सोमवार, 23 मार्च 2015

हम ठगने का ‘लाइसेंस’ देते हैं!

बीएड पाठ्यक्रम को 2 वर्षीय किया जा रहा है और शुल्क में भी बेतहाशा वृ(ि की जायेगी, किन्तु इससे सरकार और 600 संचालकों को फायदा है इसलिए इस सुनियोजित ढंग से लूट के व्यवसाय को चालू रखा जा रहा है. कल्याणकारी सरकार के नाम पर सरकारें लुटेरे संगठनों द्वारा संचालित हैं और वे लूट का लाइसेंस दे रही हैं। देश के अलग-अलग भागों में कुकुरमुत्तों की तरह खुले बीएड कालेजों पर मनीराम शर्मा का यह खास आलेख।      संपादक

विश्वविद्यालय और बोर्ड भी प्रायोगिक परीक्षा शुल्क का मद महाविद्यालयों और विद्यालयों के लिए खुला छोड़ देते हैं, ताकि वे मनमानी वसूली कर सकें और प्रायोगिक परीक्षा के वीक्षक का स्वागत सत्कार कर सकें जोकि फलदायी होती है। बोर्ड और विश्वविद्यालयों को चाहिए कि वे प्रायोगिक परीक्षा के लिए शुल्क भी नियमित परीक्षा के साथ ही वसूल कर लें और परीक्षा केंद्र को प्रतिपूर्ति अपने स्तर पर ही करें, न की महाविद्यालयों और विद्यालयों को इसके लिए खुला छोड़ें। महाविद्यालयों को यह भी निर्देश दिया जाय कि वे ड्रेस या अन्य किसी सामग्री का विक्रय नहीं करें और छात्रों से कोई वसूली सरकार से अनुमोदन के बिना नहीं करें।
नागरिकों को सामान्य और व्यावसायिक शिक्षा देना तथा रोजगार उपलब्ध करवाना कल्याणकारी सरकार का संवैधानिक धर्म है। इसलिए शैक्षणिक गतिविधियों से कोई वसूली करना स्पष्टः संविधान विरु( है, किन्तु शिक्षा जगत का क्या हाल है और सरकार इसकी किस तरह दुर्गति कर रही है इसका शायद आम नागरिक को कोई अनुमान नहीं है। उदारीकरण, जो कि संविधान की समाजवाद की मूल भावना के सर्वथा विपरीत है, का लाभ धनपतियों और कुबेरों को मुक्तहस्त दिया जा रहा है। यही कारण है कि पंचवर्षीय योजनाओं को ठेंगा दिखाती हुई गरीब और अमीर के बीच की खाई स्वतन्त्रता के बाद बढ़ती ही जा रही है। शायद इस अधोगति के रुकने के कोई आसार दिखाई भी नहीं देते।
शिक्षक भर्ती के लिए आवश्यक बीएड पाठ्यक्रम और निजी संस्थानों की भागीदारी इस दुर्भि संधि को प्रकट करती है। उदारीकरण से पूर्व इस पाठ्यक्रम का संचालन मुख्यतया राज्य क्षेत्र में ही था और वांछित शिक्षकों की पूर्ति सामान्य रूप से हो रही थी। राजस्थान में राज्य एवं निजी क्षेत्र को मिलाकर वर्षभर में सामान्यतया 20000 अतिरिक्त शिक्षकों की आवश्यकता होती है। किन्तु सरकार ने लगभग एक लाख अभ्यर्थियों के लिए बीएड पद सृजित कर दिये हैं। ऐसी स्थिति में काफी व्ययभार उठाकर यह बेरोजगारों की एक फौज प्रतिवर्ष तैयार हो रही है, जो अपना समय और धन लगाकर भी निश्चित रूप से आखिर बेरोजगार ही रहनी है। बीएड पाठ्यक्रम में आगामी वर्ष से परिवर्तन कर सरकार इस कोढ़ में खाज और करने जा रही है। बीएड के अभ्यर्थी से इस विद्यमान एकवर्षीय पाठ्यक्रम के लिए 25 हजार रुपये वार्षिक शुल्क लिया जाता है, जो की पूर्व में मात्र दस हजार रुपये था। अब बीएड पाठ्यक्रम को 2 वर्षीय किया जा रहा है और शुल्क में भी बेतहाशा वृ(ि की जायेगी, किन्तु इससे सरकार और 600 संचालकों को फायदा है इसलिए इस सुनियोजित ढंग से लूट के व्यवसाय को चालू रखा जा रहा है। पहले एक बीएड महाविद्यालय से मान्यता के नाम पर दस लाख रुपये से अधिक शुल्क सरकार और विश्वविद्यालयों द्वारा लिया जाता था और अब दो वर्षीय पाठ्यक्रम के लिए सरकार द्वारा सोलह लाख रुपये और अतिरिक्त लिए जा रहे हैं। निश्चित रूप से इतनी राशि का सरकार को भुगतान करके इस निवेश पर कोई भी व्यक्ति अच्छा मुनाफा कमाना चाहेगा। सेवा के नाम पर कोई भी इतना बड़ा निवेश नहीं करना चाहेगा। इस आकर्षक व्यवसाय के कारण कई संचालकों ने तो अपने विद्यालय बंद करके महाविद्यालय प्रारम्भ कर दिए हैं।विश्वविद्यालय और बोर्ड भी प्रायोगिक परीक्षा शुल्क का मद महाविद्यालयों और विद्यालयों के लिए खुला छोड़ देते हैं, ताकि वे मनमानी वसूली कर सकें और प्रायोगिक परीक्षा के वीक्षक का स्वागत सत्कार कर सकें जोकि फलदायी होती है। बोर्ड और विश्वविद्यालयों को चाहिए कि वे प्रायोगिक परीक्षा के लिए शुल्क भी नियमित परीक्षा के साथ ही वसूल कर लें और परीक्षा केंद्र को प्रतिपूर्ति अपने स्तर पर ही करें, न की महाविद्यालयों और विद्यालयों को इसके लिए खुला छोड़ें। महाविद्यालयों को यह भी निर्देश दिया जाना अति आवश्यक है कि वे ड्रेस या अन्य किसी सामग्री का विक्रय नहीं करें और छात्रों से कोई वसूली सरकार से अनुमोदन के बिना नहीं करें। आश्चर्य होता है कि सरकार को महाविद्यालय और विद्यालय संचालकों की तो चिंता है और उनके द्वारा वसूली जाने वाले शुल्क तय कर दिया है, किन्तु उनके द्वारा दी जाने वाली सेवाओं के मानक और सम्ब( बातों को न तो तय किया जाता, न उनकी निगरानी और न ही नियमन है। और तो और इन महाविद्यालयों व विद्यालयों में कार्यरत कार्मिकों के हितों का कोई नियमन नहीं किया जाता और वे सभी पसीना बहाने वाले शोषण का शिकार होते हैं। उन्हें नियमानुसार अवकाश, भविष्यनिधि और अन्य कोई परिलाभ तक नहीं दिया जाता है।कई मामलों में तो उन्हें दिया जाने वाला वेतन न्यूनतम मजदूरी से भी कम होता है। सरकार इस कुतर्क का सहारा ले सकती है कि जिसे करना हो वह बीएड करे या इस नौकरी के लिए वह किसी को विवश नहीं कर रही है। किन्तु जनता को इस बात का ज्ञान नहीं है कि बीएड के बाद भी रोजगार दुर्लभ है। कीट पतंगे युगोंकृयुगों और पीढ़ियों से आग में जलकर मर रहे हैं दृउन्हें आजतक ज्ञान नहीं हुआ है और यह सिलिसिला आज तक नहीं थमा है। नागरिक हितों की हरसंभव रक्षा करना और मार्गदर्शन सरकार का दायित्व है। फिर यही बात सरकार चिकित्सा महाविद्यालयों के सन्दर्भ में क्यों नहीं करती, जिससे प्रतिस्पर्द्धी वातावरण में जनता को सस्ती चिकित्सा सेवाएं उपलब्ध हो सकें।आधारभूत संरचना के नाम पर इन बीएड कालेजों के पास मात्र कागजी खानापूर्ति है और छात्रों से महाविद्यालय संचालक प्रायोगिक परीक्षा और अन्य खर्चों के नाम पर अतिरिक्त अवैध वसूली भी कर रहे हैं। छात्रों को महाविद्यालय न आने की भी सुविधा भी अतिरिक्त अवैध शुल्क से दे दी जाती है। अर्थात बीएड शिक्षण एक औपचारिक पाठ्यक्रम है। जिस तकनीक एवं विधि से बीएड में पढ़ाना सिखाया जाता है वह भी व्यावहारिक रूप से बहुत उपयोगी नहीं है। अन्य राज्यों की स्थिति भी लगभग राजस्थान के समान ही है। निष्कर्ष यही है कि कल्याणकारी सरकार के नाम पर सरकारें लुटेरे संगठनों द्वारा संचालित हैं और वे लूट का लाइसेंस दे रही हैं। अब जनता सावधान रहे। शायद आने वाले 20-30 वर्षों में आम नागरिक का पूर्ण रक्तपान हो जाएगा तथा गरीब बचेंगे ही नहीं। संपन्न तथा सत्ता के दलाल और अधिक संपन्न जरूर हो जायेंगे।

रविवार, 22 मार्च 2015

‘बेरोजगार’ उत्तराखंड



रोटी के लिए महानगरों का मुह ताकते को हम मजबूर
814 साल में साढ़े आठ लाख बेरोजगारों की फौज में 30 हजार नौकरियां मिलीं
8हर साल 2153 रोजगार का एवरेज और हर महीने 179 रोजगार
8इस साल सबसे ज्यादा रोजगार पाने वाले जिलों में पिथौरागढ़,  बागेश्वर, रुद्रप्रयाग व गोपेश्वर शामिल
अलग उत्तराखंड राज्य आंदोलन की जिन लोगों को याद है शायद ही वे यह भूले हों कि इस आंदोलन का मकसद उत्तरप्रदेश से इतर एक अलग भौगोलिक सांस्कृतिक पहचान पाना था। लेकिन आंदोलन का केन्द्र बिन्दु और चिंता पलायन ही थी। पहाड़ और पलायन पर मर्सिया पढने के शुरुआती दिनों में पलायन के जोरदार और तार्किक पोस्टमार्टम किये गये। लब्बो लुआब यह कि पहाड़ में रोजगार के संकट के चलते जबरदस्त पलायन हुआ। पलायन की यह परंपरा कमोबेस आज भी जारी है। इस परंपरा पर प्रकाश डालने से पहले यह बताना समीचीन होगा कि उत्तराखंड की आबादी का जो पलायन महानगरों की और हुआ उसमें गांवों की भूमिका 90 फीसदी से भी अधिक रही। यानि शतप्रतिशत पलायित कृकृषि, पशुपालन एवं संबंधित अवलंबनों के आधीन थे। इसी पर केंद्रित संतोष बेंजवाल और प्रियंक मोहन बशिष्ठ का यह खास आलेख।   संपादक
सदियों से पहाड़ की यही कहानी और यही सच्चाई भी है। ये कहानी है-पलायन की। अपने विकास और खूबसूरत दुनियां को देखने की चाहत के ये विभिन्न अनचाहे रूप हैं। एक मकान केवल इसलिए खंडहर में बदला क्योंकि उसे संवारने के लिए घर में पैसा नहीं था और एक मकान में ताले पर इसलिए जंङ लगा है कि वहां से अपनी प्रगति की इच्छा लिए पलायन हो चुका है। इनमें कोई इसलिए अपने पुश्तैनी घर नहीं लौटे क्योंकि वे बहुत आगे निकल चुके हैं और सब कुछ तो यहां खंडहरों में बदल चुका है। इनमें कई तालों और खंडहरों का संबंध तो राष्ट्राध्यक्ष, राजनयिकों, सेनापति, नौकरशाहों, लेखकों, राजनीतिज्ञों, वैज्ञानिकों, शिक्षकों और लोक कलाकारों का इतिहास बयान करता है जबकि अधिसंख्य खंडहर उत्तराखंड की गरीबी-भुखमरी, बेरोजगारी-लाचारी और प्राकृतिक आपदाओं की कहानी कहते हैं। पलायन और पहाड़ का संबंध कोई नया नही है। वतर्मान समय में पलायन का यह प्रवाह उल्टा हो गया है। जनसंख्या बढ़ने से प्राकृतिक संसाधनों पर बढते बोझ, कमरतोड़ मेहनत के बावजूद नाममात्र की फसल का उत्पादन और कुटीर उद्योगों की जर्जर स्थिति के कारण युवाओं को पहाड़ों से बाहर निकलने को मजबूर होना पड़ा।
उत्तराखंड राज्य निर्माण के बाद बनी किसी भी सरकार ने इस गंभीर समस्या के समाधान के लिये ईमानदार पहल नहीं की। अपितु मैदानी इलाकों को तेजी से विकिसत करने की सरकारी नीति से असन्तुलित विकास की स्थिति पैदा हो गयी है। जिससे पहाड़ से मैदान की तरफ होने वाले पलायन को बढ़ावा ही मिलेगा। क्या उत्तराखंड की सरकार पहाड़ों के पारंपरिक उद्योगों के पुनरुत्थान के लिए भी प्रयास करेगी? पयर्टन उद्योग और गैरसरकारी संस्घ्थानों के द्वारा सरकार पहाड़ों के घ्विकास के घ्लिए योजनाएं चला रही है, उससे पहाडी लोगों को कम मैदान के पूंजीपतियों को ही ज्यादा लाभ मिल रहा है।पहाड़ के गांवों से होने वाले पलायन का एक पहलू और है। वह है कम सुगम गांवों और कस्घ्बों से बड़े शहरों अथवा पहाड़ों की तलहटी पर बसे हल्द्वानी, कोटद्वार, देहरादून, रुद्रपुर और हरिद्वार जैसे शहरों को होता बेतहाशा पलायन। मैदानी इलाकों में रहकर रोजगार करने वाले लोग सेवानिवृत्ति के बाद भी अपने गांवों में दुबारा वापस जाने से ज्यादा किसी शहर में ही रहना ज्यादा पसन्द करते हैं। स्थिति जितनी गम्भीर बाहर से दिखती है असल में उससे कहीं अधिक चिंताजनक है। जो गांव शहरों से 4-5 किलोमीटर या अधिक दूरी पर हैं उनमें से अधिकांश खाली होने की कगार पर हैं। उत्तराखंड में पढे लिखों की जमात के पौ बारह होते पलायन की भी शक्ल बदलती रही । यानि 40 के दशक से 70 के दशक तक घरेलू कामगार यूनियनों के मैम्बर रहे उत्तराखंडी भाई 70 से 90 के बीच दिल्ली मुबई जैसे महानगरों में सरकारी आफिसों में चपड़ासी से क्लर्क तक प्रमोशन पा गये । 90 के बाद का दशक किसका रहा यह बताने से पहले यह जानना जरूरी होगा कि अखबारों में आये दिन छपने वाले विज्ञापनों से यह हटा दिया कि घरेलू काम के लिए पहाड़ी गढवाली कुमांउनी को प्राथमिकता दी जायेगी। यानि 90 के बाद का पलायन उत्तराखंड में थोक के भाव खोल दिये गये आम शिक्षण संस्थानों और आईटीआई पौलटैकनिक के बेरोजगारों का रहा । कांग्रेस के शासन में इनमें से अब कई प्राविधिक संस्थान बंद कर दिये गये हैं । राज्य आंदोलन के दिनों में इन्हें बेरोजगार पैदा करने की फैक्टरियां कहा जाता था।
इन बेरोजगार पैदा करने वाली फैक्ट्रियों के उत्पाद के साथ कुछ मात्रा में हाईस्कूल फेल पास ग्रामीणों की जमात भी अभी तक महानगरों की ओर भाग रही है। यह स्वीकार करना होगा कि अलग उत्तराखंड राज्य बनने के बाद पलायन की रफ्तार और संख्या में थोडा बहुत कमी जरूर दर्ज हुई है, लेकिन इस कमी को उच्च शिक्षित जमात ने पूरा कर दिया है। पलायन के तराजू पर राज्य की सार्थकता को देखा जाय तो राज्य बनने के बाद के आठ वर्ष इस बात की ताकीद नही करते कि इस ओर कोई ठोस प्रयास हुए हैं । शिक्षा के तंत्र में बेरोजगारों को अल्प रोजगार के रूप में ठूंसने के प्रयास राज्य में अब तक बनी सरकारों ने खूब किये हैं। लेकिन असंतोष बरकरार है। आये दिन उत्तराखंड आंदोलनों से गुलजार है तो राजनैतिक दल सत्ता के सूखों की बंदरबाट में इतने व्यस्त हो गये हैं कि पलायितों का मायका बत्तीधारी राजनैतिक महत्वाकांक्षियो का अडडा बन गया है। पिछले 8 सालों में जो परिदृश्य देखने को मिल रहा है उससे यह ढांढस नही बंधता कि राज्य के पास कोई ऐसा जिम्मेदार नेता अभिभावक के रूप में है जो पार्टीगत खींचतान और तुष्टिकरण से बाहर निकल कर राज्य के हित में खड़ा हो। उत्तराखंड के विकास का माडल पंतनगर, सितारगंज, उधमसिंह नगर, देहरानून और हरिद्वार में गुल खिला रहा है। लेकिन पहाड़ यहां भी नदारद हैं। उद्योग या रोजगार विहीन उत्तराखंड का पर्वतीय क्षेत्र अभी भी बियाबान ही बना हुआ है क्योंकि तराई एवं सिचाई संपन्न मैदानी इलाका जहां अब उद्योग लगाये गये है, हमेशा से लहलहाती फसलों के लिए जाना जाता रहा है। राज्य के रहनुमाओं ने कृषि क्षेत्र में तो आसानी से सेंध लगाली लेकिन दुर्गम की ओर जाने का हौसला अब भी नही जुट पा रहा । थोड़ा सा अतीत की ओर नजर डाली जाय तो उत्तराखंड राज्य आंदोलन इन्हीं पहाड़ी जिलों का आंदोलन था। जहां अब राज्य कृकृषि, उद्योग को तिरोहित कर बेरोजगारों को सुविधानुसार बगैर वेतन स्कूलों में ठूंस रहा है। उद्योग धंधें से पूरे पर्वतीय इलाके को महरूम रखा गया है। अब सिर्फ इन क्षेत्रों के विकास के नाम पर नहर गुल और पुल बनवा रहे हैं। तय है कि इस तरह के टोटकों से तात्कालिक राहत मिल सकती है। दीर्घकालिक समाधान के लिए राज्य के प्रति समपर्ण और आंतरिक ईमानदारी की दरकार होगी। पर्वतीय इलाकों में उन स्थानों और उन उद्योगों का चयन करना होगा जो सभी तरीके से ठीक हों । नगदी देने वाली फसलों ने राज्य की लघु कृकृषि बिरादरी को पिछले वर्षों में अच्छा संबल दिया है। इस क्षेत्र की घोर उपेक्षा हुई है। कृकृषि क्षेत्र में आज भी बेरोजगारी की भीषण समस्या के समाधान तलाशे जा सकते हैं। क्या राज्य में इस तरह से गंभीर माहौल तैयार हो पायेगा।? यह प्रश्न स्वयं से पूछने के साथ-साथ हुक्मरानों के चेहरों में पढा जाना चाहिए। आजीविका और रोटी के लिए महानगरों का मुह ताकते वालों को तो यह मान लेना चाहिए कि राज्य से पलायन करना उनकी मजबूरी के साथ अब नियति बन गयी है। स्टेट में साढ़े आठ लाख बेरेाजगारों एवज में मिली नौकरियों की बात की जाए तो युवाओं के लिए वर्ष 2005 बेहद मुफीद रहा। इस वर्ष अब तक के 14 सालों के इतिहास में सबसे ज्यादा 6094 युवा बेरोजगारों को नौकरी मिली। जबकि राज्य स्थापना वर्ष में सबसे कम 37जाब्स मिले। यकीनन 2000 के आखिरी दो महीनों में नौकरियों का यह आंकड़ा रहा। इसके बाद सबसे कम नौकरियों के लिए 2013 का वर्ष भी नीचले पायदान पर रहा। हालांकि यह वर्ष राज्य के  लिए आपदा वर्ष भी कहा जाता है। ऐसे ही देहरादून सेवायोजन की बात की जाए तो 2005 यहां के लिए भी सुखद वर्ष रहा, जब इस साल सबसे ज्यादा 3,164 नौकरियां बेरोजगारों के हाथ लगी। उदय दिनमान  ने पहले ही बताने की कोशिश की है कि प्रदेश के 14 साल के सफर में साढ़े आठ लाख बेरोजगार युवाओं के एवज में 31, 145 बेरोजगार को रोजगार मिले हैं। लेकिन अब हम यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि इन 14 सालों में किस वर्ष सबसे ज्यादा युवाओं को नौकरी हाथ लगी। इस लिहाज से बेरोजगार युवाओं के लिए 2005 सबसे अच्छा साबित हुआ। इस साल 6094 रोजगार मिले। दूसरा साल 2007 रहा, जब 3956 रोजगार मिले। उसके बाद 2006 में 3169 और 2002 में 2930 नौकरियां बेरोजगारों को मिली। सबसे कम नौकरियां 2000 में केवल 37 मिली। इसी प्रकार से कम नौकरियों की सीरिज में 2001, जब 836, 2013 में 602 नौकरियां मिलीं। इसी प्रकार से देहरादून क्षेत्रीय सेवायोजन कार्यालय की बात की जाए तो यहां भी 2005 सफल वर्ष रहा। जब इस साल 3165 बेरोजगार नौकरी पाने में सक्सेस रहे। 2008 में 624, 2007 मं 543 नौकरियां मिलीं। सबसे कम दून सेवायोजन के लिए वर्ष 2012 रहा। जब केवल इस लाखों बेरोजगारों की तुलना में केवल 11 नौकरियां मिल पाईं। 2013 में 20, 2014 में 22 नौकरियां ही मिल पाईं। अब आप ही अंदाजा लगा सकते हैं कि प्रदेश में जहां लाखों की तादात में बेरोजगार की फेहरिस्त है, उसके एवज में कितने रोजगार मिल पा रहे हैं। जबकि जब भी चुनाव नजदीक आते हैं पालिटिकल पार्टियां लाखों की नौकरियों की बात करते हैं। खुद वर्तमान सरकार ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में दो लाख बेरोजगारों को रोजगार देने का वादा किया था।
14 साल 8 सीएम के कार्यकाल में नौकरियांः
नित्यानंद स्वामी-37,भगत सिंह कोश्यारी-826
एनडी तिवारी-20826,बीसी खंडूडी-4245
रमेश पोखरियाल निशंक-1607,विजय बहुगुणा-2025,हरीश  रावत-669
;नौकरियों के आंकड़े वर्षवार दिए गए हैं, जो कुछ ऊपर-नीचे हो सकते हैं।द्ध
स्टेट में वर्षवार मिली नौकरियां
2000-37
2001-836
2002-2930
2003-2074
2004-2603
2005-6094
2006-3169
2007-3956
2008-2137
2009-2108
2010-632
2011-632
2012-1423
2013-602
2014-669
देहरादून सेवायोजन में वर्षवार मिली नौकरियां
2000-159
2001-102
2002-256
2003-305
2004-287
2005-3164
2006-357
2007-543
2008-624
2009-231
2010-31
2011-20
2012-11
2013-20
2014-22
नौकरी पानी किसी चुनौती से कम नहीं
यह सच है कि देश-दुनिया में आज के वक्त में रोजगार पाना किसी चुनौती से कम नहीं है। लेकिन 14 साल पहले जिस राज्य की कल्पना के साथ राज्य का गठन हुआ था, उस वक्त युवाओं के सपने बेहद उत्साह के साथ मजबूत थे। इंप्लाएमेंट के सोर्सेस खुलने के आसार थे। कई सरकारें आई, रोजगार संबंधी कई घोषणाएं हुईं, कोशिशें की भी जारी रहीं। लेकिन आंकड़े आपके सामने है। कुछ छिपा नहीं है। जिस प्रदेश की आबादी सवा करोड़ के पार हो गई हो, साढ़े आठ लाख बेरोजगार इंप्लाएमेंट की तलाश में राह ताक रहे हों, शायद उस नए प्रदेश में महज 30 हजार को रोजगार मिलना समझ में कम ही आता है। खैर, यह रोजगार पानी नए प्रदेश उत्तराखंड में भी कम से कम अब तो जंग जीतना प्रतीत होता है। सरकारें आगामी वर्षों में रोजगार के लिए क्या स्किल्स डेवलेप करती हैं, कितना रोजगार दिलाती हैं। यह तो वक्त बताएगा। लेकिन हकीकत से आप भी रूबरू हो जाएं।
270114 बेरोजगार, 37 को मिली नौकरी
जिस वक्त 9 नवंबर 2000 को उत्तराखंड राज्य का गठन हुआ था। उस साल केवल दो महीने के भीतर उत्तराखंड में 270114 बेरोजगार रजिस्टर्ड हुए थे। बदले में 37 युवाओं को रोजगार मिल पाया था। उसके अगले वर्ष 313185 बेरोजगारों की तुलना में 836 को मिला था रोजगार।
नियुक्ति के हिसाब से 2005 रहा मुफीद
बात रोजगार की हो रही है तो साल 2005 रोजगार की हिसाब से बेरोजागरों के लिए सबसे धनी वर्ष रहा है। इस साल 380217 रजिस्टर्ड बेरोजगारों की तुलना में 6094 बेरोजगारों को रोजगार मिला।
साल 2007 में 3856 युवाओं को रोजगार मिला। 2006 में 3169 और 2002 में 2930 बेरोजगारों के इंप्लाएमेंट के सपने पूरे हुए। ऐसे ही 2000 में जहां
37 को नौकरी मिली, वैसे ही 2001 में 836, 2010 में 632, 2011 में 975 2014 में 669 और 2013 में सबसे कम 602 बेरोजगारों को रोजगार मिला।
युवाओं को मिली नौकरी पर नजर
अल्मोड़ा-15,नैनीताल-80,पिथौरागढ़-229,यूएसनगर-32
बागेश्वर-146,चंपावत-21,देहरादून-22,टिहरी-15
उत्तरकाशी-02,हरिद्वार-01,पौड़ी-13,गोपेश्वर-42
रुद्रप्रयाग-51, 229 नौकरी के साथ पिथौरागढ़ रहा अव्वल पर। बीते वर्ष यानी 2014 में हरिद्वार ऐसा जिला रहा है, जहां 91 हजार से अधिक युवाओं की भीड़ में केवल एक युवा को ही रोजगार मिल पाया। सबसे अव्वल पर आपदा प्रभावित जिले पिथौरागढ़, बागेश्वर, गोपेश्वर व रुद्रप्रयाग रहे।
साल-सूची;संप्रेषणद्ध-नियुक्ति-रजिस्टेªशन
2000-1436-37-270114
2001-14276-836-313185
2002-17853-2930-345211
2003-18630-2074-33755
2004-28199-2603-314472
2005-37049-6094-380217
2006-39370-3169-473618
2007-51739-3856-481832
2008-19025-2137-489744
2009-27177-2108-488789
2010-20661-632-565559
20011-17135-975-661642
2012-9165-1423-704398
2013-5668-602-751024
2014-5305-669-867476
कुल नियुक्तियां-30,145
;डाटा सोर्स इंप्लाएमेंट डायरेक्ट्रेटद्ध
उत्तराखंड के पहाड़ पलायन के कारण खाली
उत्तराखंड की खूबसूरत वादियों में जहां मैदानी क्षेत के सैलानी पाकृतिक सौंदर्य का लुफ्त उठाने के लिए आते हैं वहीं गरीबी व सुविधाओं के अभाव से तस्त इन पहाड़ों के लोग रोजगार की तलाश में मैदानों की तरफ पलायन कर रहे हैं। पलायन के कारण उत्तराखंड के दो जिलों अल्मोड़ा और पौड़ी में जनसंख्या बढ़ने की दर नकारात्मक हो गई है। योजना आयोग ने इस पलायन को खतरनाक और लोगों का अंसतोष करार दिया है। आगामी 22 मई को योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया और उत्तराखंड के मुख्यमंती विजय बहुगुणा के बीच बैठक होनी है। इस बैठक में राज्य की वर्ष 2013-14 के लिए वार्षिक योजना का आकार तय होना है। योजना आयोग ने इस आकार को 8,500 करोड़ रुपए तय करने का पस्ताव किया है। यह राशि पिछले साल के 8,200 करोड़ से मात तीन फीसद ज्यादा है। इसकी वजह राज्य सरकार द्वारा योजनागत राशि को खर्च करने में लापरवाही बरतना है। वर्ष 2012-13 में ही योजना राशि का 95 फीसद खर्च हुआ अन्यथा इससे पहले कभी 65 फीसद तो कभी 60 फीसद ही खर्च हुआ था। आयोग ने जो अपनी रिपोर्ट तैयार की है, उसमें पहाड़ी इलाकों की आबादी का पलायन महत्वपूर्ण मुद्दा है। आयोग के मुताबिक अल्मोड़ा और पौड़ी की आबादी बढ़ने के बजाए घटी है। अल्मोड़ा की आबादी घटने की रफ्तार -1.73 फीसद और पौड़ी की -1.51 फीसद है। बाकी पहाड़ी जिलों चमोली, रुदपयाग, टिहरी, पिथोरागढ़ और बागेश्वर की आबादी 5 फीसद से भी कम की रफ्तार से बढ़ी है जबकि देश की आबादी बढ़ने की औसत रफ्तार 17 फीसद है। उत्तराखंड के ही मैदानी जिले ऊधम सिंह नगर की अबादी 33.40 फीसद, हरिद्वार की 33.16 फीसद, देहरादून की 32 फीसद और नैनीताल की आबादी 25 फीसद की रफ्तार से बढ़ी है। आयोग ने पहाड़ों से अबादी के पलायन के लिए नौकरियों को लेकर असंतोष व अवसरों की कमी को कारण माना है। इस मुद्दे पर उत्तराखंड के मुख्यमंती के साथ विचार-विमर्श होगा। पलायन का असर लिंग अनुपात पर भी पड़ा है। उत्तराखंड में लिंग अनुपात घटकर 886 हो गया है। पिथौरागढ़ में बलिकाओं की संख्या 842 पति हजार रह गई है। योजना आयोग ने इसे खतरे की घंटी बताया है। असंतोष का एक कारण यह भी है कि पहाड़ों में शिक्षा के उचित साधन और अवसर नहीं हैं। गांवों में उपयुक्त स्कूल नहीं हैं या शिक्षक नहीं हैं। आयोग की रिपोर्ट के अनुसार पहाड़ में एक बच्चे की पढ़ाई पर 16,881 रुपए का खर्च आता है, यह मैदानों से 2 से 3 गुना ज्यादा है। राज्य में 17 फीसद स्कूल एक ही टीचर से चलाए जा रहे हैं। 59 फीसद टीचर ठेके पर और अपशिक्षित हैं। राज्य में 17 हजार शिक्षकों के पद खाली पड़ी हैं। आज जहां शहरों में पढ़ाई-लिखाई के लिए एक से एक बढ़िया स्कूल चल रहे हैं वहीं पहाड़ों के स्कूलों का क्या हाल है, इसकी एक झलक एएसईआर की 2012 की रिपोर्ट से मिलती है। रिपोर्ट के अनुसार कक्षा पांचवीं के 42 फीसद और सांतवीं के 24 फीसद छात कक्षा दो की पाठयपुस्तक नहीं पढ़ पाते। पांचवीं के 70 फीसद और सांतवीं के 46 फीसद छात अंगेजी की एक साधारण लाइन नहीं पढ़ पाते, 65 फीसद पांचवीं के बच्चे और 43 फीसद आठवीं के बच्चे गणित में भाग नहीं बना पाते।। यही हाल स्वास्थ्य क्षेत का है। न अस्पताल हैं, न डाक्टर और न ही लैब हैं।

गुरुवार, 19 मार्च 2015

सदन में हो रही सरकार की किरकिरी

सदन में हो रही सरकार की किरकिरी

केदारनाथ यात्रियों का रजिस्ट्रेशन जरूरी

केदारनाथ यात्रियों का रजिस्ट्रेशन जरूरी

जन सरोकारों से जुड़े एक नए आन्दोलन का आगाज़

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बुधवार, 18 मार्च 2015

Gayatri Mantra

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‘मोदी मैजिक’ और कांग्रेस?

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राजनीति को विकास से रखें दूरःसीएम

राजनीति को विकास से रखें दूरःसीएम

Jagrans News: समाचार, Sports:स्पोर्ट्स ,Entertainment:मनोरंजन

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मंगलवार, 17 मार्च 2015

प्रशिक्षु डाक्टरों का उत्पात

प्रशिक्षु डाक्टरों का उत्पात

गोद के ल‌िए इंतजार

गोद के ल‌िए इंतजार

गोद के ल‌िए इंतजार

गोद के ल‌िए इंतजार

सरकार पर ‘पुलिस राज’ का इल्जाम

सरकार पर ‘पुलिस राज’ का इल्जाम

पीएम आवास पर उपवास करेंगें कांग्रेसी

पीएम आवास पर उपवास करेंगें कांग्रेसी

“The work of repair of Chaar dhaam routes and improvisation should be sped up

“The work of repair of Chaar dhaam routes and improvisation should be sped up

Jagrans News: समाचार, Sports:स्पोर्ट्स ,Entertainment:मनोरंजन

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सोमवार, 16 मार्च 2015

उत्तराखंड में चलेगी मेट्रो!


वित्त मंत्राी ने पेश किया बजट

सोमवार को उत्तराखंड विधान सभा के पटल पर बजट 2015-16 पेश किया गया। वित्त मंत्राी इंदिरा हृदयेश ने शाम चार बजे प्रश्नकाल के बाद बजट पेश किया। बजट में खास बात यह रही कि देहरादून-)षिकेश-हरिद्वार, रुद्रपुर-लालकुंआ-किच्छा-हल्द्वानी-काठगोदाम के बीच मेट्रो चलाने के अध्ययन हेतु कार्य समूह का गठन की बात रखी गई है। वहीं, मुख्यमंत्राी हरीश रावत ने वित्त मंत्री डा. ;श्रीमतीद्ध इंदिरा हृदयेेश द्वारा वर्ष 2015-16 के लिए प्रस्तुत बजट का स्वागत करते हुए कहा है कि यह बजट सभी प्रदेशवासियों के हित में है। इससे नये उत्साह का संचार होगा। जनता की सहभागिता से राज्य के समावेशी विकास का प्रयास किया गया है। हमने जहां राज्य के आर्थिक संसाध्नों को बढ़ाने पर बल दिया है, वहीं सभी वंचित व कमजोर वर्गों के कल्याण के लिए अनेक नई पहल की है। बजट में वित्तीय अनुशासन का भी ध्यान रखा गया है। मुख्यमंत्राी ने कहा कि राज्य को केन्द्र सरकार के बजट से काफी उम्मीद थी, कि वहां से कापफी बड़ी ध्नराशि का सहयोग राज्य को मिलेगा। केन्द्र में नीतिगत कारणों से असमंजस की जो स्थिति है, उसके आलोक में वित्त मंत्राी ने घाटे को नियंत्रित करते हुए वर्ष 2015-16 में सरप्लस बजट दिया है। बजट में हर क्षेत्रा का ध्यान रखा गया है। बजट के माध्यम से प्रयास किया है कि प्रदेश में पलायन की गति को नियंत्रित किया जाय। शिक्षा के क्षेत्रा में कापफी कुछ नया करने की बात कही गई है। राज्य में स्थापित विश्वविद्यालयों में स्कूल आॅपफ लोकल लैग्वेज खोला जायेगा। अल्मोड़ा में आवासीय विश्वविद्यालय स्थापित करने की बात कही गई है। प्रत्येक विकासखण्ड स्तर पर राजीव गांध्ी अभिनव विद्यालय स्थापित होंगे। दो सैनिक स्कूल स्थापित होंगे। बजट निर्माण में जनता से भी सुझाव लिए गए। वित्त मंत्राी ने बजट में अभिनव पहल करते हुए जन्म से विकलांग बच्चों को 18 वर्ष की आयु तक 500 रूपए प्रति माह पेंशन देने की योजना प्रारम्भ की है। यह बजट एक नया अध्याय शुरू करेगा। राज्य आंदोलनकारियों के कल्याण के लिए ‘‘राज्य आंदोलनकारी कल्याण कोष’’ की स्थापना की गई है। बजट में 38वें राष्ट्रीय खेलों, ‘‘मुख्यमंत्राी वृ( महिला पोषण योजना’’, ‘‘मेरा गांव-मेरी        शेष पेज चार पर
 सड़क योजना’’, ‘‘मेरे बुजुर्ग मेरे तीर्थ योजना’’ के लिए ध्नराशि का प्राविधन किया गया है। हमारी सरकार महिलाओं की सुरक्षा व कल्याण के लिए प्रतिब( है। ‘‘वीर चंद्र सिह गढ़वाली योजना’’ को और व्यापक करते हुए इसमें महिलाओं के लिए 20 प्रतिशत तक मात्राकरण किया गया है। पीआरडी व होमगार्ड्स में महिलाओं के लिए 20 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की जाएगी। महिलाओं को स्वव्यवसाय से जोड़ने के लिए इंदिरा प्रियदर्शिनी कामकाजी महिला योजना प्रारम्भ की जा रही है।
आयः
- 2015-16 में राजस्व प्राप्तियों में 25777.67 करोड़ रुपए की राजस्व आय अनुमानित है।
- 2014-15 के आय व्ययक अनुमान में कर राजस्व 12157.26 करोड़ रुपए के सापेक्ष 2015-16 में 23.30 प्रतिशत वृद्वि सहित 14989.57 करोड़ की प्राप्ति अनुमानित है।
- करेत्तर राजस्व के अंतर्गत 10788.11 करोड़ की प्राप्ति अनुमानित है।
- 2014-15 में कुल 29825.16 करोड़ रुपए प्राप्तियों के अनुमान के सापेक्ष वर्ष 2015-16 में कुल प्राप्तियां 32310.07 करोड़ रुपए अनुमानित है।
व्ययः
- 2014-15 के आय व्ययक में कुल 30353.78 करोड़ व्यय अनुमान के सापेक्ष 2015-16 में 32693.64 करोड़ रुपए का कुल व्यय अनुमानित है।
- 2015-16 में आयोजनेत्तर व्यय 21059.15 करोड़ अनुमानित है जो कुछ व्यय का 64.41 प्रतिशत है। 2014-15 के अनुमान 18676.65 करोड़ के सापेक्ष आयोजनेत्तर व्यय में 12.76 प्रतिशत की वृ(िा है।
- 2015-16 में 11634.49 करोड़ का आयोजागत व्यय अनुमानित है।
बजट के प्रमुख बिंदु
8देहरादून-)षिकेश-हरिद्वार, रुद्रपुर- लालकुंआ-किच्छा- हल्द्वानी- काठगोदाम के बीच मेट्रो समान योजना की उपयोगिता के अध्ययन हेतु कार्य समूह का गठन होगा
8राज्य में आयोजित होने वाले 38वें राष्ट्रीय खेलों के लिए ध्नराशि की व्यवस्था की
8जन्म से विकलांग बच्चों को 18 साल तक 500 रुपए प्रतिमाह की ध्नराशि मिलेगी
8मेरे बुजुर्ग मेरे तीर्थ योजना हेतु ध्नराशि की व्यवस्था की
8राज्य के वरिष्ठ नागरिकों हेतु चिकित्सालयों में बैड आरक्षित
8एसिड आक्रमण पीड़ित महिलाओं को राज्य सरकार देगी 2 लाख रुपए 

गुरुवार, 5 मार्च 2015

President Pranab Mukherjee visit on the occasion of the opening of the Kedarnath Dham

 President Pranab Mukherjee  visit on the occasion  of the opening of the Kedarnath Dham


Dehradun: The Chief Minister Harish Rawat met the President Pranab Mukherjee at New Delhi today. During the meeting, the CM Harish Rawat requested the President Pranab Mukherjee to pay a visit on the occasion  of the opening of the Kedarnath portals. The President accepted the invitation and confirmed his participation. The CM told him that Kedarnath Yatra is about to begin. The date for opening of Kedarnath's portals has also been set. Kedarnath is one of the four dhaams of Uttarakhand.THe CM Harish Rawat said that the dhaam had suffered huge losses owing to the disaster. The state has made efficient arrangements for the security of Dhaams and all arrangements have been made for the tourists. He added that the government is trying to revive tourism in the state.
The CM stated that if the President visits Uttarakhand during the Yatra, it will send a positive message to the tourists all over.
The chaar dhaam Yatra is the pride of the nation. Also present on the occasion were Kishore Upadhyaya and advisor to the CM Dr Sanjay Choudhary. 

मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015

शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2015

udaydinmaan: "मिड टर्म"

udaydinmaan: "मिड टर्म":  "मिड टर्म"  हरित क्रांति के वक्त खाद्यान्न की पैदावार का संकट था इसलिए रासायनिक खाद और पेस्टिसाइड को प्रोत्साहन दिया गया। लेक...

"मिड टर्म"

 "मिड टर्म" 

हरित क्रांति के वक्त खाद्यान्न की पैदावार का संकट था इसलिए रासायनिक खाद और पेस्टिसाइड को प्रोत्साहन दिया गया। लेकिन उसके दुष्परिणामों पर वक्त रहते गौर नहीं किया गया। हरित क्रांति के अगले दस साल में ही इसका बुरा असर भी दिखने लगा था।
वैज्ञानिकों ने "मिड टर्म" करेक्शन नहीं किया। इन्होंने पैदावार का जो संकट आ रहा था, उसका समाधान ज्यादा से ज्यादा रासायनिक खाद ही बता डाला।
रासायनिक खाद जमकर इस्तेमाल होने लगे और उसका परिणाम ये हुआ है कि दुनिया में आज मानव शरीर और पर्यावरण को बहुत नुकसान हो रहा है। अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान लिया गया है कि ग्लोबल वार्मिग के लिए जिम्मेदार ग्रीन हाउस गैसों में 41 फीसदी कृषि और वन का योगदान है। कृषि में होने वाले रसायनों और पेस्टिसाइडों के कारण यह हो रहा है।
जमीन की उर्वरता खत्म हो गई है। आज रासायनिक खाद नहीं डालें तो जमीन की खुद की उर्वर क्षमता तो खत्म ही हो गई है। जितना भी रासायनिक खाद डालते हैं, उसमें से 60 फीसदी पानी के साथ नीचे जमीन में जाता है। पानी में नाइट्रोजन मिलकर नाइटे्रट बनाता है और यह हमारी किडनी, लीवर के लिए हानिकारक है। यानी पानी में प्रदूषण गहरा रहा है।
इसके साथ ही यह जमीन के माइक्रोऑर्गेनिज्म को भी खत्म करता है। मसलन केंचुआ जमीन में ही पनपता था, आजकल ये खत्म हो गए हैं। इसका कारण रहा रासायनिक खाद। ये जमीन की उर्वरता बढ़ाते थे पर खेती मेंजब 120 किलो नाइट्रोजन डाला जाएगा तो जमीन का पीएच स्तर बहुत बढ़ जाता है और केंचुए समेत माइक्रोऑर्गेनिज्म नष्ट हो जाते हैं।
यूरेनियम खा रहे हैं हम
डीएपी फर्टिलाइजर में तो यूरेनियम भी पाया गया है। कोयले में जितनी यूरेनियम की मात्रा होती है, उससे दस गुणा डीएपी में होती है। यानी मानव शरीर में यूरेनियम भी जा रहा है। साथ ही कोबाल्ट, निकल भी मानव शरीर में प्रवेश कर रहे हैं। जब हम यह दूषित खाना खा रहे हैं तो इसके नकारात्मक असर होने ही हैं। इसलिए कैंसर जैसी बीमारियां बढ़ रही हैं।
रासायनिक खाद ने पैदावार तो बढ़ा दी पर खाद्यान्नों की पोषक क्षमता कम हो गई है। यही वजह है कि बच्चे कुपोषण का शिकार हो रहे हैं। गेहूं की पुरानी किस्मों में कॉपर की मात्रा अधिक होती थी।
लेकिन पैदावार बढ़ाने के चक्कर में नई किस्मे बनाई गईं और अध्ययनों में पाया गया कि कॉपर की मात्रा 80 फीसदी तक गिर गई। देसी गेहूं के अभाव में कॉलेस्ट्रॉल की मात्रा मानव शरीर में बढ़ने लगी है। इसलिए अब क्यों न लोगों को बताया जाए कि आज हमें देसी खाद्यान्न की ओर मुड़ना होगा।
99.99त्न पेस्टिसाइड पर्यावरण में
अब कीटनाशकों की बात। एक अमरीकी वैज्ञानिक हैं, डेविड पाइमेंटल। इन्होंने 1970 के दशक में एक रिपोर्ट छापी थी। इसमें लिखा गया था कि 99.99 फीसदी पेस्टिसाइड वातावरण में जाते हैं। यानी यह मालूम होते हुए कि पेस्टिसाइड वातावरण में जाएंगे और पर्यावरण एवं मानव स्वास्थ्य पर असर डालेंगे, हमने उस वक्त कोई उपाय नहीं किया।
आज भयंकर बीमारियां हम झेल रहे हैं। सिर्फ पैदावार बढ़ाने के फेर में अंधे होकर कीटनाशकों का जहर पर्यावरण और मानव शरीर में घुलने दिया। आज जब दुुनिया ग्रीन हाउस गैसों समेत तमाम बीमारियों से जूझ रही है तो क्यों न इस जहर की खेती को बंद किया जाए। जब भी विदेश से ऎसी कोई तकनीक आती है तो वह पैकेज में आती है। हमारी सरकारें उन पर सब्सिडी देती हैं और उन्हें बढ़ावा दिया जाता है। हमारी सरकारें रासायनिक खादों पर सब्सिडी देती हैं। किसानों को लुभाया जाता है। लेकिन सरकारें ऑर्गेनिक खेती पर सब्सिडी नहीं देती। इसलिए इसके महंगे होने का जुमला छोड़ दिया गया। बाजार, बैंकिंग और सरकार की नीतियां एक ही दिशा में चलती दिखाई देती हैं। मसलन, गांवों में क्रॉस ब्रीड गाय पर ही लोन दिया जाता है।
देसी गाय पर लोन ही नहीं मिलता। यही स्थिति ऑर्गेनिक खेती के साथ है। इसे बढ़ावा देने के लिए सरकार ने कुछ किया ही नहीं। रासायनिक खेती के खिलाफ ऑर्गेनिक खेती को नीतिगत, सब्सिडी और बाजार का समर्थन मिले, किसानों और लोगों को जागरूक किया जाए कि न सिर्फ स्वास्थ्य बचेगा बल्कि वातावरण भी साफ रहेगा तो इस जहर की खेती को रोका जा सकता है।
ऑर्गेनिक खेती से पैदावार कम होने की बात तो सिर्फ बहाना है। अब वैश्विक अध्ययन सामने आ चुके हैं। आईएएएसटीडी नामक अध्ययन (जिसका खुद भारत भी सिग्नेटरी है) कहता है कि हमें गैर-रासायनिक खेती पर जाना होगा। पैदावार कम होने की बात को यह रिपोर्ट भी खारिज करती है।
गैर रासायनिक पर हो सब्सिडी
रासायनिक खेती से भूमि में असंुतलन बढ़ता जा रहा है। इसमें जरूरी तत्वों की लगातार कमी होती जा रही है। आज रासायनिक खाद की बजाय देसी गाय का गोबर के इस्तेमाल पर जोर दिया जाना चाहिए। देसी गोबर बहुत लाभप्रद है। विदेशी गाय के गोबर की तुलना में इसमें 50 फीसदी ज्यादा जरूरी तत्व होते हैं। लेकिन उद्योग और मल्टीनेशनल कम्पनियां गैर रासायनिक खेती को प्रोत्साहन में अड़ंगा लगाती रही हैं।
उसका परिणाम हम भुगत रहे हैं। अमरीका में रासायनिक खेती से गैर रासायनिक खेती की ओर जाने पर सब्सिडी दी जाती है। हमारे यहां उलटा हो रहा है। भारत में सरकार सहकारिता के माध्यम से ऑर्गेनिक खेती को बढ़ावा दे सकती है।
वहां सस्ता देसी खाद्यान्न मुहैया कराया जा सकता है। अमरीका की तर्ज पर किसानों को घरेलू खाद, बायो खाद पर सहायता दी जा सकती है। देसी बीज पर सब्सिडी दी जाए। साथ ही सरकार ऑर्गेनिक खरीद की नीति भी लाए। जिस दिन किसान को मालूम लग जाएगा कि कैमिकल फर्टिलाइजर से सब्सिडी हट गई है तो वह खुद ब खुद ऑर्गेनिक खेती का रूख कर लेगा।
बदलना होगा रवैया
चंद्रभूषण, उप महानिदेशक, सीएसई
यह समझने की जरूरत है कि अगर 100 किलो कीटनाशक डाला जाता है तो उसमें 10 किलो ही लक्षित कीटों को नष्ट करता है शेष 90 किलो तो पर्यावरण में जाता है, पानी में जाता है, मिट्टी में अवशिष्ट रह जाता है। साथ ही कीटनाशकों से सिर्फ हानिकारक कीट ही नहीं मरते हैं। इससे मिट्टी में मौजूद फायदेमंद बैक्टीरिया, अर्थ वॉर्म आदि भी मर जाते हैं और एक पर्यावरणीय असुंतलन पैदा होता है।
साथ ही लंबे समय तक कीटनाशकों के इस्तेमाल से कीटों में कीटनाशक के प्रति प्रतिरोधक क्षमता भी पैदा हो जाती है, जिसके कारण कीटनाशक की मात्रा बढ़ाना होती है। मैं यह तो नहीं कहूंगा कि कीटनाशक केा पूरी तरह से प्रतिबंधित कर देना चाहिए, पर इंटीग्रेटिड पेस्ट मैनेजमेंट निश्चित रूप से आज की जरूरत है। अभी हालत यह हो गई है कि जहां 1 बार छिड़काव की जरूरत होती है वहां 20 बार छिड़काव कर दिया जाता है। इसके विपरीत इंटीग्रेटिड पेस्ट मैनेजमेंट में कीटनाशक का प्रयोग कीट नियंत्रण के लिए अंतिम उपाय होता है।
पहले जैविक कीटनाशक का प्रयोग किया जाता है। जैविक कीट प्रबंधन उपायों में अब अनेक प्रकार के फरमोन्स भी विकसित कर लिए गए हैं। फरमोन्स एक तरह के हारमोन्स होते हैं जो कीटों को दूर रखते हैं। लेकिन आज यह हो रहा है कीट प्रबंधन के लिए हमारा पहला और अंतिम उपाय कीटनाशक बन गए हैं। हम यह भी भूल जाते हैं कि कीटनाशक अंतत: जहर ही हैं।
अगर ये कीटों को मार सकते हैं तो हमारे ऊपर भी इसका नकरात्मक असर होना तय है। यह हो भी रहा है। यह कीटनाशक पानी में घुल जाते हैं। अवशिष्ट के रूप में भोजन के माध्यम से मनुष्य और पालतू जानवरों जैसे गाय, भैंस तक पहुंच जाते हैं। जो व्यक्ति कीटनाशकों का छिड़काव करते हैं वे भी उसकी चपेट में आ जाते हैं। इसका हमारे स्वास्थ्य पर गंभीर नकारात्मक असर हो रहा है। इनके कारण कैंसर जैसी गंभीर बीमारी भारत में लगातार पैर पसारती जा रही है। कई कीटनाशकों का असर मनुष्य के न्यूरो सिस्टम पर होता है।
जिसका असर नवजात बच्चों, गर्भवती माताओं पर विशेष रूप से हो सकता है। वयस्क भी इसकी चपेट में आ रहे हैं। अनेक ह्रदय संबंधी बीमारियां भी कीटनाशकों के कारण हो रही हैं। त्वचा, श्वांस संबंधी रोग भी इसके कारण होते रहते हैं। अगर इस सबकी कीमत लगाई जाए तो कीटनाशकों के फायदे से ज्यादा उसके नुकसान नजर आएंगे।
सरकारों ने अब तक कोई अध्ययन ही नहीं किया है। विदेशों में इस तरह के अध्ययन काफी हुए हैं। भारत में तो सीधे कीटनाशक छिड़काव करने से जितने एक्यूट प्वाइजनिंग के प्रकरण होते हैं उतने शायद ही दुनिया के किसी दूसरे देश में होते हों।
विविधता में पोषण
भुवनेश्वरी गुप्ता, न्यूट्रिशन एक्सपर्ट, पेटा
पश्चिम देशों के उलट भारत में शाकाहार का ज्यादा इस्तेमाल होता है। रासायनिक खेती से खाद्यान्न उत्पादन के मामले में पश्चिमी देश इसलिए चिंतित नहीं होते क्योंकि वहां लोग मांसाहार का सहारा लेकर अपने जरूरी पोषक तत्वों की पूर्ति कर लेते हैं पर भारत में शाकाहारियों के लिए यह खेती परेशानी का सबब बन जाती है। इसलिए इसका उपाय यही है कि हम न सिर्फ रसायनरहित खेती पर जाएं बल्कि खाद्यान्न में विविधता भी लाएं।
इस प्रकार हम न सिर्फ शरीर को रसायनों से बचा सकते हैं बल्कि जरूरी पोषक तत्वों की पूर्ति भी कर सकते हैं। यह साबित हो चुका है कि 100 फीसदी शुद्ध शाकाहार लेने से, जिसमें पूरी विविधता मौजूद हो तो हम स्वस्थ और मांसाहार की तुलना में अधिक पोषक तत्व ग्रहण कर सकते हैं। आजकल जितने भी वैज्ञानिक अध्ययन हो रहे हैं, वे बताते हैं कि मांसाहार और डेयरी उत्पादों के सेवन से जीवनशैली की ज्यादा गंभीर बीमारियां आती हैं।
चिकित्सक भी शाकाहार पर जोर देते हैं। विविध शाकाहार लेने से हम मांसाहार से मिलने वाले सैचुरेटेड फैट, टॉक्सिक, रसायन और हार्माेन से भी दूर हो जाते हैं। ताजे फल, सब्जी, दाल-दलहन ही मानव शरीर के लिए बने हैं और उनमें वो सब पोषक तत्व होते हैं, जो हमारे शरीर को चाहिए। ज्यादा से ज्यादा रंगीन सब्जियां खाकर हम स्वस्थ रह सकते हैं। हरी सब्जियों में आयरन, जरूरी प्रोटीन भरपूर होता है। ध्यान सिर्फ मौसम के अनुकूल हरी सब्जियां और फल को हमारी थाली में शामिल करने पर रहना चाहिए।
हमें एक या दो सब्जियों तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। हर मौसम में जो फल-सब्जियां आते हैं, उन्हें आहार में शामिल करना चाहिए। मूंग, मसूर, राजमा, छोले ये सब प्रोटीन, कैल्शियम, जिंक से भरपूर होते हैं। नट्स, नट्स ऑयल, नारियल, सोया उत्पाद, तोफू जैसे पदार्थ आहार में शामिल करने चाहिए। जितने भी शाकाहार हैं, इनमें न सिर्फ प्रोटीन और विटामिन भरपूर हैं बल्कि इनसे शरीर को नुकसान भी नहीं हैं।
भूजल भी हुआ जहरीला
स्पॉट लाइट डेस्क
भारत में कीटनाशक भूजल को किस कदर प्रदूषित कर चुके हैं इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सेंटर फॅार साइंस एंड एनवायनमेंट के 2003 में किए गए अध्ययन मे यह पाया गया था कि बोतल बंद पानी में भी कीटनाशक के अवशेष पाए गए थे।
इन अवशेषों में लिंडेन, मालाथियोन, क्लोरपाईरिफोस, डीडीटी जैसे कीटनाशकों के अवशिष्ट थे। यह सब इसलिए हुआ था क्योंकि भूजल में कीटनाशकों के अवशेष भारी मात्रा में विद्यमान हैं। ये शुद्ध पेयजल बेचने वाली कंपनियां अपनी प्लांट की जमीन से ही भूजल निकालकर उसे कथित रूप से शुद्ध कर बेच रही थीं। इसलिए इनके पानी में भी कीटनाशकों के अवशेष विद्यमान थे।
एक ब्रांड के बोतल जल में तो इतना अधिक क्लोरपाईरिफोस जैसे घातक अवशिष्ट थे जो कि कीटनाशक के रूप में उसके प्रयोग के यूरोपियन मानक से भी 400 गुना अधिक थे। यह कीटनाशक कुछ सबसे अधिक घातक कीटनाशकों में गिना जाता है। इस कीटनाशक की यह मात्रा भू्रण में भी एक बच्चे के दिमागी विकास को नुकसान पहुंचा सकता है।
भोपाल में 1995 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार हैंड पंप और कुओं से लिया गए जल के 58 प्रतिशत नमूनों में ऑर्गनोक्लोराइन कीटनाशक के अवशेष मानकों से अधिक थे। इसी तरह के परिणाम विदर्भ क्षेत्र में किए गए एक अध्ययन से मिले थे।

देविन्दर शर्मा, कृषि विशेषज्ञ

गुरुवार, 19 फ़रवरी 2015

बिना महिला सब इंस्पेक्टर के चल रहा है चमोली जिला

मामलों के लिए राजधनी से बुलाना पड़ता है महिला सब इंस्पेक्टरों को, जिससे नहीं मिल पाता न्यायबिना महिला सब इंस्पेक्टर के चल रहा है चमोली जिला


नंदन विष्ट
सीमांत जनपद चमोली में एक भी महिला सब इंस्पेक्टर के न होने से महिलाओं से संबंध्ति मामलों की तफ्रतीश में लेट-लतीपफी होती रही है। जिससे महिलाओं को समय पर न्याय नहीं मिल पाता है और नही समय पर महिलाओं की सहायता हो पाती है। महिलाओं से संबंध्ति मामलों के लिए राजधनी से महिला सब इंस्पेक्टरों बुलाना पड़ता जिससे महिलाओं को न्याय नहीं मिल पाता है। कहें तो पूरे भारत में महिला सशक्तिकरण के लिए कई अभियान चलाए जाते रहे हैं। महिला उत्पीड़न को लेकर सरकारें गंभीर हैं लेकिन सीमांत जनपद चमोली में कई महिलाऐं उत्पीड़न का शिकार होती रही हैं। किसी भी मामले में महिला से संबंध्ति पूछ-ताछ के लिए महिला सब इंस्पेक्टर को होना अनिवार्य हैं। ताकि महिलाओं के बयान ले सके और तफ्रतीश में आवश्यक कार्रवाई कर सके। ऐसे में महिलाओं को समय पर न्याय मिलने में भी बिलंब होता है। सरकार की उपेक्षा के चलते चमोली जिले में जहां महिलाओें की संख्या पुरूषों से अध्कि है में एक भी महिला सब इंस्पेक्टर या महिला इंस्पेक्टर का न होना सरकार की नाकामी को दर्शाता है या सरकार नहीं चाहती कि चमोली जिले की महिलाऐं सशक्त हों और अपने अध्किारों की लड़ाई के लिए आगे आऐं। महिला उत्पीड़न के मामलों में महिला सब इंस्पेक्टर के द्वारा ही तपफतीश की जाती। चमोली जिले में महिला उत्पीड़न के मामलों में देहरादून से सब इन्सपेक्टर बुलाया जाता है जिससे मामले में अनावश्यक देरी हो जाती है। उध्र अधिवक्ता मानोज भट्ट का कहना है कि जनपद में महिला सब इंस्पेक्टर के न होने से महिला से संबंध्ति मामलों  में अनवश्यक बिलंब होता है। उन्होंने कहा कि तत्काल जिले में महिला सब इंस्पेक्टर की नियुक्ति की जानी चाहिए। ताकि महिलाओं के हक हकूक की लड़ाई में आसानी हो सके  और महिलाऐं अपने को सुरक्षित मान सके। उत्तराखंड राज्य की बात कहें तो महिलाओं के विकास व उनको सुरक्षित भावना से जीने के अलावा प्रदेश के विकास के कार्य करना था। लेकिन आज तक भी महिालाओं के विकास एवं उनके उत्थान के लिए कोई भी कार्य अभी तक अंजाम नहीं दे रहा है। उत्तराख्ंाड में महिलाओं के कई उत्पीड़न के मामले सामने आ रहे हैं लेकिन महिला की बात को सुनने वाला कोई नहीं है। पुरूष इन्स्पेक्टर अथवा सब इंस्पेक्टर के द्वारा महिला के मामले में तपफ्तीश करना आसान नहीं है। जबकि महिला सब इंस्पेक्टर व इंस्पेक्टर के द्वारा आसानी से महिला के मामलों में तपफ्तीश की जा सकती है। जिससे महिला का संकोच भी दूर होगा और आसानी से तफ्रतीश के बाद महिलाओं को न्याय भी मिल पाएगा। उत्तराख्ंाड राज्य के सीमांत जनपद चमोली में एक भी सब इंस्पेक्टर न होने के कारण देहरादून से या अन्य राज्य से तफ्रतीश के लिए बुलाना पड़ता है जिसमें अनावश्यक ही देरी हो जाती है।
चमोली जिले के पुलिस अधीक्षक सुनील कुमार मीणा ने कहा कि चमोली में महिला सब इंस्पेक्टरों की तैनाती न होने के कारण महिलाओं के मामले में तफ्रतीश के लिए देहरादून से 15-15 दिनों के लिए महिला सब इंस्पेक्टरों की तैनाती की जाती है। तब जाकर महिलाओं के मामले में तफ्रतीश की जाती है। उनका कहना है कि जिले में महिला इंस्पेक्टरों एवं महिला सब इंस्पेक्टरों का होना अनिवार्य है। ताकि महिलाओं की सुरक्षा एवं महिलाओं के मामले में समय पर तफ्रतीश की जा सके। इस मामले में शासन को कई बार लिखा जा चुका है।

बुधवार, 18 फ़रवरी 2015

हुनरमंद कोसी के किसान

आपदाओं को वरदान में बदलने के हुनरमंद कोसी के किसान भिखारी मेहता

2008 की भीषण बाढ़ के बाद बिहार के सुपौल जिले के ज्यादातर खेतों में रेत बिछी है, मगर जब आप भिखारी मेहता के खेतों की तरफ जायेंगे तो देखेंगे कि 30 एकड़ जमीन पर लेमनग्रास, खस, जावा स्योनेला, आइटोमिलिया, तुलसी, मेंथा आदि के पौधे लहलहा रहे हैं. महज 13 साल की उम्र में कॉपी-किताब को अलविदा कर हल पकड़ लेने वाले भिखारी मेहता को मिट्टी से सोना उगाने के हुनर में महारत हासिल है. वे 2004 की भीषण तूफान के बाद से लगातार जैविक तरीके से औषधीय पौधों की खेती कर रहे हैं. आज उनके खेत कोसी अंचल के किसानों के लिए पर्यटन स्थल का रूप ले चुके हैं. यह खबर आज के प्रभात खबर में प्रकाशित हुई इनकी कथा को आप भी जानें...
पंकज कुमार भारतीय, सुपौल
‘लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती’ को मूल मंत्र मानने वाले जिले के वीरपुर के किसान भिखारी मेहता कोसी के रेत पर जज्बे और उम्मीद की फसल उपजा रहे हैं. विषम परिस्थितियों के बीच से भी हमेशा नायक की तरह उभरने वाले भिखारी की जीवन गाथा संघर्षो से भरी है.वर्ष 2008 की कुसहा त्रसदी ने जब इलाके के किसानों को मजदूर बनने को विवश कर दिया तो भी भिखारी ने हार नहीं मानी और आज वह कोसी के कछार पर न केवल हरियाली की कहानी गढ़ रहे हैं बल्कि वर्मी कंपोस्ट उत्पादन के क्षेत्र में भी किसानों के प्रेरणास्नेत बने हुए हैं.
गरीबी ने हाथों को पकड़ाया हल
भिखारी ने जब से होश संभाला खुद को गरीबी और अभाव से घिरा पाया. पिता कहने के लिए तो किसान थे लेकिन घर में दो वक्त की रोटी भी बमुश्किल मिल पाती थी. अंतत: 13 वर्ष की उम्र में वर्ष 1981 में भिखारी मेहता ने किताब-कलम को अलविदा कहा और हाथों में हल को थाम लिया. मासूम हाथों ने लोहे के हल को संभाला तो गरीबी से जंग के इरादे मजबूत होते चले गये. लेकिन पहली बार ही उसने कुछ अलग होने का संदेश दिया और परंपरागत खेती की बजाय सब्जी की खेती से अपनी खेती-बाड़ी का आगाज पैतृक गांव राघोपुर प्रखंड के जगदीशपुर गांव से किया.
निभायी अन्वेषक की भूमिका
अगाती सब्जी खेती के लिए भिखारी ने 1986 में रतनपुरा का रुख किया. 1992 तक यहां सब्जी की खेती की तो पूरे इलाके में सब्जी खेती का दौर चल पड़ा. वर्ष 1992 में सब्जी की खेती के साथ-साथ केले की खेती का श्रीगणोश किया गया. फिर 1997 में वीरपुर की ओर प्रस्थान किया, जहां रानीपट्टी में केला और सब्जी की खेती वृहद स्तर पर आरंभ किया. वर्ष 2004 का ऐसा भी दौर आया जब भिखारी 40 एकड़ में केला और 20 एकड़ में सब्जी उपजा रहे थे. भिखारी के नक्शे कदम पर चलते हुए पूरे इलाके में किसानों ने वृहद् पैमाने पर केले की खेती आरंभ कर दी. यह वही दौर था जब वीरपुर का केला काठमांडू तक अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा था. इलाके के किसानों के बीच केला आर्थिक क्रांति लेकर आया और समृद्धि की नयी इबारत लिखी गयी.
2004 का तूफान टर्निग प्वाइंट
भिखारी जब केला के माध्यम से समृद्धि की राह चल पड़ा तो वर्ष 2004 अगस्त में आया भीषण तूफान उसकी जिंदगी का टर्निग प्वाइंट साबित हुआ. पलक झपकते ही केला की खेती पूरी तरह बर्बाद हो गयी और एक दिन में लखपती भिखारी सचमुच भिखारी बन गया. बावजूद उसने परिस्थितियों से हार नहीं मानी. विकल्प की तलाश करता हुआ औषधीय खेती की ओर आकर्षित हुआ. वर्ष 2005 में भागलपुर और इंदौर में औषधीय एवं सुगंधित पौधे के उत्पादन की ट्रेनिंग ली और मेंथा तथा लेमनग्रास से इसकी शुरुआत की. रानीगंज स्थित कृषि फॉर्म में भोपाल से लाये केंचुए की मदद से वर्मी कंपोस्ट उत्पादन की नींव डाली. इस प्रकार एक बार फिर भिखारी की गाड़ी चल पड़ी.
कुसहा त्रसदी साबित हुआ अभिशाप
18 अगस्त 2008 की तारीख जो कोसी वासियों के जेहन में महाप्रलय के रूप में दर्ज है, भिखारी के लिए अभिशाप साबित हुई. हालांकि उसने अभिशाप को जज्बे के बल पर वरदान में बदल डाला. कोसी ने जब धारा बदली तो भिखारी का 20 एकड़ केला, 20 एकड़ सब्जी की खेती, 20 एकड़ लेमनग्रास, 20 एकड़ पाम रोज एवं अन्य औषधीय पौधे नेस्त-नाबूद हो गये. कंगाल हो चुके श्री मेहता को वापस अपने गांव लौटना पड़ा. लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और 2010 में पुन: वापस वीरपुर स्थित फॉर्म हाउस पहुंचे.
रेत पर लहलहायी लेमनग्रास और मेंथा
कोसी ने जिले के 83403 हेक्टेयर क्षेत्र में बालू की चादर बिछा दी. जिसमें बसंतपुर का हिस्सा 21858 हेक्टेयर था. ऐसे में इस रेत पर सुनहरे भविष्य की कल्पना आसान नहीं थी. लेकिन प्रयोगधर्मी भिखारी ने फिर से न केवल औषधीय पौधों की खेती आरंभ की बल्कि नर्सरी की भी शुरुआत कर दी. वर्ष 2012 में जब तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार श्री मेहता के फॉर्म पर पहुंचे तो 30 एकड़ में लहलहा रहे लेमनग्रास, खस, जावा स्योनेला, आइटोमिलिया, तुलसी, मेंथा को देख भौंचक्क रह गये और वर्मी कंपोस्ट इकाई से काफी प्रभावित हुए. आज श्री मेहता रेत पर ना केवल हरियाली के नायक बने हुए हैं बल्कि 3000 मैट्रिक टन सलाना वर्मी कंपोस्ट का उत्पादन कर रहे हैं. वर्मी कंपोस्ट की मांग को देखते हुए उत्पादन बढ़ाना चाहते हैं लेकिन संसाधन आड़े आ रही है.
अब किसानों के बीच बांट रहे हरियाली
हरियाली मिशन से जुड़ कर श्री मेहता अब किसानों के बीच मुफ्त में इमारती और फलदार पेड़ बांट रहे हैं. उनका मानना है कि रेत से भरी जमीन में पेड़-पौधे के माध्यम से ही किसान समृद्धि पा सकते हैं. वे अपने सात एकड़ के फॉर्म हाउस को प्रशिक्षण केंद्र में तब्दील कर चुके हैं, जहां किसान वर्मी कंपोस्ट उत्पादन और औषधीय खेती के गुर सीखने पहुंचते हैं. कृषि के क्षेत्र में उनके समर्पण का ही परिणाम है कि उन्हें वर्ष 2006 में कोसी विभूति पुरस्कार और 2007 में किसान भूषण पुरस्कार से नवाजा जा चुका है. वर्ष 2014 में जीविका द्वारा भी उन्हें कृषि क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन के लिए पुरस्कृत किया गया. बकौल भिखारी मेहता ‘जमीन में असीम उर्जा होती है, तय आपको करना है कि कितनी दूर आप चलना चाहते हैं’.

मुख्यमंत्री हरीश रावत ने बगैर किसी सुरक्षा घेरे को साथ

मुख्यमंत्री हरीश रावत ने बगैर किसी सुरक्षा घेरे को साथ  

बुधवार को मुख्यमंत्री हरीश रावत ने बगैर किसी सुरक्षा घेरे को साथ लिए निजी वाहन से देहरादून के शहर व बाहरी क्षेत्र का भ्रमण कर विशेष रूप से सफाई व्यवस्था का जायजा लिया। प्रातः लगभग 7ः30 बजे मुख्यमंत्री अपने कक्ष से बाहर निकले और अपने निजी वाहन में बैठ गए। उनके साथ सलाहकार संजय चैधरी व मीडिया समन्वयक राजीव जैन थे। मुख्यमंत्री ने अन्य किसी भी स्टाफ को साथ आने से मना कर दिया। वे पहले तिलक रोड़ और फिर धामावाला गए। धामावाला में मुख्यमंत्री ने डीएम देहरादून रविनाथ रमन को बुला लिया। वहां से फिर डिस्पेंसरी रोड़, तहसील चैक, रामुला बिल्डिंग, मुस्लिम कालोनी, कारगी चैक, माजरा, निरंजनपुर मंडी में सड़कों, नालियों की साफ-सफाई व्यवस्था का निरीक्षण किया। सीएम ने आईएसबीटी, बल्लीवाला चैक व बल्लुपुर चैक में निर्माणाधीन फ्लाईओवर के काम को भी देखा। माजरा में सीवर लाईन के लिए खुदी सड़कों से लोगों को हो रही दिक्कतों को देखते हुए एडीबी के अधिकारियों को जल्द सुधार करने के निर्देश दिए। मुख्यमंत्री ने कारगी में राशन की दुकान पर राशन के लिए खड़े लोगों से भी बातचीत की। सीएम ने अपने शहर भ्रमण के दौरान जगह-जगह काम कर रहे सफाई कमिर्यों से भी बातचीत कर उनकी समस्याओं के बारे में जानकारी ली। 
मुख्यमंत्री ने देहरादून शहर व इसके बाहरी क्षेत्रों का औचक निरीक्षण करने के बाद बीजापुर में संबंधित अधिकारियों के साथ फाॅलोअप बैठक की। इसमें नगर निगम देहरादून के मेयर विनोद चमोली, नगर निगम में नेता प्रतिपक्ष नीलू सहगल, सचिव शहरी विकास डीएस गब्र्याल, डीएम देहरादून रविनाथ रमन, वीसी एमडीडीए मीनाक्षी सुंदरम, अपर सचिव सूचना व खाद्य नागरिक आपूर्ति चंदे्रश कुमार, नगर निगम के एमएनए नितिन भदौरिया शामिल हुए। मुख्यमंत्री ने कहा कि नगर निगम में सम्मिलित देहरादून के बाहरी क्षेत्रों में समुचित सफाई व्यवस्था के लिए शासन स्तर से नगर निगम की सहायता करनी होगी। उन्होंने सचिव शहरी विकास को इसके लिए आवश्यक कार्यवाही करने के निर्देश दिए। सीएम ने कहा कि वैसे तो देहरादून को लेकर अनेक योजनाएं प्रस्तावित हैं परंतु तात्कालिक सुधार के काम पर विशेष फोकस करना होगा। नगर निगम को कूड़ा उठाने की आवश्यकतानुसार संख्या में आधुनिक गाडि़यां उपलब्ध करवाई जाए। मुख्य मार्गों के लिए बड़ी गाडि़यां व छोटे मार्गों के लिए रिक्शा दिए जाएं। नगर निगम को सेनेटरी इंस्पेक्टर, पूर्णकालिक चिकित्सक, सफाई कर्मचारी उपलब्ध करवाने की व्यवस्था की जाए। 
मुख्यमंत्री ने कहा कि सरकार के लिए प्रत्येक व्यक्ति समान रूप से महत्वपूर्ण है। मुख्य मार्गों के साथ ही आंतरिक व छोटे मार्गों की भी समुचित सफाई पर ध्यान दिया जाए। जगह-जगह निजी प्लाटों में कचरा फेंके जाने पर रोक लगे। पर्याप्त संख्या में कचरापात्र उपलब्ध हों ताकि लोग कचरा इधर उधर न फेंके। शहर के आंतरिक ड्रेनेज की व्यवस्था भी सुधारी जाए। इसके लिए अगले बजट में अलग से प्राविधान रखा जाए। यातायात में बाधा बन रहे व लोगों की सुरक्षा को खतरा बन रहे बिजली के खम्भों को तुरंत हटाया जाए। सुरक्षित ट्रांसफार्मरों के लिए स्मार्ट तरीका विकसित किया जाए। सीएम ने सख्त शब्दों में कहा कि यह एसएसपी की जिम्मेवारी होगी कि नदियों के किनारे बनाए जा रहे पुश्तों पर अतिक्रमण न हो। साथ ही कहीं पर कोई नया अतिक्रमणन न होने पाए। जिलाधिकारी सुनिश्चित करें कि विभिन्न विभागों द्वारा काम कराए जाने के बाद सड़कों पर मलबा न छोड़ा जाए।
santosh

मंगलवार, 17 फ़रवरी 2015

चार धाम की रौनक

इस साल लौटेगी चार धाम की रौनक


जून 2013 की जलप्रलय के बाद से उत्तराखंड के पर्यटन और तीर्थाटन पर बुरा असर पड़ा है. इसमें चार धामों की यात्रा पर संकट खड़ा हो गया था, लेकिन आगामी वर्ष में बदरीनाथ यात्रा बेहतर चलने के संकेत मिलने लगे हैं. राज्य में सरकार ने खस्ता हाल मार्गों की मरमत पर ध्यान दिया तो अगले साल से उत्तराखंड का पर्यटन-तीर्थाटन पटरी पर दौड़ने लगेगा. उत्तराखंड के प्रतिष्ठित अखबार अमर उजाला के अनुसार, आगामी वर्ष में धाम में दर्शनों के बाद रहने के लिए तीर्थयात्रियों की ओर से यहां होटल और लॉज मालिकों को एडवांस बुकिंग मिलने लगी हैं. बताया जा रहा है कि अभी तक धाम के होटल, लॉज व्यवसायियों को करीब दस हजार तीर्थयात्रियों के ठहरने और खाने की बुकिंग मिल गई हैं. बदरीनाथ में मई २०१५ माह में कपाट खुलने के तुरंत बाद दो श्रीमद्देवी भागवत और यज्ञ भी प्रस्तावित हैं. बदरीनाथ में होटल व्यवसायी डा. जमुना प्रसाद रैवानी का कहना है कि आगामी वर्ष की तीर्थयात्रा के लिए दिल्ली के करीब तीन हजार तीर्थयात्रियों के बदरीनाथ धाम आने की बुकिंग मिली हैं. इस वर्ष कुछ तीर्थयात्री बदरीनाथ धाम की तीर्थयात्रा पर आए थे, जो होटल में बुकिंग करके चले गए हैं. धाम में जैन धर्मशाला, सरोवर पोर्टिको, स्नो क्रेस्ट, नारायण पैलेस, बदरी बिला और शंकर श्री में तीर्थयात्रियों ने मई से जून माह तक की बुकिंग कराई हैं. बदरीनाथ में होटल व्यवसायी शंकर श्री, अमित त्रिपाठी और सरोवर पोर्टिको के मैनेजर हरि बल्लभ सकलानी का कहना है कि एडवांस बुकिंग मिलने से आगामी वर्ष की तीर्थयात्रा बेहतर चलने की उम्मीद जगी है. कोलकाता के श्रद्धालु मनोज सराफ ने बदरीनाथ धाम की आगामी दस साल तक की अभिषेक पूजा और केदारनाथ में रुद्राभिषेक पूजा के लिए एडवांस बुकिंग कर ली है. इसके लिए श्रद्धालु ने बदरीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति को दस लाख रुपये नगद भुगतान भी कर दिया है. एक श्रद्धालु के सोजन्य से तो आगामी दस वर्ष तक बदरीनाथ की अभिषेक और केदारनाथ की रुद्राभिषेक पूजा संपन्न कराई जाएगी. बदरीनाथ धाम की तीर्थयात्रा के आगामी वर्ष बेहतर चलने की उम्मीद है. उम्मीद है कि यात्रा शुरू होने से पहले बदरीनाथ हाईवे भी चाक-चौबंद हो जाएगा. धाम में पहुंचने वाले तीर्थयात्रियों को पूरी सुविधाएं दी जा रही हैं. केदारनाथ धाम की तीर्थयात्रा भी आगामी वर्ष पटरी पर लौट जाएगी.
by
santoshbanjwal

सोमवार, 16 फ़रवरी 2015

अप्रैल में खुलेंगे आस्था और श्रद्वा के द्वार

                               अप्रैल में खुलेंगे आस्था और श्रद्वा के द्वार


24 अप्रैल को खुलेंगे केदारबाबा के कपाट
26 अप्रैल को खुलेंगे बदरीनाथ धम के कपाट, 9 अप्रैल को निकाला जाएगा तिलों का तेल, 21 अप्रैल को खुलेंगे गंगोत्राी-यमुनोत्राी के कपाट


19 अप्रैल को उखीमठ स्थित ओंकारेश्वर मंदिर प्रांगण में होगी भैरव पूजा, 20 अप्रैल को केदारबाबा की डोली जाएगी गुप्तकाशी, 21 अप्रैल को पफाटा, 22 अप्रैल को गौरीकुंड, 23 को रात्रि विश्राम के लिए केदारनाथ और 24 अप्रैल को सुबह 8 बजकर 50 मिनट पर खुलेंगे केदार बाबा के कपाट 

प्राचीन मान्यताओं और परंपराओं के अनुसार इस साल उत्तराखंड के चारधामों के कपाट अप्रैल माह के अंतिम सप्ताह में श्र(ालुओं के लिए खोल दिए जाएंगे। भारत के चारधमों में से सर्वश्रेष्ठ धाम श्री बदरीनाथ के कपाट 26 अप्रैल, श्री केदारनाथ के 24 अप्रैल और गंगोत्राी-यमुनोत्राी के कपाट अक्षय तृतीया को 21 अप्रैल को श्र(ालुओं के दर्शनार्थ खोल दिए जाएंगे। उत्तराखंड के चार धामों के कपाट खुलने की तिथि घोषित होने के साथ ही यहां भक्ति की बयार अभी से बहने लग गई है। चारधम यात्रा की तैयारियों के लिए शासन-प्रशासन जहां तैयारियों में जुट गया है वहीं स्थानीय लोग भी तैयारियों में लग गये हैं। वर्ष 2013 में आयी हिमालयी सुनामी के बाद उत्तराखंड के चारधमों में तीर्थयात्रियों की आमद कम होने से स्थानीय व्यापार पर भारी असर पड़ा था। लेकिन इस साल यात्रा को लेकर उम्मीद जताई जा रही है कि यात्रा अपने उत्कर्ष पर रहेगी।
आज महाशिवरात्रि के पावन पर्व पर प्राचीन मान्यताओं और परंपराओं का निर्वहन करते हुए पंच केदार के गद्दीस्थल उफखीमठ स्थित ओंकारेश्वर मंदिर परिसर में केदारबाबा के कपाट खुलने की तिथि घोषित की गयी। तिथि के अनुसार इस साल केदारबाबा के कपाट 24 अप्रैल को प्रातः 8 बजकर 50 मिनट पर श्र(ालुओं के लिए खोले दिये जाएंगे। श्री बदरीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति के कार्याध्किारी सुनील तिवाडी ने बताया कि ओंकारेश्वर मंदिर में आज महाशिवरात्रि के पर्व प्राचीन परंपराओं का निर्वहन करते हुए विध्-िविधन के साथ केदानाथ के रावल भीमाशंकर लिंग श्री बदरीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति के मुख्य कार्याध्किारी अनिल शर्मा, वेद पाठियों, तीर्थपुरोहितों की उपस्थिति में केदारनाथ के कपाट खुलने की तिथि तय की गई। इसके साथ की केदारबाबा की डोली प्रस्थान के लिए भी तिथि तय की गई। केदारबाबा की डोली प्रस्थान से पूर्व 19 अप्रैल को उफखीमठ स्थित ओंकारेश्वर मंदिर प्रांगण में भैरव पूजा के साथ कपाट खुलने की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाएगी। 20 अप्रैल को केदारबाबा की डोली ओंकारेश्वर मंदिर उफखीमठ से प्रस्थान कर गुप्तकाशी के विश्वनाथ मंदिर में रात्रि विश्राम करेगी। 21 अप्रैल को गुप्तकाशी से चलकर पफाटा में और 22 अप्रैल को गौरीकुंड में रात्रि विश्राम के बाद 23 को रात्रि विश्राम के लिए केदारबाब की डोली केदारनाथ पहुंचेगी। 24 अप्रैल को सुबह 8 बजकर 50 मिनट पर केदार बाबा के कपाट श्र(ालुओं के लिए खोल दिए जाएंगे।
महाशिवरात्रि पर्व पर उफखीमठ स्थित ओंकारेश्वर मंदिर में आयोजित धर्मिक कार्यक्रम का आयोजन किया गया। प्राचीन परंपराओं का निर्वहन करते हुए केदारनाथ के कपाट खुलने की तिथि तय की गई। इस अवर पर केदारनाथ मंदिर के रावल श्री भीमाशंकर लिंग, केदारनाथ मंदिर के पुजारी राजशेखर लिंग, शंकर लिंग, श्री बदरीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति के मुख्य कार्याध्किारी अनिल शर्मा, कार्याधिकारी सुनील तिवाडी, वेदपाठी स्वयंबर प्रसाद, विधयक केदारनाथ शैला रानी रावत, पूर्व विधयक आशा नौटियाल,  मंदिर समिति के आर.सी. तिवाड़ी, मंदिर समिति के अभियंता गिरीश देवली,श्री गौड़ सहित कई लोग उपस्थित थे।
उल्लेखनीय है कि भारत के चारधामों में से सर्वश्रेष्ठ धम श्री बदरीनाथ के कपाट इस साल 26 अप्रैल को ब्रहममुहुर्त में खोले जाएंगे। बसंतोत्सव के मौके पर टिहरी राजदरबार में भगवान बदरीविशाल के कपाट खुलने की तिथि घोषित की गई। भगवान बदरीविशाल के कपाट खुलने की तिथि घोषित करने के साथ ही तिलों का तेल निकालने की तिथि भी निकाली गई। तिलों का तेल 9 अप्रैल को टिहरी राज दरबार में निकाला जाएगा। आज टिहरी नरेश महाराजा मनुजेंद्र शाह ने कपाट खुलने की तिथि की घोषणा की।
टिहरी राज दरबार में बसंतोत्सव पर भगवान बदरीविशाल का तेल कलश ‘गाडू घड़ा’  डिमरी धर्मिक पंचायत के प्रतिनिध्यिों द्वारा पहुंचाया गया। भगवान बदरी विशाल की पूजा के लिए प्रयुक्त होने वाले तिलो के तेल को पिरोने की भी तिथि 9 अप्रैल को निश्चित की गई।  निश्चित तिथि पर टिहरी की राजरानी व क्षेत्रा की अन्य सुहागिन महिलाओं के द्वारा तिलों को पिरोकर तेल निकाला जाएगा। यही तेल ‘गाडू घड़ा’ में भरकर बदरीनाथ के लिए प्रस्थान करेगा।
महत्वपूर्ण बात यह है कि इसी ‘गाडू घड़ा’ में भरे हुए तिल के तेल से छह माह यात्रा काल के दौरान भगवान बदरी विशाल की महाभिषेक पूजा संपन्न की जाएगी। दूसरी ओर, कपाट खुलने की तिथि साथ ही अन्य परंपराएं भी प्राचीन काल से जुड़ी हुई हैं। जहाॅ एक   ओर टिहरी नरेश के दरबार में बदरीनाथ के कपाट खुलने की तिथि घोषित   की गयी।
वहीं दूसरी ओर, उत्तराखंड के चारधमों में गंगोत्राी-यमुनोत्राी के कपाट अक्षय तृतीया पर 21 अप्रैल को खोले जाएंगे। इन दोनों धमों के कपाट प्रत्येक वर्ष अक्षय तृतीया को खोले जाते हैं।

आज होगी केदारनाथ के कपाट खुलने की तिथि घोषित

आज होगी केदारनाथ के कपाट खुलने की तिथि घोषित



कल (आज) महाशिवरात्रि के पावन पर्व पर पंच केदार के गद्दीस्थल उफखीमठ स्थित ओंकेारेश्वर मंदिर परिसर में केदारबाबा के कपाट खुलने की तिथि घोषित की जाएगी। यह जानकारी देते हुए श्री बदरीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति के कार्याध्किारी सुनील तिवाडी ने बताया कि ओंकारेश्वर मंदिर में महाशिवरात्रि के पर्व पर विध्-िविधन के साथ केदारनाथ के कपाट खुलने की तिथि तय की जाएगी। प्रतिवर्ष महाशिवरात्रि पर ओंकेरेश्वर मंदिर में यह तिथि तय की जाती है। इस कार्यक्रम में केदानाथ के रावल भीमाशंकर लिंग श्री बदरीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति के मुख्य कार्याध्किारी अनिल शर्मा सहित अन्य लोग मौजूद रहेंगे। 2013 में केदार त्रासदी के बाद इस वर्ष तीर्थयात्रियों के अध्कि मात्रा में आने की उम्मीद जताई जा रही है। इसके लिए मंदिर समिति अभी से तैयारियों में लग गई है। यात्रा शुरू होने से पूर्व सभी तैयारियों को पूरा कर लिया जाएगा। उल्लेखनीय है कि बसंत पंचमी के मौके पर टिहरी राजदरवार में बदरीनाथ के कपाट खुलने की तिथि तय की गई। इस साल 26 अप्रैल बदरीनाथ धम के कपाट खुलेंगे। उत्तराखंड के चारधमों में से गंगोत्राी और यमुनोत्राी के कपाट 21 अप्रैल को अक्षय तृतीया के दिन परंपराओं के अनुसार खुलेंगे।

शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2015

आखिर कहां हैं इन दिनों रावल

आखिर कहां हैं इन दिनों रावल

शीतकाल में जोशीमठ रहने के लिए हुआ था प्रस्ताव पारित ?

विश्व प्रसि( धम बदरीनाथ के मुख्य पुजारी रावल के शीतकाल में जोशीमठ या पांडुकेश्वर में रहने के लिए बदरीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति के पारित प्रस्ताव के अमल में नहीं आने से एक बार रावल को लेकर सवाल खड़े होने लगे हैं। बीते साल दिल्ली में एक होटल में मुख्य पुजारी रावल द्वारा एक युवती के साथ यौन उत्पीड़न का मामला सुर्खियों में आने से बदरीनाथ धम की मर्यादा को शर्मशार होना पड़ा था। यही वजह रही कि इस घटना के बाद मंदिर समिति ने रावलों के इतिहास को खंगालते हुए 6 माह कपाट बंद होने के बाद रावल को जोषीमठ में रहने के लिए प्रस्ताव पारित किया था। लेकिन बीते साल 27 नवंबर को बदरीनाथ धम के कपाट शीतकाल के लिए बंद हो गए। कपाट बंद होने के साथ ही बदरीनाथ के रावल समिति के प्रस्ताव को ठेंगा दिखाते हुए जोशीमठ से रपफप्फू चक्कर हो गए थे। शीतकाल में रावल कहां हैं और क्या कर रहे हैं। इसको लेकर ध्र्म क्षेत्रा के लोगों में संशय बरकरार है। अलबत्ता बीते 24 जनवरी को बसंत पंचमी के मौके पर रावल अचानक टिहरी नरेश के राज दरवार में प्रकट हो गए। और पिफर कुछ बहाना तलाश कर  एक बार परिदृष्य हो गए हैं। पिछले रावलों के इतिहास पर नजर दौड़ाई जाए तो कई बार रावलों के आचरण को लेकर उंगली उठती रही है। इतिहास इस बात का भी साक्षी है कि समय-समय पर रावल इतने निरंकुश रहे कि उनकी वजह से बदरीनाथ धम की महत्ता को भी ठेस पंहुचती रही। बीते कुछ दशकों से रावल का पद पूरी तरीके से व्यवसायिक होता चला जा रहा है। मान्यता है कि दक्षिण भारत के केरल प्रांत के नंबूदरी पाद ब्राह्मणों में से आजीवन ब्रह्मश्चर्य का व्रत धरण करने वाले युवक को ही रावल पद पर नियुक्त किए जाने की परंपरा है लेकिन बीते कुछ समय से करोड़ों लोगों के आस्था और विश्वास का यह पद महज कमाई के जरिए तक सिमट कर रह गया है। रावल के शीतकाल प्रवास को लेकर समय-समय पर सवाल खड़ें होते रहे हैं। इस मामले पर जब बदरीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति के अध्यक्ष गणेश गोदियाल से जानकारी चाही गई तो उनका कहना था कि रावल के घर में कोई गंभीर रूप से अस्वस्थ है और रावल का दायित्व निभा रहे नायब रावल ईश्वरी प्रसाद नंबूदरी अनुमति लेकर अपने घर गए हैं। गोदियाल का कहना है कि दिल्ली में रावल पर लगे आरोपों का मामला अभी न्यायालय के विचाराध्ीन है इसलिए रावल की नियुक्ति में तकनीकि अड़चने आ रही हैं। लेकिन जल्दी ही रावल को लेकर कोई उपयुक्त समाधन निकाल लिया जाएगा। इस मामले में जानने के लिए मंदिर समिति के मुख्य कार्याधिकारी से संपर्क साधने की कई बार कोशिश की गई लेकिन उनसे संपर्क नहीं पाया। कुल मिलाकर करोड़ों लोगों के श्र(ा व विश्वास के इस पद पर बैठे लोग किस ढंग से ध्र्म जगत पर कुठाराघात करने पर उतारू हैं इसका अंदाजा सहज ढंग से लगाया जा सकता है।

साभार हिंदी दैनिक जन आगाज गोपेश्वर चमोली 

युवाओं का पलायन,गांव खाली


युवाओं का पलायन,गांव खाली

नन्दन बिष्ट
उत्तराखंड राज्य का सत्तर प्रतिशत भाग पर्वतीय है, 80 प्रतिशत जनसंख्या गांवों में निवास करती है। पर्वतीय भूभाग में अधिकांश कृषि भूमि विखरी हुई तथा सीढ़ीनुमा खेतों पर की जाती है। बिखरे खेतों के कारण यहां का किसान खेतों पर खेती नहीं कर पाता है। जिससे अधिकांश भूमि बजंर होती नजर आ रही है। कृषि की ठोस नीति न होने के कारण युवाओं में पलायन का बुखार चढ़ा हुआ है जिससे आए दिन गांव के गांव खाली होते जा रहे है। यदि सरकार द्वारा गंभीरता से कृषि पर पहाड़ को ठोस नीति बनाकर आत्मर्भिर नहीं बनाया जाता है तो गांव के गांव खाली होते जाएंगें और पहाड़ पर पलायन के कारण गंभीर संकट के बादल छा सकते हैं।
उत्तराखंड राज्य को बने 14 साल हो गए हैं लेकिन आई गई सरकारों द्वारा कृषि पर कोई ठोस नीति तैयार नहीं की गई। हांलाकि उत्तराखंड बनने के बाद भूमि सुधार व चकबंदी की बातें तो की गई तथा भूमि सुधार को लेकर उच्च स्तरीय समिति का गठन भी किया गया था लेकिन इस दिशा में कोई ठोस नीति नहींे बन पाई। हांलाकि 2004 में सरकार ने चकबंदी एवं भमि सुधार का गठन भी किया गया था लेकिन उस पर भी कोई अमल नहींे हो पाया। उत्तराखंड राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों में छितरी खेती होने के कारण किसानों को कई समस्याओं से जूझना पड़ता है। एक ही स्थान पर खेती न होने से किसानों को कृषि करने का लाभ नहीं मिल पाता है। हमारा पड़ोसी राज्य शिमला में किसानों के लिए ठोस नीति बनी हुई है ओर चकबंदी से किसानों को काफी लाभ पहुंचा है। अधिकत्तर लोग खेती पर ही निर्भर हैं और उत्तराखंड की तरह पलायन की मार नहीं झेल रहा है। उत्तराखंड के विकास में यदि हम बाधा की बात करते हैं तो सबसे बड़ी बाधा चकबंदी न होना है। यदि उत्तराखंड में कृषि बागवानी की ठोस नीति बनाकर चकबंदी के माध्यम से किसानों को जागरूक किया जाता है तो हम विकास की बात कर सकते है। अन्यथा विकास की बात करना नामुमकिन है। पूरा पहाड़ आज अनाज व बागवानी के लिए मैदानी भाग पर निर्भर है। यहां पर कृषि बागवानी, जड़ी-बूटी, कृषि आधारित लघु उद्योग के साथ ही पशुपालन की योजनाओं के लिए ठोस नीति होनी चाहिए तथा प्रत्येक किसान को सरकार की लाभकारी योजनाओं से सीधे-सीधे जोड़ देना होगा तभी हम पहाड़ के विकास की बात कर सकते हैं। यदि आज हम छितरी हुई कृषि योग्य भूमि को चकबंदी कराकर कृषि व बागवानी के क्षेत्र में विकसित करने में कामयाब हो सके तो पलायन पर अंकुश तो लगेगा ही साथ ही जैविक उत्पादन को बढा़वा देकर कृषि के क्षेत्र में नया आयाम पैदा कर सकते हैं। सरकार को गंभीर होर इस विषय पर पहल करनी होगी।यूं तो उत्तराखंड राज्य बने 14 साल हो गए हैं लेकिन अभी तक भी इस राज्य का अपना भूमि सुधार कानून नहीं बन पाया है। रानैतिक दल तो अपनी रोटी सेंकने के जुगत में लगे रहते हैं लेकिन किसी का ध्यान भी उत्तराखंड के भूमि सुधार कानून को बनाने में नहीं गया। सभी राज्यों का अपना-अपना भूमि सुधार कानून है लेकिन हम आज भी उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार कानून पर ही टिके हैं। हांलाकि 1960 में उत्तर प्रदेश में रहते हुए कुमाउं उत्तराखंड जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार कानून ;कूजा एक्टद्ध लागू हुआ है। लेकिन इस पर भी कोई अमल नहीं हो रहा है। हांलाकि तत्कालीन इस कानून से पहाड़ और मैदानी के लिए अलग-अलग भूमि सुधार कानून लागू है। पहाड़ का दुर्भाग्य ही कहें या भौगोलिक संरचना से आए दिन प्राकृतिक आपदाओं ने समय-समय पर झकझोरा है। पहाड़ के कई गांव आज भी पर्नवास की वाट जोह रहे हैं और आपदाओं के कारण विकास में बाधक पहुंची है लेकिन आपदाओं के कारण ही हम कृषि नीति व भूमि सुधार पर काम नहीं कर पा रहे हैं यह सोचना गलत है। हमें यदि पहाड़ का विकास चाहिए तो सरकार को कृषि आधारित एक ठोस नीति को बनाना होगा और पलायन के इस दंश को रोकना चाहें तो चकबंदी जैसे कानून पर कार्य करना होगा। आज जरूरत है तो राज्य में कृषि आधारित उद्योगों को लगाने की पहाड़ के कच्चे माल पर शोध कर छोटे-छोटे लघुउद्यम लगाने की ताकि युवाओं को यहीं पर रोजगार मिल सके और युवा राज्य के विकास में योगदान दे सके। हालांकि पहाड़ में कुछ लोगों ने चकबंदी का प्रयास भी किया है ओर सफलता भी मिली है। लेकिन इस पर सरकार ने अभी तक ठोस कार्य नहीं किया है।

बुधवार, 11 फ़रवरी 2015

हरे-भरे खेतों के बीच बसंत की आहट


हरे-भरे खेतों के बीच बसंत की आहट

पहाड़ में बसंत पंचमी की धूम, लोग जौ को अपने घरों की चैखट पर लगते हैं, और यह दिन होता है हल लगाने का, क्योंकि ठण्ड के मौसम के बाद पहाडी महिलाएं खेतों में काम करने के लिए जाती हैं और बसंत पंचमी से यह सिलसिला शुरू होता है। ये शुभ मन जाता है पहाड़ में हल के लिए और फिर आती है, पूरे संगीत का सामन साथ लेकर होली के रंगों को संगीत के साथ सजाकर पहाड़ को रंगीन कर देते हैं। चैत के महीने में औजी के गीत और फुलेर्यों के फूल, बड़ा ही मद्मोहक समां बंधती हैं। हर घर में कन्यायें सुबह सुबह ताजे फूलों को चैखट में डाल आती हैं, जिनकी खुशबू से पूरा घर दिन भर भरा भरा रहता है। चैत के महीने में पहाड़ की बेटियाँ मैत या मायके आ जाती हैं और वह भी देखती हैं अपने घर के उन पेड़ों को फिर से नए कोंपलों से सजती हुई और धन्य होती हैं इस धारा के सृजन को देखकर। उत्तराखंड में बसंत के आगमन पर बीना बेंजवाल का यह खास आलेख। संपादक


पहाड़ी जंगल में तो अलग अलग रंग के पेड़ों की पट्टियां सी बन गयी हैं। नींचे साल और शीशम के पेड़ों की पट्टी है, तो कुछ ज्यादा ऊंचाई पर चीड़ के पेड़ों की लाइन शुरू हो जाती है। सबकी अपनी-अपनी जमात है। जैसे अपने तिरंगे में अलग-अलग रंग की पट्टियाँ होती हैं, उसी तरह जंगल में भी फूलों की पट्टियाँ बन गयी हैं। सबसे नीचे पीली पट्टी है तो उसके ऊपर ताम्रवर्णी पट्टी है, कहीं कहीं कुछ लाल और धूसर पट्टी भी दिखाई देती है। कुछ ही दिनों में कुछ और ऊंचाई वाले पहाड़ों में बुरांस के लाल फूलों से पूरा का पूरा जंगल आच्छादित हो जाएगा और तब सारे रंग फीके पड़ जायेंगे। दूर से यह जंगल नहीं, कोई बड़ी सी रंग-विरंगी धारीदार चादर नजर आती है। प्रकृति ने सचमुच वसंत की 
दस्तक दे दी है, मगर हमारे भीतर का वसंत अभी निद्रा की ही अवस्था में है। महानगरीय भागमभाग में हम प्रकृति की इस लय को 
पहचानना ही भूल गए हैं। उत्तराखंड! यूँ तो सर्वोतम सुन्दरता से परिपूर्ण है, पर बसंत )तू में इसकी सुन्दरता में निखार आ जाता है। 
और उत्तराखंडी भी इस परदेश की सुन्दरता में सरीक होते हैं। )तुराज बसंत, जब यहाँ दस्तक देता है तो समां मनो रंगीन से भी 
रंगीन हो जाता है,चरों तरफ हरियाली, बर्फ की ठंडक कम होते हुए, बर्फ के कारण हुए पतझड़ वाले पर्दों में फिर से नई कोंपले 
आ जाती हैं और तरफ तरह के वनफूलों से सारी धारा अलंकृत हो जाती है। बुरांस! उत्तराखंड का राज्य पुष्प, सरे जंगल 
को रक्त वर्ण से सुसज्जित करता है तो दूसरी तरफ फ्योंली के फूल पीत वर्ण से घाटियों को सजाते हैं।सरसों के पीतवर्ण से 
सजे खेत और, वनों में कई अन्य तरह के फूलों से सजी धारा को देखा जा सकता है इस )तुराज बसंत में।और तो और 
फागुन का सौन्दर्य देखते ही बनता है, रंगीलो बैसाख, काट भागुली ग्यूं!! कुमाऊंनी लोकगीत की यह पंक्ति जैसे बैसाख की मस्ती
को बयान करने को काफी है। चारों तरफ एक अजीब सी गंध पसरने लगी है। गेहूं के खेतों के किनारे-किनारे सरसों के पीले 
फूल खिल रहे हैं। अमराइयों में बौर फूट चुकी हैं। आम की ही तरह लीची में भी बौर आ चुकी हैं। हालांकि आम क बौर की 
तुलना में लीची की बौर जैसे दबे-छिपे ही आ रही है। वह अपने आने का एहसास नहीं करवाती। सेमल के पेड़ अपने को 
अनावृत कर चुके हैं। उनमें नन्हीं-नन्हीं लाल कलियाँ दिखने लगी हैं। पखवाड़े भर में ये पूरे के पूरे लाल हो चुके होंगे। कभी
आप गेहूं के हरे-भरे खेतों के बीच से होते हुए गुजरे हैं? जब गेहूं के पौंधे एक-डेढ़ फुट के हो जाते हैं, तब गहरे हरे 
रंग के खेतों के बीच से सुबह-सवेरे निकलिए, आपको हजारों-हजार मोती टिमटिमाते हुए दिखेंगे। पिछले डेढ़-दो महीनों
से मैं अपने आस-पास के खेतों में गेहूं के पौंधों को पल-पल बढ़ते हुए देख रहा हूँ। जब वे नन्हे कोंपल थे, तब 
उन पर बरबस स्नेह उमड़ आता था। जमीन की सतह को फोड़ कर ऊपर उठने की जद्दोजहद से भरे हुए। जब 
वे आधे फुट के हो गए, तब उनकी रौनक अलग थी। जैसे बच्चा शैशव की दीवार को पार कर चलने-फिरने लगा हो, 
तेज दौड़ने की चाह में बार बार गिर पड़ता हो। जब वे डेढ़ फुट के हो गए, तो उनका सौंदर्य अनुपमेय हो गया। गहरे हरे रंग के घने खेत में तब्दील हो गए। पूरी तरह से आच्छादित। और कुछ भी नहीं। जब मंद-मंद बयार चलती, तो सारे पौंधे एक साथ हिलते दिखाई 
देते जैसे कि छब्बीस जनवरी की परेड लेफ्ट-राईट करती हुई चल रही हो। सुबह जब उनके ऊपर विखरी ओस की बूंदों पर
सूर्य की पहली किरण पड़ती है, तब इनकी छटा देखते ही बनती है। मन करता है, बस, इन्हें ही देखते रहो। इन्हें देखते हुए मैं 
अक्सर अपने बचपन के गाँव में लौट जाता हूँ। नाक और कान छिदवाई हुई मेरे साथ की छोटी-छोटी लड़कियां सुबह-सवेरे 
ओस की इन बूंदों को बटोर कर नाक और कान के छिदे हुए घावों पर डाल रही होतीं। इन मोतियों को बटोरने को लेकर 
उनके मन में अद्भुत उत्साह होता था। सुबकते हुए घावों में मोतियों की ठंडक का एहसास पाने का उत्साह. साथ ही हरे-हरे 
पौंधों को छूने का एहसास। इधर कुछ दिनों से गेहूं में बालियाँ निकलने लगी हैं। कई-कई खेत तो बालियों से लबालब भर गए
हैं। जैसे किशोर युवाओं के शरीर में बेतरतीब ढंग से परिवर्तन आने लगते हैं, लड़कों के चेहरे पर दाढी-मूंछ उग आती है, 
लड़कियों के शरीर में भी परिवर्तन दीखते हैं, उसी तरह गेहूं के खेत भी इन दिनों अपना रंग बदल रहे हैं। गहरा हरा रंग
अब तनिक गायब हो गया है। अब उनकी खूबसूरती भी अंगड़ाई ले रही है। कहीं-कहीं बालियाँ पूरी आ चुकी हैं तो कहीं 
एकाध कलगी ही दिख रही है। बीच बीच में एकाध पैच ऐसा भी दिख जाता है, जो अभी अपने बचपन में ही हो।एक दिन 
सुबह टहलते हुए मुझे धनिया का बड़ा-सा खेत दिखाई पड़ा, जो पूरी तरह से खिला हुआ था। धनिया की कुछ क्यारियां 
तो बचपन में देखी थीं, लेकिन इस तरह पूरे शबाब में कभी न देखा था। सरसों के चटख पीले फूलों की बहुत चर्चा 
होती है, लेकिन सच पूछिए तो मैं धनिया के फूलों भरे खेत को देखता ही रह गया। हलके गुलाबी और सफेद रंग के 
फूल अद्भुत दृदृश्य उत्पन्न करते हैं और उनकी हलकी हलकी खुशबू भी अलग ही समां बांधती है।प्रकृति की ये 
सारी छटाएं वसंत के आगमन की सूचना दे रही हैं। वसंत दस्तक दे चुका है, हलकी-हलकी बयार चल रही है। 
लेकिन अभी मादकता आनी बाकी है। अगले महीने जब गेहूं की इन बालियों में दाने भर जायेंगे, वे ठोस आकार 
ले चुके होंगे और बाल, जो अभी मुलायम हैं, वे काँटों की तरह नुकीले हो जाएँगे, हवा में एक भुरभुरी सी 
गंध पसरने लगेगी, रंग भी हरे के बजाय पीताभ हो जाएगा, तब गेहूं के खेतों में मादकता बरसेगी।

पहाड़ी जंगल में तो अलग अलग रंग के पेड़ों की पट्टियां सी बन गयी हैं। नींचे साल और शीशम के पेड़ों की पट्टी है, तो कुछ ज्यादा ऊंचाई पर चीड़ के पेड़ों की लाइन शुरू हो जाती है। सबकी अपनी-अपनी जमात है। जैसे अपने तिरंगे में अलग-अलग रंग की पट्टियाँ होती हैं, उसी तरह जंगल में भी फूलों की पट्टियाँ बन गयी हैं। सबसे नीचे पीली पट्टी है तो उसके ऊपर ताम्रवर्णी पट्टी है, कहीं कहीं कुछ लाल और धूसर पट्टी भी दिखाई देती है। कुछ ही दिनों में कुछ और ऊंचाई वाले पहाड़ों में बुरांस के लाल फूलों से पूरा का पूरा जंगल आच्छादित हो जाएगा और तब सारे रंग फीके पड़ जायेंगे। दूर से यह जंगल नहीं, कोई बड़ी सी रंग-विरंगी धारीदार चादर नजर आती है। प्रकृति ने सचमुच वसंत की
दस्तक दे दी है, मगर हमारे भीतर का वसंत अभी निद्रा की ही अवस्था में है। महानगरीय भागमभाग में हम प्रकृति की इस लय को
पहचानना ही भूल गए हैं। उत्तराखंड! यूँ तो सर्वोतम सुन्दरता से परिपूर्ण है, पर बसंत )तू में इसकी सुन्दरता में निखार आ जाता है।
और उत्तराखंडी भी इस परदेश की सुन्दरता में सरीक होते हैं। )तुराज बसंत, जब यहाँ दस्तक देता है तो समां मनो रंगीन से भी
रंगीन हो जाता है,चरों तरफ हरियाली, बर्फ की ठंडक कम होते हुए, बर्फ के कारण हुए पतझड़ वाले पर्दों में फिर से नई कोंपले
आ जाती हैं और तरफ तरह के वनफूलों से सारी धारा अलंकृत हो जाती है। बुरांस! उत्तराखंड का राज्य पुष्प, सरे जंगल
को रक्त वर्ण से सुसज्जित करता है तो दूसरी तरफ फ्योंली के फूल पीत वर्ण से घाटियों को सजाते हैं।सरसों के पीतवर्ण से
सजे खेत और, वनों में कई अन्य तरह के फूलों से सजी धारा को देखा जा सकता है इस )तुराज बसंत में।और तो और
फागुन का सौन्दर्य देखते ही बनता है, रंगीलो बैसाख, काट भागुली ग्यूं!! कुमाऊंनी लोकगीत की यह पंक्ति जैसे बैसाख की मस्ती
को बयान करने को काफी है। चारों तरफ एक अजीब सी गंध पसरने लगी है। गेहूं के खेतों के किनारे-किनारे सरसों के पीले
फूल खिल रहे हैं। अमराइयों में बौर फूट चुकी हैं। आम की ही तरह लीची में भी बौर आ चुकी हैं। हालांकि आम क बौर की
तुलना में लीची की बौर जैसे दबे-छिपे ही आ रही है। वह अपने आने का एहसास नहीं करवाती। सेमल के पेड़ अपने को
अनावृत कर चुके हैं। उनमें नन्हीं-नन्हीं लाल कलियाँ दिखने लगी हैं। पखवाड़े भर में ये पूरे के पूरे लाल हो चुके होंगे। कभी
आप गेहूं के हरे-भरे खेतों के बीच से होते हुए गुजरे हैं? जब गेहूं के पौंधे एक-डेढ़ फुट के हो जाते हैं, तब गहरे हरे
रंग के खेतों के बीच से सुबह-सवेरे निकलिए, आपको हजारों-हजार मोती टिमटिमाते हुए दिखेंगे। पिछले डेढ़-दो महीनों
से मैं अपने आस-पास के खेतों में गेहूं के पौंधों को पल-पल बढ़ते हुए देख रहा हूँ। जब वे नन्हे कोंपल थे, तब
उन पर बरबस स्नेह उमड़ आता था। जमीन की सतह को फोड़ कर ऊपर उठने की जद्दोजहद से भरे हुए। जब
वे आधे फुट के हो गए, तब उनकी रौनक अलग थी। जैसे बच्चा शैशव की दीवार को पार कर चलने-फिरने लगा हो,
तेज दौड़ने की चाह में बार बार गिर पड़ता हो। जब वे डेढ़ फुट के हो गए, तो उनका सौंदर्य अनुपमेय हो गया। गहरे हरे रंग के घने खेत में तब्दील हो गए। पूरी तरह से आच्छादित। और कुछ भी नहीं। जब मंद-मंद बयार चलती, तो सारे पौंधे एक साथ हिलते दिखाई
देते जैसे कि छब्बीस जनवरी की परेड लेफ्ट-राईट करती हुई चल रही हो। सुबह जब उनके ऊपर विखरी ओस की बूंदों पर
सूर्य की पहली किरण पड़ती है, तब इनकी छटा देखते ही बनती है। मन करता है, बस, इन्हें ही देखते रहो। इन्हें देखते हुए मैं
अक्सर अपने बचपन के गाँव में लौट जाता हूँ। नाक और कान छिदवाई हुई मेरे साथ की छोटी-छोटी लड़कियां सुबह-सवेरे
ओस की इन बूंदों को बटोर कर नाक और कान के छिदे हुए घावों पर डाल रही होतीं। इन मोतियों को बटोरने को लेकर
उनके मन में अद्भुत उत्साह होता था। सुबकते हुए घावों में मोतियों की ठंडक का एहसास पाने का उत्साह. साथ ही हरे-हरे
पौंधों को छूने का एहसास। इधर कुछ दिनों से गेहूं में बालियाँ निकलने लगी हैं। कई-कई खेत तो बालियों से लबालब भर गए
हैं। जैसे किशोर युवाओं के शरीर में बेतरतीब ढंग से परिवर्तन आने लगते हैं, लड़कों के चेहरे पर दाढी-मूंछ उग आती है,
लड़कियों के शरीर में भी परिवर्तन दीखते हैं, उसी तरह गेहूं के खेत भी इन दिनों अपना रंग बदल रहे हैं। गहरा हरा रंग
अब तनिक गायब हो गया है। अब उनकी खूबसूरती भी अंगड़ाई ले रही है। कहीं-कहीं बालियाँ पूरी आ चुकी हैं तो कहीं
एकाध कलगी ही दिख रही है। बीच बीच में एकाध पैच ऐसा भी दिख जाता है, जो अभी अपने बचपन में ही हो।एक दिन
सुबह टहलते हुए मुझे धनिया का बड़ा-सा खेत दिखाई पड़ा, जो पूरी तरह से खिला हुआ था। धनिया की कुछ क्यारियां
तो बचपन में देखी थीं, लेकिन इस तरह पूरे शबाब में कभी न देखा था। सरसों के चटख पीले फूलों की बहुत चर्चा
होती है, लेकिन सच पूछिए तो मैं धनिया के फूलों भरे खेत को देखता ही रह गया। हलके गुलाबी और सफेद रंग के
फूल अद्भुत दृदृश्य उत्पन्न करते हैं और उनकी हलकी हलकी खुशबू भी अलग ही समां बांधती है।प्रकृति की ये
सारी छटाएं वसंत के आगमन की सूचना दे रही हैं। वसंत दस्तक दे चुका है, हलकी-हलकी बयार चल रही है।
लेकिन अभी मादकता आनी बाकी है। अगले महीने जब गेहूं की इन बालियों में दाने भर जायेंगे, वे ठोस आकार
ले चुके होंगे और बाल, जो अभी मुलायम हैं, वे काँटों की तरह नुकीले हो जाएँगे, हवा में एक भुरभुरी सी
गंध पसरने लगेगी, रंग भी हरे के बजाय पीताभ हो जाएगा, तब गेहूं के खेतों में मादकता बरसेगी।

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2015

‘सियासी कीचड़’

‘सियासी कीचड़’
में लापता हुआ गाड-गदेरों का बेटा


एक साल पहले जब प्रदेश की कमान हरीश रावत को सौंपी गयी थी तो उस समय उत्तराखंड की जनता को लगा था कि पहाड़ का विकास होगा क्योंकि इस पहाड़ी प्रदेश की कमान पहाड़ के बेटे के हाथों में आ गयी है। लेकिन 
ऐसा कुछ नहीं हुआ। हरीश रावत के एक साल के कार्यकाल में जनोपयोगी कार्य कम हुए और राज्य
 की जनता का हरीश रावत से विश्वास उठ गया है। कुल मिलाकर एक साल के कार्यकाल में हरीश 
रावत मात्र 10 प्रतिशत सफल रहे। हरीश रावत की संवेदनहीनता की ही हद है कि वे बेझिझक मुख्यमंत्री विवेकाधीन कोष का मुंह गरीबों के लिए तो बंद करने का ऐलान कर देते हैं, लेकिन खुद अपने इर्द-गिर्द चाटुकारों की फौज भर्ती कर जनता का करोड़ों रूपया हर महीना बहा देते हैं। यही नहीं, हरीश रावत कांग्रेसियों को खुश करने के लिए जिस तरह थोक के भाव दायत्विधारियों की भर्ती करने में जुटे पड़े हैं, वह यह दिखाता है कि हरीश रावत को जनता की बजाय कांग्रेसियों की ही ज्यादा चिंता है। अगर ऐसा न होता तो वे इस तरह के विरोधाभासी फैसले न लेते। इस एक साल के कार्यकाल में अब तक जिस तरह हरीश रावत भ्रष्ट नौकरशाहों को संरक्षण देते आ रहे हैं, वह उनकी नीयत पर ही सवाल उठाता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ कानून बनने के बाद भी जिस तरह एक साल से हरीश रावत लोकायुक्त की चयन प्रक्रिया तक शुरू नहीं कर पाए हैं, वह बताता है कि सरकार के दिखाने के दांत और, खाने के दांत कुछ और हैं। सरकार की छत्रछाया में पिछले एक साल से इस राज्य में माफिया और भष्टों की ही खूब पौ बारह हो रही है। राज्य के विकास के लिहाज से उनका यह पहला साल कोरी बयानबाजी व शह-मात के खेल तक ही सीमित रहा। कुल मिलाकर हरीश रावत का अब तक का कार्यकाल निराशा ही पैदा करता है। सीएम हरीश रावत के एक साल के कार्यकाल पर केंद्रित यह खास आलेख। संपादक

रावत का पहला साल बीता भाजपाइयों को गरियाने और अपनी कुर्सी बचाने में 


एक साल पूर्व जब प्रदेश की कमान हरीश रावत को सौंपी गयी थी तो उस समय यहां के लोगों ने जो उम्मीदें पाली थी और जो उत्साह लोगों में देखने को मिला था आज वह सब गायब है। क्योंकि अपने एक साल के कार्यकाल में सीएम हरीश रावत फिसड्डी साबित हुए। आज की स्थिति ऐसी है कि राज्य के लोग फिर से खुद को कोसते हुए ठगा महसूस कर रहे हैं। आपदा और कुशासन को मुद्दा बनाते हुए सीएम की कुर्सी तक पहुंचे हरीश रावत अब तक के अपने एक साल के कार्यकाल में फिसड्डी ही साबित हुए हैं। खुद को गाड-गदेरों का बेटा घोषित करने वाले हरीश रावत जिस तरह से शासन कर रहे हैं,  उससे लगता है कि वे कुशासन के मामले में अपने पूर्ववर्तियों को भी पीछे छोड़ते जा रहे हैं। हरीश रावत के मुख्यमंत्री बनने पर उत्तराखंड के लोगों को प्रारंभिक तौर पर विश्वास था कि वे कुछ ऐसा करेंगे, जिससे उत्तराखंड का भला होगा। किंतु एक साल का कार्यकाल पूरा होने के बाद स्पष्ट हो गया कि यह पूरा साल हरीश रावत की असफलता के कारण उत्तराखंड के लोगों के लिए दुःस्वप्न से कम नहीं रहा। उत्तराखंड के उन लोगों ने अपने को ठगा सा महसूस किया, जिन्होंने हरीश रावत के मुख्यमंत्री बनते ही आशाओं और उम्मीदों के सपने देखने शुरु कर दिए थे कि अब उत्तराखंड को दशा और दिशा देने वाला गाड गदेरों का बेटा राज्य को मिल गया है। हरीश रावत का यह पहला साल आधा तो भाजपाइयों को गरियाने में और आधा अपनी कुर्सी बचाने में ही लग गया। सुदूर धरचूला का वह व्यक्ति आज भी उसी मुफलिसी में जी रहा है, जिसमें वह साल भर पहले था। हरीश रावत ने एक साल का कार्यकाल पूरा होने से पहले एक और ऐसा फैसला लिया, जिससे स्पष्ट हो जाता है कि हरीश रावत को अब असहाय, दुर्बल, विकलांग, गरीब लोगों की कोई चिंता नहीं है। इस दिन सरकार की ओर से आदेश जारी करवाया गया कि अगले छह माह तक गरीबों को मिलने वाली वह आर्थिक सहायता बंद कर दी गई है, जिसके तहत पहले किसी गरीब को अपनी बेटी की शादी के लिए तो किसी को अपने जीवनयापन के लिए दो-चार हजार रुपए मिल जाया करते थे। इससे पहले बीपीएल परिवार के उन लोगों को सहायता का प्रावधान था, जिनके बच्चे उच्च शिक्षा ग्रहण करना चाहते थे। साथ ही साथ जिन बीपीएल परिवारों को समाज कल्याण की योजनाओं से लाभ नहीं मिल पाता था, उन्हें मुख्यमंत्री विवेकाधीन कोष से मदद मिल जाया करती थी। हरीश रावत के इस तुगलकी फरमान से अब अगले छह माह तक असहाय, दुर्बल, विकलांग, अग्निकांड, दुर्घटना, किसी भी प्रकार की दैवीय आपदा से पीड़ितों को किसी प्रकार की आर्थिक सहायता नहीं मिलेगी। हरीश रावत द्वारा इस आदेश के पीछे का कारण राज्य की डांवाडोल आर्थिक स्थिति बताई जा रही है, किंतु जिस प्रकार का प्रतिबंध गरीब, मजलूमों की मदद रोकने के लिए लगाया गया है, यदि हरीश रावत इसी प्रकार का निर्णय कर अपने महिमा मंडन पर होने वाले करोड़ों रुपए के विज्ञापनों पर प्रतिबंध लगाते तो बात समझ में आ सकती थी। यदि उत्तराखंड सरकार के पास गरीबों को देने के लिए दो-चार हजार रुपए भी नहीं हैं तो फिर अपने महिमा मंडन पर करोड़ों रुपए खर्च करने के लिए कहां से आ रहे हैं? सवाल नीति और नीयत दोनों का है। यदि सरकार की नीयत साफ होती तो वह पहले अपने गुणगान पर हो रहे अनावश्यक खर्चे को रोकती।  एक ओर लग्जरी गाड़ी में बैठकर आने वाले वे मीडिया हाउस हैं, जो शानदार जीवनयापन कर रहे हैं, जिनके पास आलीशान भवन हैं, जिनके बच्चे सबसे महंगे स्कूलों में पढ़ रहे हैं। ऐसे मीडिया हाउसों पर हरीश रावत करोड़ों उड़ा रहे हैं तो दूसरी ओर दो जून की रोटी को तरसते गरीब को मिलने वाली आर्थिक सहायता बंद करने से समझा जा सकता है कि हरीश रावत की नीति और नीयत किसके पक्ष में है? हरीश रावत के मुख्यमंत्री बनने के एक साल के कार्यकाल का यदि पूरी ईमानदारी से आंकलन किया जाए तो फर्क सिर्फ इतना दिखाई देता है कि हरीश रावत उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हो गए हैं। उत्तराखंड में आज भी लगातार अबोध बच्चियों से बलात्कार की घटनाएं हो रही हैं, सरकारी विभागों में लिया जाने वाला कमीशन 25 से लेकर 40 प्रतिशत तक हो गया है। योग्यता की बजाय भाई-भतीजावाद और सिफारिश जोरों पर है। प्रदेश में कानून व्यवस्था की हालत इतनी बदतर हो चुकी है कि अपराध्ी अब उत्तराखंड पुलिस को चांटे मारकर भाग रहे हैं। मंत्री मुख्यमंत्री के विरु( बयान दे रहे हैं तो मुख्यमंत्री भ्रष्ट अफसरों के बगलगीर होकर कह रहे हैं कि भ्रष्ट अफसरों का नाम तो बताओ, मुंडी मरोड़ दूंगा। इस पूरे एक साल में कभी भी आशा की किरण देखने को नहीं मिली। 1 फरवरी 2014 को कांग्रेस ने विजय बहुगुणा को हटाकर हरीश रावत को इसलिए उत्तराखंड के मुख्यमंत्री की कमान सौंपी कि इसके ठीक तीन महीने बाद मई में देश में आम चुनाव प्रस्तावित थे। कांग्रेस पार्टी को उम्मीद थी कि यूपीए-2 के दौरान केन्द्रीय मंत्री रहे हरीश रावत उत्तराखंड से कांग्रेस को सीटें दिलाने में कामयाब रहेंगे। हरीश रावत को तमाम अस्त्र-शस्त्रों के साथ चुनाव मैदान में उतारा गया, किंतु हरीश रावत उत्तराखंड की जनता के साथ-साथ कांग्रेस हाईकमान के विश्वास को अर्जित करने में पूरी तरह नाकाम रहे और उत्तराखंड से कांग्रेस का 5-0 के रूप में सफाया हो गया। इस लोकसभा चुनाव में खास बात यह रही कि 70 विधानसभाओं में से कांग्रेस मात्र सात विधानसभाओं में बहुत कम अंतर से आगे रही। कुल मिलाकर हरीश रावत का सफलता का प्रतिशत 10 और हार का प्रतिशत 90 रहा। हरीश रावत ने मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद सबसे पहले विधायक निधि की लूटपाट का रास्ता खोला, जिसमें उन्होंने विधायकों को मिलने वाली प्रत्येक वर्ष की विधायक निधि को हर वर्ष खर्च करने की बाध्यता खत्म कर आदेश करवा दिया कि यह धनराशि प्रत्येक वर्ष खर्च न करने के बाद भी लैप्स नहीं होगी और विधयक पांच साल में कभी भी विधायक निधि खर्च कर सकते हैं। हरीश रावत द्वारा लूट की छूट मिलने का असर यह हुआ कि आगे चलकर न सिर्फ मंत्रियों, विधायकों ने उत्तराखंड को ठगना शुरु कर दिया, बल्कि नौकरशाह इसमें दो कदम आगे रहे। मुख्यमंत्री के रूप में हरीश रावत ने दूसरा बड़ा फैसला यह लिया कि उनके राज में भी जनता की गाढ़ी कमाई को उनकी ‘इमेज बिल्डिंग’ पर जमकर बरसाया जाए और एक वर्ष के कार्यकाल में हरीश रावत ने इसी इमेज बिल्डिंग पर पेड न्यूज और विज्ञापनों के माध्यम से तकरीबन 40 करोड़ रुपए लुटा दिए। जिस आपदा के कारण हरीश रावत को उत्तराखंड के मुख्यमंत्री की कुर्सी नसीब हुई, उन आपदा पीड़ितों को मिलने वाली राहत के मानकों को घटाकर हरीश रावत ने न सिर्फ आपदा पीड़ितों के जख्मों पर नमक छिड़का, बल्कि स्पष्ट कर दिया कि उनकी आपदा पीड़ितों से कोई सहानुभूति नहीं है। इस पूरे साल में नियम-कायदों को ठेंगा दिखाते हुए हरीश रावत ने ट्रांसपफर-पोस्टिंग में जो मनमानी की, उसने उनके पूर्ववर्तियों के सारे रिकार्ड ध्वस्त कर दिए। बेलगाम नौकरशाही पर लगाम कसने में हरीश रावत पूरी तरह नाकाम रहे। एक भी भ्रष्ट कर्मचारी, अधिकारी के विरु( पूरे साल भर में कोई कार्रवाई नहीं हुई, बल्कि ऐसे भ्रष्ट अधिकारी, कर्मचारियों को कई बार हरीश रावत ने महत्वपूर्ण जिम्मेदारी देकर ईमानदार अधिकारी, कर्मचारियों को हतोत्साहित करने वाला काम भी किया।
जमीनों के खेल भी इस पूरे एक साल में खूब खेले गए। सरकार की कृपा से हरिद्वार स्थित सिडकुल की भूमि के खरीदार बिल्डर को 266 करोड़ रुपए का फायदा हुआ और आज तक हरीश रावत यह जवाब नहीं दे पाए कि उनकी सरकार ने बिल्डर पर ऐसी कृपा क्यों बरसाई?इस सरकार के पहले साल के कार्यकाल में खनन माफियाओं, शराब माफियाओं और भू माफियाओं की मौज रही। हरीश रावत के मुख्यमंत्री बनने के पहले ही महीने में शराब माफियाओं के पक्ष में सरकार के उस बड़े निर्णय की खूब आलोचना हुई, जिसके तहत उन्होंने अपने अधिकारियों, अधीनस्थों की टिप्पणी के बावजूद पूरे प्रदेश के होलसेल शराब के कारोबार को ‘लिकर किंग’ रहे पोंटी चड्ढ़ा के बेटे मोंटी को सौंप दिया।मुख्यमंत्री बनते ही हरीश रावत ने जमीनों के हो रहे अंधाध्ुांध दोहन को रोकने के लिए एसआईटी गठन की बात की थी। हरीश रावत के मुख्यमंत्री बनने के बाद राज्य सरकार द्वारा ऐसा कोई आदेश जारी नहीं हुआ, जिसमें कहा गया हो कि अब भवनों की उंचाई सात मंजिल से अधिक की जा सकती है, किंतु भूमाफियाओं पर हरीश रावत की इतनी बड़ी कृपा रही कि अब प्रदेश में दस से लेकर चैदह मंजिला बिल्डिंगें नियम विरु( बन रही हैं। हरीश रावत के इस एक साल के कार्यकाल में हजारों नए शासनादेशों की खबरें हैं और खर्चे का औसत 25 प्रतिशत मात्रा। अर्थात सरकार के पास जो बजट है, उसका जनवरी के आखिरी सप्ताह तक सिर्फ 25 प्रतिशत ही सरकार खर्च कर पाई है, जिससे समझा जा सकता है कि शेष 75 प्रतिशत धनराशि को इस सरकार की कृपा से अधिकारियों ने मार्च फाइनल के नाम पर ठिकाने लगाने के लिए रखा हुआ है।
जब बजट खर्च की स्थिति यह है तो समझा जा सकता है कि हरीश रावत ने जो हजारों शासनादेश करवाए, उन पर किस प्रकार अमल हो रहा होगा। सरकार के आंकड़े बता रहे हैं कि विगत एक वर्ष से उत्तराखंड में पहाड़ से न सिर्फ पलायन में भारी तेजी आई है, बल्कि अब पहाड़ों में पहले की अपेक्षा अध्यापक और डाक्टर दोनों घट गए हैं, जो हरीश रावत की प्रशासनिक क्षमता पर सवालिया निशान लगाते हैं। हरीश रावत ने इस एक साल के अंतर्गत करोड़ों रुपए फूंककर रिकार्ड कैबिनेट की बैठकें देहरादून से लेकर अल्मोड़ा और गैरसैंण में आयोजित कीं। जिन कैबिनेट की बैठकों पर पांच सौ रुपए का खर्चा आना था, उन पर इतनी भारी-भरकम धनराशि लुटाने का जवाब हरीश रावत नहीं दे पाए। तीन दिन तक गैरसैंण में चलाए गए विधानसभा सत्र के बाद आज गैरसैंण में वही हालात हैं, जो उस विधानसभा सत्र से पहले थे। जिस उत्तराखंड की आज तक राजधानी तय नहीं है और उसका विधानसभा भवन देहरादून में स्थित है, उसी का गैरसैंण में एक नया विधानसभा भवन बनने जा रहा है तो देहरादून के रायपुर में भी नया विधानसभा भवन प्रस्तावित है। इसे इच्छाशक्ति का अभाव ही कहा जाएगा कि हरीश रावत पूर्ण बहुमत की सरकार का दंभ तो भरते हैं, किंतु उन्होंने राजधानी के मसले पर आज तक अपना रुख स्पष्ट नहीं किया है। इस एक साल को उत्तराखंड के लोग इसलिए भी याद नहीं करना चाहेंगे, क्योंकि इसी दौरान हरीश रावत ने अपने पूर्व मुख्यमंत्राी होने की स्थिति में देहरादून में अपने लिए सरकारी खर्चे से 40 करोड़ रुपए के एक भवन निर्माण की इजाजत दे दी। इससे समझा जा सकता है कि हरीश रावत की चिंता सिर्फ और सिर्फ अपनों के लिए ही है। हरीश रावत के परिजनों द्वारा सत्ता में सीधी दखलअंदाजी की बातें अब सामान्य लगने लगी हैं। अधिकारी परेशान हैं कि हरीश रावत की मानें या उनके परिजनों की। हरीश रावत के मुख्यमंत्री बनने के बाद उत्तराखंड की कार्यदायी संस्थाएं तो फाके में हैं, किंतु उत्तराखंड से बाहर की कार्यदायी संस्थाओं को लूट की खुली छूट दे दी गई है। 4 मार्च 2014 को बाहरी एजेंसियों पर कृपा बरसाने के लिए ऐसा शासनादेश जारी कर दिया गया, जिसमें स्पष्ट रूप से लिखा गया कि इन बाहरी एजेंसियों द्वारा कराए जा रहे निर्माण कार्यों में डीएसआर ;दिल्ली शिड्यूल्स आॅफ रेट्सद्ध के मानक लागू होंगे और ये संस्थाएं अपने नियमों के अंतर्गत कार्य करंेगी, अर्थात इन पर उत्तराखंड सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होगा। यह हरीश रावत के कौशल का ही परिणाम है कि आज पूरे प्रदेश में सारे महत्वपूर्ण और बड़े काम उत्तराखंड से बाहर की एजेंसियां अपनी मर्जी से कर रही हैं। एक ओर उत्तराखंड के आपदा पीड़ित आत्महत्या जैसे कठोर कदम उठाने को इसलिए मजबूर हैं कि सरकार उनकी नहीं सुन रही तो दूसरी ओर हरीश रावत ने अपनी कुर्सी की सलामती के लिए कैबिनेट के समकक्ष एक और ‘शैडो कैबिनेट’ बनाकर उत्तराखंड को गर्त में डालने का इंतजाम किया है। इस शैडो कैबिनेट पर उतने ही करोड़ों रुपए खर्च किए जा रहे हैं, जितने कि वास्तविक मंत्रिमंडल पर।
विधानसभा में अवैध, अनैतिक भर्तियों पर हरीश रावत की चुप्पी से साफ हो जाता है कि उनके लिए उत्तराखंड के बेरोजगारों से अधिक उनके रिश्तेदार विधानसभा अध्यक्ष गोविंद सिंह कुंजवाल हैं और उन्होंने कुंजवाल को ही मनमानी करने की खुली छूट दे रखी है। करोड़ों के घोटालों की जांच पर आज तक आंच नहीं आ सकी। पूरे साल भर शोर मचने के बावजूद स्वास्थ्य विभाग के टैक्सी बिल घोटाले में आज तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है। श्रीनगर में ध्वस्त हुआ चैरास पुल आज भी प्रदेश की जनता को इसलिए मुंह चिढ़ा रहा है, क्योंकि इसके दोषी अफसरों को हरीश रावत की शह प्राप्त है।यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि जब हरीश रावत मुख्यमंत्री बनें, तो कुमाऊं में उनके गांव मोहनरी में उनकी जयजयकार हो रही थी। किसी जमाने में ब्लाक प्रमुख रहे रावत केंद्र में कैबिनेट रैंक का मंत्री हासिल करने के बाद उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बने हैं। और ये कुर्सी हरीश रावत को 12 साल के इंतजार के बाद मिली है। जनता के बीच अपनी पकड़ के चलते शायद इन्हें यह पद मिला। 2002 में पार्टी ने एक तरह से उन्हीं की अगुवाई में उत्तराखंड का चुनाव लड़ा था और उनका मुख्यमंत्री बनना तय था लेकिन ऐन वक्त पर न जाने एनडी तिवारी कैसे कुर्सी पर बैठा दिए गए। हरीश रावत की उम्मीदों को झटका लगा उनके चाहने वालों को सदमा। हरीश को उबरने में वक्त लगा। तिवारी शासनकाल में कोई दिन ऐसा न होता था जब कयास न लगते हों कि तिवारी इस्तीफा दे रहे हैं।
by santosh banjwal
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