस्तेमाल का कोई भी शुल्क दिए बिना यात्रा सीजन में निजी कंपनियों के हेलीकॉप्टर रोजाना चार चक्कर उच्च हिमालयी क्षेत्रों का लगा रहे थे, जिन पर रोक लगाने के आदेश 10 मई 2013 को माननीय हाईकोर्ट ने दे दिए थे।
सत्ता द्वारा सत्ता के संरक्षण में इको सिस्टम के साथ किये जा रहे इस विनाशकारी व्यवहार ने ही इको सिस्टम को भारी नुकसान पहुँचाया है। इसी का खामियाजा 16-17 जून की विनाशकारी आपदा के रूप में हमें भुगतने को मजबूर होना पड़ा। पहाड़ के जीवन में अति मुनाफे के लिए जब तक यह बाहरी हस्तक्षेप नहीं था, यहाँ के इको सिस्टम को कोई नुकसान नहीं पहुँचा था। मगर अब अति मुनाफे पर खड़ी प्रकृति के लिए विनाशकारी यह राजनीति ‘इको सैंसिटिव जोन’ के माध्यम से उन पर्वतवासियों को विस्थापन की सजा दे रही है जो हजारों वर्षों से इस इको सिस्टम के मजबूत पहरेदार रहे हैं। ‘इको सैंसिटिव जोन’ इनकी परम्परागत आजीविका पर एक बड़ा हमला है जो इन दुर्गम क्षेत्रों के नौजवानों को भी पलायन के लिए मजबूर कर देगा। इको सिस्टम को बचाए रखने और जैव-विविधता की रक्षा के नाम पर उत्तराखंड के एक बड़े भू-भाग को ‘इको सैंसिटिव जोन’ में तब्दील करने का षडयंत्र चल रहा है। इसके पहले चरण में 18 दिसंबर 2012 से गंगोत्री से उत्तरकाशी तक के एक सौ किमी क्षेत्र को ‘इको सेंसिटिव जोन’ घोषित किया जा चुका है। केंद्र सरकार ने सभी राष्ट्रीय पार्कों और सेंचुरीज के दस किलोमीटर बाहरी क्षेत्र को इको सेंसिटिव जोन घोषित करने का निर्णय लिया है।
उत्तराखंड में पहले से चैदह राष्ट्रीय पार्क और सेंचुरीज मौजूद थे। बावजूद इसके राज्य सरकार ने इनकी संख्या बढ़ाने का प्रस्ताव भेज कर इस साल तीन नए सेंचुरीज क्षेत्रों को स्वीकृति दिला दी है। पहले ही इन राष्ट्रीय पार्कों व सेंचुरीज की सीमा में आये राज्य के हजारों गाँवों पर विस्थापन का खतरा मँडरा रहा है। ऐसे में अगर इनके दस किमी बाहरी क्षेत्र को ‘इको सेंसिटिव जोन’ घोषित कर दिया गया तो उत्तराखंड की आबादी के एक बड़े हिस्से को विस्थापन के लिए मजबूर कर दिया जाएगा। राज्य में ‘इको सेंसिटिव जोन’ का भारी विरोध देख सत्ताधारी कांग्रेस और भाजपा ने भी इसका विरोध किया है। इन दोनों पार्टियों का विरोध सिर्फ दिखावा है। सच तो यह है कि इको सेंसिटिव जोन’ के गठन का निर्णय एनडीए सरकार ने 2002 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल विहारी वाजपेई की अध्यक्षता में हुई बैठक में लिया था। इसी तरह 18 दिसंबर 12 को उत्तरकाशी में इको सेंसिटिव जोन के गठन का निर्णय हो जाने के बाद भी न तो राज्य की कांग्रेस सरकार ने इसके खिलाफ कोई कदम उठाया और न ही पूर्व में भेजे गए नए सेंचुरीज के प्रस्तावों को ही वापस लेने की कोई पहल की। अगर राज्य में निर्धारित सभी क्षेत्रों को इको संसिटिव जोन बना दिया गया तो वहाँ के निवासियों का जीना मुश्किल हो जाएगा। वनों पर निर्भर पशुपालन और खेती छोड़ने के लिए उन्हें मजबूर कर दिया जाएगा, लघु वन उत्पाद जो उनका परम्परागत वनाधिकार है से वे वंचित हो जायेंगे। वे अपनी आबादी का विस्तार नहीं कर पायेंगे और पुराने घरों का पुनर्निर्माण करने के लिए वन एवं पर्यावरण मंत्रालय से इजाजत लेनी होगी। जबकि पूँजीपतियों को होटल व कॉटेज बनाकर अपना व्यवसाय करने की इजाजत होगी। बात साफ है कि सरकार इको सेंसिटिव जोन के नाम पर इको सिस्टम को नुकसान पहुँचाने वाली ताकतों के व्यावसायिक हितों की रक्षा के लिए स्थानीय जनता को उनकी जमीनों व परम्परागत आजीविका से बेदखल करना चाहती है।
राज्य बनने के बाद सत्ताधारी कांग्रेस-भाजपा के नेताओं ने योजनाब( तरीके से उत्तराखंड में बचे इको सिस्टम के बदले राज्य को ग्रीन बोनस देने की मांग शुरू कर दी थी। भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ ने तो आगे बढकर हिमालयी राज्यों की बैठक कराने और राज्य को प्रतिवर्ष चालीस हजार करोड़ रुपये ग्रीन बोनस के रूप में देने की मांग कर डाली। तब यह राशि राज्य के कुल सालाना बजट का दोगुना से भी ज्यादा थी। इस अभियान में वर्तमान मुख्यमंत्री से लेकर कई पर्यावरणविद तथा एनजीओ भी लगे हैं। एनजीओ ने हिमालयी राज्यों का अपना एक नेटवर्क भी स्थापित कर दिया है। दरअसल ग्रीन बोनस के नाम पर यह पूरा अभियान जो पिछले बारह वर्षों से उत्तराखंड में चलाया जा रहा है वह इको सेंसिटिव जोन’ के निर्माण के लिए वातावरण तैयार करने के अभियान का ही हिस्सा था जो साम्र्राज्यवादियों और उनकी हितपोषक फंडिंग एजेंसियों द्वारा वित्त पोषित था। हिमालय और उसके इको सिस्टम को हजारों वर्षों से संरक्षित रखने वाले लोगों को उनकी जमीनों और परम्परागत आजीविका से बेदखल कर आखिर यह ग्रीन बोनस किसके लिए माँगा जा रहा है?
जीवन को समझना जरूरी
ज्ञात हो कि 16-17 जून को उत्तराखंड में आई विनाशकारी आपदा ने पहाड़ पर विकास के माडल और इको सिस्टम ;पारिस्थितिकीय तंत्रद्ध से छेड़छाड़ पर बहस को तेज कर दिया है। इस सवाल पर सारी बहसों को अंततः उत्तराखंड में ‘इको संसिटिव जोन’ बनाने के समर्थन में ले जाया जा रहा है। पर्यावरणविदों के अलावा जल-जंगल-जमीन पर जनता के परंपरागत अधिकारों की वकालत करने वाले कई संगठन व लोग भी इसके समर्थन में खड़े दिखाई दे रहे हैं। पहाड़ में वर्तमान विद्युत परियोजनाओं के समर्थक भी इस तबाही को रोकने के लिए और भी बड़े पैमाने पर बाँधों व सुरंगों के जरिये नदियों के वेग को रोकने की खुलकर वकालत कर रहे हैं। मगर इन सारी बहसों के बीच पहाड़ का वो मानव समाज और उसकी चिंताएं नजर नहीं आ रही हैं जो हजारों वर्षों से पहाड़ को, यहाँ के इको सिस्टम को और यहाँ की आत्मनिर्भर स्थानीय अर्थव्यवस्था को बचाता आया है। पहले पहाड़ पर मानव जीवन को समझना जरूरी है। हजारों वर्षों से कृकृषि-पशुपालन और ग्रामीण दस्तकारी पर आधारित पहाड़ की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार वन रहे हैं। इसलिए पहाड़ के लोगों ने हजारों वर्षों से न सिर्फ वनों को लगाया और उनकी रक्षा की बल्कि इको सिस्टम को समझते हुए अपने रहन-सहन और आजीविका के साधनों का विकास किया। पहाड़ के गाँवों की बनावट देखें तो हर गाँव में ऊपर जंगल, जंगल के नीचे आबादी, आबादी के नीचे खेती, खेती के नीचे नदी। यानी किसी भी गाँव की आबादी नदी से सटी नहीं है। अपने अनुभव से हमारे पुरखों ने नदी तट को आबादी के लिए सुरक्षित नहीं माना था। पहाड़ में कहावत है कि नदी और खेत की मैड़ बारह वर्ष में अपनी पुरानी जगह पर आ जाती है। नदी को लेकर यहाँ के ग्रामीणों के इस परम्परागत ज्ञान को वर्तमान आपदा ने पूरी तरह सही साबित कर दिखाया है। पहाड़ के लोगों ने अपने पानी के स्रोतों को बचाए रखने और चोटियों पर अपने पालतू व जंगली जानवरों को पीने का पानी उपलब्ध कराने के लिए चाल-खाल ;छोटे-छोटे तालाबद्ध बनाने की एक प(ति विकसित की जिसमें बरसात का पानी जमा होता था और वह भूगर्भीय जल को बढ़ाने का काम करता था। आज भी हल-बैल के साथ पहाड़ की खेती व पशुपालन से लेकर कृषि यंत्रों तक वनों पर निर्भरता है। चूँकि वन पहाड़ के लोगों के जीवन का अभिन्न अंग हैं इसीलिए एकमात्र उत्तराखंड के पहाड़ ही हैं जहाँ सरकारी वनों से परम्परागत अधिकार छिन जाने के बाद लगभग 16 हजार राजस्व गाँवों वाले राज्य की जनता ने 12 हजार से ज्यादा गाँवों में वन पंचायतें गठित कर सरकारी वनों से इतर अपने खुद के वनों का निर्माण किया है।

शनिवार, 3 जनवरी 2015

हिंदी मासिक उदय दिनमान का जनवरी 2015 अंक का कबर पेज
इस अंक मे है
‘‘आंदोलन’’  गाँव, खेत, खलिहान के बदले एक-एक नौकरी!     यहां के बुग्यालयों में ऐडी-आछरियों का वास      पीडीएफ पर पलटी कांग्रेस     राजनीतिक उथल-पुथल का साल उत्तर प्रदेश के पंचायत राज
अधिनियम पर निर्भर उत्तराखंड      नौकरशाहों की बादशाहत और
उदासीन जनता       ‘रोशनी की एक किरण’    तो धरती पर प्रकट होंगे केदारघाटी
के पाण्डव             ...पहले एक मुकम्मल इंसान तो बनूं !     भक्त और भगवान का रिश्ता      वरदान साबित होती स्थाई लोक अदालत          नस की यह बंदी ,किसकी बांदी!                   ...तो शुरू हो गया मिशन 2017                  
उत्तराखंड में पाॅव पसार रही है आतंकी संस्कृति      ...दुनिया से धर्म गायब हो जाएगा?       पर्यटन उत्थान योजना से गांवों की बदलेगी तस्वीर          
नीतिगत खामियां बनी हैं शिक्षा की बेहतरी में बाधा        ये वादियां ये फिजाएं बुला रही हैं तुम्हें