गुरुवार, 16 अप्रैल 2015
‘कांपते’ हाथों में डंडा देख ‘दुबका’ गुलदार
चमोली जिले के गनोली गांव के 70 वर्षीय चंद्र सिंह ने डंडे से किए गुलदार पर कई वार
बुधवार, 15 अप्रैल 2015
अभी भगवान की नाराजगी दूर नहीं हुई
चारधाम यात्रा के लिए अपने-अपने यजमान को टटोल रहे तीर्थ पुरोहितों को मिल रहे जवाब निराशाजनक हैं और ऐसा लग रहा है कि अभी भगवान की नाराजगी दूर नहीं हुई है। वर्ष 2013 की प्राकृतिक आपदा के बाद से चारधाम यात्रा ठप है। सरकार के स्तर से किए गए तमाम उपक्रमों के बावजूद 2014 में यात्रा जोर नहीं पकड़ सकी। परिणामस्वरूप यात्रा पर निर्भर लोगों के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया। इस वर्ष लोग यात्रा के जोर पकड़ने की उम्मीद लगाए बैठे थे। यात्रा मार्ग को सुगम बनाने के लिए निम जैसे संस्थानों ने पूरा जोर लगा दिया और सरकार ने भी अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी। र्शम और साहस का ऐसा समिर्शण सामने आया कि इसने केदारधाम जैसे दुर्गम क्षेत्र में कई कीर्तिमान बना डाले। परंतु इसके बाद भी कुदरत से पार नहीं पाया जा सका और इसका एकमात्र कारण है लगातार हो रही बेमौसमी बारिश। दरअसल, इस बारिश ने सबसे अधिक उन राज्यों को प्रभावित किया है जहां से चारधाम यात्रा पर सबसे अधिक यात्री आते हैं। इन यात्रियों में सबसे बड़ा हिस्सा किसानों का होता है। यात्रियों का ये तबका लोकल बाजार को सबसे अधिक ऑक्सीजन देता है। ऐसे राज्यों में मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश शामिल हैं। इन राज्यों में किसानों को सबसे अधिक नुकसान की बात सामने आ रही है। सूचना है कि मुसीबत में घिरे किसान इस बार चारधाम यात्रा नहीं करने का मन बना रहे हैं। लोगों को यात्रा के लिए प्रेरित करने वाले तीर्थ पुरोहित भी ही ऐसा मान रहे हैं। यजमानों को कपाट खुलने की जानकारी दे रहे तीर्थ पुरोहितोंे से किसान फोन पर नुकसान का जिक्र कर रहे हैं। वे साफ कह रहे हैं कि फसलें नष्ट होने के कारण इस बार उनका यात्रा पर जाना मुश्किल होगा।आस्था के पथ पर उम्मीदों का दामन फैला हुआ है। यात्रा के जरिए आर्थिकी को आकार देने का भगीरथ प्रयास हो रहे हैं। दो वर्ष पूर्व आई जल प्रलय में बह गई सूबे की साख को वापस लाने की जद्दोजहद जारी है। भगवान के दर पर भक्तों का बेसब्री से इंतजार हो रहा है। यानी समग्र रूप में यूं कह लें कि मंद व कुंद पड़ी पहाड़ की श्रद्धामयी कोलाहल को वापस लाने के सारे इंतजाम कर लिए गए हैं। पर विडंबना यह है कि भगवान आज भी नाराज हैं और उनकी नाराजगी कभी बाढ़ तो कभी बारिश के रूप में सामने आ रही है। निम के अथक प्रयास और सरकार की सकारात्मक सोच ने चारधाम यात्रा को फिर से जीवंत होने की उम्मीद तो जगा दी परंतु लगातार हो रही बेमौसमी बारिश ने किसानों को इस कदर तबाह कर दिया है कि वे इस बार चारधाम यात्रा का विचार ही त्याग रहे हैं।संभावित र्शद्धालुओं के इस रुख से टूर ऑपरेटर से लेकर ढाबे वालों तक चिंतित दिखाई दे रहे हैं। यद्यपि इसके बावजूद बदरीनाथ के तीर्थ पुरोहितों की मुख्य पंचायत बद्रीश पंडा पंचायत के अध्यक्ष कृष्णकांत कोटियाल मानते हैं कि इस बार की यात्रा पिछले दो वर्षों के मुकाबले ठीक रहेगी।
मंगलवार, 14 अप्रैल 2015
शनिवार, 11 अप्रैल 2015
ऊर्जा प्रदेश में महंगी हुई बिजली
ऊर्जा प्रदेश में बिजली उपभोक्ताओं को अब प्रति युनिट 10 से 50 पैसा अािक देना पड़ेगा। विद्युत नियामक आयोग ने उत्तराखण्ड पावर कारपोरेशन के प्रस्ताव पर विचार करते हुए घरेलू श्रेणी के उपभोक्ताओं के बिजली ीूल्य में वृद्घि का अनुमोदन किया है। इस बाबत शनिवार को आयोग की अहम बैठक में व्यापक मंथन के बाद पावर कारपोरेशन के प्रस्ताव को कुछ संशोधनों के साथ हरी झंडी दिखाई।
उत्तराखण्ड विद्युत नियामक आयोग के अध्यक्ष सुभाष कुमार ने बताया कि घरेलू श्रेणी के उपभोक्ताओं के लिए विद्युत ीूल्य में वृद्घि की गई है। प्रथम 100 यूनिट तक खर्च करने वाले उपभोक्ताओं को प्रति यूनिट 10 पैसा अधिक देना पड़ेगा। इसके अलावा 101 से 200 यूनिट तक 20 पैसे, 201 से 300 तथा 301 से 400 यूनिट तक खर्च करने वाले को 45 पैसा प्रति यूनिट तथा 401 से 500 युनिट या इससे अािक बिजली खर्च करने पर 50 पैसे प्रति युनिट का उपभोक्ता की जेब पर व्ययभार बढ़ा है। उन्होंने यह भी बताया कि एलटी उद्योगों एवं गैर घरेलू श्रेणी के लिए न्यूनतम उपभोग गारंटी को 60 किलोवाट प्रतिमाह से कम कर 25 किलोवाट प्रतिमाह किया गया है। निजी नलकूप उपभोक्ताओं के लिए न्यूनतम उपभोग गारंटी 70 किलोवाट प्रति बीएचपी प्रतिमाह से कम कर 60 किलोवाट प्रति बीएचपी प्रतिमाह करने का निर्णय लिया गया है। माह में प्रतिदिन 18 घंटे की न्यूनतम औसत आपूर्ति प्रान्त नहीं किए जाने की दशा में एचटी औद्योगिक उपभोक्ताओं का डिमांड चार्जेज उस माह में 80 प्रतिशत ही लगाया जाएगा। नई दरें 1 अप्रैल 2015 से लागू होंगी। उन्होंने यह भी बताया कि आयोग द्वारा पावर कारपोरेशन को आवश्यक सुधरात्मक उपाय करने के भी निर्देश दिए गए हैं। कारपोरेशन को लाइन लॉस कम करने, खराब मीटरों को बदलने, कलेक्शन सिस्टम में सुधार करने, एरियर रिकवरी में सुधार, और एनर्जी ऑडिट करने के भी निर्देश दिए गए हैं। सभी नए विद्युत कनेक्शन को सही मीटरों के साथ संयोजित करने के निर्देश हैं। विद्युत नियामक आयोग ने उत्तराखण्ड विद्युत पारेषण निगम पिटकुल द्वारा दायर याचिका की भी सुनवाई के बाद अपना निर्णय दे दिया है। पिटकुल ने 2004-05 से 2013-14 के अंतिम सहीकरण के लिए 268$19 करोड़ की धनराशि का अंतर प्रक्षेपित किया था। जिसके विपरीत आयोग ने अंतिम सहीकरण कर मात्रा 40$71 करोड़ का अंतर अनुमोदित किया है। इस प्रकार गत वर्ष की तुलना में आयोग ने मात्र 26$91 प्रतिशत वृद्घि को अनुमोदित किया। उनका यह भी कहना था कि घरेलू विद्युत उपभोक्ताओं पर ज्यादा भार न डालते हुए पावर कारपोरेशन को वितरण सिस्टम में सुधर के निर्देश दिए गए हैं। उन्होंने माना कि लाइन लॉस कम होने से बिजली का व्यर्थ व्यय नहीं होगा, इससे उपभोक्ता व कारपोरेशन दोनों को लाभ होगा।
शुक्रवार, 10 अप्रैल 2015
गुरुवार, 9 अप्रैल 2015
चारधाम यात्रा का टिहरी से हुआ गणेश
भगवान बदरीनाथ के अभिषेक के लिए निकाला तिलों का तेल
राज परिवार की मौजूदगी में नरेंद्रनगर स्थित राजमहल में गुरुवार सुबह बदरीनाथ की पूजा-अर्चना टिहरी की राजरानी माल्या लक्ष्मी शाह के साथ सुहागिन महिलाओं ने भगवान बदरीनाथ के अभिषेक के लिए तिल का तेल निकाला। नरेंद्र नगर से देर शाम गाडू घड़ा ऋषिकेश के लिए रवाना कर दिया गया। गुरुवार को राजमहल में सुबह पं. संपूर्णानंद जोशी, पं. कृष्ण प्रसाद और पं. हेतराम थपलियाल ने विधिविधान के साथ बदरीनाथ की पूजा-अर्चना कराई। इसके बाद महारानी और टिहरी सांसद माला राज्यलक्ष्मी शाह ने तिलों का तेल निकालने की प्रक्रिया शुरू की। इसके बाद करीब 60 सुहागिन महिलाओं ने तिलों का तेल निकाला। गाडू घड़ा में भरकर महाराजा मनुजयेंद्र ने परंपरानुसार श्री बदरीनाथ धार्मिक केंद्रीय पंचायत को सौंपा गया। शाम करीब 9 बजे विधिविधान से पूजा-अर्चना और भोग के बाद गाडू घड़ा यहां से रवाना हुआ। इस अवसर पर महाराजा पुंछ, डिमरी धार्मिक पंचायत के अध्यक्ष ज्योतिष डिमरी, सचिव महेश डिमरी, सह सचिव भास्कर डिमरी, शिव प्रसाद डिमरी, विनोद डिमरी, राकेश डिमरी राकूडी और डा भवनेश्वर प्रसाद डिमरी उपस्थित थे।
केदारनाथ पहुंची मंदिर समिति की 50 सदस्यीय टीम
बद्री-केदार मंदिर समिति की 50 सदस्यीय टीम केदारनाथ पहुंची टीम यात्रा शुरू होने से पहले मंदिर परिसर में साफ-सफाई और अन्य तैयारियों में जुटेगी। आगामी 24 अप्रैल को खुलने जा रहे भगवान केदारनाथ के कपाट को लेकर मंदिर समिति ने भी तैयारियां शुरू कर दी हैं। मंदिर समिति की 50 सदस्यीय टीम ने देर रात्रि विश्राम गौरीकुंड में किया। गुरुवार को सुबह टीम गौरीकुंड से केदारनाथ के लिए रवाना हुई और दोपहर बाद केदारनाथ पहुंच गई। टीम में दो इंजीनियर, दो सुपरवाइजर, तीन चौकीदार, दो क्लर्क समेत कई मजदूर शामिल हैं। मंदिर समिति के अधिकारियों की देखरेख में मंदिर परिसर से बर्फ हटाने का कार्य शुरू किया जाएगा। इसके अलावा, मंदाकिनी पुल से केदारनाथ मंदिर तक साफ-सफाई भी की जाएगी। इस दौरान मजूदर भोगमंडी का एवं अस्थायी शौचालयों का निर्माण करेंगे ताकि यात्रा के दौरान कोई दिक्कत न आए। मंदिर समिति के मुख्य कार्याधिकारी बीडी सिंह ने बताया कि समिति की टीम केदारनाथ पहुंच गई है, जो शुक्रवार से अपने कार्यो में जुट जाएगी। इस टीम में सहायक अभियंता गिरीश देवली, प्रशासनिक अधिकारी बचन सिंह रावत, युद्ववीर पुष्ववाण, गजानन त्रिवेदी, धर्मानंद सेमवाल, अनुसूया त्रिवेदी, प्रमोद कैशिव, अवनीश रावत शामिल हैं।
बुधवार, 8 अप्रैल 2015
चारधम यात्राः अंध्ेरे में उजाले की आस
उप्रदेश सरकार उत्साहित पर मौसम का मिजाज कर रहा परेशानियां खड़ी
उस्थानीय लोगों को है इस साल यात्रा अपने चरम पर चलने की उम्मीद
उचारधम के यात्रा मार्गों की स्थिति में नहीं हुआ कोई खास बदलाव
संतोष बेंजवाल
उत्तराखंड में इन दिनों चारधाम यात्रा का शोर है। शोर आखिर हो भी क्यों न, चारधम यात्रा प्रदेश में आर्थिकी की रीड़ है। इस यात्रा से लाखों लोगों का सीध रोजगार जुड़ा है। 2013 में आपदा झेल चुके सैंकड़ो होटल मालिकों और दुकानदारों को चारधम यात्रा से बड़ी उम्मीदें हैं। उत्तराखंड राज्य में हकीकत यह है कि आपदा ग्रस्त क्षेत्रों और यात्रा रूटों पर दुर्भाग्य से कोई खास बदलाव नहीं है। बदलाव है तो सिपर्फ और सिपर्फ सरकारी आंकड़ों में। आज नहीं तो कल हमें सच स्वीकारना ही होगा। हमें स्वीकारना होगा की हम न सिस्टम के काम करने के तौर-तरीके बदल पाए न प्रदेश के हालात बदल पाए। उलटे घटाटोप अंध्ेरे में उजाले की आस लगाये बैठे लोगों को भी हमने नाउम्मीदी की खाइयों में धकेल दिया। दूसरी ओर, अगर इस बार सरकार के अभी तक के जारी आंकडों पर नजर दौढ़ाएं तो इस बार उम्मीद नजर आ रही है दरअसल, चारों धम में व्यवस्थाएं अभी भी सामान्य नहीं हो पाई हैं। केदारनाथ सरकार के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न तो बना, लेकिन हालात अभी भी बेहद खराब हैं। राजमार्गों के हालात में कोई आशाजनक सुधार दूर दूर तक नजर नहीं आता। रूद्रप्रयाग-गौरीकुंड, )षिकेश- बदरीनाथ, गंगोत्राी और यमनोत्राी हाइवे से गुजरना कुछ ऐसा है, जैसे मौत की गलियों से गुजरना। यह सत्य है अगर आपको इससे रूबरू होना है तो इन स्थानों के डेंजर जोन से गुजरिये अपने आप आपको पता चल जाएगा। उत्तराखंड के चारधम की यात्रा इस माह के अंतिम सप्ताह में शुरू हो जाएगी। वर्ष 2013 में आयी हिमालयी सुनामी ने उत्तराखंड की आर्थिकी की कमर तोड़ दी थी। हिमालयी सुनामी का सबसे ज्यादा खामियाजा उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्रा के निवासियों को उठाना पड़ा। चारधम पर अपनी आर्थिकी चलाने वाले यहां के वासिंदों के लिए इस हादसे ने झकझोर कर रख दिया। दो साल मुपफलीसी में जीने के बाद इस साल शुरू होने वाली चारधम यात्रा से लोगों की उम्मीदों को पंख लगने की उम्मीद है। एक ओर जहां सरकार चारधम यात्रा को लेकर उत्साहित है वही मौसम की बेरूखी से लोग सहमे-सहमे हैं। हालांकि सरकार की अभी तक की कागजी तैयारी से उम्मीद की जा रही है कि इस साल चारधम यात्रा अपने चरम पर रहेगी, लेकिन मौसम को लेकर सरकार और जनता आशंकित नजर आ रही है। उत्तराखंड अप्रत्याशित प्राकृतिक आपदा से उबर रहा है और अपने तीर्थाटन/पर्यटन क्षेत्रा को पुनर्जीवित करने के लिए पूरी तरह तैयार है। उम्मीदें सालाना चारधाम यात्रा को मिलने वाली अच्छी प्रतिक्रिया पर टिकी हैं।उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था बहुत हद तक तीर्थाटन/पर्यटन पर टिकी है। यहां हिंदुओं के चार प्रमुख तीर्थस्थान केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्राी और यमुनोत्राी ;चार धमद्ध हैं जहां हर साल भारी संख्या में श्र(ालु पहुंचते हैं। तीर्थयात्रियों की आमद से गढ़वाल क्षेत्रा के लोगों के साथ आसपास के राज्यों के लोगों के लिए रोजगार के द्वार खुलते हैं। वर्ष 2013 में आयी हिमालयी सुनामी के बाद हजारों लोगों के हाथ से रोजगार छिन गया था, लेकिन इस बार हजारों लोगों को रोजगार की उम्मीद है। इस साल चारधम यात्रा में आने वाले यात्रियों की संख्या को लेकर सरकार उत्साहित है। केदारनाथ और बदरीनाथ धम यात्रा शुरू करने को लेकर सरकार पूरी तरह तैयार और आश्वस्त दिख रही है। जबकि गंगोत्राी और यमुनोत्राी यात्रा मार्गों को पिफलहाल बेहतर नहीं मान रही है। लगातार हो रही बारिश, बपर्फबारी और ग्लेश्यिर की वजह से इन यात्रा मार्गों की मरम्मत में दिक्कतें आ रही है। बावजूद सरकार 20 अप्रैल तक सड़क मार्ग और अन्य कमियों को पूरा करने का दावा कर रही है। तीर्थाटन और पर्यटन मंत्राी दिनेश ध्नै ने मंगलवार को यात्रा से जुड़े विभागों के आलाध्किारियों के साथ बैठक कर तैयारियों की जानकारी ली। सरकार की मानें तो यात्रा शुरू होने से पहले चारों धम तक सड़क, वहां बिजली की व्यवस्था, खानपान और यात्रियों के ठहरने की पर्याप्त व्यवस्था की जा रही है। चारधाम यात्रा की निगरानी कर रहे अपर मुख्य सचिव राकेश शर्मा ने बताया कि चारों धम तक सड़क का नेटवर्क 15-20 दिनों में पूरा हो जाएगा। उन्होंने बताया कि पीडब्ल्यूडी यु(स्तर पर काम कर रही है।
सोमवार, 6 अप्रैल 2015
‘निशंक’ के साहित्य ने दक्षिण में जगाई अलख
सुप्रसि( साहित्यकार डाॅ0 रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ के उपन्यास ‘भागोंवाली’ के तमिल अनुवाद तथा कहानी संग्रह ‘अंतहीन’ के कन्नड़ अनुवाद का विमोचन तेलंगाना के मुख्यमंत्राी के0चन्द्रशेखर राव द्वारा इस माह किया जायेगा। डाॅ0 निशंक का साहित्य दक्षिण भारत के अनेक राज्यों में विस्तारित होता जा रहा है। एक ओर उनके साहित्य पर वहाँ शोध् कार्य चल रहा है तो दूसरी ओर उनकी अनेक पुस्तकों का अनुवाद विभिन्न भाषाओं में किया जा रहा है। यह उनके साहित्य सृजन में एक नये अध्याय के रूप में जुड़ गया है। विगत दिवस दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा हैदराबाद के स्वर्ण जयंती वर्ष के उपलक्ष में आयोजित तीन दिवसीय राष्ट्रीय हिन्दी संगोष्ठी के दूसरे दिन सुप्रसि( साहित्यकार एवं उत्तराखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्राी डाॅ0 रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ की कहानी संग्रह ‘टूटते दायरे’ के तेलगु अनुवाद ‘अन्ध्कारम् पई सम्मैटा डेब्बा’ का विमोचन विश्वविख्यात कला संग्राहक पद्मश्री श्री जगदीश मित्तल द्वारा किया गया। वहीं दूसरी ओर उनके साहित्य पर अलग-अलग विश्वविद्यालयों में षोध कार्य भी किये जा रहे हैं। राष्ट्र पिता महात्मा गाँध्ी द्वारा स्थापित की गयी दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के इस महत्वपूर्ण सम्मेलन में डाॅ0 निशंक के एक कहानी संग्रह ‘टूटते दायरे’ के तेलगु अनुवाद के विमोचन के साथ ही डाॅ0 निशंक के साहित्य पर भरपूर चर्चा हुई। विमोचन समारोह के मुख्य अतिथि विश्व प्रसि( कला संग्राहक एवं कला समीक्षक पद्मश्री जगदीश मित्तल ने कहा कि हिन्दी में लिखी हुई डाॅ0 निशंक की इन उत्कृष्ट कहानियों को दक्षिण भारत में निश्चित रूप से पसन्द किया जा रहा है और वह लोकप्रिय हो रहे हैं। उन्होंने कहा कि कहानियाँ सजीव हैं और किसी के भी अन्तस को छूने वाली हैं। ऐसी कहानियाँ समाज में जागरूकता के साथ-साथ संवेदनाओं को जिंदा रखती हैं। महात्मा गाँध्ी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्ध ;महाराष्ट्रद्ध के अधिष्ठाता प्रो0 देवराज ने कहा कि किसी राजनैतिक व्यक्ति के अन्दर हिन्दी के प्रति पहली बार उन्होंने इतनी आग देखी है। उन्होंने कहा कि राजनीतिज्ञ होने के साथ-साथ निशंक एक साहित्यकार होने के नाते अत्यंत संवेदनशील हैं यही उनके साहित्य का प्रबल पक्ष भी है। उनकी रचनाएं व्यावहारिक और समाज में बदलाव की अगुवाई भी करती हैं। दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा चैन्नई की कुलसचिव प्रो0 निर्मला एस. मौर्य, आन्ध्र की लोकप्रिय पत्रिका भास्वर भारत के सम्पादक डाॅ0 राध्ेश्याम शुक्ल, बी.जे.आर. डिग्री काॅलेज हैदराबाद के विभागाध्यक्ष डाॅ0 घनश्याम, इफ्रलू हैदराबाद के पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष डाॅ0 एम. बैंकटेश्वर, त्रिपुरा विश्वविद्यालय अगरतला के हिन्दी विभागाध्यक्ष डाॅ0 मिलन जमातिया, मणिपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग की सहायक आचार्य डाॅ0 विजयलक्ष्मी, मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो0 शकीला खानम एवं केन्द्रिय हिन्दी अकादमी के पूर्व सदस्य डाॅ0 योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ ने निशंक के साहित्य पर चर्चा करते हुए कहा कि राजनीति के टेढ़े-मेढे़े रास्तों से गुजरने और तमाम व्यवस्तताओं के बीच निशंक ने अपनी-रचनाध्र्मिता को बुझने नहीं दिया, बल्कि वे अनवरत अपनी कहानियों, कविताओं और उपन्यास के माध्यम से अपने रचना संसार को विपरीत परिस्थितियों में भी जीवित रखे हुए हैं। डाॅ0 निशंक के साहित्य पर हैदराबाद विश्वविद्यालय एवं दो शोधर्थियों द्वारा शोध् कार्य भी किये जा रहे हैं, जबकि डाॅ0 निशंक के साहित्य की तमाम विधओं पर दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के हिन्दी विभागाध्यक्ष एवं कार्यक्रम निदेशक प्रो0 )षभदेव शर्मा के निर्देशन में सुप्रसि( साहित्यकार एवं अनेकों भाषाओं की विदुषी डाॅ0 गुर्रमकोंडा नीरजा द्वारा डी0लिट् किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त डाॅ0 निशंक की कवितायें आन्ध्र प्रदेश के हाईस्कूल के पाठ्यक्रम में भी पढ़ाई जा रही हैं। ज्ञातव्य हो कि डाॅ0 निशंक के साहित्य का अनुवाद इससे भी पूर्व तेलगु, तमिल एवं मराठी में हो चुका है। मद्रास विश्वविद्यालय चेन्नई द्वारा कहानी संग्रह ‘खड़े हुए प्रश्न’ का तमिल अनुवाद ‘एन केलविक्कु एन्नाबाथिल’ एवं मराठी अनुवाद ‘प्रश्नांकित’ वर्श 2008 में हो चुका था। इसके अतिरिक्त कहानी संग्रह ‘क्या नहीं हो सकता’ का मराठी अनुवाद ‘संगले शक्य आहे’ तथा ‘ए वतन तेरे लिए’ देशभक्ति काव्य संग्रह का तमिल अनुवाद ‘तायनाडे उनक्काड एवं तेलगु अनुवाद ‘जन्मभूमि’ वर्ष 2009 में हो चुका है, जिन्हें वहाँ खूब लोकप्रियता प्राप्त हुई है। उनके गीत विभिन्न भाषाओं में गाये जाते हैं और उनकी कहानियाँ का दक्षिण भारत की भाषाओं में नाट्य रूपान्तरण भी हुआ है।
शुक्रवार, 3 अप्रैल 2015
निजी भवनों को तोडऩे का कार्य शुरू
केदारनाथ में पुनर्निर्माण कर रहे निम (नेहरू पर्वतारोहण संस्थान)ने सरकारी भवनों को तोडऩे के बाद अब निजी भवनों को तोडऩे का कार्य भी शुरू कर दिया है। वर्ष 2013 में आई भीषण आपदा में केदारनाथ धाम में सरकारी और निजी संपतियों को भी नुकसान हुआ था। इस दौरान 46 सरकारी व 217 निजी भवन क्षतिग्रस्त हो गए थे। गत जनवरी व फरवरी माह में पुनर्निर्माण कार्यो में जुटी नेहरू पर्वतारोहण संस्थान ने 46 सरकारी जर्जर भवनों को तोड़ा। वहीं निजी भवनों को लेकर तीर्थ पुरोहितों एवं भवन स्वामियों के बीच करार न होने से 217 निजी भवनों को तोडऩे का मामला लटका पड़ा था। अब जिला प्रशासन और पुरोहितों में सहमति बनने के बाद 18 भवन स्वामियों ने केदारनाथ जाकर अपने भवन की भूमि भी नपत कराई। नए मास्टर प्लान में निजी भवनों को तोड़ा जाना भी अहम कड़ी थी। शासन-प्रशासन एवं केदारनाथ भवन स्वामियों के बीच हुए करार के बाद केदारनाथ में निजी भवनों को तोडऩे का कार्य भी शुरू हो गया है। निम के मीडिया प्रभारी देवेंद्र सिंह ने बताया कि शुक्रवार को निम के मजदूरों ने पाटलीपुत्र भवन से निजी भवनों को अंदर से तोडऩे का कार्य शुरू कर दिया है। मौसम ने साथ दिया तो यात्रा से पूर्व अधिकांश निजी भवनों को तोडऩे का काम पूर्ण कर दिया जाएगा। वहीं केदारनाथ में नए प्रीफेब्रिकेट हटों का निर्माण कार्य भी शीघ्र शुरू कर दिया जाएगा। इससे यात्रा के दौरान अधिक से अधिक यात्रियों के लिए केदारनाथ में रहने की व्यवस्था की जा सके।
मौसम की मार चारधाम यात्रा तैयारियों पर भारी
बदरीनाथ नेशनल हाईवे की स्थिति कई स्थानों पर काफी खराब, कई जगहों पर मार्ग असुरक्षित
नंदन विष्ट
गोपेश्वर। इस बार मौसम यात्रा व्यवस्थाओं और त्ैायारियों में मुश्किलें पैदा कर रहा है। यात्रा प्रारम्भ होने के लिये मात्र 22 दिन शेष रह गये हैं। बदरीनाथ हाई वे की स्थिति काफी खराब है, कई जगहों पर मार्ग असुरक्षित है। टंगणी के पास पागल नाला और पाण्डुकेश्वर के बाद लामबगड़ स्लाइड ऐसे समस्याग्रस्त क्षेत्र हैं, जो हल्की सी बर्षा से ही मार्ग केा बन्द करने के लिये काफी हैं। लामबगड़ स्लाइड का स्थायी हल ढूंढने के लिये काफी कवायद की गई हैं, इसके लिये वर्ष 2014 के जाड़ों में दक्षिण अफ्रीका के इंजीनियर्स भी आये थे और उन्होनें स्लाइड जोन का निरीक्षण करके टनल बनाये जाने का सुझाव दिया था, इसकी कार्ययोजना भी बनाई गई है, लेकिन इस पर कोई अमल नहीं हुआ ।
इसके अलावा इस स्लाइड पर भूस्खलन की रोकथाम के लिये सरकार ने सिंचाई विभाग, बीआरओ और लोनिवि से एक कार्ययोजना तैयार करवाई है, लेकिन अपने गोपेश्वर और जोशीमठ दौरे के दौरान सीएम हरीश रावत ने बताया कि इस स्लाईड जोन के स्थायी ट्रीटमेंट की कार्ययोजना तैयार है , लेकिन इस वर्ष इसका कार्य होना सम्भव नहीं है, उन्होनें अश्वासन दिया कि इस समस्या का अस्थाई समाधान हो जायेगा और यात्रा में कोई गतिरोध नहीं होने दिया जायेगा। बीआरओ का कहना है कि अस्थायी ट्रीटमेंट का जो कार्य चल रहा है, उसमें इस जोन के ठीक ऊपर बसे गांव पड़गासी के ग्रामीण अवरोध पैदा कर रहे हैं, जैसा संगठन चाहता है, उस ढंग से काम नहीं हो पा रहा है क्योंकि बीआरओ की योजना यह है कि स्लाइड के ऊपर जमा मलबे को गिराकर मार्ग को सुरक्षित बनाया जाये। इससे ग्रामीण गांव को खतरा होने की बात कर रहे हैं। गांव पड़गासी की स्थिति ऐसी है कि उसे आज नही ंतो कल जरूर खतरा है, इन्हें विस्थापित किये जाने की बातें भी चल रही है, लेकिन डीएम अशोक कुमार के अनुसार सरकार ने पूर्व में खतरे की जद में आने वाले परिवारों शेष पेज चार पर
को विस्थापित करने के लिये कहा था, लेकिन उनके साथ सहमति नहीं बन पाई है । साफ है कि इस वर्ष भी यात्रा के दौरान यात्रियों की राह आसान नहीं रहेगी।दूसरी ओर इस मार्ग केा लोनिवि को हस्तान्तरित किये जाने की बातें भी जोर-शोर से चल रही हैं। स्थानीय निवासियों का कहना है कि जब पर्यान्त संसाधनों के बावजूद बीआरओ मार्ग केा दुरूस्त करने में कठिनाई महसूस कर रहा है, तब लोनिवि कैसे इससे निपट पायेगा, यह प्रश्नचिन्ह बना हुआ है। हाल ही में चमोली जनपद के भ्रमण के दौरान पूर्व सीएम मे0 जनरल भुवन चन्द्र खण्डूड़ी ने इस कदम को काफी खेदजनक बताया और कहा कि यह सीमान्त मार्ग राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा हुआ है और इसे इतने हल्के में लेना वाजिब नहीं है, इसलिये उन्हेानें रक्षामंत्रालय के साथ इस बारे में बात की है और उम्मीद जताई कि भारत सरकार शीइा्र ही इस फैसले पर पुनर्विचार कर उसे वापस लेगी। गौरतलब है कि विगत वर्ष लामबगड़ स्लाइड के स्थायी ट्रीटमेंट के लिये बदरीनाथ के पण्डा, व्यापारियों, पुजारियों एवं साधुओं के साथ ही स्थानीय निवासियों ने मिल कर एक माह तक आन्दोलन किया था और सीएम के इस आश्वासन के बाद ही आन्दोलन स्थगित किया गया था कि 16 करोड़ की कार्ययोजना को एक माह के अन्दर अमल में लाया जायेगा, लेकिन इसपर कुछ नहीं हुआ। इस बारे में धनेश्वर डांडी, अध्यक्ष नगर पंचायत बदरीनाथ का कहना है कि इस कार्ययोजना पर काम शुरू न होने से बदरीनाथ के निवासी काफी नाराज हैं।
नंदन विष्ट
गोपेश्वर। इस बार मौसम यात्रा व्यवस्थाओं और त्ैायारियों में मुश्किलें पैदा कर रहा है। यात्रा प्रारम्भ होने के लिये मात्र 22 दिन शेष रह गये हैं। बदरीनाथ हाई वे की स्थिति काफी खराब है, कई जगहों पर मार्ग असुरक्षित है। टंगणी के पास पागल नाला और पाण्डुकेश्वर के बाद लामबगड़ स्लाइड ऐसे समस्याग्रस्त क्षेत्र हैं, जो हल्की सी बर्षा से ही मार्ग केा बन्द करने के लिये काफी हैं। लामबगड़ स्लाइड का स्थायी हल ढूंढने के लिये काफी कवायद की गई हैं, इसके लिये वर्ष 2014 के जाड़ों में दक्षिण अफ्रीका के इंजीनियर्स भी आये थे और उन्होनें स्लाइड जोन का निरीक्षण करके टनल बनाये जाने का सुझाव दिया था, इसकी कार्ययोजना भी बनाई गई है, लेकिन इस पर कोई अमल नहीं हुआ ।
इसके अलावा इस स्लाइड पर भूस्खलन की रोकथाम के लिये सरकार ने सिंचाई विभाग, बीआरओ और लोनिवि से एक कार्ययोजना तैयार करवाई है, लेकिन अपने गोपेश्वर और जोशीमठ दौरे के दौरान सीएम हरीश रावत ने बताया कि इस स्लाईड जोन के स्थायी ट्रीटमेंट की कार्ययोजना तैयार है , लेकिन इस वर्ष इसका कार्य होना सम्भव नहीं है, उन्होनें अश्वासन दिया कि इस समस्या का अस्थाई समाधान हो जायेगा और यात्रा में कोई गतिरोध नहीं होने दिया जायेगा। बीआरओ का कहना है कि अस्थायी ट्रीटमेंट का जो कार्य चल रहा है, उसमें इस जोन के ठीक ऊपर बसे गांव पड़गासी के ग्रामीण अवरोध पैदा कर रहे हैं, जैसा संगठन चाहता है, उस ढंग से काम नहीं हो पा रहा है क्योंकि बीआरओ की योजना यह है कि स्लाइड के ऊपर जमा मलबे को गिराकर मार्ग को सुरक्षित बनाया जाये। इससे ग्रामीण गांव को खतरा होने की बात कर रहे हैं। गांव पड़गासी की स्थिति ऐसी है कि उसे आज नही ंतो कल जरूर खतरा है, इन्हें विस्थापित किये जाने की बातें भी चल रही है, लेकिन डीएम अशोक कुमार के अनुसार सरकार ने पूर्व में खतरे की जद में आने वाले परिवारों शेष पेज चार पर
को विस्थापित करने के लिये कहा था, लेकिन उनके साथ सहमति नहीं बन पाई है । साफ है कि इस वर्ष भी यात्रा के दौरान यात्रियों की राह आसान नहीं रहेगी।दूसरी ओर इस मार्ग केा लोनिवि को हस्तान्तरित किये जाने की बातें भी जोर-शोर से चल रही हैं। स्थानीय निवासियों का कहना है कि जब पर्यान्त संसाधनों के बावजूद बीआरओ मार्ग केा दुरूस्त करने में कठिनाई महसूस कर रहा है, तब लोनिवि कैसे इससे निपट पायेगा, यह प्रश्नचिन्ह बना हुआ है। हाल ही में चमोली जनपद के भ्रमण के दौरान पूर्व सीएम मे0 जनरल भुवन चन्द्र खण्डूड़ी ने इस कदम को काफी खेदजनक बताया और कहा कि यह सीमान्त मार्ग राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा हुआ है और इसे इतने हल्के में लेना वाजिब नहीं है, इसलिये उन्हेानें रक्षामंत्रालय के साथ इस बारे में बात की है और उम्मीद जताई कि भारत सरकार शीइा्र ही इस फैसले पर पुनर्विचार कर उसे वापस लेगी। गौरतलब है कि विगत वर्ष लामबगड़ स्लाइड के स्थायी ट्रीटमेंट के लिये बदरीनाथ के पण्डा, व्यापारियों, पुजारियों एवं साधुओं के साथ ही स्थानीय निवासियों ने मिल कर एक माह तक आन्दोलन किया था और सीएम के इस आश्वासन के बाद ही आन्दोलन स्थगित किया गया था कि 16 करोड़ की कार्ययोजना को एक माह के अन्दर अमल में लाया जायेगा, लेकिन इसपर कुछ नहीं हुआ। इस बारे में धनेश्वर डांडी, अध्यक्ष नगर पंचायत बदरीनाथ का कहना है कि इस कार्ययोजना पर काम शुरू न होने से बदरीनाथ के निवासी काफी नाराज हैं।
गुरुवार, 2 अप्रैल 2015
हवा में होगी चारधम यात्रा
नंदन विष्ट
प्रदेश सरकार केदारनाथ धम यात्रा के नाम पर करोड़ों रूपये खर्च कर वाह-वाही लूट रही है, लेकिन स्थिति कुछ अलग है जहां करोड़ों रूपये केदारनाथ में खर्च हो चुके है वहीं सरकार जमीन पर कुछ नहीं कर पा रही है।
अकेले उत्तराखंड के चारधम में सड़कों की स्थिति को देखे तो सड़के दयनीय हाल में हैं। सरकार ने सड़कों के नाम पर करोड़ों रूपये अभी तक खर्च कर दिये हैं और सड़कों की स्थिति अभी भी दयनीय है। इस बार भी यात्रियों को हिचकोले खाकर ही चारधम यात्रा पर जाना पडे़गा। वहीं अन्य व्यवस्थाओं के नाम पर भी अभी तक सिपर्फ घोषणाएं ही हो रही हैं। केदारनाथ में एक बार में 5000 यात्राी ही जा सकेंगे, इस बार आनलाइन रजिस्ट्रेशन भी सरकार एक ओर कह रही है केदारनाथ में सारी व्यवस्थाएं चुस्त दुरूस्त है। लेकिन धरातल पर कुछ नहीं दिख रहा है। प्रदेश में सड़कों कि स्थिति देहरादून में अच्छी नहीं है, तो पहाड में कैसी होगी इस सवाल पर लोकनिर्माण विभाग के मुख्य अभियंता ए.के. उप्रेती अपना सवाल का जवाब नहीं दे पाई, जबकि केदारनाथ में भी स्थिति अच्छी नहीं है।
देखना यह है कि इन 20-25 दिनों में सरकार क्या कुछ करती है यह देखना बाकी है। केदारधम में जून 2013 में आई आपदा से सरकार ने अब सबक लिया है। उत्तराखंड शासन ने ऐसी व्यवस्था की है कि अब धम में जनसैलाब नहीं उमड़ेगा। इसी माह अप्रैल शुरू हो रही यात्रा में अब एक बार में केदारधम में 5000 यात्रियों से ज्यादा लोगों को जाने की अनुमति नहीं होगी। इसके अलावा चार धम के सभी यात्रियों का पंजीकरण भी आवश्यक रूप से किया जाएगा। इसके लिए 18 केंद्र बनाए गए हैं। लेकिन यात्रियों को बायोमेट्रिक्स रजिस्ट्रेशन ;मशीन से पंजीकरणद्ध से छूट दी गई है। उनके लिए सिपर्फ पफोटो पहचानपत्रा जारी होंगे। केदारनाथ यात्रा के लिए राज्यों की ओर से जारी स्वास्थ्य प्रमाणपत्रा भी मान्य होंगे। केदारनाथ में तीन हजार लोगों के रहने की व्यवस्था कर ली गई है। दो हजार लोग सोनप्रयाग से लेकर केदारनाथ के बीच के पड़ावों में भी ठहर सकते हैं।
केदारनाथः ‘जनसैलाब’ पर ‘प्रतिबंध्’
उकेदारनाथ यात्रा के पहले दिन हजारों श्र(ालु होंगे निराशउपन्द्रह सौ से अध्कि यात्राी नहीं जा सकेंगे केदारनाथ धमउधम में एक रात में पांच हजार लोगों के ठहरने की व्यवस्थासंतोष बेंजवाल
वर्ष 2013 में केदारनाथ में आयी हिमालयी सुनामी से पहले सरकार जाग जाती तो शायद उस जलजले में हजारों लोगों को अपनी जान से हाथ नहीं धेना पड़ता, लेकिन तत्काली प्रदेश सरकार के मुखिया का ध्यान तो सिपर्फ अपनी जेबों को भरने में लगा था। उस जलजले के बाद पूरे विश्व में सरकार की थू-थू हुई। दो साल तक केदानाथ का दर्द झेलने वाले भोले नाथ के भक्तों और केदारनाथ यात्रा पर अपनी आर्थिकी को चलाने वालों को इस बाद उम्मीद है कि यात्रा अपने चरम पर रहेगी। इसके लिए वर्तमान सरकार भी कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहती है। पिछली गलती से सबक लेते हुए इस बार प्रदेश सरकार जाग गयी है।इस बार केदारनाथ धम के कपाट खुलने के दिन हजारों श्र(ालु जहां निराश होंगे। वहीं व्यवस्थाओं की पहल लोगों को राहत देगी। सरकार ने इस बार कुछ अहम निर्णय लिये हैं। केदारनाथ धम में इस बार पहले दिन केवल 15 सौ यात्राी ही भगवान केदार के दर्शन कर सकेंगे। इस मौके पर राष्ट्रपति भी धम पहुंच रहे हैं। पहले दिन से लेकर माह के अंतिम दिन तक यात्रियों की सीमिति संख्या को धम में पहुंचाने का निर्णय लिया गया है। मई से इस संख्या में ध्ीरे-ध्ीरे बढ़ोत्तरी की जाएगी। जून 2013 की आपदा के बाद पुनर्निर्माण से गुजर रहे केदारनाथ में हालात सामान्य हो रहे हैं। हालांकि अभी वहां इतनी व्यवस्था नहीं हो पाई है कि एक रात में 5 हजार लोगों को ठहराया जा सके। आज की तिथि में यहां एमआई-26 हेलीपैड के किनारों पर नाली निर्माण किया जा रहा है। धम में नव निर्मित 12 काटेज हैं। 13 का निर्माण होना बाकी है। गौरीकुंड से केदारनाथ पैदल मार्ग पर गढ़वाल मंडल विकास निगम के अध्किांश हट्स बपर्फबारी से क्षतिग्रस्त हो चुके हैं। ऐसे हालात में निगम भी अप्रैल माह में प्रतिदिन 250 यात्रियों की बुकिंग करेगा। जरूरी व्यवस्थाओं को पूरा होने पर प्रशासन और निगम यात्रियों की संख्या में इजाफा करेंगे। दिसंबर से लेकर 2 अप्रैल तक केदारनाथ में मौसम की मार ने पुनर्निर्माण कार्यों को व्यापक रूप से प्रभावित किया है। तीन से पांच दिन के अंतराल में बिगड़ रहे मौसम के कारण धम में बर्फबारी हो रही है। इससे तैयारियों पर भी असर पड़ रहा है। रूद्रप्रयाग के जिलाधिकारी डा. राघव लंगर ने बताया कि केदारनाथ धम में अब भी 8 पफीट से अध्कि बपर्फ जमा है। साढ़े तीन माह में 15 से अध्कि बार धम में बपर्फ गिर चुकी है। केदारनाथ के कपाट खुलने पर राष्ट्रपति धम पहुंच रहे हैं। धम में भारी सुरक्षा बल तैनात रहेगा। पुजारी लोगों के साथ मीडिया व कापफी संख्या में स्थानीय लोग भी होंगे। सीमित संसाधन और जगह की कमी को देखते हुए पहले दिन 15 सौ यात्रियों को भी केदारनाथ जाने की अनुमति दी जाएगी।
गुरुवार, 26 मार्च 2015
अरविन्द भाई, हम दोनों को मजबूर होकर आपके नाम यह खुली चिठ्ठी लिखनी पड़ रही है. दस दिन पहले आपके बंगलूर से आने पर हमने आपसे मुलाक़ात का समय माँगा था, लेकिन अभी तक आप समय नहीं निकाल पाये हैं. ऐसे में बहुत अनिश्चितता का माहौल बना है. पार्टी के तमाम वॉलंटियर, समर्थक और शुभचिंतक यह आस लगाये बैठे हैं कि बातचीत चल रही है और कुछ अच्छी खबर आने वाली है. मन ही मन चिंतित भी हैं कि पार्टी की एकता बनी रहेगी या नहीं.यह आशंका भी जताई जा रही है कि बंद कमरों की इस बातचीत में पार्टी के सिद्धांतों से कोई समझौता तो नहीं किया जा रहा, इसलिए हम इस चिठ्ठी को सार्वजनिक कर रहे हैं.आपके बंगलूर से वापिस आने के बाद उसी रात को पार्टी के कई वरिष्ठ साथी योगेन्द्र के घर मिलने आये. उसके बाद बातचीत का एक सिलसिला शुरू हुआ, जिसमें हमारी ओर से प्रा. आनंद कुमार और प्रा. अजीत झा थे. हम दोनों ने इस बातचीत के लिए एक लिखित प्रस्ताव रखा. शुरू में लगा कि बातचीत ठीक दिशा में बढ़ रही है. लगा कि राष्ट्रीय संयोजक पद जैसे फ़िज़ूल के मुद्दों और आरोपों से पिंड छूटा है.जब पीएसी ने देशभर में संगठन निर्माण, दिल्ली के बाहर चुनाव पर विचार और वॉलंटियर की आवाज़ सुनने की घोषणा की तो हमें भी लगा कि आखिर अब उन सवालों पर जवाब मिल रहा है जो हमने उठाये थे, लेकिन जब पार्टी में आतंरिक लोकतंत्र के इन सवालों पर ठोस बातचीत हुई तो निराशा ही हाथ लगी. कहने को सिद्धांतों पर सहमति थी, लेकिन किसी भी ठोस सुझाव पर या तो साफ़ इंकार था या फिर टालमटोल.1. हमारा आग्रह था कि स्वराज की भावना के अनुरूप राज्य के फैसले राज्य स्तर पर हों. हमें बताया गया कि यह संगठन और कार्यक्रम के छोटे-मोटे मामले में तो चल सकता है, लेकिन देश के किसी भी कोने में पंचायत और म्युनिसिपालिटी के चुनाव लड़ने का फैसला भी दिल्ली से ही लिया जायेगा, और वो भी सिर्फ पीएसी द्वारा.
कुमार भाई को महाराष्ट्र भेजने के फैसले ने हमारे संदेह की पुष्टि की है.2. हमने मांग की थी कि हमारे आंदोलन की मूल भावना के मुताबिक पिछले कुछ दिनों में पार्टी पर लगाये गए चार बड़े आरोपों (दो करोड़ के चैक, उत्तमनगर में शराब बरामदगी, विधि मंत्री की डिग्री और दल-बदल और जोड़-तोड़ के सहारे सरकार बनाने की कोशिश) की लोकपाल से जांच करवाई जाये. जवाब मिला कि बाकी सब संभव है, लेकिन पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से जुड़े किसी भी 'संवेदनशील' मामले पर जांच की मांग भी न की जाय.3. हमने सुझाव दिया था कि लोकतान्त्रिक भागीदारी की हमारी मांग के अनुरूप पार्टी के हर बड़े फैसले में वॉलंटियरों की राय ली जाय, मांग हो तो वोट के ज़रिये. जवाब मिला कि राय तो पूछ सकते हैं, लेकिन वॉलंटियर द्वारा वोट की बात भूल जाएँ, खासतौर पर उम्मीदवार चुनते वक्त.
4. हमने कहा था कि पार्टी अपने वादे के मुताबिक़ RTI के तहत आना स्वीकार करे. हमें बताया गया कि पार्टी कुछ जानकारी सार्वजनिक कर देगी, लेकिन RTI के दायरे में आना व्यवाहारिक नहीं है.
5. आपकी तरफ से प्रस्ताव आया कि सभी पदाधिकारी चुनाव आयोग वाला एफिडेविट भर कर अपनी संपत्ति का ब्यौरा दें, आयकर का ब्यौरा पार्टी को दें और परिवार एक पद का नियम आमंत्रित सदस्यों पर भी लागू हो. हमने यह सब एकदम मान लिया.
6. आपकी तरफ से एक मुद्दा बार-बार उठाया गया. योगेन्द्र को कहा गया कि वे चाहें तो उन्हें हरियाणा में खुली छूट दी जा सकती है. जिन लोगों ने वहां योगेन्द्र के काम में रोड़े अटकाए हैं, उन्हें राज्य बाहर कर दिया जायेगा. हमने स्वीकार नहीं किया, चूंकि जब तक आतंरिक लोकतंत्र के हमारे मूल सवालों का जवाब नहीं मिलता तब तक ऐसी किसी चर्चा में भाग लेना भी सौदेबाजी होगी.
6. आपकी तरफ से एक मुद्दा बार-बार उठाया गया. योगेन्द्र को कहा गया कि वे चाहें तो उन्हें हरियाणा में खुली छूट दी जा सकती है. जिन लोगों ने वहां योगेन्द्र के काम में रोड़े अटकाए हैं, उन्हें राज्य बाहर कर दिया जायेगा. हमने स्वीकार नहीं किया, चूंकि जब तक आतंरिक लोकतंत्र के हमारे मूल सवालों का जवाब नहीं मिलता तब तक ऐसी किसी चर्चा में भाग लेना भी सौदेबाजी होगी.
हमने इन सब सवालों पर खुले मन से बातचीत की. जब पृथ्वी रेड्डी ने इन मुद्दों पर अपना एक प्रस्ताव रखा जो हमारे प्रस्ताव से बहुत अलग था, तो हमने उसे भी स्वीकार कर लिया. लेकिन अब पृथ्वी इस न्यूनतम प्रस्ताव को लेकर मिले तो आपने इसे सिरे से ख़ारिज कर दिया.
एडमिरल रामदास को भी असफलता ही हाथ लगी.
एडमिरल रामदास को भी असफलता ही हाथ लगी.
हमें ऐसा समझ आने लगा कि बातचीत का मकसद हमारे मुद्दों को सुलझाना नहीं था, बल्कि हमारा इस्तीफ़ा हासिल करना था. आपकी ओर से बात कर रहे साथी घुमा-फिरा कर एक ही आग्रह बार-बार दोहराते थे कि हम दोनों अब राष्ट्रीय कार्यकारिणी से इस्तीफ़ा दे दें. कारण यही बताया जाता था कि यह आपका व्यक्तिगत आग्रह है, आपने कहा है कि जब तक हम दोनों राष्ट्रीय कार्यकारिणी में हैं, तब तक आप राष्ट्रीय संयोजक के पद पर काम नहीं कर सकते. यही बात आपने तब भी कही थी जब हमें पीएसी से निकलने का प्रस्ताव लाया गया था.
आपके कई नजदीकी लोग सार्वजनिक रूप से यह भी कह रहे हैं कि हमें पार्टी से ही निष्कासित किया जायेगा. कुल मिलाकर आपकी तरफ से सन्देश आ रहा है की या तो शराफत से इस्तीफ़ा दे दो, या फिर अपमानित करके निकाला जायेगा. ये सब आपके सलाहकार ही नहीं, आप खुद कहलवा रहे हैं, यह सुनकर हमें बहुत दुःख और धक्का लगा है.
हमने ऐसा क्या किया है अरविन्द भाई, जो आप हमसे इतनी व्यक्तिगत खुंदक पाले हुए हैं? आपके मित्रगण मीडिया में चाहे जो भी झूठ फैला रहे हों, लेकिन आप सच्चाई से अच्छी तरह वाकिफ़ हैं. हमने आज तक कभी भी आपसे कोई पद, ओहदा या लाभ नहीं माँगा. हमने कभी भी आपको अपदस्थ करने की कोशिश नहीं की है. यहाँ गिनाना शोभा नहीं देता, लेकिन आप जानते हैं कि हम दोनों ने हर नाजुक मोड़ पर आपकी मदद की. हाँ, हमने आपसे सवाल ज़रूर पूछे हैं. तब भी पूछे हैं, जब आप नहीं चाहते थे.
हाँ, हमने नासमझी और उतावली के खिलाफ आपको आगाह जरूर किया है, और हाँ, जब आपने सुनने से भी मना किया, तो हमने संगठन की मर्यादा के भीतर रहकर विरोध भी किया. स्वराज के सिद्धांतों पर बनी हमारी पार्टी में क्या ऐसा करना कोई अपराध है? हाँ, हमरी बातें तकलीफदेह हो सकती हैं और हमेशा रहेंगी. लेकिन क्या आप ऐसे किसी व्यक्ति को पार्टी में नहीं रखना चाहते जो आपकी आँखों में आँखें डालकर सच बोल सके?
यूं भी अरविन्द भाई, जैसा कि आप जानते हैं, हमने खुद इस बातचीत के लिए लिखित नोट में अपने इस्तीफे की पेशकश की थी, बशर्ते :
· पंचायत और म्युनिसिपेलिटी चुनाव में भागीदारी का अंतिम फैसला राज्य इकाई के हाथ में देने की घोषणा हो
· हाल में पार्टी से जुड़े चारों बड़े आरोपों की जांच एकदम राष्ट्रीय लोकपाल को सौंप दी जाय
· सभी राज्यों में लोकायुक्त को राष्ट्रीय लोकपाल की राय से तत्काल नियुक्त किया जाय
· नीति, कार्यक्रम और चुनाव के हर बड़े फैसले पर कार्यकर्ता की राय और जरूरत पड़ने पर वोट दर्ज़ करना शुरू किया जाय
· पार्टी CIC के आर्डर के मुताबिक RTI स्वीकार करने की घोषणा करे
· राष्ट्रीय कार्यकारिणी के रिक्त पदों को संविधान के अनुसार राष्ट्रीय परिषद द्वारा गुप्त मतदान से भरा जाय
· हाल में पार्टी से जुड़े चारों बड़े आरोपों की जांच एकदम राष्ट्रीय लोकपाल को सौंप दी जाय
· सभी राज्यों में लोकायुक्त को राष्ट्रीय लोकपाल की राय से तत्काल नियुक्त किया जाय
· नीति, कार्यक्रम और चुनाव के हर बड़े फैसले पर कार्यकर्ता की राय और जरूरत पड़ने पर वोट दर्ज़ करना शुरू किया जाय
· पार्टी CIC के आर्डर के मुताबिक RTI स्वीकार करने की घोषणा करे
· राष्ट्रीय कार्यकारिणी के रिक्त पदों को संविधान के अनुसार राष्ट्रीय परिषद द्वारा गुप्त मतदान से भरा जाय
हम अपने प्रस्ताव पर आज भी कायम हैं. अगर हमारे इस्तीफ़ा देने भर से पार्टी में इतने बड़े सुधार एक बार में हो सकते हैं, तो हमें बहुत खुशी होगी. हमारे लिए राष्ट्रीय कार्यकारिणी में बने रहना अहम् का मुद्दा नहीं है. असली बात यह है कि राष्ट्रीय कार्यकारिणी में कुछ स्वतंत्र आवाजों का बचे रहना संगठन और खुद आपके लिए बेहद जरूरी है.
अरविन्द भाई, आज देश में वैकल्पिक राजनीति की सम्भावना बहुत नाजुक मोड़ पर है. आम आदमी पार्टी सिर्फ दिल्ली नहीं, पूरे देश के लिए नयी राजनीति की आशा बनकर उभरी है. हमारी एक छोटी सी गलती इस आंदोलन को गहरा नुक्सान पहुँचा सकती है. आज देश और दुनिया में न जाने कितने भारतीयों ने इस पार्टी से बड़ी बड़ी उम्मीदें बाँधी हैं.
पिछले हफ़्तों में हमें हज़ारों वॉलंटियर सन्देश मिले हैं. उन्हें पार्टी में जो कुछ हो रहा है, उससे धक्का लगा है. वो सब यही चाहते हैं कि किसी तरह से पार्टी के नेता मिल—जुलकर काम करें, पार्टी के एकता बनी रहे और साथ ही साथ उसकी आत्मा भी बची रहे. किसी भी चीज़ को तोड़ना आसान है, बनाना बहुत मुश्किल है. आपके नेतृत्व में दिल्ली की ऐतिहासिक विजय के बाद आज वक्त बड़े मन से कुछ बड़े काम करने का है. सारा देश हमें देख रहा है, ख़ास तौर पर आपको. हमें उम्मीद है की आप इस ऐतिहासिक अवसर को नहीं गंवाएंगे.
राष्ट्रीय परिषद की बैठक में बस एक दिन बाकी है. उम्मीद है इस अवसर पर एक बड़ी सोच रखते हुए आप पार्टी की एकता और उसकी आत्मा बचाये रखने का कोई रास्ता निकालेंगे. ऐसे किसी भी प्रयास में आप
बुधवार, 25 मार्च 2015
मंगलवार, 24 मार्च 2015
केदारनाथ त्रासदी-एक सच
केदारघाटी विस्थापन एवं पुनर्वास संघर्ष समिति के अध्यक्ष डॉ. अजेंद्र अजय ने उसे सोमवार को बेस अस्पताल में दाखिल कराया, जहां मनोविज्ञानी ने उसका परीक्षण किया। बताया कि इसका लंबा इलाज चलेगा। 15-15 दिन बाद उसे दिखाना पड़ेगा। इसके बाद उसके परिजन उसे अपने साथ ले गए। चमोली के नागनाथ पोखरी के सिमतोली गांव निवासी 46 वर्षीय पुष्कर सिंह मुम्बई में नौकरी करता था। 14 जून 2013 को वह अगस्त्यमुनि स्थित अपने भाई की दुकान पर पहुंचा। जहां से वह अपने एक अन्य रिश्तेदार के यहां तिलवाड़ा गया। 15 जून 2013 को बाइक से वह तिलवाड़ा से सोनप्रयाग की ओर गया। इसके बाद वह आपदा में लापता हो गया। उसके परिजनों ने अगस्त्यमुनि पुलिस चौकी में उसकी रिपोर्ट भी लिखाई। डा. अजेंद्र अजय के अनुसार बाद में शासन ने इसे मृत भी घोषित कर दिया गया था। बीते 21 मार्च को पुष्कर सिंह के ममेरे भाई संतोष कुंवर को वह रुद्रप्रयाग के पास दीनहीन हालत में घूमता मिला। उसकी शारीरिक और मानसिक स्थिति बहुत खराब थी। चोट के कारण उसका एक पैर भी खराब हो चुका था। अजय ने बताया कि वह जून 2013 के बाद से अब तक के समय को लेकर अपने बारे में कुछ भी नहीं बता पा रहा है। मानसिक रूप से भी अस्वस्थ लग रहा है। सोमवार को उसके परिजन उसे इलाज के लिए बेस अस्पताल लाए, जहां मनोविज्ञानी ने उसका परीक्षण कर लंबे समय तक इलाज की बात कही। अजेंद्र अजय ने प्रदेश सरकार से आपदा प्रभावित पुष्कर सिंह का सरकारी खर्च पर उपचार कराने की मांग की। साथ ही लापता लोगों को भी तलाश करने की मांग उठाई ताकि अन्य लोगों को इस तरह न भटकना पड़े।जागरण संवाददाता, श्रीनगर गढ़वाल: सरकार ने भले ही आपदा को बुरे ख्वाब की तरह भुला दिया हो लेकिन अब भी लोग अपनों की तलाश में उत्तराखंड आ रहे हैं। यही नहीं, आपदा में लापता लोग भी भटकते हुए मिल जा रहे हैं। 46 वर्षीय एक आपदा प्रभावित तीन दिन पहले रुद्रप्रयाग में मिला, जबकि सरकार उसे मृत घोषित कर चुकी थी। इस युवक की हालत बेहद खराब है। केदारघाटी विस्थापन एवं पुनर्वास संघर्ष समिति के अध्यक्ष डॉ. अजेंद्र अजय ने उसे सोमवार को बेस अस्पताल में दाखिल कराया, जहां मनोविज्ञानी ने उसका परीक्षण किया। बताया कि इसका लंबा इलाज चलेगा। 15-15 दिन बाद उसे दिखाना पड़ेगा। इसके बाद उसके परिजन उसे अपने साथ ले गए। चमोली के नागनाथ पोखरी के सिमतोली गांव निवासी 46 वर्षीय पुष्कर सिंह मुम्बई में नौकरी करता था। 14 जून 2013 को वह अगस्त्यमुनि स्थित अपने भाई की दुकान पर पहुंचा। जहां से वह अपने एक अन्य रिश्तेदार के यहां तिलवाड़ा गया। 15 जून 2013 को बाइक से वह तिलवाड़ा से सोनप्रयाग की ओर गया। इसके बाद वह आपदा में लापता हो गया। उसके परिजनों ने अगस्त्यमुनि पुलिस चौकी में उसकी रिपोर्ट भी लिखाई। डा. अजेंद्र अजय के अनुसार बाद में शासन ने इसे मृत भी घोषित कर दिया गया था। बीते 21 मार्च को पुष्कर सिंह के ममेरे भाई संतोष कुंवर को वह रुद्रप्रयाग के पास दीनहीन हालत में घूमता मिला। उसकी शारीरिक और मानसिक स्थिति बहुत खराब थी। चोट के कारण उसका एक पैर भी खराब हो चुका था। अजय ने बताया कि वह जून 2013 के बाद से अब तक के समय को लेकर अपने बारे में कुछ भी नहीं बता पा रहा है। मानसिक रूप से भी अस्वस्थ लग रहा है। सोमवार को उसके परिजन उसे इलाज के लिए बेस अस्पताल लाए, जहां मनोविज्ञानी ने उसका परीक्षण कर लंबे समय तक इलाज की बात कही। अजेंद्र अजय ने प्रदेश सरकार से आपदा प्रभावित पुष्कर सिंह का सरकारी खर्च पर उपचार कराने की मांग की। साथ ही लापता लोगों को भी तलाश करने की मांग उठाई ताकि अन्य लोगों को इस तरह न भटकना पड़े।
कुछ दिन पहले भी चमोली जिले के घाट ब्लाक में विक्षिप्त हालत में मिली महिला के केदारनाथ आपदा के दौरान अपनों से बिछुडऩे की बात बताई गई। घाट बाजार में कंबल ओढ़े एक विक्षिप्त महिला को देखकर लोगों ने उससे जानकारी लेनी चाही तो वह सकपका गई। लोगों की सूचना पर पुलिस ने वहां पहुंचकर महिला से उसके घर परिवार के बारे में जानकारी जुटाई। महिला ने पुलिस को बताया कि केदारनाथ आपदा में वह अपनों से बिछुड़ गई थी। तब से वह इसी तरह भटक रही है। यह महिला बोल कुछ नहीं पा रही है, उसने पुलिस का एक कागज पर लिखकर अपने बारे में जानकारी दी।
उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों उत्तरकाशी जनपद में भी राजस्थान की एक महिला भी ऐसी हालत में मिली थी। वह भी केदारनाथ आपदा में अपनों से बिछुड़ गई थी। पता चलने पर परिजन उसे साथ ले गए थे।
सोमवार, 23 मार्च 2015
हम ठगने का ‘लाइसेंस’ देते हैं!
बीएड पाठ्यक्रम को 2 वर्षीय किया जा रहा है और शुल्क में भी बेतहाशा वृ(ि की जायेगी, किन्तु इससे सरकार और 600 संचालकों को फायदा है इसलिए इस सुनियोजित ढंग से लूट के व्यवसाय को चालू रखा जा रहा है. कल्याणकारी सरकार के नाम पर सरकारें लुटेरे संगठनों द्वारा संचालित हैं और वे लूट का लाइसेंस दे रही हैं। देश के अलग-अलग भागों में कुकुरमुत्तों की तरह खुले बीएड कालेजों पर मनीराम शर्मा का यह खास आलेख। संपादक
विश्वविद्यालय और बोर्ड भी प्रायोगिक परीक्षा शुल्क का मद महाविद्यालयों और विद्यालयों के लिए खुला छोड़ देते हैं, ताकि वे मनमानी वसूली कर सकें और प्रायोगिक परीक्षा के वीक्षक का स्वागत सत्कार कर सकें जोकि फलदायी होती है। बोर्ड और विश्वविद्यालयों को चाहिए कि वे प्रायोगिक परीक्षा के लिए शुल्क भी नियमित परीक्षा के साथ ही वसूल कर लें और परीक्षा केंद्र को प्रतिपूर्ति अपने स्तर पर ही करें, न की महाविद्यालयों और विद्यालयों को इसके लिए खुला छोड़ें। महाविद्यालयों को यह भी निर्देश दिया जाय कि वे ड्रेस या अन्य किसी सामग्री का विक्रय नहीं करें और छात्रों से कोई वसूली सरकार से अनुमोदन के बिना नहीं करें।
नागरिकों को सामान्य और व्यावसायिक शिक्षा देना तथा रोजगार उपलब्ध करवाना कल्याणकारी सरकार का संवैधानिक धर्म है। इसलिए शैक्षणिक गतिविधियों से कोई वसूली करना स्पष्टः संविधान विरु( है, किन्तु शिक्षा जगत का क्या हाल है और सरकार इसकी किस तरह दुर्गति कर रही है इसका शायद आम नागरिक को कोई अनुमान नहीं है। उदारीकरण, जो कि संविधान की समाजवाद की मूल भावना के सर्वथा विपरीत है, का लाभ धनपतियों और कुबेरों को मुक्तहस्त दिया जा रहा है। यही कारण है कि पंचवर्षीय योजनाओं को ठेंगा दिखाती हुई गरीब और अमीर के बीच की खाई स्वतन्त्रता के बाद बढ़ती ही जा रही है। शायद इस अधोगति के रुकने के कोई आसार दिखाई भी नहीं देते।
शिक्षक भर्ती के लिए आवश्यक बीएड पाठ्यक्रम और निजी संस्थानों की भागीदारी इस दुर्भि संधि को प्रकट करती है। उदारीकरण से पूर्व इस पाठ्यक्रम का संचालन मुख्यतया राज्य क्षेत्र में ही था और वांछित शिक्षकों की पूर्ति सामान्य रूप से हो रही थी। राजस्थान में राज्य एवं निजी क्षेत्र को मिलाकर वर्षभर में सामान्यतया 20000 अतिरिक्त शिक्षकों की आवश्यकता होती है। किन्तु सरकार ने लगभग एक लाख अभ्यर्थियों के लिए बीएड पद सृजित कर दिये हैं। ऐसी स्थिति में काफी व्ययभार उठाकर यह बेरोजगारों की एक फौज प्रतिवर्ष तैयार हो रही है, जो अपना समय और धन लगाकर भी निश्चित रूप से आखिर बेरोजगार ही रहनी है। बीएड पाठ्यक्रम में आगामी वर्ष से परिवर्तन कर सरकार इस कोढ़ में खाज और करने जा रही है। बीएड के अभ्यर्थी से इस विद्यमान एकवर्षीय पाठ्यक्रम के लिए 25 हजार रुपये वार्षिक शुल्क लिया जाता है, जो की पूर्व में मात्र दस हजार रुपये था। अब बीएड पाठ्यक्रम को 2 वर्षीय किया जा रहा है और शुल्क में भी बेतहाशा वृ(ि की जायेगी, किन्तु इससे सरकार और 600 संचालकों को फायदा है इसलिए इस सुनियोजित ढंग से लूट के व्यवसाय को चालू रखा जा रहा है। पहले एक बीएड महाविद्यालय से मान्यता के नाम पर दस लाख रुपये से अधिक शुल्क सरकार और विश्वविद्यालयों द्वारा लिया जाता था और अब दो वर्षीय पाठ्यक्रम के लिए सरकार द्वारा सोलह लाख रुपये और अतिरिक्त लिए जा रहे हैं। निश्चित रूप से इतनी राशि का सरकार को भुगतान करके इस निवेश पर कोई भी व्यक्ति अच्छा मुनाफा कमाना चाहेगा। सेवा के नाम पर कोई भी इतना बड़ा निवेश नहीं करना चाहेगा। इस आकर्षक व्यवसाय के कारण कई संचालकों ने तो अपने विद्यालय बंद करके महाविद्यालय प्रारम्भ कर दिए हैं।विश्वविद्यालय और बोर्ड भी प्रायोगिक परीक्षा शुल्क का मद महाविद्यालयों और विद्यालयों के लिए खुला छोड़ देते हैं, ताकि वे मनमानी वसूली कर सकें और प्रायोगिक परीक्षा के वीक्षक का स्वागत सत्कार कर सकें जोकि फलदायी होती है। बोर्ड और विश्वविद्यालयों को चाहिए कि वे प्रायोगिक परीक्षा के लिए शुल्क भी नियमित परीक्षा के साथ ही वसूल कर लें और परीक्षा केंद्र को प्रतिपूर्ति अपने स्तर पर ही करें, न की महाविद्यालयों और विद्यालयों को इसके लिए खुला छोड़ें। महाविद्यालयों को यह भी निर्देश दिया जाना अति आवश्यक है कि वे ड्रेस या अन्य किसी सामग्री का विक्रय नहीं करें और छात्रों से कोई वसूली सरकार से अनुमोदन के बिना नहीं करें। आश्चर्य होता है कि सरकार को महाविद्यालय और विद्यालय संचालकों की तो चिंता है और उनके द्वारा वसूली जाने वाले शुल्क तय कर दिया है, किन्तु उनके द्वारा दी जाने वाली सेवाओं के मानक और सम्ब( बातों को न तो तय किया जाता, न उनकी निगरानी और न ही नियमन है। और तो और इन महाविद्यालयों व विद्यालयों में कार्यरत कार्मिकों के हितों का कोई नियमन नहीं किया जाता और वे सभी पसीना बहाने वाले शोषण का शिकार होते हैं। उन्हें नियमानुसार अवकाश, भविष्यनिधि और अन्य कोई परिलाभ तक नहीं दिया जाता है।कई मामलों में तो उन्हें दिया जाने वाला वेतन न्यूनतम मजदूरी से भी कम होता है। सरकार इस कुतर्क का सहारा ले सकती है कि जिसे करना हो वह बीएड करे या इस नौकरी के लिए वह किसी को विवश नहीं कर रही है। किन्तु जनता को इस बात का ज्ञान नहीं है कि बीएड के बाद भी रोजगार दुर्लभ है। कीट पतंगे युगोंकृयुगों और पीढ़ियों से आग में जलकर मर रहे हैं दृउन्हें आजतक ज्ञान नहीं हुआ है और यह सिलिसिला आज तक नहीं थमा है। नागरिक हितों की हरसंभव रक्षा करना और मार्गदर्शन सरकार का दायित्व है। फिर यही बात सरकार चिकित्सा महाविद्यालयों के सन्दर्भ में क्यों नहीं करती, जिससे प्रतिस्पर्द्धी वातावरण में जनता को सस्ती चिकित्सा सेवाएं उपलब्ध हो सकें।आधारभूत संरचना के नाम पर इन बीएड कालेजों के पास मात्र कागजी खानापूर्ति है और छात्रों से महाविद्यालय संचालक प्रायोगिक परीक्षा और अन्य खर्चों के नाम पर अतिरिक्त अवैध वसूली भी कर रहे हैं। छात्रों को महाविद्यालय न आने की भी सुविधा भी अतिरिक्त अवैध शुल्क से दे दी जाती है। अर्थात बीएड शिक्षण एक औपचारिक पाठ्यक्रम है। जिस तकनीक एवं विधि से बीएड में पढ़ाना सिखाया जाता है वह भी व्यावहारिक रूप से बहुत उपयोगी नहीं है। अन्य राज्यों की स्थिति भी लगभग राजस्थान के समान ही है। निष्कर्ष यही है कि कल्याणकारी सरकार के नाम पर सरकारें लुटेरे संगठनों द्वारा संचालित हैं और वे लूट का लाइसेंस दे रही हैं। अब जनता सावधान रहे। शायद आने वाले 20-30 वर्षों में आम नागरिक का पूर्ण रक्तपान हो जाएगा तथा गरीब बचेंगे ही नहीं। संपन्न तथा सत्ता के दलाल और अधिक संपन्न जरूर हो जायेंगे।
विश्वविद्यालय और बोर्ड भी प्रायोगिक परीक्षा शुल्क का मद महाविद्यालयों और विद्यालयों के लिए खुला छोड़ देते हैं, ताकि वे मनमानी वसूली कर सकें और प्रायोगिक परीक्षा के वीक्षक का स्वागत सत्कार कर सकें जोकि फलदायी होती है। बोर्ड और विश्वविद्यालयों को चाहिए कि वे प्रायोगिक परीक्षा के लिए शुल्क भी नियमित परीक्षा के साथ ही वसूल कर लें और परीक्षा केंद्र को प्रतिपूर्ति अपने स्तर पर ही करें, न की महाविद्यालयों और विद्यालयों को इसके लिए खुला छोड़ें। महाविद्यालयों को यह भी निर्देश दिया जाय कि वे ड्रेस या अन्य किसी सामग्री का विक्रय नहीं करें और छात्रों से कोई वसूली सरकार से अनुमोदन के बिना नहीं करें।
नागरिकों को सामान्य और व्यावसायिक शिक्षा देना तथा रोजगार उपलब्ध करवाना कल्याणकारी सरकार का संवैधानिक धर्म है। इसलिए शैक्षणिक गतिविधियों से कोई वसूली करना स्पष्टः संविधान विरु( है, किन्तु शिक्षा जगत का क्या हाल है और सरकार इसकी किस तरह दुर्गति कर रही है इसका शायद आम नागरिक को कोई अनुमान नहीं है। उदारीकरण, जो कि संविधान की समाजवाद की मूल भावना के सर्वथा विपरीत है, का लाभ धनपतियों और कुबेरों को मुक्तहस्त दिया जा रहा है। यही कारण है कि पंचवर्षीय योजनाओं को ठेंगा दिखाती हुई गरीब और अमीर के बीच की खाई स्वतन्त्रता के बाद बढ़ती ही जा रही है। शायद इस अधोगति के रुकने के कोई आसार दिखाई भी नहीं देते।
शिक्षक भर्ती के लिए आवश्यक बीएड पाठ्यक्रम और निजी संस्थानों की भागीदारी इस दुर्भि संधि को प्रकट करती है। उदारीकरण से पूर्व इस पाठ्यक्रम का संचालन मुख्यतया राज्य क्षेत्र में ही था और वांछित शिक्षकों की पूर्ति सामान्य रूप से हो रही थी। राजस्थान में राज्य एवं निजी क्षेत्र को मिलाकर वर्षभर में सामान्यतया 20000 अतिरिक्त शिक्षकों की आवश्यकता होती है। किन्तु सरकार ने लगभग एक लाख अभ्यर्थियों के लिए बीएड पद सृजित कर दिये हैं। ऐसी स्थिति में काफी व्ययभार उठाकर यह बेरोजगारों की एक फौज प्रतिवर्ष तैयार हो रही है, जो अपना समय और धन लगाकर भी निश्चित रूप से आखिर बेरोजगार ही रहनी है। बीएड पाठ्यक्रम में आगामी वर्ष से परिवर्तन कर सरकार इस कोढ़ में खाज और करने जा रही है। बीएड के अभ्यर्थी से इस विद्यमान एकवर्षीय पाठ्यक्रम के लिए 25 हजार रुपये वार्षिक शुल्क लिया जाता है, जो की पूर्व में मात्र दस हजार रुपये था। अब बीएड पाठ्यक्रम को 2 वर्षीय किया जा रहा है और शुल्क में भी बेतहाशा वृ(ि की जायेगी, किन्तु इससे सरकार और 600 संचालकों को फायदा है इसलिए इस सुनियोजित ढंग से लूट के व्यवसाय को चालू रखा जा रहा है। पहले एक बीएड महाविद्यालय से मान्यता के नाम पर दस लाख रुपये से अधिक शुल्क सरकार और विश्वविद्यालयों द्वारा लिया जाता था और अब दो वर्षीय पाठ्यक्रम के लिए सरकार द्वारा सोलह लाख रुपये और अतिरिक्त लिए जा रहे हैं। निश्चित रूप से इतनी राशि का सरकार को भुगतान करके इस निवेश पर कोई भी व्यक्ति अच्छा मुनाफा कमाना चाहेगा। सेवा के नाम पर कोई भी इतना बड़ा निवेश नहीं करना चाहेगा। इस आकर्षक व्यवसाय के कारण कई संचालकों ने तो अपने विद्यालय बंद करके महाविद्यालय प्रारम्भ कर दिए हैं।विश्वविद्यालय और बोर्ड भी प्रायोगिक परीक्षा शुल्क का मद महाविद्यालयों और विद्यालयों के लिए खुला छोड़ देते हैं, ताकि वे मनमानी वसूली कर सकें और प्रायोगिक परीक्षा के वीक्षक का स्वागत सत्कार कर सकें जोकि फलदायी होती है। बोर्ड और विश्वविद्यालयों को चाहिए कि वे प्रायोगिक परीक्षा के लिए शुल्क भी नियमित परीक्षा के साथ ही वसूल कर लें और परीक्षा केंद्र को प्रतिपूर्ति अपने स्तर पर ही करें, न की महाविद्यालयों और विद्यालयों को इसके लिए खुला छोड़ें। महाविद्यालयों को यह भी निर्देश दिया जाना अति आवश्यक है कि वे ड्रेस या अन्य किसी सामग्री का विक्रय नहीं करें और छात्रों से कोई वसूली सरकार से अनुमोदन के बिना नहीं करें। आश्चर्य होता है कि सरकार को महाविद्यालय और विद्यालय संचालकों की तो चिंता है और उनके द्वारा वसूली जाने वाले शुल्क तय कर दिया है, किन्तु उनके द्वारा दी जाने वाली सेवाओं के मानक और सम्ब( बातों को न तो तय किया जाता, न उनकी निगरानी और न ही नियमन है। और तो और इन महाविद्यालयों व विद्यालयों में कार्यरत कार्मिकों के हितों का कोई नियमन नहीं किया जाता और वे सभी पसीना बहाने वाले शोषण का शिकार होते हैं। उन्हें नियमानुसार अवकाश, भविष्यनिधि और अन्य कोई परिलाभ तक नहीं दिया जाता है।कई मामलों में तो उन्हें दिया जाने वाला वेतन न्यूनतम मजदूरी से भी कम होता है। सरकार इस कुतर्क का सहारा ले सकती है कि जिसे करना हो वह बीएड करे या इस नौकरी के लिए वह किसी को विवश नहीं कर रही है। किन्तु जनता को इस बात का ज्ञान नहीं है कि बीएड के बाद भी रोजगार दुर्लभ है। कीट पतंगे युगोंकृयुगों और पीढ़ियों से आग में जलकर मर रहे हैं दृउन्हें आजतक ज्ञान नहीं हुआ है और यह सिलिसिला आज तक नहीं थमा है। नागरिक हितों की हरसंभव रक्षा करना और मार्गदर्शन सरकार का दायित्व है। फिर यही बात सरकार चिकित्सा महाविद्यालयों के सन्दर्भ में क्यों नहीं करती, जिससे प्रतिस्पर्द्धी वातावरण में जनता को सस्ती चिकित्सा सेवाएं उपलब्ध हो सकें।आधारभूत संरचना के नाम पर इन बीएड कालेजों के पास मात्र कागजी खानापूर्ति है और छात्रों से महाविद्यालय संचालक प्रायोगिक परीक्षा और अन्य खर्चों के नाम पर अतिरिक्त अवैध वसूली भी कर रहे हैं। छात्रों को महाविद्यालय न आने की भी सुविधा भी अतिरिक्त अवैध शुल्क से दे दी जाती है। अर्थात बीएड शिक्षण एक औपचारिक पाठ्यक्रम है। जिस तकनीक एवं विधि से बीएड में पढ़ाना सिखाया जाता है वह भी व्यावहारिक रूप से बहुत उपयोगी नहीं है। अन्य राज्यों की स्थिति भी लगभग राजस्थान के समान ही है। निष्कर्ष यही है कि कल्याणकारी सरकार के नाम पर सरकारें लुटेरे संगठनों द्वारा संचालित हैं और वे लूट का लाइसेंस दे रही हैं। अब जनता सावधान रहे। शायद आने वाले 20-30 वर्षों में आम नागरिक का पूर्ण रक्तपान हो जाएगा तथा गरीब बचेंगे ही नहीं। संपन्न तथा सत्ता के दलाल और अधिक संपन्न जरूर हो जायेंगे।
रविवार, 22 मार्च 2015
‘बेरोजगार’ उत्तराखंड
रोटी के लिए महानगरों का मुह ताकते को हम मजबूर
814 साल में साढ़े आठ लाख बेरोजगारों की फौज में 30 हजार नौकरियां मिलीं
8हर साल 2153 रोजगार का एवरेज और हर महीने 179 रोजगार
8इस साल सबसे ज्यादा रोजगार पाने वाले जिलों में पिथौरागढ़, बागेश्वर, रुद्रप्रयाग व गोपेश्वर शामिल
अलग उत्तराखंड राज्य आंदोलन की जिन लोगों को याद है शायद ही वे यह भूले हों कि इस आंदोलन का मकसद उत्तरप्रदेश से इतर एक अलग भौगोलिक सांस्कृतिक पहचान पाना था। लेकिन आंदोलन का केन्द्र बिन्दु और चिंता पलायन ही थी। पहाड़ और पलायन पर मर्सिया पढने के शुरुआती दिनों में पलायन के जोरदार और तार्किक पोस्टमार्टम किये गये। लब्बो लुआब यह कि पहाड़ में रोजगार के संकट के चलते जबरदस्त पलायन हुआ। पलायन की यह परंपरा कमोबेस आज भी जारी है। इस परंपरा पर प्रकाश डालने से पहले यह बताना समीचीन होगा कि उत्तराखंड की आबादी का जो पलायन महानगरों की और हुआ उसमें गांवों की भूमिका 90 फीसदी से भी अधिक रही। यानि शतप्रतिशत पलायित कृकृषि, पशुपालन एवं संबंधित अवलंबनों के आधीन थे। इसी पर केंद्रित संतोष बेंजवाल और प्रियंक मोहन बशिष्ठ का यह खास आलेख। संपादक
सदियों से पहाड़ की यही कहानी और यही सच्चाई भी है। ये कहानी है-पलायन की। अपने विकास और खूबसूरत दुनियां को देखने की चाहत के ये विभिन्न अनचाहे रूप हैं। एक मकान केवल इसलिए खंडहर में बदला क्योंकि उसे संवारने के लिए घर में पैसा नहीं था और एक मकान में ताले पर इसलिए जंङ लगा है कि वहां से अपनी प्रगति की इच्छा लिए पलायन हो चुका है। इनमें कोई इसलिए अपने पुश्तैनी घर नहीं लौटे क्योंकि वे बहुत आगे निकल चुके हैं और सब कुछ तो यहां खंडहरों में बदल चुका है। इनमें कई तालों और खंडहरों का संबंध तो राष्ट्राध्यक्ष, राजनयिकों, सेनापति, नौकरशाहों, लेखकों, राजनीतिज्ञों, वैज्ञानिकों, शिक्षकों और लोक कलाकारों का इतिहास बयान करता है जबकि अधिसंख्य खंडहर उत्तराखंड की गरीबी-भुखमरी, बेरोजगारी-लाचारी और प्राकृतिक आपदाओं की कहानी कहते हैं। पलायन और पहाड़ का संबंध कोई नया नही है। वतर्मान समय में पलायन का यह प्रवाह उल्टा हो गया है। जनसंख्या बढ़ने से प्राकृतिक संसाधनों पर बढते बोझ, कमरतोड़ मेहनत के बावजूद नाममात्र की फसल का उत्पादन और कुटीर उद्योगों की जर्जर स्थिति के कारण युवाओं को पहाड़ों से बाहर निकलने को मजबूर होना पड़ा।
उत्तराखंड राज्य निर्माण के बाद बनी किसी भी सरकार ने इस गंभीर समस्या के समाधान के लिये ईमानदार पहल नहीं की। अपितु मैदानी इलाकों को तेजी से विकिसत करने की सरकारी नीति से असन्तुलित विकास की स्थिति पैदा हो गयी है। जिससे पहाड़ से मैदान की तरफ होने वाले पलायन को बढ़ावा ही मिलेगा। क्या उत्तराखंड की सरकार पहाड़ों के पारंपरिक उद्योगों के पुनरुत्थान के लिए भी प्रयास करेगी? पयर्टन उद्योग और गैरसरकारी संस्घ्थानों के द्वारा सरकार पहाड़ों के घ्विकास के घ्लिए योजनाएं चला रही है, उससे पहाडी लोगों को कम मैदान के पूंजीपतियों को ही ज्यादा लाभ मिल रहा है।पहाड़ के गांवों से होने वाले पलायन का एक पहलू और है। वह है कम सुगम गांवों और कस्घ्बों से बड़े शहरों अथवा पहाड़ों की तलहटी पर बसे हल्द्वानी, कोटद्वार, देहरादून, रुद्रपुर और हरिद्वार जैसे शहरों को होता बेतहाशा पलायन। मैदानी इलाकों में रहकर रोजगार करने वाले लोग सेवानिवृत्ति के बाद भी अपने गांवों में दुबारा वापस जाने से ज्यादा किसी शहर में ही रहना ज्यादा पसन्द करते हैं। स्थिति जितनी गम्भीर बाहर से दिखती है असल में उससे कहीं अधिक चिंताजनक है। जो गांव शहरों से 4-5 किलोमीटर या अधिक दूरी पर हैं उनमें से अधिकांश खाली होने की कगार पर हैं। उत्तराखंड में पढे लिखों की जमात के पौ बारह होते पलायन की भी शक्ल बदलती रही । यानि 40 के दशक से 70 के दशक तक घरेलू कामगार यूनियनों के मैम्बर रहे उत्तराखंडी भाई 70 से 90 के बीच दिल्ली मुबई जैसे महानगरों में सरकारी आफिसों में चपड़ासी से क्लर्क तक प्रमोशन पा गये । 90 के बाद का दशक किसका रहा यह बताने से पहले यह जानना जरूरी होगा कि अखबारों में आये दिन छपने वाले विज्ञापनों से यह हटा दिया कि घरेलू काम के लिए पहाड़ी गढवाली कुमांउनी को प्राथमिकता दी जायेगी। यानि 90 के बाद का पलायन उत्तराखंड में थोक के भाव खोल दिये गये आम शिक्षण संस्थानों और आईटीआई पौलटैकनिक के बेरोजगारों का रहा । कांग्रेस के शासन में इनमें से अब कई प्राविधिक संस्थान बंद कर दिये गये हैं । राज्य आंदोलन के दिनों में इन्हें बेरोजगार पैदा करने की फैक्टरियां कहा जाता था।
इन बेरोजगार पैदा करने वाली फैक्ट्रियों के उत्पाद के साथ कुछ मात्रा में हाईस्कूल फेल पास ग्रामीणों की जमात भी अभी तक महानगरों की ओर भाग रही है। यह स्वीकार करना होगा कि अलग उत्तराखंड राज्य बनने के बाद पलायन की रफ्तार और संख्या में थोडा बहुत कमी जरूर दर्ज हुई है, लेकिन इस कमी को उच्च शिक्षित जमात ने पूरा कर दिया है। पलायन के तराजू पर राज्य की सार्थकता को देखा जाय तो राज्य बनने के बाद के आठ वर्ष इस बात की ताकीद नही करते कि इस ओर कोई ठोस प्रयास हुए हैं । शिक्षा के तंत्र में बेरोजगारों को अल्प रोजगार के रूप में ठूंसने के प्रयास राज्य में अब तक बनी सरकारों ने खूब किये हैं। लेकिन असंतोष बरकरार है। आये दिन उत्तराखंड आंदोलनों से गुलजार है तो राजनैतिक दल सत्ता के सूखों की बंदरबाट में इतने व्यस्त हो गये हैं कि पलायितों का मायका बत्तीधारी राजनैतिक महत्वाकांक्षियो का अडडा बन गया है। पिछले 8 सालों में जो परिदृश्य देखने को मिल रहा है उससे यह ढांढस नही बंधता कि राज्य के पास कोई ऐसा जिम्मेदार नेता अभिभावक के रूप में है जो पार्टीगत खींचतान और तुष्टिकरण से बाहर निकल कर राज्य के हित में खड़ा हो। उत्तराखंड के विकास का माडल पंतनगर, सितारगंज, उधमसिंह नगर, देहरानून और हरिद्वार में गुल खिला रहा है। लेकिन पहाड़ यहां भी नदारद हैं। उद्योग या रोजगार विहीन उत्तराखंड का पर्वतीय क्षेत्र अभी भी बियाबान ही बना हुआ है क्योंकि तराई एवं सिचाई संपन्न मैदानी इलाका जहां अब उद्योग लगाये गये है, हमेशा से लहलहाती फसलों के लिए जाना जाता रहा है। राज्य के रहनुमाओं ने कृषि क्षेत्र में तो आसानी से सेंध लगाली लेकिन दुर्गम की ओर जाने का हौसला अब भी नही जुट पा रहा । थोड़ा सा अतीत की ओर नजर डाली जाय तो उत्तराखंड राज्य आंदोलन इन्हीं पहाड़ी जिलों का आंदोलन था। जहां अब राज्य कृकृषि, उद्योग को तिरोहित कर बेरोजगारों को सुविधानुसार बगैर वेतन स्कूलों में ठूंस रहा है। उद्योग धंधें से पूरे पर्वतीय इलाके को महरूम रखा गया है। अब सिर्फ इन क्षेत्रों के विकास के नाम पर नहर गुल और पुल बनवा रहे हैं। तय है कि इस तरह के टोटकों से तात्कालिक राहत मिल सकती है। दीर्घकालिक समाधान के लिए राज्य के प्रति समपर्ण और आंतरिक ईमानदारी की दरकार होगी। पर्वतीय इलाकों में उन स्थानों और उन उद्योगों का चयन करना होगा जो सभी तरीके से ठीक हों । नगदी देने वाली फसलों ने राज्य की लघु कृकृषि बिरादरी को पिछले वर्षों में अच्छा संबल दिया है। इस क्षेत्र की घोर उपेक्षा हुई है। कृकृषि क्षेत्र में आज भी बेरोजगारी की भीषण समस्या के समाधान तलाशे जा सकते हैं। क्या राज्य में इस तरह से गंभीर माहौल तैयार हो पायेगा।? यह प्रश्न स्वयं से पूछने के साथ-साथ हुक्मरानों के चेहरों में पढा जाना चाहिए। आजीविका और रोटी के लिए महानगरों का मुह ताकते वालों को तो यह मान लेना चाहिए कि राज्य से पलायन करना उनकी मजबूरी के साथ अब नियति बन गयी है। स्टेट में साढ़े आठ लाख बेरेाजगारों एवज में मिली नौकरियों की बात की जाए तो युवाओं के लिए वर्ष 2005 बेहद मुफीद रहा। इस वर्ष अब तक के 14 सालों के इतिहास में सबसे ज्यादा 6094 युवा बेरोजगारों को नौकरी मिली। जबकि राज्य स्थापना वर्ष में सबसे कम 37जाब्स मिले। यकीनन 2000 के आखिरी दो महीनों में नौकरियों का यह आंकड़ा रहा। इसके बाद सबसे कम नौकरियों के लिए 2013 का वर्ष भी नीचले पायदान पर रहा। हालांकि यह वर्ष राज्य के लिए आपदा वर्ष भी कहा जाता है। ऐसे ही देहरादून सेवायोजन की बात की जाए तो 2005 यहां के लिए भी सुखद वर्ष रहा, जब इस साल सबसे ज्यादा 3,164 नौकरियां बेरोजगारों के हाथ लगी। उदय दिनमान ने पहले ही बताने की कोशिश की है कि प्रदेश के 14 साल के सफर में साढ़े आठ लाख बेरोजगार युवाओं के एवज में 31, 145 बेरोजगार को रोजगार मिले हैं। लेकिन अब हम यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि इन 14 सालों में किस वर्ष सबसे ज्यादा युवाओं को नौकरी हाथ लगी। इस लिहाज से बेरोजगार युवाओं के लिए 2005 सबसे अच्छा साबित हुआ। इस साल 6094 रोजगार मिले। दूसरा साल 2007 रहा, जब 3956 रोजगार मिले। उसके बाद 2006 में 3169 और 2002 में 2930 नौकरियां बेरोजगारों को मिली। सबसे कम नौकरियां 2000 में केवल 37 मिली। इसी प्रकार से कम नौकरियों की सीरिज में 2001, जब 836, 2013 में 602 नौकरियां मिलीं। इसी प्रकार से देहरादून क्षेत्रीय सेवायोजन कार्यालय की बात की जाए तो यहां भी 2005 सफल वर्ष रहा। जब इस साल 3165 बेरोजगार नौकरी पाने में सक्सेस रहे। 2008 में 624, 2007 मं 543 नौकरियां मिलीं। सबसे कम दून सेवायोजन के लिए वर्ष 2012 रहा। जब केवल इस लाखों बेरोजगारों की तुलना में केवल 11 नौकरियां मिल पाईं। 2013 में 20, 2014 में 22 नौकरियां ही मिल पाईं। अब आप ही अंदाजा लगा सकते हैं कि प्रदेश में जहां लाखों की तादात में बेरोजगार की फेहरिस्त है, उसके एवज में कितने रोजगार मिल पा रहे हैं। जबकि जब भी चुनाव नजदीक आते हैं पालिटिकल पार्टियां लाखों की नौकरियों की बात करते हैं। खुद वर्तमान सरकार ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में दो लाख बेरोजगारों को रोजगार देने का वादा किया था।
14 साल 8 सीएम के कार्यकाल में नौकरियांः
नित्यानंद स्वामी-37,भगत सिंह कोश्यारी-826
एनडी तिवारी-20826,बीसी खंडूडी-4245
रमेश पोखरियाल निशंक-1607,विजय बहुगुणा-2025,हरीश रावत-669
;नौकरियों के आंकड़े वर्षवार दिए गए हैं, जो कुछ ऊपर-नीचे हो सकते हैं।द्ध
स्टेट में वर्षवार मिली नौकरियां
2000-37
2001-836
2002-2930
2003-2074
2004-2603
2005-6094
2006-3169
2007-3956
2008-2137
2009-2108
2010-632
2011-632
2012-1423
2013-602
2014-669
देहरादून सेवायोजन में वर्षवार मिली नौकरियां
2000-159
2001-102
2002-256
2003-305
2004-287
2005-3164
2006-357
2007-543
2008-624
2009-231
2010-31
2011-20
2012-11
2013-20
2014-22
नौकरी पानी किसी चुनौती से कम नहीं
यह सच है कि देश-दुनिया में आज के वक्त में रोजगार पाना किसी चुनौती से कम नहीं है। लेकिन 14 साल पहले जिस राज्य की कल्पना के साथ राज्य का गठन हुआ था, उस वक्त युवाओं के सपने बेहद उत्साह के साथ मजबूत थे। इंप्लाएमेंट के सोर्सेस खुलने के आसार थे। कई सरकारें आई, रोजगार संबंधी कई घोषणाएं हुईं, कोशिशें की भी जारी रहीं। लेकिन आंकड़े आपके सामने है। कुछ छिपा नहीं है। जिस प्रदेश की आबादी सवा करोड़ के पार हो गई हो, साढ़े आठ लाख बेरोजगार इंप्लाएमेंट की तलाश में राह ताक रहे हों, शायद उस नए प्रदेश में महज 30 हजार को रोजगार मिलना समझ में कम ही आता है। खैर, यह रोजगार पानी नए प्रदेश उत्तराखंड में भी कम से कम अब तो जंग जीतना प्रतीत होता है। सरकारें आगामी वर्षों में रोजगार के लिए क्या स्किल्स डेवलेप करती हैं, कितना रोजगार दिलाती हैं। यह तो वक्त बताएगा। लेकिन हकीकत से आप भी रूबरू हो जाएं।
270114 बेरोजगार, 37 को मिली नौकरी
जिस वक्त 9 नवंबर 2000 को उत्तराखंड राज्य का गठन हुआ था। उस साल केवल दो महीने के भीतर उत्तराखंड में 270114 बेरोजगार रजिस्टर्ड हुए थे। बदले में 37 युवाओं को रोजगार मिल पाया था। उसके अगले वर्ष 313185 बेरोजगारों की तुलना में 836 को मिला था रोजगार।
नियुक्ति के हिसाब से 2005 रहा मुफीद
बात रोजगार की हो रही है तो साल 2005 रोजगार की हिसाब से बेरोजागरों के लिए सबसे धनी वर्ष रहा है। इस साल 380217 रजिस्टर्ड बेरोजगारों की तुलना में 6094 बेरोजगारों को रोजगार मिला।
साल 2007 में 3856 युवाओं को रोजगार मिला। 2006 में 3169 और 2002 में 2930 बेरोजगारों के इंप्लाएमेंट के सपने पूरे हुए। ऐसे ही 2000 में जहां
37 को नौकरी मिली, वैसे ही 2001 में 836, 2010 में 632, 2011 में 975 2014 में 669 और 2013 में सबसे कम 602 बेरोजगारों को रोजगार मिला।
युवाओं को मिली नौकरी पर नजर
अल्मोड़ा-15,नैनीताल-80,पिथौरागढ़-229,यूएसनगर-32
बागेश्वर-146,चंपावत-21,देहरादून-22,टिहरी-15
उत्तरकाशी-02,हरिद्वार-01,पौड़ी-13,गोपेश्वर-42
रुद्रप्रयाग-51, 229 नौकरी के साथ पिथौरागढ़ रहा अव्वल पर। बीते वर्ष यानी 2014 में हरिद्वार ऐसा जिला रहा है, जहां 91 हजार से अधिक युवाओं की भीड़ में केवल एक युवा को ही रोजगार मिल पाया। सबसे अव्वल पर आपदा प्रभावित जिले पिथौरागढ़, बागेश्वर, गोपेश्वर व रुद्रप्रयाग रहे।
साल-सूची;संप्रेषणद्ध-नियुक्ति-रजिस्टेªशन
2000-1436-37-270114
2001-14276-836-313185
2002-17853-2930-345211
2003-18630-2074-33755
2004-28199-2603-314472
2005-37049-6094-380217
2006-39370-3169-473618
2007-51739-3856-481832
2008-19025-2137-489744
2009-27177-2108-488789
2010-20661-632-565559
20011-17135-975-661642
2012-9165-1423-704398
2013-5668-602-751024
2014-5305-669-867476
कुल नियुक्तियां-30,145
;डाटा सोर्स इंप्लाएमेंट डायरेक्ट्रेटद्ध
उत्तराखंड के पहाड़ पलायन के कारण खाली
उत्तराखंड की खूबसूरत वादियों में जहां मैदानी क्षेत के सैलानी पाकृतिक सौंदर्य का लुफ्त उठाने के लिए आते हैं वहीं गरीबी व सुविधाओं के अभाव से तस्त इन पहाड़ों के लोग रोजगार की तलाश में मैदानों की तरफ पलायन कर रहे हैं। पलायन के कारण उत्तराखंड के दो जिलों अल्मोड़ा और पौड़ी में जनसंख्या बढ़ने की दर नकारात्मक हो गई है। योजना आयोग ने इस पलायन को खतरनाक और लोगों का अंसतोष करार दिया है। आगामी 22 मई को योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया और उत्तराखंड के मुख्यमंती विजय बहुगुणा के बीच बैठक होनी है। इस बैठक में राज्य की वर्ष 2013-14 के लिए वार्षिक योजना का आकार तय होना है। योजना आयोग ने इस आकार को 8,500 करोड़ रुपए तय करने का पस्ताव किया है। यह राशि पिछले साल के 8,200 करोड़ से मात तीन फीसद ज्यादा है। इसकी वजह राज्य सरकार द्वारा योजनागत राशि को खर्च करने में लापरवाही बरतना है। वर्ष 2012-13 में ही योजना राशि का 95 फीसद खर्च हुआ अन्यथा इससे पहले कभी 65 फीसद तो कभी 60 फीसद ही खर्च हुआ था। आयोग ने जो अपनी रिपोर्ट तैयार की है, उसमें पहाड़ी इलाकों की आबादी का पलायन महत्वपूर्ण मुद्दा है। आयोग के मुताबिक अल्मोड़ा और पौड़ी की आबादी बढ़ने के बजाए घटी है। अल्मोड़ा की आबादी घटने की रफ्तार -1.73 फीसद और पौड़ी की -1.51 फीसद है। बाकी पहाड़ी जिलों चमोली, रुदपयाग, टिहरी, पिथोरागढ़ और बागेश्वर की आबादी 5 फीसद से भी कम की रफ्तार से बढ़ी है जबकि देश की आबादी बढ़ने की औसत रफ्तार 17 फीसद है। उत्तराखंड के ही मैदानी जिले ऊधम सिंह नगर की अबादी 33.40 फीसद, हरिद्वार की 33.16 फीसद, देहरादून की 32 फीसद और नैनीताल की आबादी 25 फीसद की रफ्तार से बढ़ी है। आयोग ने पहाड़ों से अबादी के पलायन के लिए नौकरियों को लेकर असंतोष व अवसरों की कमी को कारण माना है। इस मुद्दे पर उत्तराखंड के मुख्यमंती के साथ विचार-विमर्श होगा। पलायन का असर लिंग अनुपात पर भी पड़ा है। उत्तराखंड में लिंग अनुपात घटकर 886 हो गया है। पिथौरागढ़ में बलिकाओं की संख्या 842 पति हजार रह गई है। योजना आयोग ने इसे खतरे की घंटी बताया है। असंतोष का एक कारण यह भी है कि पहाड़ों में शिक्षा के उचित साधन और अवसर नहीं हैं। गांवों में उपयुक्त स्कूल नहीं हैं या शिक्षक नहीं हैं। आयोग की रिपोर्ट के अनुसार पहाड़ में एक बच्चे की पढ़ाई पर 16,881 रुपए का खर्च आता है, यह मैदानों से 2 से 3 गुना ज्यादा है। राज्य में 17 फीसद स्कूल एक ही टीचर से चलाए जा रहे हैं। 59 फीसद टीचर ठेके पर और अपशिक्षित हैं। राज्य में 17 हजार शिक्षकों के पद खाली पड़ी हैं। आज जहां शहरों में पढ़ाई-लिखाई के लिए एक से एक बढ़िया स्कूल चल रहे हैं वहीं पहाड़ों के स्कूलों का क्या हाल है, इसकी एक झलक एएसईआर की 2012 की रिपोर्ट से मिलती है। रिपोर्ट के अनुसार कक्षा पांचवीं के 42 फीसद और सांतवीं के 24 फीसद छात कक्षा दो की पाठयपुस्तक नहीं पढ़ पाते। पांचवीं के 70 फीसद और सांतवीं के 46 फीसद छात अंगेजी की एक साधारण लाइन नहीं पढ़ पाते, 65 फीसद पांचवीं के बच्चे और 43 फीसद आठवीं के बच्चे गणित में भाग नहीं बना पाते।। यही हाल स्वास्थ्य क्षेत का है। न अस्पताल हैं, न डाक्टर और न ही लैब हैं।
शुक्रवार, 20 मार्च 2015
गुरुवार, 19 मार्च 2015
बुधवार, 18 मार्च 2015
मंगलवार, 17 मार्च 2015
सोमवार, 16 मार्च 2015
उत्तराखंड में चलेगी मेट्रो!
वित्त मंत्राी ने पेश किया बजट
सोमवार को उत्तराखंड विधान सभा के पटल पर बजट 2015-16 पेश किया गया। वित्त मंत्राी इंदिरा हृदयेश ने शाम चार बजे प्रश्नकाल के बाद बजट पेश किया। बजट में खास बात यह रही कि देहरादून-)षिकेश-हरिद्वार, रुद्रपुर-लालकुंआ-किच्छा-हल्द्वानी-काठगोदाम के बीच मेट्रो चलाने के अध्ययन हेतु कार्य समूह का गठन की बात रखी गई है। वहीं, मुख्यमंत्राी हरीश रावत ने वित्त मंत्री डा. ;श्रीमतीद्ध इंदिरा हृदयेेश द्वारा वर्ष 2015-16 के लिए प्रस्तुत बजट का स्वागत करते हुए कहा है कि यह बजट सभी प्रदेशवासियों के हित में है। इससे नये उत्साह का संचार होगा। जनता की सहभागिता से राज्य के समावेशी विकास का प्रयास किया गया है। हमने जहां राज्य के आर्थिक संसाध्नों को बढ़ाने पर बल दिया है, वहीं सभी वंचित व कमजोर वर्गों के कल्याण के लिए अनेक नई पहल की है। बजट में वित्तीय अनुशासन का भी ध्यान रखा गया है। मुख्यमंत्राी ने कहा कि राज्य को केन्द्र सरकार के बजट से काफी उम्मीद थी, कि वहां से कापफी बड़ी ध्नराशि का सहयोग राज्य को मिलेगा। केन्द्र में नीतिगत कारणों से असमंजस की जो स्थिति है, उसके आलोक में वित्त मंत्राी ने घाटे को नियंत्रित करते हुए वर्ष 2015-16 में सरप्लस बजट दिया है। बजट में हर क्षेत्रा का ध्यान रखा गया है। बजट के माध्यम से प्रयास किया है कि प्रदेश में पलायन की गति को नियंत्रित किया जाय। शिक्षा के क्षेत्रा में कापफी कुछ नया करने की बात कही गई है। राज्य में स्थापित विश्वविद्यालयों में स्कूल आॅपफ लोकल लैग्वेज खोला जायेगा। अल्मोड़ा में आवासीय विश्वविद्यालय स्थापित करने की बात कही गई है। प्रत्येक विकासखण्ड स्तर पर राजीव गांध्ी अभिनव विद्यालय स्थापित होंगे। दो सैनिक स्कूल स्थापित होंगे। बजट निर्माण में जनता से भी सुझाव लिए गए। वित्त मंत्राी ने बजट में अभिनव पहल करते हुए जन्म से विकलांग बच्चों को 18 वर्ष की आयु तक 500 रूपए प्रति माह पेंशन देने की योजना प्रारम्भ की है। यह बजट एक नया अध्याय शुरू करेगा। राज्य आंदोलनकारियों के कल्याण के लिए ‘‘राज्य आंदोलनकारी कल्याण कोष’’ की स्थापना की गई है। बजट में 38वें राष्ट्रीय खेलों, ‘‘मुख्यमंत्राी वृ( महिला पोषण योजना’’, ‘‘मेरा गांव-मेरी शेष पेज चार पर
सड़क योजना’’, ‘‘मेरे बुजुर्ग मेरे तीर्थ योजना’’ के लिए ध्नराशि का प्राविधन किया गया है। हमारी सरकार महिलाओं की सुरक्षा व कल्याण के लिए प्रतिब( है। ‘‘वीर चंद्र सिह गढ़वाली योजना’’ को और व्यापक करते हुए इसमें महिलाओं के लिए 20 प्रतिशत तक मात्राकरण किया गया है। पीआरडी व होमगार्ड्स में महिलाओं के लिए 20 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की जाएगी। महिलाओं को स्वव्यवसाय से जोड़ने के लिए इंदिरा प्रियदर्शिनी कामकाजी महिला योजना प्रारम्भ की जा रही है।
आयः
- 2015-16 में राजस्व प्राप्तियों में 25777.67 करोड़ रुपए की राजस्व आय अनुमानित है।
- 2014-15 के आय व्ययक अनुमान में कर राजस्व 12157.26 करोड़ रुपए के सापेक्ष 2015-16 में 23.30 प्रतिशत वृद्वि सहित 14989.57 करोड़ की प्राप्ति अनुमानित है।
- करेत्तर राजस्व के अंतर्गत 10788.11 करोड़ की प्राप्ति अनुमानित है।
- 2014-15 में कुल 29825.16 करोड़ रुपए प्राप्तियों के अनुमान के सापेक्ष वर्ष 2015-16 में कुल प्राप्तियां 32310.07 करोड़ रुपए अनुमानित है।
व्ययः
- 2014-15 के आय व्ययक में कुल 30353.78 करोड़ व्यय अनुमान के सापेक्ष 2015-16 में 32693.64 करोड़ रुपए का कुल व्यय अनुमानित है।
- 2015-16 में आयोजनेत्तर व्यय 21059.15 करोड़ अनुमानित है जो कुछ व्यय का 64.41 प्रतिशत है। 2014-15 के अनुमान 18676.65 करोड़ के सापेक्ष आयोजनेत्तर व्यय में 12.76 प्रतिशत की वृ(िा है।
- 2015-16 में 11634.49 करोड़ का आयोजागत व्यय अनुमानित है।
बजट के प्रमुख बिंदु
8देहरादून-)षिकेश-हरिद्वार, रुद्रपुर- लालकुंआ-किच्छा- हल्द्वानी- काठगोदाम के बीच मेट्रो समान योजना की उपयोगिता के अध्ययन हेतु कार्य समूह का गठन होगा
8राज्य में आयोजित होने वाले 38वें राष्ट्रीय खेलों के लिए ध्नराशि की व्यवस्था की
8जन्म से विकलांग बच्चों को 18 साल तक 500 रुपए प्रतिमाह की ध्नराशि मिलेगी
8मेरे बुजुर्ग मेरे तीर्थ योजना हेतु ध्नराशि की व्यवस्था की
8राज्य के वरिष्ठ नागरिकों हेतु चिकित्सालयों में बैड आरक्षित
8एसिड आक्रमण पीड़ित महिलाओं को राज्य सरकार देगी 2 लाख रुपए
गुरुवार, 12 मार्च 2015
गुरुवार, 5 मार्च 2015
President Pranab Mukherjee visit on the occasion of the opening of the Kedarnath Dham
President Pranab Mukherjee visit on the occasion of the opening of the Kedarnath Dham
Dehradun: The Chief Minister Harish Rawat met the President Pranab Mukherjee at New Delhi today. During the meeting, the CM Harish Rawat requested the President Pranab Mukherjee to pay a visit on the occasion of the opening of the Kedarnath portals. The President accepted the invitation and confirmed his participation. The CM told him that Kedarnath Yatra is about to begin. The date for opening of Kedarnath's portals has also been set. Kedarnath is one of the four dhaams of Uttarakhand.THe CM Harish Rawat said that the dhaam had suffered huge losses owing to the disaster. The state has made efficient arrangements for the security of Dhaams and all arrangements have been made for the tourists. He added that the government is trying to revive tourism in the state.
The CM stated that if the President visits Uttarakhand during the Yatra, it will send a positive message to the tourists all over.
The chaar dhaam Yatra is the pride of the nation. Also present on the occasion were Kishore Upadhyaya and advisor to the CM Dr Sanjay Choudhary.
बुधवार, 25 फ़रवरी 2015
मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015
udaydinmaan: अप्रैल में खुलेंगे आस्था और श्रद्वा के द्वार
udaydinmaan: अप्रैल में खुलेंगे आस्था और श्रद्वा के द्वार: अप्रैल में खुलेंगे आस्था और श्रद्वा के द्वार 24 अप्रैल को खुलेंगे केदारबाबा के कपाट 26 अप्रैल को...
शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2015
udaydinmaan: "मिड टर्म"
udaydinmaan: "मिड टर्म": "मिड टर्म" हरित क्रांति के वक्त खाद्यान्न की पैदावार का संकट था इसलिए रासायनिक खाद और पेस्टिसाइड को प्रोत्साहन दिया गया। लेक...
"मिड टर्म"
"मिड टर्म"
हरित क्रांति के वक्त खाद्यान्न की पैदावार का संकट था इसलिए रासायनिक खाद और पेस्टिसाइड को प्रोत्साहन दिया गया। लेकिन उसके दुष्परिणामों पर वक्त रहते गौर नहीं किया गया। हरित क्रांति के अगले दस साल में ही इसका बुरा असर भी दिखने लगा था।
वैज्ञानिकों ने "मिड टर्म" करेक्शन नहीं किया। इन्होंने पैदावार का जो संकट आ रहा था, उसका समाधान ज्यादा से ज्यादा रासायनिक खाद ही बता डाला।
रासायनिक खाद जमकर इस्तेमाल होने लगे और उसका परिणाम ये हुआ है कि दुनिया में आज मानव शरीर और पर्यावरण को बहुत नुकसान हो रहा है। अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान लिया गया है कि ग्लोबल वार्मिग के लिए जिम्मेदार ग्रीन हाउस गैसों में 41 फीसदी कृषि और वन का योगदान है। कृषि में होने वाले रसायनों और पेस्टिसाइडों के कारण यह हो रहा है।
जमीन की उर्वरता खत्म हो गई है। आज रासायनिक खाद नहीं डालें तो जमीन की खुद की उर्वर क्षमता तो खत्म ही हो गई है। जितना भी रासायनिक खाद डालते हैं, उसमें से 60 फीसदी पानी के साथ नीचे जमीन में जाता है। पानी में नाइट्रोजन मिलकर नाइटे्रट बनाता है और यह हमारी किडनी, लीवर के लिए हानिकारक है। यानी पानी में प्रदूषण गहरा रहा है।
इसके साथ ही यह जमीन के माइक्रोऑर्गेनिज्म को भी खत्म करता है। मसलन केंचुआ जमीन में ही पनपता था, आजकल ये खत्म हो गए हैं। इसका कारण रहा रासायनिक खाद। ये जमीन की उर्वरता बढ़ाते थे पर खेती मेंजब 120 किलो नाइट्रोजन डाला जाएगा तो जमीन का पीएच स्तर बहुत बढ़ जाता है और केंचुए समेत माइक्रोऑर्गेनिज्म नष्ट हो जाते हैं।
यूरेनियम खा रहे हैं हम
डीएपी फर्टिलाइजर में तो यूरेनियम भी पाया गया है। कोयले में जितनी यूरेनियम की मात्रा होती है, उससे दस गुणा डीएपी में होती है। यानी मानव शरीर में यूरेनियम भी जा रहा है। साथ ही कोबाल्ट, निकल भी मानव शरीर में प्रवेश कर रहे हैं। जब हम यह दूषित खाना खा रहे हैं तो इसके नकारात्मक असर होने ही हैं। इसलिए कैंसर जैसी बीमारियां बढ़ रही हैं।
रासायनिक खाद ने पैदावार तो बढ़ा दी पर खाद्यान्नों की पोषक क्षमता कम हो गई है। यही वजह है कि बच्चे कुपोषण का शिकार हो रहे हैं। गेहूं की पुरानी किस्मों में कॉपर की मात्रा अधिक होती थी।
लेकिन पैदावार बढ़ाने के चक्कर में नई किस्मे बनाई गईं और अध्ययनों में पाया गया कि कॉपर की मात्रा 80 फीसदी तक गिर गई। देसी गेहूं के अभाव में कॉलेस्ट्रॉल की मात्रा मानव शरीर में बढ़ने लगी है। इसलिए अब क्यों न लोगों को बताया जाए कि आज हमें देसी खाद्यान्न की ओर मुड़ना होगा।
99.99त्न पेस्टिसाइड पर्यावरण में
अब कीटनाशकों की बात। एक अमरीकी वैज्ञानिक हैं, डेविड पाइमेंटल। इन्होंने 1970 के दशक में एक रिपोर्ट छापी थी। इसमें लिखा गया था कि 99.99 फीसदी पेस्टिसाइड वातावरण में जाते हैं। यानी यह मालूम होते हुए कि पेस्टिसाइड वातावरण में जाएंगे और पर्यावरण एवं मानव स्वास्थ्य पर असर डालेंगे, हमने उस वक्त कोई उपाय नहीं किया।
आज भयंकर बीमारियां हम झेल रहे हैं। सिर्फ पैदावार बढ़ाने के फेर में अंधे होकर कीटनाशकों का जहर पर्यावरण और मानव शरीर में घुलने दिया। आज जब दुुनिया ग्रीन हाउस गैसों समेत तमाम बीमारियों से जूझ रही है तो क्यों न इस जहर की खेती को बंद किया जाए। जब भी विदेश से ऎसी कोई तकनीक आती है तो वह पैकेज में आती है। हमारी सरकारें उन पर सब्सिडी देती हैं और उन्हें बढ़ावा दिया जाता है। हमारी सरकारें रासायनिक खादों पर सब्सिडी देती हैं। किसानों को लुभाया जाता है। लेकिन सरकारें ऑर्गेनिक खेती पर सब्सिडी नहीं देती। इसलिए इसके महंगे होने का जुमला छोड़ दिया गया। बाजार, बैंकिंग और सरकार की नीतियां एक ही दिशा में चलती दिखाई देती हैं। मसलन, गांवों में क्रॉस ब्रीड गाय पर ही लोन दिया जाता है।
देसी गाय पर लोन ही नहीं मिलता। यही स्थिति ऑर्गेनिक खेती के साथ है। इसे बढ़ावा देने के लिए सरकार ने कुछ किया ही नहीं। रासायनिक खेती के खिलाफ ऑर्गेनिक खेती को नीतिगत, सब्सिडी और बाजार का समर्थन मिले, किसानों और लोगों को जागरूक किया जाए कि न सिर्फ स्वास्थ्य बचेगा बल्कि वातावरण भी साफ रहेगा तो इस जहर की खेती को रोका जा सकता है।
ऑर्गेनिक खेती से पैदावार कम होने की बात तो सिर्फ बहाना है। अब वैश्विक अध्ययन सामने आ चुके हैं। आईएएएसटीडी नामक अध्ययन (जिसका खुद भारत भी सिग्नेटरी है) कहता है कि हमें गैर-रासायनिक खेती पर जाना होगा। पैदावार कम होने की बात को यह रिपोर्ट भी खारिज करती है।
गैर रासायनिक पर हो सब्सिडी
रासायनिक खेती से भूमि में असंुतलन बढ़ता जा रहा है। इसमें जरूरी तत्वों की लगातार कमी होती जा रही है। आज रासायनिक खाद की बजाय देसी गाय का गोबर के इस्तेमाल पर जोर दिया जाना चाहिए। देसी गोबर बहुत लाभप्रद है। विदेशी गाय के गोबर की तुलना में इसमें 50 फीसदी ज्यादा जरूरी तत्व होते हैं। लेकिन उद्योग और मल्टीनेशनल कम्पनियां गैर रासायनिक खेती को प्रोत्साहन में अड़ंगा लगाती रही हैं।
उसका परिणाम हम भुगत रहे हैं। अमरीका में रासायनिक खेती से गैर रासायनिक खेती की ओर जाने पर सब्सिडी दी जाती है। हमारे यहां उलटा हो रहा है। भारत में सरकार सहकारिता के माध्यम से ऑर्गेनिक खेती को बढ़ावा दे सकती है।
वहां सस्ता देसी खाद्यान्न मुहैया कराया जा सकता है। अमरीका की तर्ज पर किसानों को घरेलू खाद, बायो खाद पर सहायता दी जा सकती है। देसी बीज पर सब्सिडी दी जाए। साथ ही सरकार ऑर्गेनिक खरीद की नीति भी लाए। जिस दिन किसान को मालूम लग जाएगा कि कैमिकल फर्टिलाइजर से सब्सिडी हट गई है तो वह खुद ब खुद ऑर्गेनिक खेती का रूख कर लेगा।
बदलना होगा रवैया
चंद्रभूषण, उप महानिदेशक, सीएसई
यह समझने की जरूरत है कि अगर 100 किलो कीटनाशक डाला जाता है तो उसमें 10 किलो ही लक्षित कीटों को नष्ट करता है शेष 90 किलो तो पर्यावरण में जाता है, पानी में जाता है, मिट्टी में अवशिष्ट रह जाता है। साथ ही कीटनाशकों से सिर्फ हानिकारक कीट ही नहीं मरते हैं। इससे मिट्टी में मौजूद फायदेमंद बैक्टीरिया, अर्थ वॉर्म आदि भी मर जाते हैं और एक पर्यावरणीय असुंतलन पैदा होता है।
साथ ही लंबे समय तक कीटनाशकों के इस्तेमाल से कीटों में कीटनाशक के प्रति प्रतिरोधक क्षमता भी पैदा हो जाती है, जिसके कारण कीटनाशक की मात्रा बढ़ाना होती है। मैं यह तो नहीं कहूंगा कि कीटनाशक केा पूरी तरह से प्रतिबंधित कर देना चाहिए, पर इंटीग्रेटिड पेस्ट मैनेजमेंट निश्चित रूप से आज की जरूरत है। अभी हालत यह हो गई है कि जहां 1 बार छिड़काव की जरूरत होती है वहां 20 बार छिड़काव कर दिया जाता है। इसके विपरीत इंटीग्रेटिड पेस्ट मैनेजमेंट में कीटनाशक का प्रयोग कीट नियंत्रण के लिए अंतिम उपाय होता है।
पहले जैविक कीटनाशक का प्रयोग किया जाता है। जैविक कीट प्रबंधन उपायों में अब अनेक प्रकार के फरमोन्स भी विकसित कर लिए गए हैं। फरमोन्स एक तरह के हारमोन्स होते हैं जो कीटों को दूर रखते हैं। लेकिन आज यह हो रहा है कीट प्रबंधन के लिए हमारा पहला और अंतिम उपाय कीटनाशक बन गए हैं। हम यह भी भूल जाते हैं कि कीटनाशक अंतत: जहर ही हैं।
अगर ये कीटों को मार सकते हैं तो हमारे ऊपर भी इसका नकरात्मक असर होना तय है। यह हो भी रहा है। यह कीटनाशक पानी में घुल जाते हैं। अवशिष्ट के रूप में भोजन के माध्यम से मनुष्य और पालतू जानवरों जैसे गाय, भैंस तक पहुंच जाते हैं। जो व्यक्ति कीटनाशकों का छिड़काव करते हैं वे भी उसकी चपेट में आ जाते हैं। इसका हमारे स्वास्थ्य पर गंभीर नकारात्मक असर हो रहा है। इनके कारण कैंसर जैसी गंभीर बीमारी भारत में लगातार पैर पसारती जा रही है। कई कीटनाशकों का असर मनुष्य के न्यूरो सिस्टम पर होता है।
जिसका असर नवजात बच्चों, गर्भवती माताओं पर विशेष रूप से हो सकता है। वयस्क भी इसकी चपेट में आ रहे हैं। अनेक ह्रदय संबंधी बीमारियां भी कीटनाशकों के कारण हो रही हैं। त्वचा, श्वांस संबंधी रोग भी इसके कारण होते रहते हैं। अगर इस सबकी कीमत लगाई जाए तो कीटनाशकों के फायदे से ज्यादा उसके नुकसान नजर आएंगे।
सरकारों ने अब तक कोई अध्ययन ही नहीं किया है। विदेशों में इस तरह के अध्ययन काफी हुए हैं। भारत में तो सीधे कीटनाशक छिड़काव करने से जितने एक्यूट प्वाइजनिंग के प्रकरण होते हैं उतने शायद ही दुनिया के किसी दूसरे देश में होते हों।
विविधता में पोषण
भुवनेश्वरी गुप्ता, न्यूट्रिशन एक्सपर्ट, पेटा
पश्चिम देशों के उलट भारत में शाकाहार का ज्यादा इस्तेमाल होता है। रासायनिक खेती से खाद्यान्न उत्पादन के मामले में पश्चिमी देश इसलिए चिंतित नहीं होते क्योंकि वहां लोग मांसाहार का सहारा लेकर अपने जरूरी पोषक तत्वों की पूर्ति कर लेते हैं पर भारत में शाकाहारियों के लिए यह खेती परेशानी का सबब बन जाती है। इसलिए इसका उपाय यही है कि हम न सिर्फ रसायनरहित खेती पर जाएं बल्कि खाद्यान्न में विविधता भी लाएं।
इस प्रकार हम न सिर्फ शरीर को रसायनों से बचा सकते हैं बल्कि जरूरी पोषक तत्वों की पूर्ति भी कर सकते हैं। यह साबित हो चुका है कि 100 फीसदी शुद्ध शाकाहार लेने से, जिसमें पूरी विविधता मौजूद हो तो हम स्वस्थ और मांसाहार की तुलना में अधिक पोषक तत्व ग्रहण कर सकते हैं। आजकल जितने भी वैज्ञानिक अध्ययन हो रहे हैं, वे बताते हैं कि मांसाहार और डेयरी उत्पादों के सेवन से जीवनशैली की ज्यादा गंभीर बीमारियां आती हैं।
चिकित्सक भी शाकाहार पर जोर देते हैं। विविध शाकाहार लेने से हम मांसाहार से मिलने वाले सैचुरेटेड फैट, टॉक्सिक, रसायन और हार्माेन से भी दूर हो जाते हैं। ताजे फल, सब्जी, दाल-दलहन ही मानव शरीर के लिए बने हैं और उनमें वो सब पोषक तत्व होते हैं, जो हमारे शरीर को चाहिए। ज्यादा से ज्यादा रंगीन सब्जियां खाकर हम स्वस्थ रह सकते हैं। हरी सब्जियों में आयरन, जरूरी प्रोटीन भरपूर होता है। ध्यान सिर्फ मौसम के अनुकूल हरी सब्जियां और फल को हमारी थाली में शामिल करने पर रहना चाहिए।
हमें एक या दो सब्जियों तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। हर मौसम में जो फल-सब्जियां आते हैं, उन्हें आहार में शामिल करना चाहिए। मूंग, मसूर, राजमा, छोले ये सब प्रोटीन, कैल्शियम, जिंक से भरपूर होते हैं। नट्स, नट्स ऑयल, नारियल, सोया उत्पाद, तोफू जैसे पदार्थ आहार में शामिल करने चाहिए। जितने भी शाकाहार हैं, इनमें न सिर्फ प्रोटीन और विटामिन भरपूर हैं बल्कि इनसे शरीर को नुकसान भी नहीं हैं।
भूजल भी हुआ जहरीला
स्पॉट लाइट डेस्क
भारत में कीटनाशक भूजल को किस कदर प्रदूषित कर चुके हैं इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सेंटर फॅार साइंस एंड एनवायनमेंट के 2003 में किए गए अध्ययन मे यह पाया गया था कि बोतल बंद पानी में भी कीटनाशक के अवशेष पाए गए थे।
इन अवशेषों में लिंडेन, मालाथियोन, क्लोरपाईरिफोस, डीडीटी जैसे कीटनाशकों के अवशिष्ट थे। यह सब इसलिए हुआ था क्योंकि भूजल में कीटनाशकों के अवशेष भारी मात्रा में विद्यमान हैं। ये शुद्ध पेयजल बेचने वाली कंपनियां अपनी प्लांट की जमीन से ही भूजल निकालकर उसे कथित रूप से शुद्ध कर बेच रही थीं। इसलिए इनके पानी में भी कीटनाशकों के अवशेष विद्यमान थे।
एक ब्रांड के बोतल जल में तो इतना अधिक क्लोरपाईरिफोस जैसे घातक अवशिष्ट थे जो कि कीटनाशक के रूप में उसके प्रयोग के यूरोपियन मानक से भी 400 गुना अधिक थे। यह कीटनाशक कुछ सबसे अधिक घातक कीटनाशकों में गिना जाता है। इस कीटनाशक की यह मात्रा भू्रण में भी एक बच्चे के दिमागी विकास को नुकसान पहुंचा सकता है।
भोपाल में 1995 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार हैंड पंप और कुओं से लिया गए जल के 58 प्रतिशत नमूनों में ऑर्गनोक्लोराइन कीटनाशक के अवशेष मानकों से अधिक थे। इसी तरह के परिणाम विदर्भ क्षेत्र में किए गए एक अध्ययन से मिले थे।
देविन्दर शर्मा, कृषि विशेषज्ञ
गुरुवार, 19 फ़रवरी 2015
बिना महिला सब इंस्पेक्टर के चल रहा है चमोली जिला
मामलों के लिए राजधनी से बुलाना पड़ता है महिला सब इंस्पेक्टरों को, जिससे नहीं मिल पाता न्यायबिना महिला सब इंस्पेक्टर के चल रहा है चमोली जिला
सीमांत जनपद चमोली में एक भी महिला सब इंस्पेक्टर के न होने से महिलाओं से संबंध्ति मामलों की तफ्रतीश में लेट-लतीपफी होती रही है। जिससे महिलाओं को समय पर न्याय नहीं मिल पाता है और नही समय पर महिलाओं की सहायता हो पाती है। महिलाओं से संबंध्ति मामलों के लिए राजधनी से महिला सब इंस्पेक्टरों बुलाना पड़ता जिससे महिलाओं को न्याय नहीं मिल पाता है। कहें तो पूरे भारत में महिला सशक्तिकरण के लिए कई अभियान चलाए जाते रहे हैं। महिला उत्पीड़न को लेकर सरकारें गंभीर हैं लेकिन सीमांत जनपद चमोली में कई महिलाऐं उत्पीड़न का शिकार होती रही हैं। किसी भी मामले में महिला से संबंध्ति पूछ-ताछ के लिए महिला सब इंस्पेक्टर को होना अनिवार्य हैं। ताकि महिलाओं के बयान ले सके और तफ्रतीश में आवश्यक कार्रवाई कर सके। ऐसे में महिलाओं को समय पर न्याय मिलने में भी बिलंब होता है। सरकार की उपेक्षा के चलते चमोली जिले में जहां महिलाओें की संख्या पुरूषों से अध्कि है में एक भी महिला सब इंस्पेक्टर या महिला इंस्पेक्टर का न होना सरकार की नाकामी को दर्शाता है या सरकार नहीं चाहती कि चमोली जिले की महिलाऐं सशक्त हों और अपने अध्किारों की लड़ाई के लिए आगे आऐं। महिला उत्पीड़न के मामलों में महिला सब इंस्पेक्टर के द्वारा ही तपफतीश की जाती। चमोली जिले में महिला उत्पीड़न के मामलों में देहरादून से सब इन्सपेक्टर बुलाया जाता है जिससे मामले में अनावश्यक देरी हो जाती है। उध्र अधिवक्ता मानोज भट्ट का कहना है कि जनपद में महिला सब इंस्पेक्टर के न होने से महिला से संबंध्ति मामलों में अनवश्यक बिलंब होता है। उन्होंने कहा कि तत्काल जिले में महिला सब इंस्पेक्टर की नियुक्ति की जानी चाहिए। ताकि महिलाओं के हक हकूक की लड़ाई में आसानी हो सके और महिलाऐं अपने को सुरक्षित मान सके। उत्तराखंड राज्य की बात कहें तो महिलाओं के विकास व उनको सुरक्षित भावना से जीने के अलावा प्रदेश के विकास के कार्य करना था। लेकिन आज तक भी महिालाओं के विकास एवं उनके उत्थान के लिए कोई भी कार्य अभी तक अंजाम नहीं दे रहा है। उत्तराख्ंाड में महिलाओं के कई उत्पीड़न के मामले सामने आ रहे हैं लेकिन महिला की बात को सुनने वाला कोई नहीं है। पुरूष इन्स्पेक्टर अथवा सब इंस्पेक्टर के द्वारा महिला के मामले में तपफ्तीश करना आसान नहीं है। जबकि महिला सब इंस्पेक्टर व इंस्पेक्टर के द्वारा आसानी से महिला के मामलों में तपफ्तीश की जा सकती है। जिससे महिला का संकोच भी दूर होगा और आसानी से तफ्रतीश के बाद महिलाओं को न्याय भी मिल पाएगा। उत्तराख्ंाड राज्य के सीमांत जनपद चमोली में एक भी सब इंस्पेक्टर न होने के कारण देहरादून से या अन्य राज्य से तफ्रतीश के लिए बुलाना पड़ता है जिसमें अनावश्यक ही देरी हो जाती है।
चमोली जिले के पुलिस अधीक्षक सुनील कुमार मीणा ने कहा कि चमोली में महिला सब इंस्पेक्टरों की तैनाती न होने के कारण महिलाओं के मामले में तफ्रतीश के लिए देहरादून से 15-15 दिनों के लिए महिला सब इंस्पेक्टरों की तैनाती की जाती है। तब जाकर महिलाओं के मामले में तफ्रतीश की जाती है। उनका कहना है कि जिले में महिला इंस्पेक्टरों एवं महिला सब इंस्पेक्टरों का होना अनिवार्य है। ताकि महिलाओं की सुरक्षा एवं महिलाओं के मामले में समय पर तफ्रतीश की जा सके। इस मामले में शासन को कई बार लिखा जा चुका है।
बुधवार, 18 फ़रवरी 2015
हुनरमंद कोसी के किसान
आपदाओं को वरदान में बदलने के हुनरमंद कोसी के किसान भिखारी मेहता
2008 की भीषण बाढ़ के बाद बिहार के सुपौल जिले के ज्यादातर खेतों में रेत बिछी है, मगर जब आप भिखारी मेहता के खेतों की तरफ जायेंगे तो देखेंगे कि 30 एकड़ जमीन पर लेमनग्रास, खस, जावा स्योनेला, आइटोमिलिया, तुलसी, मेंथा आदि के पौधे लहलहा रहे हैं. महज 13 साल की उम्र में कॉपी-किताब को अलविदा कर हल पकड़ लेने वाले भिखारी मेहता को मिट्टी से सोना उगाने के हुनर में महारत हासिल है. वे 2004 की भीषण तूफान के बाद से लगातार जैविक तरीके से औषधीय पौधों की खेती कर रहे हैं. आज उनके खेत कोसी अंचल के किसानों के लिए पर्यटन स्थल का रूप ले चुके हैं. यह खबर आज के प्रभात खबर में प्रकाशित हुई इनकी कथा को आप भी जानें...
पंकज कुमार भारतीय, सुपौल
‘लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती’ को मूल मंत्र मानने वाले जिले के वीरपुर के किसान भिखारी मेहता कोसी के रेत पर जज्बे और उम्मीद की फसल उपजा रहे हैं. विषम परिस्थितियों के बीच से भी हमेशा नायक की तरह उभरने वाले भिखारी की जीवन गाथा संघर्षो से भरी है.वर्ष 2008 की कुसहा त्रसदी ने जब इलाके के किसानों को मजदूर बनने को विवश कर दिया तो भी भिखारी ने हार नहीं मानी और आज वह कोसी के कछार पर न केवल हरियाली की कहानी गढ़ रहे हैं बल्कि वर्मी कंपोस्ट उत्पादन के क्षेत्र में भी किसानों के प्रेरणास्नेत बने हुए हैं.
‘लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती’ को मूल मंत्र मानने वाले जिले के वीरपुर के किसान भिखारी मेहता कोसी के रेत पर जज्बे और उम्मीद की फसल उपजा रहे हैं. विषम परिस्थितियों के बीच से भी हमेशा नायक की तरह उभरने वाले भिखारी की जीवन गाथा संघर्षो से भरी है.वर्ष 2008 की कुसहा त्रसदी ने जब इलाके के किसानों को मजदूर बनने को विवश कर दिया तो भी भिखारी ने हार नहीं मानी और आज वह कोसी के कछार पर न केवल हरियाली की कहानी गढ़ रहे हैं बल्कि वर्मी कंपोस्ट उत्पादन के क्षेत्र में भी किसानों के प्रेरणास्नेत बने हुए हैं.
गरीबी ने हाथों को पकड़ाया हल
भिखारी ने जब से होश संभाला खुद को गरीबी और अभाव से घिरा पाया. पिता कहने के लिए तो किसान थे लेकिन घर में दो वक्त की रोटी भी बमुश्किल मिल पाती थी. अंतत: 13 वर्ष की उम्र में वर्ष 1981 में भिखारी मेहता ने किताब-कलम को अलविदा कहा और हाथों में हल को थाम लिया. मासूम हाथों ने लोहे के हल को संभाला तो गरीबी से जंग के इरादे मजबूत होते चले गये. लेकिन पहली बार ही उसने कुछ अलग होने का संदेश दिया और परंपरागत खेती की बजाय सब्जी की खेती से अपनी खेती-बाड़ी का आगाज पैतृक गांव राघोपुर प्रखंड के जगदीशपुर गांव से किया.
भिखारी ने जब से होश संभाला खुद को गरीबी और अभाव से घिरा पाया. पिता कहने के लिए तो किसान थे लेकिन घर में दो वक्त की रोटी भी बमुश्किल मिल पाती थी. अंतत: 13 वर्ष की उम्र में वर्ष 1981 में भिखारी मेहता ने किताब-कलम को अलविदा कहा और हाथों में हल को थाम लिया. मासूम हाथों ने लोहे के हल को संभाला तो गरीबी से जंग के इरादे मजबूत होते चले गये. लेकिन पहली बार ही उसने कुछ अलग होने का संदेश दिया और परंपरागत खेती की बजाय सब्जी की खेती से अपनी खेती-बाड़ी का आगाज पैतृक गांव राघोपुर प्रखंड के जगदीशपुर गांव से किया.
निभायी अन्वेषक की भूमिका
अगाती सब्जी खेती के लिए भिखारी ने 1986 में रतनपुरा का रुख किया. 1992 तक यहां सब्जी की खेती की तो पूरे इलाके में सब्जी खेती का दौर चल पड़ा. वर्ष 1992 में सब्जी की खेती के साथ-साथ केले की खेती का श्रीगणोश किया गया. फिर 1997 में वीरपुर की ओर प्रस्थान किया, जहां रानीपट्टी में केला और सब्जी की खेती वृहद स्तर पर आरंभ किया. वर्ष 2004 का ऐसा भी दौर आया जब भिखारी 40 एकड़ में केला और 20 एकड़ में सब्जी उपजा रहे थे. भिखारी के नक्शे कदम पर चलते हुए पूरे इलाके में किसानों ने वृहद् पैमाने पर केले की खेती आरंभ कर दी. यह वही दौर था जब वीरपुर का केला काठमांडू तक अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा था. इलाके के किसानों के बीच केला आर्थिक क्रांति लेकर आया और समृद्धि की नयी इबारत लिखी गयी.
अगाती सब्जी खेती के लिए भिखारी ने 1986 में रतनपुरा का रुख किया. 1992 तक यहां सब्जी की खेती की तो पूरे इलाके में सब्जी खेती का दौर चल पड़ा. वर्ष 1992 में सब्जी की खेती के साथ-साथ केले की खेती का श्रीगणोश किया गया. फिर 1997 में वीरपुर की ओर प्रस्थान किया, जहां रानीपट्टी में केला और सब्जी की खेती वृहद स्तर पर आरंभ किया. वर्ष 2004 का ऐसा भी दौर आया जब भिखारी 40 एकड़ में केला और 20 एकड़ में सब्जी उपजा रहे थे. भिखारी के नक्शे कदम पर चलते हुए पूरे इलाके में किसानों ने वृहद् पैमाने पर केले की खेती आरंभ कर दी. यह वही दौर था जब वीरपुर का केला काठमांडू तक अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा था. इलाके के किसानों के बीच केला आर्थिक क्रांति लेकर आया और समृद्धि की नयी इबारत लिखी गयी.
2004 का तूफान टर्निग प्वाइंट
भिखारी जब केला के माध्यम से समृद्धि की राह चल पड़ा तो वर्ष 2004 अगस्त में आया भीषण तूफान उसकी जिंदगी का टर्निग प्वाइंट साबित हुआ. पलक झपकते ही केला की खेती पूरी तरह बर्बाद हो गयी और एक दिन में लखपती भिखारी सचमुच भिखारी बन गया. बावजूद उसने परिस्थितियों से हार नहीं मानी. विकल्प की तलाश करता हुआ औषधीय खेती की ओर आकर्षित हुआ. वर्ष 2005 में भागलपुर और इंदौर में औषधीय एवं सुगंधित पौधे के उत्पादन की ट्रेनिंग ली और मेंथा तथा लेमनग्रास से इसकी शुरुआत की. रानीगंज स्थित कृषि फॉर्म में भोपाल से लाये केंचुए की मदद से वर्मी कंपोस्ट उत्पादन की नींव डाली. इस प्रकार एक बार फिर भिखारी की गाड़ी चल पड़ी.
भिखारी जब केला के माध्यम से समृद्धि की राह चल पड़ा तो वर्ष 2004 अगस्त में आया भीषण तूफान उसकी जिंदगी का टर्निग प्वाइंट साबित हुआ. पलक झपकते ही केला की खेती पूरी तरह बर्बाद हो गयी और एक दिन में लखपती भिखारी सचमुच भिखारी बन गया. बावजूद उसने परिस्थितियों से हार नहीं मानी. विकल्प की तलाश करता हुआ औषधीय खेती की ओर आकर्षित हुआ. वर्ष 2005 में भागलपुर और इंदौर में औषधीय एवं सुगंधित पौधे के उत्पादन की ट्रेनिंग ली और मेंथा तथा लेमनग्रास से इसकी शुरुआत की. रानीगंज स्थित कृषि फॉर्म में भोपाल से लाये केंचुए की मदद से वर्मी कंपोस्ट उत्पादन की नींव डाली. इस प्रकार एक बार फिर भिखारी की गाड़ी चल पड़ी.
कुसहा त्रसदी साबित हुआ अभिशाप
18 अगस्त 2008 की तारीख जो कोसी वासियों के जेहन में महाप्रलय के रूप में दर्ज है, भिखारी के लिए अभिशाप साबित हुई. हालांकि उसने अभिशाप को जज्बे के बल पर वरदान में बदल डाला. कोसी ने जब धारा बदली तो भिखारी का 20 एकड़ केला, 20 एकड़ सब्जी की खेती, 20 एकड़ लेमनग्रास, 20 एकड़ पाम रोज एवं अन्य औषधीय पौधे नेस्त-नाबूद हो गये. कंगाल हो चुके श्री मेहता को वापस अपने गांव लौटना पड़ा. लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और 2010 में पुन: वापस वीरपुर स्थित फॉर्म हाउस पहुंचे.
18 अगस्त 2008 की तारीख जो कोसी वासियों के जेहन में महाप्रलय के रूप में दर्ज है, भिखारी के लिए अभिशाप साबित हुई. हालांकि उसने अभिशाप को जज्बे के बल पर वरदान में बदल डाला. कोसी ने जब धारा बदली तो भिखारी का 20 एकड़ केला, 20 एकड़ सब्जी की खेती, 20 एकड़ लेमनग्रास, 20 एकड़ पाम रोज एवं अन्य औषधीय पौधे नेस्त-नाबूद हो गये. कंगाल हो चुके श्री मेहता को वापस अपने गांव लौटना पड़ा. लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और 2010 में पुन: वापस वीरपुर स्थित फॉर्म हाउस पहुंचे.
रेत पर लहलहायी लेमनग्रास और मेंथा
कोसी ने जिले के 83403 हेक्टेयर क्षेत्र में बालू की चादर बिछा दी. जिसमें बसंतपुर का हिस्सा 21858 हेक्टेयर था. ऐसे में इस रेत पर सुनहरे भविष्य की कल्पना आसान नहीं थी. लेकिन प्रयोगधर्मी भिखारी ने फिर से न केवल औषधीय पौधों की खेती आरंभ की बल्कि नर्सरी की भी शुरुआत कर दी. वर्ष 2012 में जब तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार श्री मेहता के फॉर्म पर पहुंचे तो 30 एकड़ में लहलहा रहे लेमनग्रास, खस, जावा स्योनेला, आइटोमिलिया, तुलसी, मेंथा को देख भौंचक्क रह गये और वर्मी कंपोस्ट इकाई से काफी प्रभावित हुए. आज श्री मेहता रेत पर ना केवल हरियाली के नायक बने हुए हैं बल्कि 3000 मैट्रिक टन सलाना वर्मी कंपोस्ट का उत्पादन कर रहे हैं. वर्मी कंपोस्ट की मांग को देखते हुए उत्पादन बढ़ाना चाहते हैं लेकिन संसाधन आड़े आ रही है.
कोसी ने जिले के 83403 हेक्टेयर क्षेत्र में बालू की चादर बिछा दी. जिसमें बसंतपुर का हिस्सा 21858 हेक्टेयर था. ऐसे में इस रेत पर सुनहरे भविष्य की कल्पना आसान नहीं थी. लेकिन प्रयोगधर्मी भिखारी ने फिर से न केवल औषधीय पौधों की खेती आरंभ की बल्कि नर्सरी की भी शुरुआत कर दी. वर्ष 2012 में जब तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार श्री मेहता के फॉर्म पर पहुंचे तो 30 एकड़ में लहलहा रहे लेमनग्रास, खस, जावा स्योनेला, आइटोमिलिया, तुलसी, मेंथा को देख भौंचक्क रह गये और वर्मी कंपोस्ट इकाई से काफी प्रभावित हुए. आज श्री मेहता रेत पर ना केवल हरियाली के नायक बने हुए हैं बल्कि 3000 मैट्रिक टन सलाना वर्मी कंपोस्ट का उत्पादन कर रहे हैं. वर्मी कंपोस्ट की मांग को देखते हुए उत्पादन बढ़ाना चाहते हैं लेकिन संसाधन आड़े आ रही है.
अब किसानों के बीच बांट रहे हरियाली
हरियाली मिशन से जुड़ कर श्री मेहता अब किसानों के बीच मुफ्त में इमारती और फलदार पेड़ बांट रहे हैं. उनका मानना है कि रेत से भरी जमीन में पेड़-पौधे के माध्यम से ही किसान समृद्धि पा सकते हैं. वे अपने सात एकड़ के फॉर्म हाउस को प्रशिक्षण केंद्र में तब्दील कर चुके हैं, जहां किसान वर्मी कंपोस्ट उत्पादन और औषधीय खेती के गुर सीखने पहुंचते हैं. कृषि के क्षेत्र में उनके समर्पण का ही परिणाम है कि उन्हें वर्ष 2006 में कोसी विभूति पुरस्कार और 2007 में किसान भूषण पुरस्कार से नवाजा जा चुका है. वर्ष 2014 में जीविका द्वारा भी उन्हें कृषि क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन के लिए पुरस्कृत किया गया. बकौल भिखारी मेहता ‘जमीन में असीम उर्जा होती है, तय आपको करना है कि कितनी दूर आप चलना चाहते हैं’.
हरियाली मिशन से जुड़ कर श्री मेहता अब किसानों के बीच मुफ्त में इमारती और फलदार पेड़ बांट रहे हैं. उनका मानना है कि रेत से भरी जमीन में पेड़-पौधे के माध्यम से ही किसान समृद्धि पा सकते हैं. वे अपने सात एकड़ के फॉर्म हाउस को प्रशिक्षण केंद्र में तब्दील कर चुके हैं, जहां किसान वर्मी कंपोस्ट उत्पादन और औषधीय खेती के गुर सीखने पहुंचते हैं. कृषि के क्षेत्र में उनके समर्पण का ही परिणाम है कि उन्हें वर्ष 2006 में कोसी विभूति पुरस्कार और 2007 में किसान भूषण पुरस्कार से नवाजा जा चुका है. वर्ष 2014 में जीविका द्वारा भी उन्हें कृषि क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन के लिए पुरस्कृत किया गया. बकौल भिखारी मेहता ‘जमीन में असीम उर्जा होती है, तय आपको करना है कि कितनी दूर आप चलना चाहते हैं’.
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